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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चाशत्तमोऽध्यायः


राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्यानम् -
सुयज्ञ की कथा -


पार्वत्युवाच
को वा सुयज्ञो नृपतिः कुत्र वंशे बभूव सः ।
कथं विप्राभिशप्तश्च कथं संप्राप राधिकाम् ॥ १ ॥
सर्वात्मनश्चकृष्णस्य पत्‍नीं श्रीकृष्णपूजिताम् ।
कथं विण्मूत्रधारी च सिषेवे परमेश्वरीम् ॥ २ ॥
पार्वती बोलीं-सुयज्ञ राजा कौन थे, वे किस वंश में उत्पन्न हुए थे एवं उन्हें ब्राह्मणशाप कैसे प्राप्त हुआ और उन्होंने राधिका जी को कैसे प्राप्त किया, जो समस्त के आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नी एवं उनके द्वारा पूजित हुई हैं । उस परमेश्वरी को सेवा उस विष्ठा-मूत्रधारी ने कैसे की ? ॥ १-२ ॥

पष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः ।
यत्पादाम्भोजरेणूनां लब्धये पुष्करे विभुः ॥ ३ ॥
कथं ददर्श तां देवीं महालक्ष्मीं पुरा सतीम् ।
दुर्दर्शामपि युष्माकं दृश्या साऽभूत्कथं नृणाम् ॥ ४ ॥
कथं त्रिजगतां धाता तस्मै तत्कवचं ददौ ।
ध्यानं पूजाविधिं स्तोत्रं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ५ ॥
जिसके चरणकमल की धूलि प्राप्त करने के लिए समर्थ ब्रह्मा ने पूर्वकाल में साठ सहस्र वर्ष तप किया था, उस महालक्ष्मी सती देवी को उसने कैसे देख लिया ? जो आप लोगों को भी अति कठिनाई से दिखायी देती हैं, उन्हें मनुष्य कैसे देख सका ? और तोनों लोकों के विधाता ने राधा जी का कवच, ध्यान, पूजा-विधान और स्तोत्र उसे कैसे दे दिया ? यह मुझे बताने की कृपा करें ॥ ३-५ ॥

महादेव उवाच
स्वायंभुवो मनुर्देवि मनूनामादिरेव च ।
ब्रह्मात्मजस्तपस्वी च शतरूपापतिः प्रभुः ॥ ६ ॥
श्री महादेव बोले--मनुवंश में सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु ने जन्म ग्रहण किया, जो ब्रह्मा के सुपुत्र, तपस्वी, समर्थ एवं शतरूपा के पति थे ॥ ६ ॥

उत्तानपादस्तत्पुत्रस्तत्पुत्रो ध्रुव एव च ।
ध्रुवस्य कीतिर्विख्याता त्रैलोक्ये शैलकन्यके ॥ ७ ॥
उत्कलस्तस्य पुत्रश्च नारायणपरायणः ।
सहस्रं राजसूयानां पुष्करे स चकार ह ॥ ८ ॥
उनके पुत्र राजा उत्तानपाद और उनके पुत्र ध्रुव हुए । हे शैलकन्यके ! ध्रुव की कीर्ति विख्यात है । उसका उत्कल नामक पुत्र भगवान् नारायण में सतत लीन रहा करता था । उन्होंने पुष्कर क्षेत्र में सहस्र राजसूय नामक यज्ञ सुसम्पन्न किया ॥ ७-८ ॥

सर्वाणि रत्‍नपात्राणि ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ।
अमूल्यरत्‍नराशीनां सहस्रं तेजसाऽऽवृतम् ॥
ब्राह्मणेभ्यो ददौ राजा यज्ञान्ते सुमहोत्सवे ॥ ९ ॥
उसमें उन्होंने ब्राह्मणों को समस्त रत्नों के पात्र और अमूल्य रत्नों को सहस्र राशियाँ, जो अत्यन्त प्रकाशपूर्ण (देदीप्यमान) थी, सहर्ष प्रदान की ॥ ९ ॥

दृष्ट्‍वा तच्छोभनं यज्ञं विधाता जगतां प्रिये ।
सुयज्ञं नाम नृपतिं चकार सुरसंसदि ॥ १० ॥
हे प्रिये ! उस महोत्सव में यज्ञ की समाप्ति के अवसर पर ब्राह्मणों को उस प्रकार का दान देते हुए राजा को तथा उसके सुशोभित यज्ञ को देखकर जगत् के विधाता ब्रह्मा ने देवसभा में उसका 'सुयज्ञ' नामकरण किया, जो मनुवंश में उत्पन्न हुआ था ॥ १० ॥

