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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्याने कर्मविपाकः -
राधोपाख्यान में सुयज्ञोपाख्यान-कर्मविपाक-कथन -


श्रीपार्वत्युवाच
अन्येषां च कृतघ्नानां यद्यत्कर्मफलं प्रभो ।
तेषां किमूचुर्मुनयो वेदवेदाङ्‌गपारगाः ॥ १ ॥
पार्वती बोलीं-हे प्रभो ! अन्य कृतघ्नों के कर्मफल के विषय में वेद-वेदांग के पारगामी मुनियों ने क्या कहा ? ॥ १ ॥

श्रीमहेश्वर उवाच
प्रश्नं कुर्वति राजेन्द्रे सर्वेषु मुनिषु प्रिये ।
तत्र प्रवक्तुमारेभे ऋषिर्नारायणो महान् ॥ २ ॥
महेश्वर बोले-हे प्रिये ! समस्त मुनियों से राजेन्द्र (सुयज्ञ) के प्रश्न करने पर महान् ऋषि नारायण ने कहना आरम्भ किया ॥ २ ॥

श्रीनारायण उवाच
स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेत्तु यः ।
स कृतघ्न इति ज्ञेयः फलं शृणु च भूमिप ॥ ३ ॥
यावन्तो रेणवः सिक्ता विप्राणां नेत्रबिदुभिः ।
तावद्वर्षसहस्रं च शूलपोते स तिष्ठति ॥ ४ ॥
तप्ताङ्‌गारं च तद्‌भक्ष्यं पानं वै तप्तमूत्रकम् ।
तप्ताङ्‌गारे च शयनं ताडितो यमकिंकरैः ॥ ५ ॥
नारायण बोले-हे भूमिप ! अपने द्वारा अथवा दूसरे द्वारा दी गयी ब्रह्म-वृत्ति (ब्राह्मण-जीविका) का जो अपहरण करता है, वह कृतघ्न कहा जाता है, उसका फल कह रहा हूँ, सुनो ! (उस समय) ब्राह्मण के आँसुओं से जितनी भूमि को धूलि भीग जाती है, उतने रेणु के सहस्र वर्ष प्रमाण वह शूलपोत नामक नरक में रहता है । वहाँ तप्त अंगारों का भक्षण, संतप्त मूत्रजलों का पान और तप्त अंगारों पर शयन करते हुए वह (ऊपर से) यमदूतों द्वारा ताड़ित होता रहता है ॥ ३-५ ॥

तदन्ते च महापापी विष्ठायां जायते कृमिः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि देवमानेन भारते ॥ ६ ॥
पश्चात् वह महापापी भारत में देवों के वर्षमान के हिसाब से साठ सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होकर उत्पन्न होता रहता है ॥ ६ ॥

ततो भवेद्‌भूमिहीनः प्रजाहीनश्च मानवः ।
दरिद्रः कृपणो रोगी शूद्रो निन्द्यस्ततः शुचिः ॥ ७ ॥
अनन्तर भूमिरहित, संतानहीन, दरिद्र, कृपण (कंजूस), रोगी और निन्दित शूद्र होकर शुद्ध होता है ॥ ७ ॥

नारद उवाच
हन्ति यः परकीर्तिं च स्वकीर्तिं वा नराधमः ।
स कृतघ्न इति ख्यातस्तत्फलं च निशामय ॥ ८ ॥
नारद बोले-जो अधम मनुष्य अपनी कीर्ति या दूसरे की कीर्ति को नष्ट करता है, वह कृतघ्न कहा गया है. उसका फल कह रहा हूँ, सुनो ॥ ८ ॥

अन्धकूपे वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
कीटैर्नकुलगृध्रैश्च भक्षितः सततं नृप ॥ ९ ॥
हे नुप ! चौदहों इन्द्रों के समय तक वह अन्धकूप नामक नरक में रहता है और उसे कीड़े, नेवला और गीध निरन्तर खाया करते हैं ॥ ९ ॥

