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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्याने सुयज्ञं प्रत्यतिथ्युपदेशः -
राधोपाख्यान में सुयज्ञ के प्रति अतिथि-उपदेश-कथन - पार्वत्त्युवाच गतेषु मुनिसंघेषु श्रुत्वा कर्मफलं नृणाम् । किं चकार नृपश्रेष्ठो ब्रह्मशापेन विह्वलः ॥ १ ॥ अतिथिब्राह्मणो वाऽपि किं चकार तदा प्रभो । जगाम नृपगेहं वा न वा तद्वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥ पार्वती बोलीं-मुनियों के चले जाने पर ब्राह्मण-शाप से आकुल, श्रेष्ठ राजा ने मनुष्यों का कर्मफल सुनकर क्या किया ? हे प्रभो ! तब उस अभ्यागत ब्राह्मण ने क्या किया ? राजा के यहाँ वह गया या नहीं ? यह मुझे बताने की कृपा करें ॥ १-२ ॥ महेश्वर उवाच गतेषु मुनिसंघेषु चिन्ताग्रस्तो नराधिपः । प्रेरितश्च वसिष्ठेन धर्मिष्ठेन पुरोधसा ॥ ३ ॥ पपात दण्डवद्भूमौ पादयोर्ब्राह्मणस्य च । त्यक्त्वा मन्युं द्विजश्रेष्ठो ददौ तस्मै शुभाशिषम् ॥ ४ ॥ महेश्वर बोले-मुनि-समूहों के चले जाने पर चिन्दाग्रस्त राजा धार्मिक एवं पुरोहित वसिष्ठ जी द्वारा प्रेरित होकर ब्राह्मण के चरणों में दण्डे की भांति भूमि पर गिर पड़ा । अनन्तर उस ब्राह्मणश्रेष्ठ ने भी क्रोध त्याग कर उसे शुभाशिष प्रदान किया ॥ ३-४ ॥ सस्मितं ब्राह्मणं दृष्ट्वा त्यक्तमन्युं कृपामयम् । उवाच नृपतिश्रेष्ठः साश्रुनेत्रः कृताञ्जलिः ॥ ५ ॥ मन्द मुसुकान करते हुए ब्राह्मण को क्रोधरहित और कृपालु देख कर नपश्रेष्ठ ने हाथ जोडकर एवं आँखों में आँस भरे, उससे कहना आरम्भ किया ॥ ५ ॥ राजोवाच कुत्र वंशे भवाञ्जातः किं नाम भवतः प्रभो । किं नाम वा पितुर्ब्रूहि क्व वासः कथमागतः ॥ ६ ॥ विप्ररूपी स्वयं विष्णुर्गूढः कपटमानुषः । साक्षात्स मूर्तिमानग्निः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ ७ ॥ राजा बोले-हे प्रभो ! आप किस वंश में उत्पन्न हए हैं और आपका नाम क्या है, कहाँ निवास स्थान है एवं यहाँ कैसे आगमन हुआ है ? ब्राह्मण रूप में छिपे साक्षात् विष्णु ही आप हैं, जो छल से मनुष्य तथा ब्रह्म तेज से प्रज्वलित होने के नाते साक्षात् मूर्तिमान् अग्नि मालूम हो रहे हैं ॥ ६-७ ॥ को वा गुरुस्ते भगवन्निष्टदेवश्च भारते । तव वेषः कथमयं ज्ञानपूर्णस्य सांप्रतम् ॥ ८ ॥ गृहाण राज्यं निखिलमैश्वर्यं कोशमेव च । स्वभृत्यं कुरु मे पुत्रं मां च दासीं स्त्रियं मुने ॥ ९ ॥ हे भगवन् ! इस भारत में आप के गुरु और इष्टदेव कौन हैं ? आप ज्ञानपूर्ण हैं किन्तु आधुनिक वेष आपका ऐसा क्यों है ? हे मुने ! समस्त ऐश्वर्य और कोश समेत यह राज्य ग्रहण कीजिये । पुत्र समेत मुझे अपना सेवक बनाइये और स्त्री को दासी कीजिये ॥ ८-९ ॥ सप्तसागरसंयुक्तां सप्तद्वीपां वसुंधराम् । अष्टादशोपद्वीपाढ्यां सशैलवनशोभिताम् ॥ १० ॥ मया भृत्येन शाधि त्वं राजेन्द्रो भव भारते । रत्नेन्द्रसारखचिते तिष्ठ सिंहासने वरे ॥ ११ ॥ सातों सागर, सातों द्वीप, अट्ठारहों उपद्वीप एवं पर्वत-वन से विभूषित इस पृथिवी का मुझ भृत्य द्वारा शासन कीजिये और आप भारत में राजेन्द्र (महाराज) बन कर उत्तमरत्नों के सार माग से खचित परम श्रेष्ठ सिंहासन पर सुप्रतिष्ठित रहें ॥ १०-११ ॥ नृपस्य वचनं श्रुत्वा जहास मुनिपुंगवः । उवाच परमं तत्त्वमज्ञातं सर्वदुर्लभम् ॥ १२ ॥ राजा की ऐसी बातें सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ हंस पड़े । अनन्तर परमतत्त्व की बातें कहना आरम्भ किया, जो सभी से अज्ञात एवं सबको दुर्लभ थी ॥ १२ ॥ अतिथिरुवाच मरीचिर्ब्रह्मणः पुत्रस्तत्प्रुत्रः कश्यपः स्वयम् । कश्यपस्य सुताः सर्वे प्राप्ता देवत्वमीप्सितम् ॥ १३ ॥ अतिथि बोले ब्रह्मा के पुत्र मरीचि, मरीचि के कश्यप और कश्यप के सभी पुत्रों ने अभीप्सित देवत्व प्राप्त कर लिया है ॥ १३ ॥ तेषु त्वष्टा महाज्ञानी चकार परमं तपः । दिव्यं वर्षसहस्रं च पुष्करे दुष्करं तपः ॥ १४ ॥ सिषेवे ब्राह्मणार्थं च देवदेवं हरिं परम् । नारायणाद्वरं प्राप विप्रं तेजस्विनं सुतम् ॥ १५ ॥ उन्हीं में से महाज्ञानी त्वष्टा ने पुष्कर क्षेत्र में सहस्र दिव्य वर्ष तक दुष्कर (कठिन) तप किया । उन्होंने ब्राह्मणार्थ देवाधिदेव भगवान् की अति सेवा की, जिससे नारायण द्वारा 'तेजस्वी पुत्र होने' । का उन्हें वरदान प्राप्त हुआ ॥ १४-१५ ॥ ततो बभूव तेजस्वी विश्वरूपस्तपोधनः । पुरोधसं चकारेन्द्रो वाक्यतौ तं क्रुधा गते ॥ १६ ॥ अनन्तर उनके तेजस्वी एवं महातपस्वी विश्वरूप नामक पुत्र हुआ, जिसे इन्द्र ने क्रुद्ध होकर बृहस्पति के चले जाने पर अपना पुरोहित बनाया ॥ १६ ॥ मातामहेभ्यो दैत्येभ्यो दत्तवन्तं घृताहुतिम् । चिच्छेद तं शुनासीरो ब्राह्मणं मातुराज्ञया ॥ १७ ॥ जिस समय मातामह दैत्यों के लिए (उस यज्ञ में) घृत की आहुति उस ब्राह्मण ने दी उसी समय इन्द्र ने उस ब्राह्मण को माता की आज्ञा से मार डाला ॥ १७ ॥ विश्वरूपस्य तनयो विरूपो मत्पिता नृप । अह च सुतपा नाम विरागी काश्यपो द्विजः ॥ १८ ॥ हे नृप ! उन्हीं विश्वरूप के पुत्र मेरे पिता थे । मेरा नाम सुतपा है, मैं विरागी एवं कश्यप गोत्र का ब्राह्मण हूँ ॥ १८ ॥ महादेवो मम गुरुर्विद्याज्ञानमनुप्रदः । अभीष्टदेवः सर्वात्मा श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः ॥ १९ ॥ तच्चिन्तयामि पादाब्जं न मे वाञ्छाऽस्ति संपदि । सालोक्यसार्ष्टिसारूप्यसामीप्यं राधिकापतेः ॥ २० ॥ तेन दत्तं न गृह्णामि विना तत्सेवनं शुभम् । ब्रह्मत्वममरत्वं वा मन्येऽहं जलबिन्दुवत् ॥ २१ ॥ भक्तिव्यवहितं मिथ्याभ्रममेव तु नश्वरम् । इन्द्रत्वं वा मनुत्वं वा सौरत्वं वा नराधिप ॥ २२ ॥ न मन्ये जलरेखेति नृपत्वं केन गण्यते । श्रुत्वा सुयज्ञ यज्ञे ते मुनीनां गमनं नृप । लालसा विष्णुभक्तिं ते संप्रापयितुमागतः ॥ २३ ॥ केवलानुगृहीतस्त्वं नहि शप्तो मयाऽधुना । समुद्धृतश्च पतितो घोरे निम्ने भवार्णवे ॥ २४ ॥ विद्या एवं ज्ञान के प्रदाता महादेवजी हमारे गरु हैं और सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण, जो प्रकृति से परे हैं, हमारे इष्टदेव हैं । मैं उन्हीं के चरणकमल का सतत चिन्तन करता हूँ, अतः मुझे सम्पत्ति की । इच्छा नहीं है । राधिका जी के पति भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये सालोक्य, सायुज्य, सारूप्य और सामीप्य नामक मोक्ष को भी विना उनकी शभ सेवा किये नहीं चाहता है, ब्रह्मत्व और अमरत्व (ब्रह्मा और देव होने) को मैं जल के बुलबुले के समान मानता हूँ । हे राजन् ! ये सब भक्ति में व्यवधानकारक, मिथ्या, भ्रमात्मक और नाशवान् हैं । मैं इन्द्रत्व, मनुत्व, सौरत्व (सूर्य होने) को जब जल रेखा की भांति (क्षणिक नश्वर) मानता हूँ, तो नृपत्व (राजा होने) को क्या गणना है ! हे नृप ! सुयज्ञ ! तुम्हारे यज्ञ में मुनियों का गमन सुनकर मैं भगवान् विष्णु की भक्ति तुम्हें प्राप्त कराने की लालसा (इच्छा) से आया हूँ । संप्रति मैंने तुम्हें शाप नहीं दिया है, प्रत्युत तुम उसी द्वारा अनुगृहीत हुए हो । अधःपतन करने वाले इस घोर संसार-सागर में तुम पतित हो गये थे, मैंने तुम्हारा उद्धार कर दिया है ॥ १९-२४ ॥ नह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्त्युरुकालेन कृष्णभक्ताश्च दर्शनात् ॥ २५ ॥ क्योंकि न तीर्थ जलमय होते हैं और न देवता लोग मिट्टी और पत्थरमय होते हैं । वे पवित्र करते हैं लम्बे समय में और भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त दर्शनमात्र से पवित्र कर देते हैं ॥ २५ ॥ राजन्निर्गम्यतां गेहाद्देहि राज्यं सुताय च । पुत्रे न्यस्य प्रिया साध्वीं गच्छ वत्स वनं द्रुतम् ॥ २६ ॥ ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव भूमिप । श्रीकृष्णं भज राधेशं परमात्मानमीश्वरम् ॥ २७ ॥ ध्यानसाध्यं दुराराध्यं ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः । आविर्भूतैस्तिरोभूतैः प्राकृतैः प्रकृतेः परम् ॥ २८ ॥ अतः हे राजन् ! राज्य पुत्र को सौंप कर घर से (तप करने के हेतु) चले जावो । हे वत्स ! हे भूमिप ! साध्वी स्त्री और राज्य पुत्र को सौंपकार तप के लिए शीघ्र जंगल जाओ, क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त सभी कुछ मिथ्या ही है । अतः राधा जी के प्राणेश भगवान् श्रीकृष्ण का भजन करो, जो परमात्मा, ईश्वर एवं ध्यान करने से साध्य हैं, अन्यथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि और प्रकट एवं अन्तहित होने वाले प्राकृत जनों के लिए वे दुराराध्य हैं एवं प्रकृति से परे हैं ॥ २६-२८ ॥ ब्रह्मा स्रष्टा हरिः पाता हरः संहारकारकः । दिक्पालाश्च दिगीशाश्च भ्क्त्यन्त्येवास्य मायया ॥ २९ ॥ उन्हीं के द्वारा ब्रह्मा सृष्टि करने वाले, विष्णु रक्षक और शिव संहार करने वाले हुए हैं । उन्हीं की माया द्वारा दिपाल-गण एवं दिशाओं के अधीश्वर चारों ओर भ्रमण किया करते हैं ॥ २९ ॥ यदाज्ञया वाति वायुः सूर्यो दिनपतिः सदा । निशापतिः शशी शश्वत्सस्यसुस्निग्धताकरः ॥ ३० ॥ कालेन मृत्युः सर्वेषां सर्वविश्वेषु वै भवेत् । काले वर्षति शक्रश्च दहत्यग्निश्च कालतः ॥ ३१ ॥ भीतवद्विश्वशास्ता च प्रजासंयमनो यमः । कालः संहरते काले काले सृजति पाति च ॥ ३२ ॥ उन्हीं की आज्ञा से वायु बहता है, सूर्य सदा दिन के स्वामी बने रहते हैं, चन्द्रमा रात्रि के पति हैं, जो निरन्तर सस्य (फसल) को अति स्निग्ध करते हैं । सम्पूर्ण विश्वों में काल द्वारा ही सब की मृत्यु होती है । काल में ही इन्द्र वर्षा करते हैं, अग्नि काल द्वारा ही जलाते हैं । प्रजाओं पर संयम (शासन) करने वाले यमराज काल द्वारा ही भयभीत के समान होकर विश्व के ऊपर शासन करते हैं । काल में ही प्रजाओं का संहार होता है, काल में ही सृष्टि और रक्षा होती है ॥ ३०-३२ ॥ स्वदेशे वै समुद्रश्च स्वदेशे वै वसुंधरा । स्वदेशे पर्वताश्चैव स्वाः पातालाः स्वदेशतः ॥ ३३ ॥ स्वर्लोकाः सप्त राजेन्द्र सप्तद्वीपा वसुंधरा । शैलसागरसंयुक्ताः पातालाः सप्त चैव हि ॥ ३४ ॥ ब्रह्माण्डमेभिर्लोकैश्च डिम्बाकारं जलप्लुतम् । सन्त्येव प्रतिविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ३५ ॥ अपने ही देश में सातों समुद्र, अपने ही देश में समस्त पृथ्वी, अपने ही देश में समस्त पर्वत और स्वदेश में ही समस्त पाताल आदि लोक है । हे राजेन्द्र ! सात स्वर्गलोक, सातों द्वीपों समेत पृथ्वी और पर्वत, सागर समेत सात पाताल लोक के साथ समस्त ब्रह्माण्ड जल के मध्य डिम्बाकार बना रहता है । इस भाँति प्रति ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देव रहते हैं ॥ ३३-३५ ॥ सुरा नराश्च नागाश्च गन्धर्वा राक्षसादयः । आपातालाद्ब्रह्मलोकपर्यन्तं डिम्बरूपकम् ॥ ३६ ॥ देवगण, मनुष्य, नागगण, गन्धर्व लोग और राक्षस आदि पाताल से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त डिम्ब का रूप है ॥ ३६ ॥ इदमेव तु विध्यण्डमुत्तमं कृत्रिमं नृप । नाभिपद्मे विराड्विष्णोः क्षुद्रस्य जलशालिनः ॥ ३७ ॥ स्थितं यथा पद्मबीजं कर्णिकायां च पङ्कजे । एवं सोऽपि शयानः स्याज्जलतल्पे सुविप्लुते ॥ ३८ ॥ ध्यायत्येव महायोगी प्राकृतः प्रकृतेः परम् । कालभीतश्च कालेशं कृष्णमात्मानमीश्वरम् ॥ ३९ ॥ महाविष्णोर्लोमकूपे साधारः सोऽस्ति विस्तृते । कूपेषु लोम्नां प्रत्येकमेवं विश्वानि सन्ति वै ॥ ४० ॥ हे नृप ! यह परमोत्तम (प्राकृत) ब्रह्माण्ड कृत्रिम (नश्वर) है । जलशायी क्षुद्र विष्णु के नाभि-कमल पर विराड रूप ब्रह्मा इस भाँति स्थित रहते हैं जैसे कमल-पुष्प की कणिका में कमल बीज । अति विस्तृत जल को शय्या पर शयन किये वे विष्णु महायोगी, जो प्रकृति-जन्य हैं, प्रकृति से परे रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण का सतत ध्यान करते हैं । उन काल के ईश भगवान् श्रीकृष्ण से, जो ईश्वर एवं सब के आत्मा हैं, काल की भाँति भयभीत रहते हैं । वे महाविष्णु के विस्तृत लोमकूप में साधार रहते हैं । उनके प्रत्येक लोमकूप में विश्व अवस्थित हैं ॥ ३७-४० ॥ महाविष्णोर्गात्रलोम्नां ब्रह्माण्डानां च भूमिप । संख्यां कर्तुं न शक्नोति कृष्णोऽप्यन्यस्य काकथा ॥ ४१ ॥ हे भूपति ! महाविष्णु के शरीर-लोम और ब्रह्माण्ड की संख्या स्वयं कृष्ण भी नहीं कर सकते हैं अन्य की तो बात ही क्या है ॥ ४१ ॥ महाविष्णुः प्राकृतिकः सोऽपि डिम्बोद्भवः सदा । भवेत्कृष्णेच्छया डिम्बः प्रकृतेर्गर्भसंभवः ॥ ४२ ॥ वे महाविष्णु भी प्रकृति द्वारा उस डिम्ब से सदैव उत्पन्न होते हैं । जब भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा होती है, प्रकृति के गर्भ से डिम्ब उत्पन्न हो जाता है ॥ ४२ ॥ सर्वाधारो महाविष्णुः कालभीतः स शङ्कितः । कालेशं ध्यायति स्वैरं कृष्णमात्मानमीश्वरम् ॥ ४३ ॥ इस भांति समस्त के आधार महाविष्णु भी काल से भयभीत एवं सशंकित रह कर कालाधीश्वर एवं परम स्वतंत्र ईश्वर एवं सर्वात्मा श्रीकृष्ण का सतत ध्यान करते हैं ॥ ४३ ॥ एवं च सर्वविश्वस्था ब्रह्मविष्णुशिवादयः । महान्विराट् क्षुद्रविराट् सर्वे प्राकृतिकाः सदा ॥ ४४ ॥ सा सर्वबीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी । काले लीना च कालेशे कृष्णे तं ध्यायति स्म सा ॥ ४५ ॥ इस प्रकार सभी विश्वों में रहने वाले ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि तथा महाविराट् एवं क्षुद्र विराट् सभी प्राकृत (प्रकृतिजन्य) हैं । वही ईश्वरी मल प्रकृति समस्त बीजों का स्वरूप है, जो समय आने पर कालाधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो जाती है और नित्य उनका ध्यान करती रहती है ॥ ४४-४५ ॥ एवं सर्वे कालभीताः प्रकृतिः प्राकृतास्तथा । आविर्भूतास्तिरोभूताः कालेन परमात्मनि ॥ ४६ ॥ अतः सभी लोग काल से भयभीत रहते हैं और प्रकृति से उत्पन्न होने के नाते प्राकृत हैं तथा समय-समय पर उसी परमात्मा में आविर्भूत और विलीन हुआ करते हैं ॥ ४६ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं महाज्ञानं सुदुर्लभम् । शिवेन गुरुणा दत्तं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४७ ॥ इस प्रकार मैंने अति दुर्लभ महाज्ञान तुम्हें सुना दिया, जिसे गुरु शिव ने मुझे बताया था । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४७ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्याने सुयज्ञं प्रत्यतिथ्युपदेशो नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत हरगीरी-संवाद के राधोपाख्यान में सुयज्ञ के प्रति अतिथि-उपदेश-कथन नामक तिरपनवा अध्याय समाप्त ॥ ५३ ॥ |