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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


राधोपाख्याने कर्मविपाकः -
ऋषियों द्वारा पाप एवं पाप-फल का वर्णन -


पार्वत्युवाच
किमुचुर्ब्राह्मणं ब्रह्मन्ब्राह्मणा ब्रह्मणः सुताः ।
नीतिज्ञा नीतिवचनं तन्मां व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
पार्वती बोलीं-हे ब्रह्मन् ! ब्रह्मा के पुत्र उन ब्राह्मणों ने, जो नीति के ज्ञाता थे, उस ब्राह्मण से कौनसी नीति की बातें कही थीं, मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥

महादेव उवाच
संतोष्य तं ब्राह्मणं च स्तवेन विनयेन च ।
क्रमेण वक्तुमारेभे मुनिसंघो वरानने ॥ २ ॥
महादेव बोले-हे वरानने ! उस मुनिवृन्द ने क्रमशः अनुनय-विनयपूर्वक उस ब्राह्मण को संतुष्ट करते हुए (नीति को बातें) कहना आरम्भ किया ॥ २ ॥

सनत्कुमार उवाच
त्वत्पश्चादागता लक्ष्मीः कीर्तिः सत्त्वं यशस्तथा ।
सुशीलच महैश्वर्यं पितरोऽग्निः सुरास्तथा ॥ ३ ॥
आगता नृपगेहेभ्यः कृत्वा भ्रष्टश्रियं नृपम् ।
भव तुष्टो द्विजश्रेष्ठ चाऽऽशुतोषश्चवाडवः ॥ ४ ॥
ब्राह्मणानां तु हृदयं कोमलं नवनीतवत् ।
शुद्धं सुनिर्मलं चैव मार्जितं तपसा मुने ॥ ५ ॥
सनत्कुमार बोल-तुम्हारे पीछे ही लक्ष्मी, कीर्ति, सत्त्व (बल), यश, सुशील, महान् ऐश्वर्य, पितरगण र अग्नि समेत सभी देवता लोग राजा को श्री (राजलक्ष्मी) हीन कर उसके घर से चले आये । हे द्विजश्रेष्ठ ! व प्रसन्न हो जाओ, क्योंकि ब्राह्मण आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होते हैं । हे मुने ! ब्राह्मणों का हृदय नवनीत (मक्खन) भाँति कोमल होता है और तप द्वारा मार्जन (सफाई) करने के नाते शुद्ध एवं अति निर्मल होता है ॥ ३-५ ॥

क्षमस्वाऽऽगच्छ विप्रेन्द्र शुद्धं कुरु नृपालयम् ।
आशिषं कुरु तस्मै त्वं पवित्रपदरेणुना ॥ ६ ॥
हे विप्रेन्द्र ! क्षमा करो और आकर राजा का घर चरणरेणू (धूलि) द्वारा शुद्ध करते हुए उसे आशीर्वाद प्रदान रो ॥ ६ ॥

भृगुरुवाच
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते ।
पितरस्तस्य देवाश्च वह्निश्चैव तथैव च ॥ ७ ॥
निराशाः प्रतिगच्छन्ति चातिथेरप्रतिग्रहात् ।
क्षमस्वाऽऽगच्छ विप्रेन्द्र शुद्धं कुरु नृपालयम् ॥ ८ ॥
स्त्रीघ्नैर्गोघ्नैः कृतघ्नैश्च ब्रह्मघ्नैर्गुरुतल्पगैः ।
तुल्यदोषो भवत्येतैर्यस्यातिथिरनर्चितः ॥ ९ ॥
भगु बोले-अतिथि (अभ्यागत) जिसके घर से निराश होकर लौट जाते हैं, उसके पितरगण, देवगण और ग्नि ये सभी उस अतिथि के प्रतिग्रह (दान-भिक्षा) न लेने के कारण उस घर से निराश होकर चले जाते हैं । तः हे विप्रेन्द्र ! क्षमा करो ! और चल कर राजा का घर शुद्ध करो, क्योंकि जिसके यहाँ अतिथि की पूजा नहीं तो है, उसे स्त्री हत्या, गोहत्या, कृतघ्नता, ब्रह्महत्या और गुरुपत्नीगामित्व के समान दोष लगता है ॥ ७-९ ॥