तप्तक्षारोदकं पापी नित्यं पिबति वै ततः ।
सप्तजन्मस्वतः सर्पः काकः पञ्चस्वतः शुचिः ॥ १० ॥
वह पापी नित्य तप्त खारा जल पीता है । पश्चात् सात जन्मों तक सर्प और पाँच जन्मों तक कौवा होकर अनन्तर शुद्ध हो जाता है । ॥ १० ॥

देवल उवाच
ब्रह्मस्वं वा गुरुत्वं वा देवस्वं वाऽपि यो हरेत् ।
स कृतघ्न इति ज्ञेयो महापापी च भारते ॥ ११ ॥
देवल बोले-जो ब्राह्मण-धन, गुरु-धन, या देव-धन का अपहरण करता है, भारत में वह महापापी कृतघ्न कहा जाता है ॥ ११ ॥

अवटोदे वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
ततो भवेत्सुरापी स ततः शूद्रस्ततः शुचिः ॥ १२ ॥
चौदहों इन्द्रों के समय तक वह अवटोद (खाईं वाले) नरक में रहता है । पश्चात् मद्य पीने वाला और शूद्र होकर अन्त में शुद्ध हो जाता है ॥ १२ ॥

जैगीषव्य उवाच
पितृमातृगुरूंश्चापि भक्तिहीनो न पालयेत् ।
वाचाऽपि ताडयेत्तांश्च स कृतघ्न इति स्मृतः ॥ १३ ॥
वाचा च ताडयेन्नित्यं स्वामिनं कुलटा च या ।
सा कृतघ्नीति विख्याता भारते पापिनी वरा ॥ १४ ॥
वह्निकुऽण्डं महाघोरं तौ प्रयातः सुनिश्चितम् ।
तत्र वह्नौ वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ
ततो भवेज्जलौकाश्च सप्तजन्मस्वतः शुचिः ॥ १५ ॥
जैगोषव्य बोले-जो भक्तिरहित होकर माता, पिता और गुरु का पालन नहीं करता है और कड़वी बातों से उन्हें दुःखी करता है, वह 'कृतघ्न' कहा गया है । उसी भांति जो कुलटा (व्यभिचारिणी) स्त्री अपने पति को कड़वी बातों से दुःखी करती है, भारत में वह पापिनी प्रधान एवं विख्यात 'कृतघ्नी' कही जाती है । वे दोनों महाघोर अग्निकुण्ड नरक में निश्चित जाते हैं । वहाँ चन्द्रमा-सूर्य के समय तक रह कर पश्चात् सात जन्मों तक जलौका (जोंक) होकर अन्त में शुद्ध होते हैं ॥ १३-१५ ॥

वाल्मीकिरुवाच
यथा तरुषु वृक्षत्वं सर्वत्र न जहाति च ।
तथा कृतघ्नता राजत्सर्वपापेषु वर्तते ॥ १६ ॥
वाल्मीकि बोले-हे राजन ! वृक्षों में सर्वत्र वर्तमान वृक्षत्व धर्म की भांति कृतघ्नता भी सभी पापों में वर्तमान रहती है ॥ १६ ॥

मिथ्यासाक्ष्यं यो ददाति कामात्क्रोधात्तथा भयात् ।
सभायां पाक्षिकं वक्ति स कृतघ्न इति स्मृतः ॥ १७ ॥
जो काम, क्रोध अथवा भयवश झूठी गवाही या सभा में किसी का पक्ष लेकर कहता है वह कृतघ्न कहा जाता है ॥ १७ ॥

पुण्यमात्रं चापि राजन्यो हन्ति स कृतघ्नकः ।
सर्वत्रापि च सर्वेषां पुण्यहानौ कृतघ्नता ॥ १८ ॥
हे राजन् ! जो पुण्य मात्र का हनन करता है, वह कृतघ्न है । क्योंकि सभी जगह पुष्यों का नाश होने पर सभी को कृतघ्न होना पड़ता है ॥ १८ ॥

