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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनम् -
राधा और सुदामा का परस्पर शाप - पार्वत्युवाच कथं सुदामशापं च सा च देवी ललाभ ह । कथं शशाप भृत्यो हि स्वाभीष्टदेवकामिनीम् ॥ १ ॥ पार्वती बोलीं--(हे भगवान्) उस देवो को सुदामा का शाप कैसे हो गया और उस सेवक ने अपनी अभीष्ट देवी को शाप कैसे दे दिया ? ॥ १ ॥ महादेव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् । गोप्यं सर्वपुराणेषु शुभदं भक्तिमुक्तिदम् ॥ २ ॥ महादेव बोले-हे देवि ! इस परमअद्भुत रहस्य को मैं बता रहा है, सुनो, जो सभी पुराणों में गोप्य शुभप्रद और भक्ति-मुक्ति का प्रदाता है ॥ २ ॥ एकदा राधिकेशश्च गोलोके रासमण्डले । शतशृङ्गाख्यगिर्येकदेशे वृन्दावने वने ॥ ३ ॥ गृहीत्वा विरजां गोपीं सुभाग्यां राधिकासमाम् । क्रीडां चकार भगवान् रत्नभूषणभूषितः ॥ ४ ॥ एक बार गोलोक के रास-मण्डल में, जो वृन्दावन नामक वन के सो शिखरों वाले पर्वत के एक प्रदेश में था, विरजा नामक गोपी का लेकर, जो अति भाग्यवता और राधा के समान थो, रत्नों के भूषणों से भूषित भगवान् रमण करने लगे ॥ ३-४ ॥ रत्नप्रदीपसंयुक्ते रत्ननिर्माणमण्डपे । अमूल्यरत्नखचितमञ्चके पुष्पतल्पके ॥ ५ ॥ कस्तूरीकुङ्कुमारक्ते सुचन्दनसुधूपिते । सुगन्धिमालतीमालासमूहपरिमण्डिते ॥ ६ ॥ सुरताद्विरतिर्नास्ति दम्पती रतिपण्डितौ । तौ द्वौ परस्परासक्तौ सुखसंभोगतन्द्रितौ ॥ ७ ॥ रत्नों के प्रदीपों से संयुक्त उस रत्न-निर्मित मण्डल में अमूल्य रत्नों से खचित पलंग पर पुष्पों को शय्या पर , जो कस्तूरी और कुंकुम से किचित् रक्त, उत्तम चन्दनों से सुवासित और सुगन्धित मालता पुष्पों की माला से चारों ओर सुशोभित हो रही थी, दोनों लिप थे । उन रतिपण्डित दम्पता (स्त्रीपुरुष) को सुरत से विराग नहीं हो रहा था । वे दोनों परस्पर जुटे सुख सम्भोग से क्लान्त हो रहे थे ॥ ५-७ ॥ मन्वन्तराणां लक्षश्च कालः परिमितो गतः । गोलोकस्य स्वल्पकाले जन्मादिरहितस्य च ॥ ८ ॥ इतने में एक लाख मन्वन्तर का समय व्यतीत हो गया, जो जन्मादि रहित गोलोक का अल्प समय होता है ॥ ८ ॥ दूत्यश्चतस्रो ज्ञात्वाथ जगदुस्तां तु राधिकाम् । श्रुत्वा परमरुष्टा सा तत्याज हरिमीश्वरी ॥ ९ ॥ तब चार दूतियों ने इसे जानकर राधाजा से कह दिया । उसे सुनते हो वह ईश्वरी अति रुष्ट हो गया और उसने भगवान् का त्याग कर दिया ॥ ९ ॥ प्रबोधिता च सखिभिः कोपरक्तास्यलोचना । विहाय रत्नालंकारं वह्निशुद्धाशुके शुभे ॥ १० ॥ क्रीडापद्मं च सद्रत्नामूल्यदर्पणमुज्ज्वलम् । निर्मार्जयामास सती सिन्दूरं चित्रपत्रकम् ॥ ११ ॥ प्रक्षाल्य तोयाञ्जलिभिर्मुखरागमलक्तम् । विस्रस्तकबरीभारा मुक्तकेशी प्रकम्पिता ॥ १२ ॥ कोप से उसके नेत्र लाल हो गये । सखियों के समझाने पर भी उसने रत्नों के आभूषणों, दोनों अग्नि-विशुद्ध वस्त्रों, क्रीडाकमल उत्तम रत्न के बने हुए अमूल्य एवं उज्ज्वलाकार दर्पण को त्याग दिया, सिन्दूर एवं चित्र-पत्र को मिट दिया और मुखराग तथा महावर को अञ्जलियों के जल से धो दिया । केशपाश (जूड़े) को खोलकर केशों को इधर-उधर अस्त-व्यस्त कर (फैला) दिया और कांपने लगी ॥ १०-१२ ॥ शुक्लवस्त्रपरीधाना रूक्षा वेषादिवर्जिता । ययौ यानान्तिकं तूर्णं प्रियालीभिर्निवारिता ॥ १३ ॥ आजुहाव सखीसंघं रोषविस्फुरिताधरा । शश्वत्कम्पान्विताङ्गी सा गोपीभिः परिवारिता ॥ १४ ॥ ताभिर्भक्त्या नताभिश्च कातराभिश्च संस्तुता । आरुरोह रथं दिव्यममूल्यं रत्ननिर्मितम् ॥ १५ ॥ फिर श्वेत वस्त्र पहनकर श्रृंगार रहित रूखा वेष कर लिया । प्रिय सखियों के मना करने पर भी उन लोगों का कहना न मान कर बड़ी शोघ्रता से यान (विमान) के पास पहुँच गया और वहीं से सभी सखो वृन्दो को बुलाने लगी । उस समय उसके अधरोष्ठ क्रोध से कांप रहे थे, सारा शरीर निरन्तर कांप रहा था और गोपियाँ उसके चारों ओर घेरे खड़ी थीं । भक्तिपूर्वक वे गोपियाँ कातर भाव से विनय-प्रार्थना कर रही थीं । किन्तु, कुछ मो ध्यान न देकर राधाजी उस अमूल्य दिव्य रथ पर जा बैठीं, जो रत्नों द्वारा निर्मित, एक रुहस्र योजन का लम्बा और दश योजन का चौड़ा था ॥ १३-१५ ॥ दशयोजनविस्तीर्णं दैर्ध्ये तच्छतयोजनम् । सहस्रचक्रयुक्तं च नानाचित्रसमन्वितम् ॥ १६ ॥ नानाविचित्रवसनैः सूक्ष्मैः क्षौमैर्विराजितम् । अमूल्यरत्ननिर्माणदर्पणैः परिशोभितम् ॥ १७ ॥ मणीन्द्रजालमालाभैः पुष्पमालासहस्रकैः । सद्रत्नकलशैर्युक्तं रम्येर्मन्दिरकोटिभिः ॥ १८ ॥ त्रिलक्षकोटिभिः सार्धं गोपीभिश्च प्रियालिभिः । ययौ रथेन तेनैव सुमनोमालिना प्रिये ॥ १९ ॥ श्रुत्वा कोलाहलं गोपः सुदामा कृष्णपार्षदः । कृष्णं कृत्वा सावधानं गोपैः सार्धं पलायितः ॥ २० ॥ भयेन कृष्णः संत्रस्तो विहाय विरजां सतीम् । स्वप्रेममग्नः कृष्णोऽपि तिरोधानं चकार सः ॥ २१ ॥ सा सती समयं ज्ञात्वा विचार्य स्वहृदि क्रुधा । राधाप्रकोपभीता च प्राणांस्तत्याज तत्क्षणम् ॥ २२ ॥ उसमें एक सहस्र चक्के तथा अनेक भांति के चित्र लगे थे । वह अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र और सूक्ष्म रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित, अमूल्य रत्नों के बने दर्पणों से (चारों ओर) सुशोभित, उत्तम मणिसमूहों को माला और सहस्रों पुष्पों का मालाओं से सुरचित एवं उत्तम रत्नों के बने रमणीक कलशों वाले करोड़ों मन्दिरों से युक्त था । उस पर साथ में तीन लाख करोड प्रिय गोपियाँ जा बैठीं । हे प्रिये ! उसी सुमनोमालि नामकः रथ पर बैठ कर उसने प्रस्थान कर दिया, जिसका कोलाहल सुनकर भगवान् श्री कृष्ण के पार्षद सुदामा ने गोपों के साथ दौड़ते हुए वहाँ पहुँचकर कृष्ण को सावधान कर दिया । अनन्तर भगवान् कृष्ण ने भयभीत होकर विरजा को (अपने पास से) पृथक् कर दिया और उसके प्रेम में मग्न होने के नाते स्वयं भी तिरोहित हो गये । सतो विरजा ने समय जान कर अपने हृदय में कोषपूर्ण विचार तो किया, किन्तु राधिका जो के महाकोप से भयभीत होकर वह संभल न सकी, उसी क्षण प्राण छोड़ दिया । ॥ १६-२२ ॥ विरजालिगणास्तत्र भयविह्वलकातराः । प्रययुः शरणं साध्वीं विरजां तत्क्षणं भिया ॥ २३ ॥ गोलोके सा सरिद्रूपा जाता वै शैलकन्यके । कोटियोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये शतगुणा तथा ॥ २४ ॥ गोलोकं वेष्टयामास परिखेव मनोहरा । बभूवुः क्षुद्रनद्यश्च तदाऽन्या गोप्य एव च ॥ २५ ॥ विरजा की सखियाँ भी भयाकुल एवं कातर भाव से उसी समय सतो विरजा को हो शरण गयीं । किन्तु हे शैलकन्यके ! वह (विरजा) गोलोक में नदी रूप धारण कर प्रवाहित हो गई । गोलोक में करोड़ योजन को चौड़ी और करोड़ योजन की लम्बी होकर वह मनोहर परिखा (खाई) को भांति उसे चारों ओर से घेरने लगी । हे सुन्दरि ! अन्य गोपियाँ, जो उसकी सखी थीं, छोटी-छोटी नदियाँ हो गयीं ॥ २३-२५ ॥ सर्वा नद्यस्तदंशाश्च प्रतिविश्वेषु सुन्दरि । इमे सप्त समुद्राश्च विरजानन्दना भुवि ॥ २६ ॥ प्रत्येक विश्व में प्रवाहित होने वाली समस्त नदियाँ उसो के हो अंश से उत्पन्न हैं ॥ २६ ॥ अथाऽऽगत्य महाभागा राधा रासेश्वरी परा । न दृष्ट्वा विरजां कृष्णं स्वगृहं च पुनर्ययौ ॥ २७ ॥ जगाम कृष्णस्तां राधां गोपालैरष्टभिः सह । गोपीभिर्द्वारि युक्ताभिर्वारितोऽपि पुनः पुनः ॥ २८ ॥ दृष्ट्वा कृष्णं च सा देवी भर्त्सयामास तं तदा । सुदामा भर्त्सयामास तां तथा कृष्णसंनिधौ ॥ २९ ॥ क्रुद्धा शशाप सा देवी सुदामानं सुरेश्वरी । गच्छ त्वमासुरीं योनिं गच्छ दूरमतो द्रुतम् ॥ ३० ॥ भूतल पर स्थित ये सातों समुद्र विरजा के ही नन्दन (पुत्र) हैं । अनन्तर महाभाग एवं रास को भधिष्ठात्री देवो राधिका जो वहाँ आकर विरजा और कृष्ण को न देखकर पुनः अपने भवन को लौट गयीं । पश्चात् भगवान् कृष्ण आठ गोपों के साथ राधिका जी के महल पहुँचे वहाँ दरवाजे पर द्वारपाल रूप में खड़ी रहने वाली गोपियों के बार-बार रोकने पर भी कृष्ण भीतर चले हो गये, किन्तु उन्हें देखते ही श्री राधिका जी डाँटनेफटकारने लगीं । उधर कृष्ण के साथ खड़े हुए सुदामा गोप ने भी राधा जी को कुछ कहा, जिससे क्रुद्ध होकर उस सूरेश्वरी ने सुदामा को शाप दिया कि-'यहाँ से दूर असुर योनि को शीघ्र प्राप्त हो' । ॥ २७-३० ॥ शशाप तां सुदामा च त्वमितो गच्छ भारतम् । भवगोपी गोपकन्या मुख्याभिः स्वाभिरेवच ॥ ३१ ॥ तत्र ते कृष्णविच्छेदो भविष्यति शतं समाः । तत्र भारावतरणं भगवांश्च करिष्यति ॥ ३२ ॥ सुदामा ने भी उन्हें शाप दिया--'तुम यहाँ से भारतभूमि पर जाओ और वहाँ अपनी सखियों समेत गोप कन्या होने पर तुम्हें कृष्ण का सौ वर्ष का वियोग प्राप्त होगा । वहाँ भगवान् अवतरित होकर पृथ्वी का भार उतारेंगे' ॥ ३१-३२ ॥ इति शप्त्वा सुदामाऽसौ प्रणम्य जननीं हरिम् । साश्रुनेत्रो मोहयुक्तस्ततो गन्तुं समुद्यतः ॥ ३३ ॥ इस प्रकार शाप देने के पश्चात् सुदामा, माता (राधिका) और भगवान् कृष्ण को प्रणाम कर मोहवश आँखों में आँसू भरकर जाने को तैयार हो गया ॥ ३३ ॥ राधा जगाम तत्पश्चात्साश्रुनेत्राऽतिविह्वला । वत्स क्व यासीत्युच्चार्य पुत्रविच्छेदकातरा ॥ ३४ ॥ उसके पोछे राधिका भी सजलनयन तथा अति व्याकुल होती हुई चलने लगीं । उस समय पुत्र-वियोग से कातर होकर 'हे वत्स ! कहाँ जा रहे हो । ' ऐसा कहने लगीं ॥ ३४ ॥ कृष्णस्तां बोधयामास विद्यया च कृपानिधिः । शीघ्रं संप्राप्स्यसि सुतं मा रुदस्त्वं वरानने ॥ ३५ ॥ अनन्तर भगवान् कृपानिधान कृष्ण ने विद्या द्वारा उन्हें सचेत किया और कहा-'हे वरानने ! रुदन मत करो ! तुम्हारा पुत्र तुम्हें शीघ्र मिलेगा ॥ ३५ ॥ स चासुरः शङ्खचूडो बभूव तुलसीपतिः । मच्छूलभिन्नकायेन गोलोकं वै जगाम सः ॥ ३६ ॥ वही शंखचूड़ नामक असुर होकर तुलसी का पति हुआ, जो हमारे शूल द्वारा शरीर त्यागकर पुनः गोलोक चला गया' ॥ ३६ ॥ राधा जगाम वाराहे गोकुलं भारतं सती । वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह ॥ ३७ ॥ अयोनिसंभवा देवी वायुगर्भा कलावती । सुषुवे मायया वायुं सा तत्राऽऽविर्बभूव ह ॥ ३८ ॥ वाराहकल्प में श्री राधिका जी भारत के गोकुल गाँव में वृषभानु वैश्य (गोप) के यहाँ उनकी कन्या होकर अवतरित हुई, जो अयोनिजा थीं । उनकी माता कलावती के गर्भ में केवल वायु स्थित था । जिस समय माया द्वारा वे वायु का जन्म दे रही थी उसी बीच वे वहाँ पुत्री होकर प्रकट हो गईं ॥ ३७-३८ ॥ अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्टा तां नवयौवनाम् । सार्धं रायणवैश्येन तत्संबन्धं चकार सः ॥ ३९ ॥ बारह वर्ष बीतने पर उनकी नयी युवावस्था देख कर किसी रायण नामक वैश्य के साथ विवाह सम्बन्ध कर दिया गया ॥ ३९ ॥ छायां संस्थाप्य तद्गेहे साऽन्तर्धानमवाप ह । बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह ॥ ४० ॥ विवाह के समय राधा जी अपने पिता के घर अपनी छाया रखकर, जिससे उस वैश्य का विवाह हुआ था, स्वयं अन्तहित हो गईं ॥ ४० ॥ गते चतुर्दशाब्दे तु कंसभीतेश्छलेन च । जगाम गोकुलं कृष्णः शिशुरूपी जगत्पतिः ॥ ४१ ॥ चौदह वर्ष व्यतीत होने पर जगत्पति कृष्ण, जो उस समय शिशु रूप में थे, कंस के भय से कपट द्वारा गोकुल गाँव लाये गये ॥ ४१ ॥ कृष्णमातुर्यशोदाया रायणस्तत्सहोदरः । गोलोके गोपकृष्णांशः संबन्धात्कृष्णमातुलः ॥ ४२ ॥ भगवान् कृष्ण की माता यशोदा का वह रायण सहोदर (सगा भाई) है, जो गोलोक में कृष्ण का अंश और यहाँ के सम्बन्ध से उनका मामा है ॥ ४२ ॥ कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने । विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः ॥ ४३ ॥ वृन्दावन नामक पवित्र वन में जगत् के रचयिता ब्रह्मा ने कृष्ण के साथ राधा का सविधि विवाह कराया था ॥ ४३ ॥ स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः । स्वयं राधा हरेः क्रोडे छाया रायणमन्दिरे ॥ ४४ ॥ जिस राधा के चरणकमल को गोपगण स्वप्न में भी नहीं देख सकते थे, वहीं स्वयं राधा भगवान् श्रीकृष्ण के अंक में स्थित थीं और उनकी छाया रायण के भवन में विराजमान थो ॥ ४४ ॥ षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः । राधिकाचरणाम्भोजदर्शनार्थो च पुष्करे ॥ ४५ ॥ भारावतरणे भूमेर्भारते नन्दगोकुले । ददर्श तत्पदाम्भोजं तपसस्तत्फलेन च ॥ ४६ ॥ पूर्वकाल में ब्रह्मा ने श्री राधिका जी के चरणकमल के दर्शनार्थ पुष्कर क्षेत्र में साठ सहस्र वर्ष तक त किया था । इस कारण पृथ्वी का भार उतारने के लिए हुए कृष्णावतार में नन्द गोकुल गाँव में उन्हें उस तपस्या के फलस्वरूप उनके चरणकमल का दर्शन हुआ ॥ ४५-४६ ॥ किंचित्कालं स वै कृष्णः पुण्ये वृन्दावने वने । रेमे गोलोकनाथश्च राधया सह भारते ॥ ४७ ॥ ततः सुदामशापेन विच्छेदश्च बभूव ह । तत्र भारावतरणं भूमेः कृष्णश्चकार सः ॥ ४८ ॥ भारत के पुण्य वृन्दावन में गोलोकाधीश्वर कृष्ण भगवान् ने राधा के साथ कुछ ही काल तक रमण किया । उसके उपरान्त सुदामा के शापवश उन दोनों का वियोग हो गया । उसी समय कृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारा ॥ ४७-४८ ॥ शताब्दे समतीते तु तीर्थयात्राप्रसङ्गतः । ददर्श कृष्णं सा राधा स च तां च परस्परम् ॥ ४९ ॥ सौ वर्ष व्यतीत होने के उपरान्त तीर्थ यात्रा के अवसर पर परस्पर राधा ने पुनः कृष्ण को देखा और कृष्ण ने राधा को ॥ ४९ ॥ ततो जगाम गोलोकं राधया सह न तत्त्ववित् । कलावती यशोदा च पर्यगाद्राधया सह ॥ ५० ॥ अनन्तर तत्त्ववेत्ता श्रीकृष्ण श्री राधिका जी को साथ लेकर अपने गोलोक चले गये और राधा के साथ उनकी माता कलावती तथा (कृष्ण माता) यशोदा भी चली गयीं ॥ ५० ॥ वृषभानुश्च नन्दश्च ययौ गोलोकमुत्तमम् । सर्वे गोपाश्च गोप्यश्च ययुस्ता याः समागताः ॥ ५१ ॥ उस परमोत्तम गोलोक में वृषभानु, नन्द तथा सभी गोपगोपियाँ जो वहाँ (गोलोक) से आयी थीं, चली गयीं ॥ ५१ ॥ छायागोपाश्च गोप्यश्च प्रापुर्मुक्ति च संनिधौ । रेमिरे ताश्च तत्रैव सार्धं कृष्णेन पार्वति ॥ ५२ ॥ षट्त्रिंशल्लक्षकोट्यश्च गोप्यो गोपाश्च तत्समाः । गोलोकं प्रययुर्मुक्ताः सार्धं कृष्णेन राधया ॥ ५३ ॥ हे पार्वती ! वहाँ साथ रहने के नाते छाया रूप में आये हुए गोप और गोपियों की मुक्ति हो गयी । वे (गोपियाँ) वहाँ (गोलोक में) भगवान् कृष्ण के साथ रमण करने लगीं । छत्तीस लाख करोड़ गोपियाँ और उतने ही गोपगण कृष्ण और राधा के साथ मुक्त होकर गोलोक गये थे ॥ ५२-५३ ॥ द्रोणः प्रजापतिर्नन्दो यशोदा तत्प्रिया धरा । संप्राप पूर्वतपसा परमात्मानमीश्वरम् ॥ ५४ ॥ उनमें से प्रजापति द्रोण नन्द हुए थे और उनकी पत्नी धरा यशोदा हुई थीं, उन्होंने अपनी पूर्व तपस्या द्वारा परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण को पुत्र रूप में प्राप्त किया था ॥ ५४ ॥ वसुदेवः कश्यपश्च देवकी चादितिः सती । देवमाता देवपिता प्रतिकल्पे स्वभावतः ॥ ५५ ॥ कश्यप जी वसुदेव हुए थे और उनकी पत्नी अदिति देवकी हुई थीं । प्रत्येक कल्प में देवों की माता और पिता स्वभावानुसार जन्मधारण किया करते हैं ॥ ५५ ॥ पितृणां मानसी कन्या राधामाता कलावती । वसुदामाऽपि गोलोकाद् वृषभानुः समाययौ ॥ ५६ ॥ पितरों की मानसी कन्या राधा की माता कलावती हुई थीं और गोलोक से आकर वसुदामा वृषभानु हुए थे ॥ ५६ ॥ इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् । संपत्करं पापहरं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ॥ ५७ ॥ हे दुर्गे ! इस प्रकार मैंने तुम्हें राधिका जी का परमोत्तम आख्यान सुना दिया, जो सम्पत्तिप्रद, पापहारी और पुत्र-पौत्र की अति वृद्धि करने वाला है ॥ ५७ ॥ श्रीकृष्णश्च द्विधारूपो द्विभुजश्च चतुर्भुजः । चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ॥ ५८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने दो भुजाओं वाला और चार भुजाओं वाला, दो रूप धारण किये जिसमें चार भुजाओं से वे वैकुण्ठ में रहते हैं और दोभुजाओं से स्वयं गोलोक में ॥ ५८ ॥ चतुर्भुजस्य पत्नी च महालक्ष्मीः सरस्वती । गङ्गा च तुलसी चैव देव्यो नारायणप्रियाः ॥ ५९ ॥ चार भुजा वाले भगवान् की महालक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी इतनी पत्नियां हैं और ये देवियाँ भगवान् को प्रिय हैं ॥ ५९ ॥ श्रीकृष्णपत्नी सा राधा तदर्धाङ्गसमुद्भवा । तेजसा वयसा साध्वी रूपेण च गुणेन च ॥ ६० ॥ और भगवान् श्री कृष्ण की पत्नी उनके आधे अंग से उत्पन्न होने वाली केवल सती राधिका जी हैं, जो तेज, अवस्था, रूप और गुण में उन्हीं के समान हैं ॥ ६० ॥ आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः । व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः ॥ ६१ ॥ इस कारण विद्वान् को चाहिये कि पहले राधा कहकर पश्चात् कृष्ण कहें अन्यथा व्यतिक्रम (उल्टा) होने पर ब्रह्महत्या का भागी होना पड़ता है इसमें संशय नहीं ॥ ६१ ॥ कार्तिके पूर्णिमायां च गोलोके रासमण्डले । चकार पूजां राधायास्तत्संबन्धिमहोत्सवम् ॥ ६२ ॥ कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन गोलोक के रासमण्डल में भगवान् श्रीकृष्ण ने राधाजी की पूजा और तत्सम्बन्धी महोत्सव किया ॥ ६२ ॥ सद्रत्नगुटिकायाश्च कृत्वा तत्कवचं हरिः । दधार कण्ठे बाहौ च दक्षिणे सह गोपकैः ॥ ६३ ॥ भगवान् ने उत्तम रत्नों की गुटिका (यंत्र की ताबीज) में राधा कवच रख कर गोपों के साथ अपने कण्ठ और दाहिनी भुजा में धारण किया ॥ ६३ ॥ कृत्वा ध्यानं च पूजां च स्तोत्रमेतच्चकार सः । राधाचर्वितताम्बूलं चखाद मधुसूदनः ॥ ६४ ॥ भक्तिपूर्वक ध्यान करते हुए उन्होंने उनके इस स्तोत्र का निर्माण किया । भगवान् मधुसूदन ने राधा जी का चबाया हुआ पान खाया ॥ ६४ ॥ राधा पूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्यो भगवान्प्रभुः । परस्पराभीष्टदेवे भेदकृन्नरकं व्रजेत् ॥ ६५ ॥ इस प्रकार राधा भगवान् कृष्ण की पूज्या हैं और राधा के श्रीकृष्ण । अतः परस्पर अभीष्ट देव में भेद बुद्धि रखनेवाला मनुष्य नरकगामी होता है ॥ ६५ ॥ द्वितीये पूजिता सा च धर्मेण ब्रह्मणा मया । अनन्तवासुकिभ्यां च रविणा शशिना पुरा ॥ ६६ ॥ महेन्द्रेण च रुद्रैश्च मनुना मानवेन च । सुरेन्द्रश्च मुनीन्द्रैश्च सर्वविश्वैश्च पूजिता ॥ ६७ ॥ पूर्वकाल में दूसरे उनकी पूजा धर्म, ब्रह्मा, मैंने, अनन्तनाग, वासुकी नाग, सूर्य और चन्द्रमा, महेन्द्र, ग्यारहों रुद्रगण, मानव मनु, सुरेन्द्रों और मुनीन्द्रों ने की, इस भाँति वे समस्त विश्व द्वारा पूजित हुई ॥ ६६-६७ ॥ तृतीये पूजिता सा च सप्तद्वीपेश्वरेण च । भारते च सुयत्नेन पुत्रैर्मित्रैर्मुदाऽऽन्वितैः ॥ ६८ ॥ तीसरे उनकी पूजा भारत के सप्तद्वीपाधीश्वर सुयज्ञ ने अपने पुत्रों और मित्रों समेत सहर्ष सम्पन्न किया ॥ ६८ ॥ ब्राह्मणेनाभिशप्तेन दैवदोषेण भूभृता । व्याधिग्रस्तेन हस्तेन दुःखिना च विदूयता ॥ ६९ ॥ संप्राप राज्यं भष्टश्रीः स च राधावरेण च । स्तोत्रेण ब्रह्मदत्तेन स्तुत्वा च परमेश्वरीम् ॥ ७० ॥ दैव (भाग्य) दोषवश राजा को ब्राह्मण द्वारा शाप हो गया, जिससे उनके हाथ में रोग उत्पन्न हो गया । उस रोगपीड़ित हाथ द्वारा दुःख का अनुभव करते हुए राजा ने ब्रह्मा के दिये हए स्तोत्र द्वारा परमेश्वरी राधा जी की आराधना की, जिससे उनके बरदान द्वारा उसे पुनः भ्रष्ट (नष्ट) राजलक्ष्मी प्राप्त हो गयी ॥ ६९-७० ॥ अभेद्यं कवचं तस्याः कण्ठे बाहौ दधार सः । ध्यात्वा चकार पूजां च पुष्करे शतवत्सरान् ॥ ७१ ॥ अन्ते जगाम गोलोकं रत्नयानेन भूमिपः । इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ७२ ॥ फिर राधा जी के अभेद्य कवच को अपने कण्ठ तथा बाहु में धारण कर पुष्कर क्षेत्र में सौ वर्ष तक ध्यानपूर्वक उनकी पूजा की और अन्त में वह राजा रत्नखचित विमान द्वारा गोलोक चला गया । इस प्रकार मैंने तुम्हें सभी कुछ सुना दिया है । अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ७१-७२ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे हरगौरिसंवादे राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारदनारायणसंवादविषयक हरगौर संवाद के राधोपाख्यान में राधा को सुदामा द्वारा शापादि कथन नामक उन्चासर्वां अध्याय समाप्त ॥ ४९ ॥ |