पुलस्त्य उवाच
पश्यन्ति ये वक्रदृष्ट्या चातिथिं गृहमागतम् ।
दत्त्वा स्वपापं तस्मै तत्पुण्यमादाय गच्छति ॥ १० ॥
पुलस्त्य बोले-घर आये हुए अभ्यागत को जो टेढी आँख से देखता है, वह अतिथि उसे अपना समस्त आप देकर और उसका पुण्य लेकर चला जाता है ॥ १० ॥

क्षमस्व नृपदोषं च गच्छ वत्स यथासुखम् ।
राजा स्वकर्मदोषेणनोत्तस्थौ तत्क्षमां कुरु ॥ ११ ॥
अतः हे वत्स ! राजा का यह दोष क्षमा करो, सुखपूर्वक जाओ, जो अपने कर्मदोषवश (स्वागतार्थ) नहीं उठ सके, उसे क्षमा करो ॥ ११ ॥

पुलह उवाच
राजश्रिया विद्यया वा ब्राह्मणं योऽवमन्यते ।
विप्रस्त्रिसंध्यहीनो यः श्रीहीनः क्षत्रियो भवेत् ॥ १२ ॥
एकादशीविहीनश्च विष्णुनैवेद्यवञ्चितः ।
क्षमस्वाऽऽगच्छ विप्रेन्द्र शुद्धं कुरु नृपालयम् ॥ १३ ॥
पुलह बोले--जो क्षत्रिय या ब्राह्मण राजलक्ष्मी अथवा विद्या द्वारा किसी ब्राह्मण का अनादर करता है, वह क्षत्रिय श्रीहीन होता और ब्राह्मण तीनों कालकी संध्या (कर्म) से हीन, एकादशीव्रतविहीन एवं भगवान् विष्णु के नैवेद्य से वञ्चित हो जाता है । अतः हे विप्रेन्द्र ! क्षमा करो, आओ राजा का घर पवित्र करो ॥ १२-१३ ॥

ऋतुरुवाच
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि वैश्यो वा शूद्र एव च ।
दीक्षाहीनो भवेत्सोऽपि ब्राह्मणं योऽवमन्यते ॥ १४ ॥
धनहीन पुत्रहीनो भार्याहीनो भवेद्ध्रुवम् ।
क्षमस्वाऽऽगच्छ भगवञ्छुद्धं कुरु नृपालयम् ॥ १५ ॥
ऋतु बोले-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र, जो कोई ब्राह्मण का अपमान करता है, वह दीक्षाहीन, धनरहित, पुत्रहीन और निश्चित स्त्रीहीन हो जाता है । अतः हे भगवन् ! क्षमा करो और चलकर राजा का गृह शुद्ध करो । ॥ १४-१५ ॥

अङ्‌गिरा उवाच
ज्ञानवान्ब्राह्मणो भूत्वा ब्राह्मणं योऽवमन्यते ।
वृषवाहो भवेत्सोऽपि भारते सप्तजन्मसु ॥ १६ ॥
अंगिरा बोले-ब्राह्मण ज्ञानी होकर यदि किसी ब्राह्मण का अपमान करता है, वह भारत में सात जन्मों तक 'वषवाह' (बैल द्वारा किसी भाँति जीविका चलाने वाला) होता है ॥ १६ ॥

मरीचिरुवाच
पुण्यक्षेत्रे भारते च देवं च ब्राह्मणं गुरुम् ।
विष्णुभक्तिविहीनश्च स भवेद्योऽवमन्यते ॥ १७ ॥
मरीचि बोले-इस पुण्य प्रदेश भारत में जो देवता, ब्राह्मण तथा गुरु का अपमान करता है, वह भगवान् विष्णु की भक्ति से सदा रहित हो जाता है ॥ १७ ॥

कश्यप उवाच
वैष्णवं ब्राह्मणं दृष्ट्‍वा यो हसत्यवमन्यते ।
विष्णुमन्त्रविहीनश्च तत्पूजाविरतो भवेत् ॥ १८ ॥
कश्यप बोले-जो वैष्णव ब्राह्मण को देखकर हँसता है और उसका अपमान करता है वह भगवान् विष्णु के मन्त्र और उनकी पूजा से विरत हो जाता है ॥ १८ ॥