स च राजा सुयज्ञश्च मनुवंशसमुद्‌भवः ।
अन्नदाता रत्‍नदाता दाता वै सर्वसंपदाम् ॥ ११ ॥
दशलक्षं गवां चैव रत्‍नशृङ्‌गपरिच्छदम् ।
नित्यं ददौ स विप्रेभ्यो मुदा युक्तः सदक्षिणम् ॥ १२ ॥
गवां द्वादशलक्षाणां ददौ नित्यं मुदाऽन्वितः ।
सुपक्वानि च मांसानि ब्राह्मणेभ्यश्च पार्वति ॥ १३ ॥
वह नित्य अन्नदान, रत्नदान, समस्त सम्पत्ति का दान तथा लाख गौओं का दान, जिनकी सींगे रत्नों से सुशोभित रहती थीं, दक्षिणा समेत ब्राह्मणों को सहर्ष अर्पित करता था । बारह लाख गोदान नित्य सहर्ष सम्पन्न करता था । हे पार्वती ! पके मांस ब्राह्मणों को अर्पित करता था ॥ ११-१३ ॥

षट्कोटीर्ब्राह्मणानां च भोजयामास नित्यशः ।
चोष्यैश्चर्व्यैर्लेह्यपेयैरतितृप्तं दिने दिने ॥ १४ ॥
नित्य छह करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराता था जो चूसने, चबाने, स्वाद लेने और पीने योग्य पदार्थों से नित्य तृप्त होते थे । उसके यहाँ एक लाख ब्राह्मण भण्डारी भोजन करते थे ॥ १४ ॥

विप्रलक्षं सूपकारं भोजयामास तत्परम् ।
पूर्णमन्नं च सूपाक्तं सगव्यं मांसवर्जितम् ॥ १५ ॥
गौके घी, दूध और दही से अतिपूर्ण भोजन रहता था ॥ १५ ॥

विप्रा भोजनकाले च मनुवंशसमुद्‌भवम् ।
न तुष्टुवुः सुयज्ञं च तुष्टुवुस्तत्पितंश्च ते ॥ १६ ॥
दिने सुयज्ञयज्ञान्ते षट्त्रिंशल्लक्षकोटयः ।
चक्रुः सुभोजनं विप्राश्चातितृप्ताश्च सुन्दरि ॥ १७ ॥
गृहीतानि च रत्‍नानि स्वगृहं वोढुमक्षमाः ।
वृषलेभ्यो ददुः किंचित्किंचित्पथि च तत्यजुः ॥ १८ ॥
विप्राणां भोजनान्ते च विप्रान्येभ्यो ददौ नृपः ।
तथाप्युर्वरितं तत्र चान्नराशिसहस्रकम् ॥ १९ ॥
भोजन के समय ब्राह्मण लोग मनुवंश में उत्पन्न उस सुयज्ञ की प्रशंसा न करके उसके पितरों की प्रशंसा करते थे । यज्ञ की समाप्ति के दिन सुयज्ञ ने छत्तीस लाख करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराया । हे सुन्दरि ! उत्तम भोजन से तृप्त हुए उन ब्राह्मणों को इतना रत्न दान दिया, जो उसे अपने घर ले जाने में वे सभी असमर्थ हो गये-उनमें से कुछ लोगों ने शूद्रों को कुछ दे दिया और कुछ रास्ते में छोड़ दिया । उन ब्राह्मणों के अतिरिक्त और अन्य ब्राह्मणों को उसने भोजन कराया । तिस पर भी सहस्रों अन्न की राशियाँ अछूती पड़ी रह गई ॥ १६-१९ ॥