मिथ्यासाक्ष्यं पाक्षिकं वा भारते वक्ति यो नृप ।
यावदिन्द्रसहस्रं च सर्पकुण्डे वसेद्ध्रुवम् ॥ १९ ॥
हे नृप ! भारत में जो झूठी गवाही या किसी का पक्ष लेकर कहता है, वह सहस्र इन्द्रों के समय तक सर्प-कुण्ड में निश्चित रहता है ॥ १९ ॥

संततं वेष्टितः सर्पैर्भीतो वै भक्षितस्तथा ।
भुङ्‌क्ते च सर्पविण्मूत्रं यमदूतेन ताडितः ॥ २० ॥
उसकी देह में साँप निरन्त लिपटे रहते हैं और भयभीत होने पर उसे वे खा लेते हैं । इस प्रकार वह वहाँ रह कर सर्पो का विष्ठा और मूत्र खाता-पीता है तथा यमदूतों द्वारा ताड़ित होता है ॥ २० ॥

कृकलासो भवेत्तत्र भारते सप्तजन्मसु ।
सप्तजन्मसु मण्डूकः पितृभिः सप्तभिः सह ॥ २१ ॥
ततो भवेद्वै वृक्षश्च महारण्ये तु शाल्मलिः ।
ततो भवेन्नरो मूकस्ततः शूद्रस्ततः शुचिः ॥ २२ ॥
पश्चात् भारत में सात पुस्त समेत सात जन्मों तक गिरगिट और सात जन्मों तक मेढक होकर वह घोर महाजंगल में सेमर का वृक्ष होता है । अनन्तर गूंगा शूद्र होकर अन्त में शुद्ध हो जाता है ॥ २१-२२ ॥

आस्तीक उवाच
गुवङ्‌गनानां गमने मातृगामी भवेन्नरः ।
नराणां मातृगमने प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ २३ ॥
आस्तीक बोले-गुरुपत्नियों के साथ गमन (रति) करने पर मनुष्य मातृगामी (माता के साथ व्यभिचार) का दोषभागी होता है और माता के साथ गमन करने पर मनुष्यों को (उद्धार होने के लिए) कोई प्रायश्चित्त ही नहीं कहा गया है ॥ २३ ॥

भारते च नृपश्रेष्ठ यो दोषो मातृगामिनाम् ।
ब्राह्मणीगमने चैव शूद्राणां तावदेव हि ॥ २४ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! भारत में जो दोष मातृगमन में होता है, वही दोष शूद्रों को ब्राह्मणीगमन से होता है ॥ २४ ॥

ब्राह्मण्यास्तावदेव स्याद्‌दोषः शूद्रेण मैथुने ।
कन्यानां पुत्रपत्‍नीनां श्वश्रूणां गमने तथा ॥ २५ ॥
सगर्भभ्रातृपत्‍नीनां भगिनीनां तथैव च ।
दोषं वक्ष्यामि राजेन्द्र यदाह कमलोद्‌भवः ॥ २६ ॥
हे राजेन्द्र ! शूद्र के साथ मैथुन करने पर ब्राह्मणी को भी उतना ही दोष होता है तथा कन्या, पुत्र-वधू (पतोह), सास, भाइयों की गभिणी स्त्रियों और भगिनियों (बहनों) के साथ भोग करने पर होने वाले दोष को मैं बता रहा हूँ, जिसे ब्रह्मा ने बताया है ॥ २५-२६ ॥

यः करोति महापापी चैताभिः सह मैथुनम् ।
जीवन्मृतो भवेत्सोऽपि चण्डालोऽस्पृश्य एव च ॥ २७ ॥
जो महापापी इन स्त्रियों के साथ मैथुन करता है, वह जीवित रहते हुए मृतक और चाण्डाल की भाँति अस्पृश्य (न छुने योग्य) है ॥ २७ ॥