प्रचेता उवाच
अतिथिं ब्राह्मणं दृष्ट्‍वा नाभ्युत्थानं करोति यः ।
पितृमातृभक्तिहीनः स भवेद्‌भारते भुवि ॥ १९ ॥
प्रचेता बोले- ब्राह्मण अभ्यागत को देखकर जो (आसन से) उठता नहीं है, वह भारत-भूतल पर माता-पिता की भक्ति से विहीन होता है ॥ १९ ॥

प्राप्नोति कौञ्जरीं योनिं स मूढः सप्तजन्मसु ।
शीघ्रं गच्छ द्विजश्रेष्ठ राज्ञे देह्याशिषः शुभाः ॥ २० ॥
और वह मूर्ख सात जन्मों तक हाथी की योनि में उत्पन्न होता है । हे द्विजश्रेष्ठ ! शीघ्र चलकर राजा को शुभाशिष प्रदान करो ॥ २० ॥

दुर्वासा उवाच
गुरुं वा ब्राह्मणं वाऽपि देवताप्रतिमामपि ।
दृष्ट्‍वा शीघ्रं न प्रणमेत्स भवेत्सूकरो भुवि ॥ २१ ॥
मिथ्यासाक्षी च भवति तथा विश्वासघातकः ।
क्षमस्व सर्वमस्माकमातिथ्यग्रहणं कुरु ॥ २२ ॥
दुर्वासा बोले-गुरु, ब्राह्मण और देवता की प्रतिमा देखकर जो सहसा प्रणाम नहीं करता है, वह पृथिवी पर सूकर होकर उत्पन्न होता है, तथा झूठा गवाह और विश्वासघाती होता है । अतः हम लोगों का सब (अपराध) क्षमा करके (राजा द्वारा की गयी) अतिथि-सेवा स्वीकार करो ॥ २१-२२ ॥

राजोवाच
छलेन कथितो धर्मो युष्माभिर्मुनिपुंगवैः ।
सर्वं कृत्वा च विस्पष्टं मां मूढं बोधयन्त्वहो ॥ २३ ॥
राजा बोले-आप मुनीन्द्रों ने धर्म का प्रतिपादन छल से किया है, अतः अत्यन्त स्पष्ट रूप से मुझ मूर्ख को बोध कराने की कृपा कीजिये ॥ २३ ॥

स्त्रीघ्नगोघ्नकृतघ्नानां गुरुस्त्रीगामिनां तथा ।
ब्रह्मघ्नानां च को दोषो ब्रूत मां योगिनां वराः ॥ २४ ॥
हे श्रेष्ठ योगिवन्द ! स्त्रीहत्या एवं गोहत्या करने वाले, कृतघ्न, गुरु-स्त्री के साथ भोग करने वाले और ब्राह्मण की हत्या करने वाले को कौन दोष होता है, मुझे बताने की कृपा करें ॥ २४ ॥

वसिष्ठ उवाच
कामतो गोवधे राजन्वर्षं तीर्थं भ्रमेन्नरः ।
यवयावकभोजी च करेण च जलं पिबेत् ॥ २५ ॥
वसिष्ठ बोले-हे राजन् ! गोवध की इच्छा रख कर जो गोहत्या करता है, उस मनुष्यको एक वर्ष तीर्थाटन करना चाहिए और यव की लप्सी का भोजन करते हुए हाथ से जल पीना चाहिए ॥ २५ ॥

तदा धेनुशतं दिव्यं ब्राह्मणेभ्यः सदक्षिणम् ।
दत्त्वा मुञ्चति पापाच्च भोजयित्वा शतं द्विजान् ॥ २६ ॥
पश्चात्दक्षिणा समेत सौ उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को समर्पित करके सौ ब्राह्मणों को भोजन कराये, इससे वह पापमुक्त हो जाता है ॥ २६ ॥

प्रायश्चित्ते तु वै चीर्णे सर्वपापान्न मुच्यते ।
पापावशेषाद्‌भवति दुःखी चाण्डाल एव च ॥ २७ ॥
किन्तु, प्रायश्चित्त करने पर भी वह समस्त पापों से मुक्त नहीं होता है और इसी कारण उसे दुःखी और चाण्डाल होना पड़ता है ॥ २७ ॥