कृत्वा यज्ञं महाबाहुः समुवास स्वसंसदि ।
रत्‍नेन्द्रसारसंक्लृप्तच्छत्रकोटिसमन्विते ॥ २० ॥
रत्‍नसिंहासने रम्ये पट्टवस्त्रैः सुसंस्कृते ।
चन्दनादिसुसंसृष्टे रम्ये चन्दनपल्लवैः ॥ २१ ॥
शाखायुक्तैः पूर्णकुम्भै रम्भावृक्षैश्च शोभिते ।
चन्दनागुरुकस्तूरीघनसिन्दूरसंस्कृते ॥ २२ ॥
यज्ञ के उपरान्त उस महाबाहु ने अपनी सभा में उस रत्नसिंहासन के ऊपर, जो उत्तम रत्नों के सार भाग से विभूषित, कोटि छत्रों से युक्त, रमणीक, रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित, चन्दनों से आई (गोला), शाखा (डाली) युक्त चन्दन के पल्लवों, पूर्ण कलशों और केले के वृक्षों से सुशोभित एवं चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कपूर तथा सिन्दूर से विभूषित था, पदार्पण किया ॥ २०-२२ ॥

वसुवासवचन्द्रेन्द्ररुद्रादित्यसमन्विते ।
मुनिनारदमन्वादिब्रह्मविष्णुशिवान्विते ॥ २३ ॥
सिंहासन के समीप वसुगण, इन्द्र, चन्द्र, रुद्रगण और सूर्य तथा मुनि नारद, मनु आदि, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव विराजमान थे । उसी बीच वहाँ एक ब्राह्मण आया ॥ २३ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र विप्र एकः समाययौ ।
रूक्षो मलिनवासाश्च शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः ॥ २४ ॥
वह रूखा तथा मैले-कुचले वस्त्र पहने था । उसके कण्ठ, ओंठ और ताल सूख गये थे ॥ २४ ॥

रत्‍नसिंहासनस्थं च माल्यचन्दनचर्चितम् ।
राजानमाशिषं चक्रे सस्मितः संपुटाञ्जलिः ॥ २५ ॥
प्रणनाम नृपस्तं च नोत्तस्थौ किंचिदेव हि ।
सभासदश्च नोत्तस्थुर्जहसुः स्वल्पमेव च ॥ २६ ॥
उस रत्नसिंहासन पर विभूषित एवं मालाओं और चन्दनों से चर्चित राजा को उस ब्राह्मण ने हाथ जोड़ कर तथः मुरकराकर आशीर्वाद दिया, किन्तु राजा ने न उस ब्राह्मण को प्रणाम किया और न वह स्वागतार्थ आसन से कुछ उठा है । वहां के सभासद गण भी आसन से नहीं उठे, अपितु कुछ हास्य (मजाक) ही करने लगे ॥ २५-२६ ॥

मुनिभ्योऽपि च देवेभ्यो नमस्कृत्य द्विजोत्तमः ।
शशाप नृपतिं क्रोधात्तत्रातिष्ठन्निरङ्कुशः ॥ २७ ॥
गच्छ दूरमतो राज्याद्‌भ्रष्टश्रीर्भव पामर ।
भवाचिरं गलत्कुष्ठी बुद्धिहीनोऽप्युपद्रुतः ॥ २८ ॥
इत्युक्त्वा कम्पितः क्रोधात्सभास्थाञ्छप्तुमुद्यतः ।
ये तत्र जहसुः सर्वे समुत्तस्थुः सभासदः ॥ २९ ॥
सर्वे चक्रुः प्रणामं ते क्रोधं तत्याज वाडवः ॥ ३० ॥
वह श्रेष्ठ ब्राह्मण मुनियों और देवताओं को नमस्कार करने के अनन्तर क्रुद्ध होने के कारण वहाँ निर्भय खड़ा रहा और उसने राजा को शाप दे दिया-'हे पामर (नीच) ! तुम्हारी श्री नष्ट हो जाय, अतः राज्य से तुम दूर चले जाओ, तुम्हें शीघ्र गलत्कुष्ठ का रोग हो जाय, तुम बुद्धिरहित और उपद्रवी होगे, इतना कहकर क्रोध से काँपता हुआ वह ब्राह्मण सभासदों को भी शाप देने के लिए तैयार हो गया । अनन्तर जो जहाँ हँस रहे थे, वे सभी सभासद लोग वहां से उठकर उसे प्रणाम करने लगे । (यह देख) वह ब्राह्मण भी क्रोधरहित हो गया । २७-३० ॥