नाधिकारो भवेत्तस्य सूर्यमण्डलदर्शने ।
शालग्रामं तज्जलं च तुलस्याश्च दलं जलम् ॥ २८ ॥
सर्वतीर्थजलं चैव विप्रपादोदकं तथा ।
स्प्रष्टुं च नैव शक्नोति विट्तुल्यः पातकी नरः ॥ २९ ॥
उसे सूर्य-मण्डल के दर्शन का अधिकार नहीं रहता है । तथा शालग्राम एवं उसके जल, तुलसीदल और उसके जल, समस्त तीर्थों के जल एवं ब्राह्मणों के चरणोदक का स्पर्श वह नहीं कर सकता है, क्योंकि वह पातकी विष्ठा के समान होता है ॥ २८-२९ ॥

देवं गुरुं ब्राह्मणं च नमस्कर्तुं न चार्हति ।
विष्ठाधिकं तदन्नं च जलं मूत्राधिकं तथा ॥ ३० ॥
देवताः पितरो विप्रा नैव गृह्णन्ति भारते ।
भवेत्तदङ्‌गवातेन तीर्थमङ्‌गारवाहनम् ॥ ३१ ॥
और देव, गुरु तथा ब्राह्मण को नमस्कार करने योग्य भी नहीं रहता है । अतः भारत में देवता, पितर तथा ब्राह्मणगण विष्ठा से अधिक उसके अन्न और मूत्र से अधिक उसके जल को अशुद्ध मान कर उसका ग्रहण नहीं करते हैं । उसके अंग-स्पृष्ट वाय के स्पर्श होने से तीर्थ मानों अंगार बहने लगता है ॥ ३०-३१ ॥

सप्तरात्रं ह्यपवसेद्‌दैवस्पर्शात्तथा द्विजः ।
भाराक्रान्ता च पृथिवी तद्‌भारं वोढुमक्षमा ॥ ३२ ॥
दैववश उसका स्पर्श हो जाने पर ब्राह्मण को सात रात उपवास करना चाहिए, उसके भार से पृथ्वी दबी रहती है और उसका भार ढोने में अपनी असमर्थता प्रकट करती है ॥ ३२ ॥

तत्पापात्पतितो देशः कन्याविक्रयिणो यथा ।
तत्स्पर्शाच्च तदालापाच्छयनाश्रयभोजनात् ॥ ३३ ॥
नृणां च तत्समं पापं भवत्येव न संशयः ।
कुम्भीपाके वत्सेत्सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणः शतम् ॥ ३४ ॥
कन्या-विक्रेता की भांति उसके पातक से देश पतित हो जाता है और उसके स्पर्श, उसके साथ बातचीत, शयन, बैठने और भोजन करने से मनुष्यों को उसके समान ही पाप लगता है, इसमें संशय नहीं । पश्चात् सौ ब्रह्मा के समय तक कुम्भीपाक नरक में वह रहता है ॥ ३३-३४ ॥

दिवानिशं भ्रमेत्तत्र चक्रावर्तं निरन्तरम् ।
दग्धो वाऽग्निशिखाभिश्च यमदूतैश्च ताडितः ॥ ३५ ॥
चक्के की भाँति गोलाकार उसकी लहरों में रातदिन उसे भमण करना पड़ता है, अग्नि की ज्वालाओं से जलता रहता है और यमदूत ऊपर से ताड़ना देते हैं ॥ ३५ ॥

एवं नित्यं महापापी भुडःक्ते निरययातनाम् ।
विष्ठाहारश्च सर्वत्र कुम्भीपाकेऽथ पातितः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार वह महापापी नित्य नरकयातनाओं को भोगता है । कुम्भीपाक में गिरने पर सर्वत्र विष्ठा का ही आहार करना पड़ता है ॥ ३६ ॥