आतिदेशिकहत्यायां तदधं फलमश्नुते ।
प्रायश्चित्तानुकल्पेन सर्वपापान्न मुच्यते ॥ २८ ॥
यदि किसी के कहने से वह हत्या करता है, तो उसे आधे फल का भागी होना पड़ता है और वह भी प्रायश्चित्त करने से समस्त पापों से मुक्त नहीं होता है ॥ २८ ॥

शुक्र उवाच
गोहत्याद्विगुणं पापं स्त्रीहत्यायां भवेद्ध्रुवम् ।
षष्टिवर्षसहस्राणि कालसूत्रे वसेद्ध्रुवम् ॥ २९ ॥
शुक्र बोले-गोहत्या से दुगुना पाप स्त्रीहत्या में होता है, जिससे उसे कालसूत्र नामक नरक में साठ सहस्र वर्ष तक निश्चित ही रहना पड़ता है ॥ २९ ॥

ततो भवेन्महापापी सूकरः सप्तजन्मसु ।
ततो भवति सर्पश्च सप्तजन्मन्यतः शुचिः ॥ ३० ॥
पश्चात् वह महापापी सात जन्मों तक सूकर और उसके पश्चात् सात जन्मों तक सर्प होता है, अनन्तर शुद्ध हो जाता है ॥ ३० ॥

बृहस्पतिरुवाच
स्त्रीहत्याद्विगुणं पापं ब्रह्महत्याकृतो भवेत् ।
लक्षवर्षं महाघोरे कुम्भीपाके वसेद्ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
बहस्पति बोले-स्त्री हत्या का दुगुना पाप ब्रह्महत्या करने से होता है, जिससे उसे लाख वर्ष तक महाघोर कुम्भीपाक नरक में निश्चित रूप से रहना पड़ता है । ३१ ॥

ततो भवेन्महापापी विष्ठाकीटः शताब्दकम् ।
ततो भवति सर्पश्च सप्तजन्मन्यतः शुचिः ॥ ३२ ॥
अनन्तर वह महापापी सौ वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा और सात जन्मों तक सर्प होता है, पश्चात् शुद्ध हो जाता है ॥ ३२ ॥

गौतम उवाच
दोषः कृतघ्ने राजेन्द्र ब्रह्महत्याचतुर्गुणः ।
निष्कृतिर्नास्ति वेदोक्ता कृतघ्नानां च निश्चितम् ॥ ३३ ॥
गौतम बोले-हे राजेन्द्र ! कृतघ्न को ब्रह्महत्या से चौगुना पाप लगता है और यह निश्चित है कि वेदों में कृतघ्नों का उद्धार नहीं बताया गया है ॥ ३३ ॥

राजोवाच
लक्षणं च कृतघ्नानां वद वेदविदां वर ।
कृतघ्नः कतिधा प्रोक्तः केषु को दोष एव च ॥ ३४ ॥
राजा बोले-हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! कृतघ्नों का लक्षण, उसका भेद और किसे कौन दोष होता है, बताने की कृपा करें ॥ ३४ ॥

ऋष्यशृङ्‌गः उवाच
कृतघ्नाः षोडशविधाः सामवेदे निरूपिताः ।
सर्वः प्रत्येकदोषेण प्रत्येकं फलमश्नुते ॥ ३५ ॥
ऋष्यशृंग बोले-सामवेद में सोलह प्रकार के कृतघ्न बताये गये हैं, सबको प्रत्येक दोष का प्रत्येक फल भोगना पड़ता है । ॥ ३५ ॥

कृते सत्ये च पुण्ये च स्वधर्मे तपसि स्थिते ।
प्रतिज्ञायां च दाने च स्वगोष्ठीपरिपालने ॥ ३६ ॥
गुरुकृत्ये देवकृत्ये काम्यकृत्ये द्विजार्चने ।
नित्यकृत्ये च विश्वासे परधर्मप्रदानयोः ॥ ३७ ॥
एतान्यो हन्ति पापिष्ठः स कृतघ्न इति स्मृतः ।
एतेषां सन्ति लोकाश्च तज्जन्म भिन्नयोनिषु ॥ ३८ ॥
उपकार, सत्य, पुण्य कार्य, अपने धर्म एवं तपस्या में लगे रहने, प्रतिज्ञा, दान और अपनी गोष्ठी (संख्या) का पालन करने में तथा गुरु कार्य, देवकार्य, काम्यकर्म, ब्राह्मण-पूजन, नित्य कर्म, के विश्वास, परधर्म और प्रदान कर्म में जो पापिष्ठ बाधक होता है, वही कृतघ्न कहा गया है । इन पापियों के पृथक्-पृथक् लोक हैं और भिन्न-भिन्न योनियों में इनके जन्म होते हैं । ॥ ३६-३८ ॥