प्रणम्याऽऽगत्य राजा तं रुरोद भयकातरः ।
निःससार सभामध्याद्धृदयेन विदूयता ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणो गूढरूपी च प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ।
तत्पश्चान्मुनयः सर्वे प्रणयुर्भयकातराः ॥ ३२ ॥
हे विप्र तिष्ठ तिष्ठेति समुच्चार्य पुनः पुनः ।
पुलहश्च पुलस्त्यश्च प्रचेता भृगुरङ्‌गिराः ॥ ३३ ॥
मरीचिः कश्यपश्चैव वसिष्ठः क्रतुरेव च ।
शुक्रो बृहस्पतिश्चैव दुर्वासा लोमशस्तथा ॥ ३४ ॥
गौतमश्च कणादश्च कण्वः कात्यायनः कठः ।
पाणिनिर्जाजलिश्चैव ऋष्यशृङ्‌गो विभाण्डकः ॥ ३५ ॥
तैत्तिरिश्चाऽऽप्यापिशलिर्मार्कण्डेयो महातपाः ।
सनकश्च सनन्दश्च वोढुः पैलः सनातनः ॥ ३६ ॥
सनत्कुमारो भगवान्नरनारायणावृषो ।
पराशरो जरत्कारुः संवर्तः करभस्तथा ॥ ३७ ॥
भरद्वाजश्च वाल्मीकिरौर्वश्च च्यवनस्तथा ।
अगस्त्योऽत्रिरुतथ्यश्च सकर्ताऽऽस्तीक आसुरिः ॥ ३८ ॥
शिलालिर्लाङ्‌गलिश्चैव शाकल्यः शाकटायनः ।
गर्गो वत्सः पञ्चशिखो जमदग्निश्च देवलः ॥ ३९ ॥
जैगीषव्यो वामदेवो वालखिल्यादयस्तथा ।
शक्तिर्दक्षः कर्दमश्च प्रस्कन्नः कपिलस्तथा ॥ ४० ॥
विश्वामित्रश्च कौत्सश्चाप्यृचीकोप्यघमर्षणः ।
एते चान्ये च मुनयः पितरोऽग्निर्हरिप्रियाः ॥ ४१ ॥
दिक्पाला देवताः सर्वा विप्रं पश्चात्समाययुः ।
ब्राह्मणं बोधयामासुर्वासयामासुरीश्वरि ॥ ४२ ॥
समूचुस्तं क्रमेणैव नीतिं नीतिविशारदाः ॥ ४३ ॥
भय से कातर होकर राजा ने भी प्रणाम किया और वहाँ आकर रुदन करने लगा । उपरान्त हादिक वेदना का अनुभव करते हुए यह ब्राह्मण सभा-मध्य से निकल गया । उस ब्राह्मण का अतिगूढ़ रूप था क्योंकि ब्रह्मतेज से वह देदीप्यमान हो रहा था । उसके पश्चात् सभी मुनिगण भय से दुःखी होकर -हे ब्राह्मण ! टहरो-ठहरो ! ऐसा बार-बार कहते हुए उसके पीछेपोछे जाने लगे । पुलह, पुलस्त्य, प्रचेता, भरा, अंगिरा, मरीचि, कश्यप, वशिष्ठ, ऋतु, शुक्र, बृहस्पति, दुर्वासा, लोमश, गौतम, कणाद, कण्व, कात्यायन, कठ, पाणिनि, जाजलि, शृंगी ऋषि, विभाण्डक, तैत्तिरि, आपिशलि, महातपस्वी मार्कण्डेय, सनक, सनन्द, वोटु, पैल, सनातन, सनत्कुमार, भगवान् नर-नारायण ऋषि, पराशर, जरत्कारु, संवत्त, करम, भरद्वाज, वाल्माकि,और्व, च्यवन, अगस्त्य, अत्रि, उतथ्य, संकर्ता, आस्तीक, आसुरि, शिलालि, लांगलि, शाकल्य, शाकटायन, गर्ग, वत्स, पंचशिख, जमदग्नि, देवल, जैगीषव्य, वामदेव और बालखिल्यादि, शक्ति, दक्ष, कर्दमप्रस्कन्न, कपिल, विश्वामित्र, कौत्स, ऋचीक एवं अघमर्षण तथा इनके अतिरिक्त अन्य मुनिवृन्द, पितरगण, अग्नि, हरिप्रिया, दिक्पाल और सभी देवगण भी वहाँ आये । हे ईश्वरि ! वे सब, ब्राह्मण को रोककर समझाने लगे । वे नीतिकुशल लोग क्रमशः नीति की बात कहने लगे ॥ ३१-४३ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने
सुयज्ञोपाख्यानं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायणसंवादविषयक हरगौरी-संवाद के राघोपाख्यान में सुयज्ञोपाख्यान-कथन नामक पचासवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५० ॥

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