गते प्राकृतिके घोरे महति प्रलये तथा ।
पुनः सृष्टेः समारम्भे तद्विधो वा भवेत्पुनः ॥ ३७ ॥
प्राकृतिक घोर महाप्रलय के व्यतीत होने और सृष्टि के पुनः आरम्भ होने पर वह पूर्व की भांति ही रहता है । ॥ ३७ ॥

षष्टिवर्षसहस्राणि कृमिश्च पुंश्चलीभगे ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां च कृमिर्भवेत् ॥ ३८ ॥
ततो भवति चण्डालो भार्याहीनो नपुंसकः ।
सप्तजन्म गलत्कृष्ठी चाण्डालोऽस्पृश्य एव च ॥ ३९ ॥
ततस्तीर्थे भवेद्वृक्षः क्षुधितः सप्तजन्मसु ।
सप्तजन्मसु सर्पश्च भार्याहीनो नपुंसकः ॥ ४० ॥
सप्तजन्मसु शूद्रश्च गलत्कुष्ठी नपुंसकः ।
ततो भवेद्‌ब्राह्मणश्चाप्यन्धः कुष्ठी नपुंसकः ॥ ४१ ॥
लब्ध्वैवं सप्त जन्मानि महापापी भवेच्छुचिः ॥ ४२ ॥
उसे साठ हजार वर्ष तक पुंश्चली के भग का क्रीड़ा और उतने ही समय तक विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है । तदनन्तर वह चाण्डाल, पत्नीरहित तथा नपुंसक होता है, फिर सात जन्म गलत्कुष्ठी और अस्पृश्य चाण्डाल होता है, अनन्तर किसी तीर्थ में वृक्ष, सात जन्म भुक्खड़, सात जन्म साँप, पत्नीहीन और नपुंसक होता है । पुनः सात जन्मों तक शूद्र, गलत्कुष्ठ का रोगी और नपुंसक होकर अंधा, कुष्ठी एवं नपुंसक ब्राह्मण होता है । इस प्रकार सात जन्मों तक वह महापापी यातना भोगने के अनन्तर शुद्ध होता है ॥ ३८-४२ ॥

मुनय ऊचः
इत्येवं कथितं सर्वमस्माभिर्वो यथागमम् ।
एभिस्तुल्यो भवेद्‌दोषोऽप्यतिथीनां पराभवे ॥ ४३ ॥
प्रणामं कुरु विप्रेन्द्रं गृहं प्रापय निश्चितम् ।
संपूज्य ब्राह्मणं यत्‍नाद्‌गृहीत्वा ब्राह्मणाशिषम् ॥ ४४ ॥
वनं गच्छ महाराज तपस्यां कुरु सत्वरम् ।
ब्रह्मशापैर्विनिर्मुक्तः पुनरेवाऽऽगमिष्यसि ॥ ४५ ॥
इत्युक्त्वा मुनयः सर्वे ययुस्तूर्णं स्वमन्दिरम् ।
सुराश्चापि च राजानो बन्धुवर्गाश्च पार्वति ॥ ४६ ॥
मुनिवर बोले-इस भांति हम लोगों ने शास्त्रानुसार सब सुना दिया । इनके समान ही दोष अभ्यागत के अपमान करने पर होता है । अतः इस ब्राह्मणराज को प्रणाम करो और अपने गृह ले चलकर सप्रयत्न ब्राह्मण की पूजा करके आशिष ग्रहण करो । हे महाराज ! अनन्तर वन जाकर तपस्या करो, जिससे इस ब्रह्मशाप से मुक्त होकर पुनः यहाँ आगमन कर सको । हे पार्वती ! इतना कहकर वे मनि लोग शीघ्र अपने-अपने घर चले गये । पीछे देवगण, राजा लोग और बन्धुवर्ग भी चले गये ॥ ४३-४६ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने
सुयज्ञोपाख्याने कर्मविपाको नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत हर-गौरी-संवाद-विषयक राधोपाख्यान में सुयज्ञोपाख्यान-कर्मविपाक-कथन नामक बावनवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५२ ॥

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