यान्यांश्च नरकांस्ते च यान्ति राजेन्द्र पापिनः ।
ते ते च नरकाः सन्ति यमलोके सुनिश्चितम् ॥ ३९ ॥
हे राजेन्द्र ! ये पापी जिनजिन नरकों में जाते हैं, वे यमलोक में निश्चित रूप से विद्यमान हैं ॥ ३९ ॥

सुयज्ञ उवाच
के किं कृत्वा कृतघ्नाश्च कान्कान्गच्छन्ति रौरवान् ।
प्रत्येकं श्रोतुमिच्छामि वक्तुमर्हसि मे प्रभो ॥ ४० ॥
सुयज्ञ बोले-हे प्रभो ! वे (मनुष्य) क्या-क्या करके कृतघ्न होते हैं और किस-किस रौरव नरक में जाते हैं, मुझे प्रत्येक को सुनने की इच्छा है, अत: बताने की कृपा करें ॥ ४० ॥

कात्यायन उवाच
कृत्वा शपथरूपं च सत्यं हन्ति न पालयेत् ।
स कृतघ्नः कालसूत्रे वसेदेव चतुर्युगम् ॥ ४१ ॥
कात्यायन बोले-शपथ (सौगन्ध)करके सत्य का पालन न कर जो उसका हनन करता है, वह कृतघ्न चार युगों तक कालसूत्र नामक नरक में निश्चित रहता है ॥ ४१ ॥

सप्तजन्मसु काकश्च सप्तजन्मसु पेचकः ।
ततः शूद्रो महाव्याधिः सप्तजन्मस्वतः शुचिः ॥ ४२ ॥
अनन्तर सात जन्मों तक कौवा, सात जन्मों तक उल्लू पक्षी और सात जन्मों तक महारोगी शूद्र होता है अनन्तर शुद्ध हो जाता है ॥ ४२ ॥

सनन्दन उवाच
पुण्यं कृत्वा वदत्येव कीर्तिवर्धनहेतुना ।
स कृतघ्नस्तप्तसूर्म्यां वसत्येव युगत्रयम् ॥ ४३ ॥
सनन्दन बोले-पुण्य करके जो अपनी कोर्ति बढ़ाने के हेतु उसे कहता है, वह कृतघ्न तप्तसूर्मी नामक नरक में तीन युग तक निवास करता है ॥ ४३ ॥

पञ्चजन्मसु मण्डूकस्त्रिषु जन्मसु कर्कटः ।
तदा मूको महाव्याधिर्दरिद्रश्च ततः शुचिः ॥ ४४ ॥
पश्चात् पांच जन्मों तक मेढक, तीन जन्मों तक केंकड़ा होकर गूंगा, महारोगी एवं दरिद्र मनुष्य होता है, अनन्तर शुद्ध होता है ॥ ४४ ॥

सनातन उवाच
स्वधर्मं हन्ति यो विप्रः संध्यात्रयविवर्जितः ।
अतर्पयंश्च यत्स्नाति विष्णुनैवेद्यवर्जितः ॥ ४५ ॥
विष्णुपूजाविष्णुभक्तिविष्णुमन्त्रविहीनकः ।
एकादशीविहीनः श्रीकृष्णजन्मदिने तथा ॥ ४६ ॥
शिवरात्रौ च यो भुडःक्ते श्रीरामनवमीदिने ।
पितृकृत्यादिहीनो यः स कृतघ्न इति स्मृतः ॥ ४७ ॥
सनातन बोले-जो ब्राह्मण तीनों काल के सन्ध्या कर्म से रहित होकर स्वधर्म का हनन करता है, बिना तर्पण का स्नान करता है, भगवान् विष्णु को बिना भोग लगाये भोजन करता है, विष्णु की पूजा, विष्णु की भक्ति, विष्णु के मन्त्र तथा एकादशी व्रत से हीन रहकर भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म दिन (भादों की कृष्णाष्टमी), शिवरात्रि और रामनवमी के दिन भोजन करता है एवं पितरों के कृत्य (कर्म) से हीन रहता है, वह 'कृतघ्न' कहा जाता है ॥ ४५-४७ ॥

कुम्भीपाके वसत्येव यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
ततश्चाण्डालतां याति सप्तजन्मसु निश्चितम् ॥ ४८ ॥
शतजन्मनि गृध्रश्च शतजन्मनि सूकरः ।
ततो भवेद्‌ब्राह्मणश्च शूद्राणां सूपकारकः ॥ ४९ ॥
ततो भवेज्जन्मसप्त ब्राह्मणो वृषवाहकः ।
शूद्राणां शवदाही च भवेत्सप्तसु जन्मसु ॥ ५० ॥
द्विजो भूत्वा सप्तजनौ भारते वृषलीपतिः ।
भुक्त्वा स्वभोगलेशं च भ्रमित्वा याति रौरवम् ॥ ५१ ॥
पुनः पुनः पापयोनिं नरकं च पुनः पुनः ।
ततो भवेद्‌गर्दभश्च मार्जारः पञ्चजन्मसु ॥ ५२ ॥
पञ्चजन्मसु मण्डूको भवेच्छुद्धस्ततः क्रमात् ॥ ५३ ॥
इन पापों से वह कुम्भीपाक नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक निवास करता है । पश्चात् निश्चित रूप से सात जन्मों तक चाण्डाल, सौ जन्मों तक गीध और सौजन्मों तक सूकर होने के उपरान्त शूद्रों का भण्डारी होता है । अनन्तर सात जन्मों तक वृषवाहक (बैल पर लादने का कार्यकारी), सात जन्मों तक शूद्रों के शव (मुर्दे) का दाह करने वाला, पुनः सात जन्मों तक भारत में वृषली (शूद्रा स्त्री) का पति ब्राह्मण होता है । इस भांति अपने भोग के लेशमात्र शेष रहने पर रौरव नरक का चक्कर काटते हुए पुनः पापयोनि में जन्म ग्रहण करता है और पश्चात् पुनः नरक प्राप्त करता है । उपरान्त पाँच जन्मों तक गधा, बिल्ली और पाँच जन्मों तक मेढक होकर अन्त में क्रमशः शुद्ध होता है ॥ ४८-५३ ॥

सुयज्ञ उवाच
शूद्राणां सूपकरणे शूद्राणां शवदाहने ।
शूद्रान्नभोजने वाऽपि शूद्रस्त्रीगमनेऽपि च ॥ ५४ ॥
ब्राह्मणानां च को दोषो वृषाणां वाहने तथा ।
एतान्सर्वान्समालोच्य ब्रूहि मां निश्चितं मुने ॥ ५५ ॥
सुयज्ञ बोले-मुने ! शूद्रों के भण्डारी होने, उनके शव (मुर्दे) के दाही बनने, शूद्रों के अन्न भोजन करने और उनको स्त्रियों से भोग करने पर तथा वृषवाहक होने पर ब्राह्मणों को कौन दोष लगता है, इन्हें विवेचनापूर्वक बताने की कृपा करें ॥ ५४-५५ ॥

पराशर उवाच
शूद्राणां सूपकारश्च यो विप्रो ज्ञान्दुर्बलः ।
असिपत्रे वसत्येव युगानामेकसप्ततिः ॥ ५६ ॥
पराशर बोले-ज्ञान की दुर्बलता के कारण जो ब्राह्मण शूद्रों का भण्डारी होता है, वह इकहत्तर युगों तक असिपत्र नामक नरक में रहता है ॥ ५६ ॥

ततो भवेद्‌गर्दभश्च मूषकः सप्तजन्मसु ।
तैलकीटः सप्तजन्मस्वतः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ५७ ॥
पश्चात् सात जन्मों तक गधा, चूहा और सात जन्मों तक तेल का कीड़ा होकर अन्त में वह शुद्ध हो जाता है ॥ ५७ ॥

जरत्कारुरुवाच
भृत्यद्वारा स्वयं वाऽपि यो विप्रो वृषवाहकः ।
स कृतघ्न इति ख्यातः प्रसिद्धो भारते नृप ॥ ५८ ॥
जरत्कारु बोले-हेनप ! जो ब्राह्मण भत्य (नौकर) द्वारा अथवा स्वयं वृषवाहक (बैलों द्वारा जोतने लादने) का कार्य करता है, वह भारत में 'कृतघ्न' रूप में प्रख्यात होता है । ५८ ॥

ब्रह्महत्यासमं पापं तन्नित्यं वृषताडने ।
वृषपृष्ठे भारदानात्पापं तद्‌द्विगुणं भवेत् ॥ ५९ ॥
बैलों को (उस कार्य में) नित्य मारने-पीटने से ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है और उनके ऊपर भार (बोझ) लादने से उसका दुगुना पाप होता है ॥ ५९ ॥

सूर्यातपे वाहयेद्यः क्षुधितं तृषितं वृषम् ।
ब्रह्महत्याशतं पापं लभते नात्र संशयः ॥ ६० ॥
इस प्रकार सूर्य के (प्रचण्ड) धूप में जो भूखे-प्यासे बैलों को अपने (जोतने-लादने के) काम में लगाये रहता है उसे सौ ब्रह्म-हत्या के समान पाप होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ६० ॥

अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं विप्राणां वृषवाहिनाम् ।
पितरो नैव गृह्णन्ति तेषां श्राद्धं च तर्पणम् ॥ ६१ ॥
देवता नहि गृह्णन्ति तेषां पुष्पं फलं जलम् ।
ददाति यदि दम्भेन विपाताय प्रकल्पते ॥ ६२ ॥
यो भुङ्क्ते कामतोऽन्नं च ब्राह्मणो वृषवाहिनाम् ।
नाधिकारो भवेत्तेषां पितृदेवार्चने नृप ॥ ६३ ॥
लालाकुण्डे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
विष्ठा भक्ष्यं मूत्रजलं तत्र तस्य भवेद्ध्रुवम् ॥ ६४ ॥
त्रिसंध्यं ताडयेत्तं च शूलेन यमकिंकरः ।
उल्कां ददाति मुखतः सूच्या कृन्तति संततम् ॥ ६५ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां च कृमिर्भवेत् ।
ततः काकः पञ्चजन्मस्वथैवं बक एव च ॥ ६६ ॥
पञ्चजन्मसु गृध्रश्च शृगालः सप्तजन्मसु ।
ततो दरिद्रः शूद्रश्च महाव्याधिस्ततः शुचिः ॥ ६७ ॥
हे नप ! उन वृषवाही (बैलों द्वारा जोतनेलादने के काम करने वाले) ब्राह्मणों का अन्न विष्ठा के समान और जल मूत्र के समान होता है तथा उनके श्राद्ध-तर्पण को पितर लोग ग्रहण नहीं करते हैं । देवता भी उनका फूल, फल एवं जल ग्रहण नहीं करते हैं । जो ब्राह्मण स्वेच्छा से वृषवाहकों का अन्न भोजन करता है, उसे पितृकार्य एवं देवकार्य (पूजादि) में अधिकार भी नहीं रहता है । (इस कारण) चंद्रमा और सूर्य के समय तक उसे लाला (लार) कुण्ड नरक में रहते हुए विष्ठा भोजन और मूत्र पान निश्चित ही करना पड़ता है । यमराज के सेवक शूल द्वारा तीनों संध्याओं में उसे ताड़ना देते हैं, मुख में जलती हुई लकड़ी डाल देते और सूई से शरीर में निरन्तर छेदते रहते हैं । पश्चात् साठ सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा, पाँच जन्मों तक कौवा और बगुला, पाँच जन्मों तक गीध और सात जन्मों तक सियार होता है । अनन्तर दरिद्र और महारोगी शूद्र होकर उसके पश्चात् शुद्ध होता है ॥ ६१-६७ ॥

भरद्वाज उवाच
शूद्राणां शवदाही यः स कृतघ्न इति स्मृतः ।
वयःप्रमाणा राजेन्द्र ब्रह्महत्यां लभेद्ध्रुवम् ।
तत्तुल्ययोनिभ्रमणात्तत्तुल्यनरकाच्छुचिः ॥ ६८ ॥
यो दोषो ब्राह्मणानां च शूद्राणां शवदाहने ।
तावदेव भवेद्‌दोषः शूद्रश्राद्धान्नभोजने ॥ ६९ ॥
भरद्वाज बोले-हे राजेन्द्र ! जो शूद्रों का शव (मुर्दा) दाह करता है, वह कृतघ्न कहा गया है । उसे (अपनी) अवस्थानुसार निश्चित ब्रह्महत्या लगती है । अनन्तर उसी के समान योनियों में भ्रमण करते हुए उसी के समान नरक कुण्डों में जाता है और अन्त में शुद्ध होता है । शूद्रों के शव (मुर्दे) जलाने के कार्य करने से ब्राह्मणों को जो दोष प्राप्त होता है, शूद्रों के श्राद्धान्न भोजन करने में भी वही दोष उन्हें लगता है ॥ ६८-६९ ॥

विभाण्डक उवाच
पितृश्राद्धे च शूद्राणां भुङ्‌क्ते यो ब्राह्मणोऽधमः ।
सुरापीतो ब्रह्मघाती पितृदेवार्चनाद्‌बहिः ॥ ७० ॥
विभाण्डक बोले-शद्रों के यहाँ पितृश्राद्ध में जो अधम ब्राह्मण भोजन करता है, वह मापायी और ब्रह्म-घाती के समान पितर एवं देवों की अर्चना कार्य से सदैव बाहर रहता है ॥ ७० ॥

मार्कण्डेय उवाच
यो दोषो ब्राह्मणानां च शूद्रस्त्रीगमने नृप ।
अहं वक्ष्यामि वेदोक्तं सावधानं निशामय ॥ ७१ ॥
कृतघ्नानां प्रधानश्च यो विप्रो वृषलीपतिः ।
कृमिदंष्ट्रे वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ७२ ॥
कृमिभक्ष्यो भवेद्विप्रो विद्धश्च यमकिंकरैः ।
प्रतिमायां तप्तलौह्यामाश्लेषयति नित्यशः ॥ ७३ ॥
ततश्च पुंश्चलीयोनौ कृमिर्भवति निश्चितम् ।
एवं वर्षसहस्रं च ततः शूद्रस्ततः शुचिः ॥ ७४ ॥
मार्कण्डेय बोले-हे नप ! शुद्र की स्त्री के साथ रति करने पर जो वेदोक्त दोष ब्राह्मणों को प्राप्त होता है, वह मैं बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो । जो (ब्राह्मण) वृषली (शूद्र स्त्री) का पति होता है, वह कृतघ्नों में प्रधान माना जाता है और चौदहों इन्द्रों के समय तक कृमिदंष्ट्र (कीड़े काटने के) नरक में रहता है । वहाँ उसे कीड़े (काट-काट कर) खाते हैं, (ऊपर से) यमदूत ताड़ना देकर दुःखी करते हैं और (उस स्त्री की) जलती हुई लोह-मूर्ति का उसे नित्य आलिंगन करना पड़ता है । पश्चात् पुंश्चली स्त्री के भग में कीड़ा होकर वह निश्चित उत्पन्न होता है । इस भाँति सहस्र वर्ष बीतने पर शूद्र होता है और पश्चात् शुद्ध हो जाता है ॥ ७१-७४ ॥

सुयज्ञ उवाच
अन्येषां च कृतघ्नानां वद कर्मफलं मुने ।
श्लाघ्यो मे ब्रह्मशापश्च कस्य संपद्विनाऽऽपदम् ॥ ७५ ॥
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं सफलं जीवनं मम ।
आगतास्तु यतो मुक्ता मद्‌गेहे मुनयः सुराः ॥ ७६ ॥
सयज्ञ बोले-हे मुने ! अन्य कृतघ्नों के कर्मफल बताने की कृपा करें ! हमें तो ब्रह्मशाप प्रशस्त मालूम हो रहा है । बिना आपत्ति के सम्पत्ति नहीं मिलती है । हम धन्य, कृतकृत्य हो गये, हमारा जीवन सफल हो गया; क्योंकि हमारे घर मुक्त मुनिवृन्द और देवगण पधारे हैं । ७५-७६ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे नृपमुनिसंवादे राधोपाख्याने
कर्मविपाको नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत राधोपाख्यान में कर्मविपाक-कथन नामक इक्यावनवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५१ ॥

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