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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्याने सुयज्ञगोलोकगमनम् -
सुयज्ञ की गोलोक प्राप्ति का वर्णन - राजोवाच कुत्राऽऽधारो महाविष्णोः सर्वाधारस्य तस्य च । कालभीतस्य कतिचित्कालमायुर्मुनीश्वर ॥ १ ॥ राजा बोले-हे मुनीश्वर ! समस्त के आधार महाविष्णु का आधार कौन है और उस कालभीत की आयु कितने काल की है ? ॥ १ ॥ क्षुद्रस्य कतिचित्कालं ब्रह्मणः प्रकृतेस्तथा । मनोरिन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्याऽऽयुस्तथैव च ॥ २ ॥ क्षुद्र विराट को आयु, ब्रह्मा, प्रकृति, मनु, इन्द्र, चन्द्र और सूर्य की आयु क्या है ? ॥ २ ॥ अन्येषां वै जनानां च प्राकृतानां परं वयः । वेदोक्तं सुविचार्यं च वद वेदविदां वर ॥ ३ ॥ हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! अन्य प्राकृत जनों की आयु भी वेदानुकल भलीभांति विचार कर बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥ विश्वानामूर्ध्वभागे च कः स्याद्वा लोक एव सः । कथयस्व महाभाग संदेहच्छेदनं कुरु ॥ ४ ॥ समस्त विश्वसंघ के ऊपर कौन लोक है ? अथवा वही है क्या ? हे महाभाग ! यह सन्देह दूर करने की कृपा करें ॥ ४ ॥ मुनिरुवाच गोलोको नृप विश्वानां विस्तृतश्च नभः समः । तया नित्यं डिम्बरूपः श्रीकृष्णेच्छासमुद्भवः ॥ ५ ॥ मुनि बोले- हे नृप ! समस्त विश्व-समूहों के ऊपर गोलोक है जो आकाश की भांति विस्तृत है तथा भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा से उत्पन्न एवं नित्य डिम्ब (अण्ड) रूप में रहता है ॥ ५ ॥ जलेन परिपूर्णश्च कृष्णस्य मुखबिन्दुना । सृष्ट्युन्मुखस्याऽऽदिसर्गे परिश्रान्तस्य खेलतः ॥ ६ ॥ आदि सृष्टि के समय सृष्टि के प्रति उन्मुख होने पर खेल से श्रान्त भगवान् श्रीकृष्ण के मुख-विन्दु रूप जल से यह परिपूर्ण है ॥ ६ ॥ प्रकृत्या सह युक्तस्य कलया निजया नृप । तत्राऽऽधारो महाविष्णोर्विश्वाधारस्य विस्तृतः ॥ ७ ॥ हे नृप ! अपनी निजी कला रूप प्रकृति से युक्त एवं विश्व के आधार महाविष्णु का वही विस्तृत आधार है ॥ ७ ॥ प्रकृतेर्गर्भसंभूतडिम्बोद्भूतस्य भूमिप । सुविस्तृते जलाधारे शयानश्च महाविराट् ॥ ८ ॥ हे भूमिपाल ! वह महाविष्णु प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न डिम्ब से प्रकट हुआ है, उसका आधार महाविराट् अति विस्तृत जलाधार पर शयन करता रहता है ॥ ८ ॥ राधेश्वरस्य कृष्णस्य षोडशांशः प्रकीर्तितः । दूर्वादलश्यामरूपः सस्मितश्च चतुर्भुजः ॥ ९ ॥ राधेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का वह षोडशांश (सोलहवां अंश) कहा जाता है जो दूर्वादल की भांति श्यामल एवं मन्द मुसुकान करते हुए चार भुजाओं से युक्त है ॥ ९ ॥ वनमालाधर श्रीमाञ्शोभितः पीतवाससा । ऊर्ध्व नभसि तद्विष्णोर्नित्यवैकुण्ठ एव च ॥ १० ॥ तथा वनमाला धारण किए वह श्री-सुशोभित एवं पीताम्बर-भूषित है । आकाश में ऊपर उस विष्णु का नित्य स्थायी वैकुण्ठ लोक है ॥ १० ॥ आत्माकाशसमो नित्यो विस्तृतश्चन्द्रबिम्बवत् । ईश्वरेच्छासमुद्भूतो निर्लक्ष्यश्च निराश्रयः ॥ ११ ॥ जो आत्मा एवं आकाश की भाँति नित्य, चन्द्र-विम्ब के समान विस्तृत, ईश्वर की इच्छा से उत्पन्न, लक्ष्यहीन और निराधार है ॥ ११ ॥ आकाशवत्सुविस्तारो रत्नौघैश्च विनिर्मितः । तत्र नारायणः श्रीमान्वनमाली चतुर्भुजः ॥ १२ ॥ तथा आकाश की भांति अति विस्तार में स्थित एवं रत्नसमूहों से सुरचित है । जिसमें श्रीमान् नारायण भगवान् वनमाला धारण किए चार भुजाओं से विराजमान रहते हैं ॥ १२ ॥ लक्ष्मीसरस्वतीगङ्गातुलसीपतिरीश्वरः । सुनन्दनन्दकुमुदपार्षदादिभिरावृतः ॥ १३ ॥ उन ईश्वर के लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी ये चार पत्नियाँ हैं । वे स्वयं सुनन्द नन्द और कुमुद आदि पार्षदों से सदा आवृत रहते हैं ॥ १३ ॥ सर्वेशः सर्वसिद्धेशो भक्तानुग्रहविग्रहः । श्रीकृष्णश्च द्विधाभूतो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ॥ १४ ॥ चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् । ऊर्ध्वं वैकुण्ठलोकाच्च पञ्चाशत्कोटियोजनात् ॥ १५ ॥ सर्वेश्वर, समस्त सिद्धों के अधीश्वर एवं भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण दो भुजाओं और चार भुजाओं से दो रूप धारण कर चार भुजाओं से वैकुण्ठ में और दो भुजाओं से स्वयं गोलोक में स्थित हैं, जो वैकुण्ठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर स्थित है ॥ १४-१५ ॥ गोलोको वर्तुलाकारो वरिष्ठः सर्वलोकतः । अमूल्यरत्नखचितैर्मन्दिरैश्च विभूषितः ॥ १६ ॥ यह गोलोक गोलाकार, सभी लोकों से श्रेष्ठ, अमूल्य रत्नों से खचित असंख्य मन्दिरों से विभूषित है ॥ १६ ॥ रत्नेन्द्रसारखचितैः स्तम्भसोपानचित्रितैः । मणीन्द्रदर्पणासक्तैः कपाटैः कलशोज्ज्वलैः ॥ १७ ॥ नानाचित्रविचित्रैश्च शिबिरैश्च विराजितः । कोटियोजनविस्तीर्णो दैर्घ्ये शतगुणस्तथा ॥ १८ ॥ वहाँ के खम्भे और सीढ़ियाँ उत्तम रत्नों के सारभाग से खचित होने के नाते चित्रविचित्र हैं । उत्तम मणियों के दर्पणों (शीशों) से युक्त किवाड़ों, उज्ज्वल कलशों और अनेक भांति के चित्रविचित्र शिविरों से वह गोलोक सुशोभित है । उसकी चौड़ाई एक करोड़ योजन है और लम्बाई सौ गुनी अधिक ॥ १७-१८ ॥ विरजासरिदाकीर्णैः शतशृङ्गैः सुवेष्टितः । सरिदर्धप्रमाणेन दैर्ध्येण च ततेन च ॥ १९ ॥ शैलार्धपरिमाणेन युक्तो वृन्दावनेन च । तदर्धमानविलसद्रासमण्डलमण्डितः ॥ २० ॥ सरिच्छैलवनादीनां मध्ये गोलोक एव च । यथा पङ्कजमध्ये च कर्णिका सुमनोहरा ॥ २१ ॥ तत्र गोगोपगोपीभिर्गोपीशो रासमण्डले । रासेश्वर्या राधिकया संयुक्तः संततं नृप ॥ २२ ॥ द्विभुजो मुरलीहस्तः शिशुर्गोपालरूपधृत् । वह्निशुद्धांशुकाधानो रत्नभूषणभूषितः ॥ २३ ॥ चन्दनोक्षितसर्वाङ्गो रत्नमालाविराजितः । रत्नसिंहासनस्थश्च रत्नच्छत्रेण शोभितः ॥ २४ ॥ तथा स प्रियगोपालैः सेवितः श्वेतचामरैः । भूषिताभिश्च गोपीभिर्मालाचन्दनचर्चितः ॥ २५ ॥ सस्मितः सकटाक्षाभिः सुवेषाभिश्च वीक्षितः । कथितो लोकविस्तारो यथाशक्ति यथागमम् ॥ २६ ॥ विरजा नामक नदी से व्याप्त सौ शिखरों वाले पर्वतों से वह आवेष्टित है । उक्त नदी के आधे प्रमाण लम्बे-चौड़े तथा पर्वत के आधे प्रमाण ऊँचे वृन्दावन से वह युक्त है । उसके आधे प्रमाण में स्थित रास-मण्डल से मण्डित गोलोक नदी, पर्वत और जंगलों आदि के मध्य में इस प्रकार सुशोभित है जैसे कमल-पुष्प के मध्य अति मनोहर कणिका रहती है । हे नृप ! उस रासमण्डल में गोपाधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण रासेश्वरी राधिका को निरन्तर साथ लिए गौओं, गोपवृन्दों और गोपियों से आवृत रहते हैं । वे सदैव दो भुजाओं वाले रूप से मुरली हाथ में लिए बच्चे की अवस्था वाले गोपाल रूप को धारण किये रहते हैं । अग्नि की भाँति विशुद्ध वस्त्र धारण किये, रत्नों के भूषणों से भूषित, समस्त अंगों में चन्दन लगाये, रत्नों की माला से सुशोभित होकर रत्नसिंहासन पर वे विराजमान हैं । ऊपर रत्नों का छत्र लगा है और प्रिय गोपाल गण श्वेत चवरों से सेवा करते रहते हैं । उत्तम वेषभूषा धारण करने वाली गोपियां उन्हें माला-चन्दन लगाती हैं और अपने कटाक्षों से बार-बार देखती रहती हैं, जिससे भगवान् मन्द मुसुकान करते रहते हैं । इस प्रकार मैंने गोलोक का विस्तार वेदानुसार यथाशक्ति बता दिया है ॥ १९-२६ ॥ यथाश्रुतं शंभुवक्त्रात्कालमानं निशामय । पात्रं षट्पलसंभूतं गंभीरं चतुरङ्गुलम् ॥ २७ ॥ स्वर्णमाषकृतच्छिद्रं दण्डैश्च चतुरङ्गुलं । यावज्जलप्लुतं पात्रं तत्कालं दण्डमेव च ॥ २८ ॥ शंकर के मुख से मैने समय के मान के सम्बन्ध में जैसा सुना था वह तुम भी सुन लो । छह पल सोने का बना हुआ एक पात्र हो, जि की गहराई चार अंगुल की हो । उसमें एक-एक माशे सोने के बने हुए चार-चार अंगुल लंबे चार कीलों से छेद कर दिये जायें । फिर उस पात्र को जल के ऊपर रख दिया जाय । उन छिद्रों से जल आकर जितनी देर में वह पात्र भर दे उतने समय को एक दण्ड कहा जाता है ॥ २७-२८ ॥ दण्डद्वयं मुहूर्तं च यामस्तस्य चतुष्टयम् । वासरश्चाष्टभिर्यामैः पक्षस्तैर्दशपञ्चभिः ॥ २९ ॥ मासो द्वाभ्यां च पक्षाभ्यां वर्षं द्वादशमासकैः । मासेन वै नराणां च पितृणां तदहर्निशम् ॥ ३० ॥ वैसे दो दण्ड का एक मुहुर्त (घटी) होता है, और चार घटी का एक याम (प्रहर), आठ याम का एक दिन-रात तथा पन्द्रह दिन का एक पक्ष (पाख), दो पक्ष (पाख) का एक मास और बारह मास का एक वर्ष होता है । मनुष्यों का एक मास पितरों का एक अहोरात्र ही होता है ॥ २९-३० ॥ कृष्णपक्षे दिनं प्रोक्तं शुक्ले रात्रिः प्रकीर्तिता । वत्सरेण नराणां च देवानां च दिवानिशम् ॥ ३१ ॥ उनका दिन कृष्ण पक्ष में और रात्रि शुक्ल पक्ष में होती है । मनुष्यों को एक वर्ष देवों का एक दिन-रात होता है ॥ ३१ ॥ अयनं ह्युत्तरमहो रात्रिर्वै दक्षिणायनम् । युगकर्मानुरूपं च नरादीनां वयो नृप ॥ ३२ ॥ उत्तरायण उनका दिन और दक्षिणायन उनकी रात्रि है । हे नृप ! युग-कर्म के अनुरूप मनुष्य अदि की आयु होती है ॥ ३२ ॥ प्रकृतेः प्राकृतानां च ब्रह्मादीनां निशामय । कृतं त्रेता द्वापरं च कालश्चेति चतुर्युगम् ॥ ३३ ॥ अब प्रकृति,प्राकृत पदार्थ एवं ब्रह्मा आदि की भी आयु कह रहा हूँ, सुनो । कृत (सत्य) त्रेता, द्वापर और कलि ये चार युग हैं ॥ ३३ ॥ दिव्यैर्द्वादशसाहस्रैः सावधानं निशामय । चत्वारि त्रीणि च द्व्येकं सहस्राणि कृतादिकम् ॥ ३४ ॥ तेषां च संध्यासंध्यांशौ द्वे सहस्रे प्रकीर्तिते । त्रिचत्वारिंशकैर्लक्षैः सविंशतिसहस्रकैः ॥ ३५ ॥ जो दिव्य बारह सहस्र वर्ष के होते हैं । उन्हें सावधानी से सुनो । कृत (सत्य) चार सहस्र, त्रेता तीन सहस्र, द्वापर दो सहस्र और कलि एक सहस्र वर्ष का होता है,इनके सन्ध्या और सन्ध्यांश भी दो सहस्र वर्ष के होते हैं । मनुष्यों के वर्ष प्रमाण से चारों युग तैतालीस लाख बीस सहस्र (हजार) वर्ष के होते हैं ॥ ३४-३५ ॥ चतुर्युगं परिमितं नरमानक्रमेण च । लक्षैदच सप्तदशभिः साष्टविंशसहस्रकैः ॥ ३६ ॥ कृतं युगं नृमानेन संख्याविद्भिः प्रकीर्तितम् ॥ ३७ ॥ सहस्रैः षण्णवतिभिर्लक्षैर्द्वादशभिः सह । त्रेतायुगं परिमितं कालविद्भिः प्रकीर्तितम् ॥ ३८ ॥ अष्टलक्षैः सह मितं चतुःषष्टिसहस्रकम् । परिमाणं द्वापरस्य संख्याविद्भिरितीरितम् ॥ ३९ ॥ सद्वात्रिंशत्सहस्रैश्च चतुर्लक्षैश्च वत्सरैः । नृमानाद्वै कलियुगं विदुः कालविदो बुधाः ॥ ४० ॥ अब चारों युगों का पृथक्-पृथक् वर्ष प्रमाण मनुष्यों के मान से बता रहा हूँ-सत्रह लाख अट्ठाइस सहस्र वर्ष का कृत (सत्य) युग होता है, ऐसा संख्या-वेत्ताओं ने मनुष्यों के मान से बताया है । उसी भांति बारह लाख छानवे सहस्र वर्ष का त्रेता युग, आठ लाख चौंसठ सहस्र वर्ष का द्वापर और चार लाख बत्तीस सहस्र वर्ष का कलियुग होता है, ऐसा संख्या-वेत्ताओं और काल के पण्डितों ने बताया है ॥ ३६-४० ॥ यथा सप्त च वारा वै तिथयः षोडशस्मृताः । दिवारात्र्यश्च पक्षौ द्वौ मासो वर्षं च निर्मितम् ॥ ४१ ॥ इनमें सात दिन, सोलह तिथियाँ, दिन और रात्रि, दो पक्ष, मास और वर्ष का निर्माण किया गया है ॥ ४१ ॥ यथा भ्रमति तच्चक्रमेवमेव चतुर्युगम् । यथा युगानि राजेन्द्र तथा मन्वन्तराणि च ॥ ४२ ॥ हे राजेन्द्र ! इसमें चक्के की भाँति चारों युगों का चक्र, प्रत्येक युगों के पृथक्-पृथक् चक्र और मन्वन्तरों का चक्र घूमता रहता है ॥ ४२ ॥ मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः । एवं क्रमाद्भ्रमन्त्येव मनवश्च चतुर्दश ॥ ४३ ॥ इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है । इसी भाँति चौदहों मन्वन्तर क्रमशः घूमा करते हैं ॥ ४३ ॥ पञ्चविंशतिसाहस्रं षष्ट्यन्तशतपञ्चकम् । नरमानयुगं चैव परं मन्वन्तरं स्मृतम् ॥ ४४ ॥ मनुष्यों के मान से पच्चीस सहस्र पांच सौ साठ युगों का एक मन्वन्तर होता है ॥ ४४ ॥ आख्यानं च मनूनां च धर्मिष्ठानां नराधिप । यच्छ्रुतं शिववक्त्रेण तत्त्वं मत्तो निशामय ॥ ४५ ॥ हे नराधिप ! धर्मिष्ठ मनुष्यों का आख्यान मैंने शिवजी के मुख से जैसा सुना है, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ४५ ॥ आद्यो मनुर्ब्रह्मपुत्रः शतरूपा पतिव्रता । धर्मिष्ठानां वरिष्ठश्च गरिष्ठो मनुषु प्रभुः ॥ ४६ ॥ आदि मनु, जो ब्रह्मा के पुत्र एवं शतरूपा के पति हैं, धर्मिष्ठों में श्रेष्ठ, गौरव पूर्ण एवं मनुओं में समर्थ हैं ॥ ४६ ॥ स्वायंभुवः शंभुशिष्यो विष्णुव्रतपरायणः । जीवन्मुक्तो महाज्ञानी भवतः प्रपितामहः ॥ ४७ ॥ स्वायम्भुव मनु शंकर जी के शिष्य हैं और भगवान विष्णु के व्रत का पालन करते रहते हैं । वे जीवन्मुक्त, महाज्ञानी एवं आपके प्रपितामह (परदादा) हैं ॥ ४७ ॥ राजसूयसहस्रं च चक्रे वै नर्मदातटे । त्रिलक्षमश्वमेधं च त्रिलक्षं नरमेधकम् ॥ ४८ ॥ गोमेधं च चतुर्लक्षं विधिवन्महदद्भुतम् । ब्राह्मणानां त्रिकोटीश्च भोजयामास नित्यशः ॥ ४९ ॥ उन्होंने नर्मदा जी के तट पर एक सहस्र राजसूय यज्ञ, तीन लाख अश्वमेध, तीन लाख नरमेध और चार लाख गोमेध यज्ञ सविधान सुसम्पन्न किये हैं, जिनका आयोजन महान् एवं अद्भुत था, उसमें तीन करोड़ ब्राह्मण नित्य भोजन करते थे ॥ ४८-४९ ॥ पञ्चलक्षगवां मांसैः सुपक्वैर्घृतसंस्कृतैः । चर्व्यैश्चोष्यैर्लेह्यपेयैर्मिष्टद्रव्यैः सुदुर्लभैः ॥ ५० ॥ जिसमें पाँच लाख गौओं के घृत में भली भांति पकाये मांस रहते थे और चबाने, चूसने, आस्वाद लेने (चाटने), पान करने योग्य वस्तुओं एवं अति दुर्लभ मिष्टान्नों का कुछ कहना ही नहीं है ॥ ५० ॥ अमूल्यरत्नलक्षं च दशकोटिसुवर्णकम् । स्वर्णशृङ्गयुतं दिव्यं गवां लक्षं सूपूजितम् ॥ ५१ ॥ वह्निशुद्धानि वस्त्राणि मणीन्द्राणां च लक्षकम् । भूमिं च सर्वसस्याढ्यां गजेन्द्राणां चलक्षकम् ॥ ५२ ॥ त्रिलक्षमश्वरत्नं च शातकुम्भविभूषितम् । सहस्ररथरत्नं च शिबिकालक्षमेव च ॥ ५३ ॥ त्रिकोटिस्वर्णपात्रं च सान्नं सजलमीप्सितम् । त्रिकोटिस्वर्णभूषाश्च कर्पूरादिसुवासितम् ॥ ५४ ॥ ताम्बूलं सुविचित्रं च त्रिकोटिस्वर्णतल्पकम् । रत्नेन्द्रखचितैर्मञ्चै रचितैर्विश्वकर्मणा ॥ ५५ ॥ बह्निशुद्धांशुकैश्चित्रै राजितं माल्यजालकैः । नित्यं ददौ ब्राह्मणेभ्यो विष्णुप्रीप्यै शिवाज्ञया ॥ ५६ ॥ एक लाख अमूल्य रत्न, दश करोड़ सोने के सिक्के, सुवर्ण-भूषित सींगो वाली दश लाख गौएँ एवं अग्निविशुद्ध वस्त्रों के समूह एक लाख मुनिश्रेष्ठों को समर्पित किये गये । समस्त धान्यों से सम्पन्न हरी-भरी भूमि, एक लाख गजराज, सुवर्णभूषित तीन लाख उत्तम अश्व, एक सहस्र उत्तम रथ, एक लाख शिबिका (पालको), मन इच्छित अन्न-जल समेत तीन करोड़ सुवर्ण के पात्र, तीन करोड़ सुवर्ण के भूषण, कर्पूरादि सुवासित ताम्बूल, अति विचित्र एवं सुवर्ण रचित तीन करोड़ पलंग जो विश्वकर्मा द्वारा सुरचित रत्नेन्द्र खचित, अग्नि-विशुद्ध वस्त्रों से सुसज्जित और चित्र-विचित्र माला-जालों से सुशोभित थे, शिव जी की आज्ञा से भगवान् विष्णु के प्रसन्नतार्थ नित्य ब्राह्मणों को समर्पित करते थे ॥ ५१-५६ ॥ संप्राप्य शंकराज्ज्ञानं कृष्णमंत्रं सुदुर्लभम् । संप्राप्य कृष्णदास्यं च गोलोकं वै जगाम सः ॥ ५७ ॥ अनन्तर शंकर जी से ज्ञान तथा भगवान् कृष्ण का अति दुर्लभ मन्त्र प्राप्त कर भगवान् का दास (पार्षद) बन कर वे गोलोक चले गये ॥ ५७ ॥ दृष्ट्वा मुक्तं स्वपुत्रं च प्रहृष्टोऽभूत्प्रजापतिः । तुष्टाव शंकरं तुष्टः ससृजेऽन्यं मनुं विधिः ॥ ५८ ॥ उस समय प्रजापति ब्रह्मा ने अपने पुत्र को मुक्त होते देख कर अति हर्ष प्रकट किया और शंकर की अति स्तुति की । अनन्तर ब्रह्मा ने पुनः अन्य मनु का सर्जन किया ॥ ५८ ॥ यतः स्वयंभुपुत्रोऽयमतः स्वायंभुवो मनुः । स्वारोचिषो मनुश्चैव द्वितीयो वह्निनन्दनः ॥ ५९ ॥ राजा वदान्यो धर्मिष्ठः स्वायंभुवसमो महान् । प्रियव्रतसुतावन्यौ द्वौ मनू धर्मिणां वरौ ॥ ६० ॥ वे स्वयम्भु के पुत्र थे इसलिए उनका स्वायम्भुव मनु नाम था । दूसरे अग्नि के पुत्र स्वारोचिष मनु हुए, जो दानी, धर्मिष्ठ राजा एवं स्वायम्भुव के समान महान् थे । धर्मात्माओं में श्रेष्ठ प्रियव्रत के दोनों पुत्र अन्य दो मन हुए ॥ ५९-६० ॥ तौ तृतीयौ चतुर्थो च वैष्णवौ तापसोत्तमौ । तौ च शंकरशिष्यौ च कृष्णभक्तिपरायणौ ॥ ६१ ॥ जो वैष्णव, परम तापस, शिव जी के शिष्य और भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे ॥ ६१ ॥ धर्मिष्ठानां वरिष्ठश्च रैवतः पञ्चमो मनुः । षष्ठश्च चाक्षुषो ज्ञेयो विष्णुभक्तिपरायणः ॥ ६२ ॥ पाँचवां रैवत मनु हुआ, जो धर्मात्माओं में श्रेष्ठ था । छठा चाक्षुष मनु हुए जो भगवान् विष्णु की भक्ति में तन्मय रहा करते थे ॥ ६२ ॥ श्राद्धदेवः सूर्यसुतो वैष्णवः सप्तमो मनुः । सावर्णिः सूर्यतनयो वैष्णवो मनुरष्टमः ॥ ६३ ॥ सूर्यपुत्र थाद्धदेव, जो वैष्णव थे, सातवें मनु हए । दूसरे वैष्णव सूर्यपुत्र सावर्णिआठवें मनु हुए ॥ ६३ ॥ नवमो दक्षसावर्णिर्विष्णुव्रतपरायणः । दशमो ब्रह्मसावर्णिर्ब्रह्मज्ञानविशारदः ॥ ६४ ॥ विष्णु के व्रत परायण दक्षसावणि नवें मन हुए । दशवे ब्रह्मसावणि मनु हुए, जो ब्रह्मज्ञान में अति निपुण थे ॥ ६४ ॥ ततश्च धर्मसावर्णिर्मनुरेकादशः स्मृतः । धर्मिष्ठश्च वरिष्ठश्च वैष्णवव्रततत्परः ॥ ६५ ॥ ग्यारहवें धर्मसावणि मनु हुए, जो धर्मिष्ठ, श्रेष्ठ एवं भगवान् विष्णु के व्रत में तत्पर रहते थे ॥ ६५ ॥ ज्ञानी च रुद्रसावर्णिर्मनुश्च द्वादशः स्मृतः । धर्मात्मा देवसावर्णिर्मनुरेवं त्रयोदशः ॥ ६६ ॥ चतुर्दशो महाज्ञानी चन्द्रसावर्णिरेव च । यावदायुर्मनूनां स्यादिन्द्राणां तावदेव हि ॥ ६७ ॥ चतुर्दशेन्द्रावच्छिन्नं ब्रह्मणो दिनमुच्यते । तावती ब्रह्मणो रात्रिः सा च ब्राह्मी निशा नृप ॥ ६८ ॥ कालरात्रिश्च सा ज्ञेया वेदेषु परिकीर्तिता । ब्रह्मणो वासरं राजन्क्षुद्रकल्पः प्रकीर्तितः ॥ ६९ ॥ ज्ञानी रुद्रसावणि बारहवें मनु हुए । इसी प्रकार धर्मात्मा देवसिणि तेरहवें मनु और महाज्ञानी चन्द्रसावणि चौदहवें मनु हुए । मनुओं की आयु के समानही इन्द्रों की आयु होती है । हे नप ! चौदह इन्द्रों के समय के समान ब्रह्मा का एक दिन होता है और उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है । वेदों में वही कालरात्रि कही गयी है । हे राजन् ! ब्रह्मा का दिन क्षुद्र (छोटा) कल्प कहा जाता है ॥ ६६-६९ ॥ सप्तकल्पे चिरंजीवी मार्कण्डेयो महातपाः । ब्रह्मलोकादधः सर्वे लोका दग्धाश्च तत्र वै ॥ ७० ॥ उत्थितेनैव सहसा संकर्षणमुखाग्निना । चन्द्रार्कब्रह्मपुत्राश्च ब्रह्मलोकं गता ध्रुवम् ॥ ७१ ॥ ब्रह्मरात्रिव्यतीते तु पुनश्च ससृजे विधिः । तस्यां ब्रह्मनिशायां च क्षुद्रः प्रलय उच्यते ॥ ७२ ॥ महातपस्व मार्कण्डेय को ऐसे सात कल्पों तक का चिरजीवन प्राप्त है । संकर्षण (शेष) जी के सहसा उठने पर उनके मुख के अग्नि द्वारा ब्रह्मलोक से नीचे सभी लोक दग्ध हो जाते हैं । अनन्तर चन्द्र, सूर्य और ब्रह्मा के पुत्र ब्रह्मलोक चले जाते हैं । इस भाँति रात्रि व्यतीत होने पर ब्रह्मा पुनः उनकी सृष्टि करते हैं । उसी ब्रह्मरात्रि को क्षुद्र (छोटा)प्रलय कहा जाता है ॥ ७०-७२ ॥ देवाश्च मनवश्चैव तत्र दग्धा नरादयः । एवं त्रिंशद्दिवारात्रैर्ब्रह्मणो मास एव च ॥ ७३ ॥ वर्षं द्वादशमासंश्च ब्रह्मसंबन्धि चैव हि । एवं पञ्चदशाब्दे तु गते च ब्रह्मणो नृप ॥ ७४ ॥ दैनन्दिनस्तु प्रलयो वेदेषु परिकीर्तितः ॥ ७५ ॥ उसमें देववन्द, मनुगण और मनुष्य आदि सभी जल जाते हैं । इस प्रकार तीस दिन रात्रि का ब्रह्मा का एक मास होता है और उनके बारह मास का उनका एक वर्ष होता है । हे नृप ! इस भाँति ब्रह्मा के पन्द्रह वर्ष व्यतीत होने पर एक प्रलय होता है, जो दैनन्दिन नाम से वेदों में बताया गया है ॥ ७३-७५ ॥ मोहरात्रिश्च सा प्रोक्ता वेदविद्भिः पुरातनैः । तत्र सर्वे प्रणष्टाः स्युश्चन्द्रार्कादिदिगीश्वराः ॥ ७६ ॥ आदित्या वसवो रुद्रा मनवो मानवादयः । ऋषयो मुनयश्चैव गन्धर्वा राक्षसादयः ॥ ७७ ॥ मार्कण्डेयो लोमशश्च पेचकश्चिरजीविनः । इन्द्रद्युम्नश्च नृपतिश्चाकूपारश्च कच्छपः ॥ ७८ ॥ नाडीजङ्घो बकश्चैव सर्वे नष्टाश्च तत्र वै । ब्रह्मलोकादधः सर्वे लोका नागालयास्तथा ॥ ७९ ॥ ब्रह्मलोकं ययुः सर्वे ब्रह्मपुत्रादयस्तथा । गते दैनंदिने ब्रह्मा लोकांश्च ससृजे पुनः ॥ ८० ॥ प्राचीन वेदवेत्ताओं ने इसे ही मोहरात्रि कहा है जिसमें चन्द्र, सूर्य आदि दिशाओं के अधीश्वर, आदित्यगण, वसुगण, कद्रगण, मनुवृन्द, मानव आदि, ऋषिगण, मुनिगण, गन्धर्व, राक्षस, चिरञ्जीवी मार्कण्डेय, लोमश, पेचक, राजा इन्द्रद्युम्न, अपार, कच्छप, नाडीजंघ और बक सभी नष्ट हो जाते हैं । और ब्रह्मलोक के नीचे रहने वाले सभी पाताल पर्यन्त लोक जल जाते हैं एवं ब्रह्मा के पुत्र आदि ब्रह्मलोक चले जाते हैं । इस प्रकार दैनन्दिन व्यतीत होने पर ब्रह्मा पुनः उन लोकों का निर्माण करते हैं ॥ ७६-८० ॥ एवं शताब्दपर्यन्तं परमायुः प्रजापतेः । ब्रह्मणश्च निपाते च महाकल्पो भवेन्नृप ॥ ८१ ॥ हे नृप ! इस भांति प्रजापति ब्रह्मा की सौ वर्ष की परमायु होती है और ब्रह्मा के अन्त होने पर महाप्रलय होता है ॥ ८१ ॥ प्रकीर्तिता महारात्रिः सैव चेह पुरातनैः । ब्रह्मणश्च निपाते च ब्रह्माण्डौघो जलप्लुतः ॥ ८२ ॥ वेदमाता च सावित्री वेदा धर्मादयस्तथा । सर्वे प्रणष्टा मृत्युश्च प्रकृतिं च शिवं विना ॥ ८३ ॥ प्राचीनों ने उसे महारात्रि कहा है । ब्रह्मा के अन्त होने पर ब्रह्माण्ड-समूह जल में डूब जाता है । उसमें देवमाता, सावित्री, वेद, धर्म आदि एवं मृत्यु का भी नाश हो जाता है, केवल शिव और प्रकृति शेष रहते हैं ॥ ८२-८३ ॥ नारायणे प्रलीनाश्च विश्वस्था वैष्णवास्तथा । कालाग्निरुद्रः संहर्ता सर्वरुद्रगणैः सह ॥ ८४ ॥ मृत्युंजये महादेवे प्रलीनः स तमोगुणः । ब्रह्मणश्च निपातेन निमेषः प्रकृतेर्भवेत् ॥ ८५ ॥ नारायणस्य शंभोश्च महाविष्णोश्च निश्चितम् । निमेषान्ते पुनः सृष्टिर्भवेत्कृष्णेच्छया नृप ॥ ८६ ॥ विश्व के समस्त वैष्णव नारायण में विलीन हो जाते हैं और समस्त रुद्रगणों समेत संहार करने वाले कालाग्नि रुद्र, मृत्युञ्जय महादेव में लीन होते हैं, क्योंकि वे तमोगुण स्वरूप हैं । इस प्रकार ब्रह्मा के पतन होने पर प्रकृति का एक निमेष (क्षण) होता है । हे नप ! निमेष के अन्त में नारायण (विष्णु), शिव और महाविष्णु आदि की सृष्टि भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा से आरम्भ हो जाती है । ८४-८६ ॥ कृष्णो निमेषरहितो निर्गुणः प्रकृते परः । सगुणानां निमेषश्च कालसंख्यावयोमितः ॥ ८७ ॥ निर्गुणस्य च नित्यस्य चाऽऽद्यन्तरहितस्य च । निमेषाणां सहस्रेण प्रकृतेर्दण्ड उच्यते ॥ ८८ ॥ षष्टिदण्डात्मकस्तस्य वासरश्च प्रकीर्तितः । त्रिंशद्रात्रिदिनैर्मासो वर्षं द्वादशमासकैः ॥ ८९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण, निमेषरहित, निर्गुण और प्रकृति से परे हैं । उनके सगुण रूप का निमेष, काल-संख्या और आयु परिमित होती है किन्तु गुणहीन, नित्य, आदि-अन्त रहित की परिमितता (इयत्ता) नहीं होती है । प्रकृति के सहस्र निमेष का उसका एक दण्ड होता है, साठ दण्ड का एक दिन, तीस दिन का मास और बारह मास का वर्ष होता है ॥ ८७-८९ ॥ एवं गते शताब्दे च श्रीकृष्णे प्रकृतेर्लयः । प्रकृत्यां च प्रलीनायां श्रीकृष्णे प्राकृतो लयः ॥ ९० ॥ इस प्रकार प्रकृति के सौ वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् श्रीकृष्ण में उसका लय हो जाता है और प्रकृति के श्रीकृष्ण में विलीन होने पर वह प्राकृतलय कहा जाता है ॥। ९० ॥ सर्वान्संहृत्य सा चैका महाविष्णोः प्रसूश्च या । कृष्णवक्षसि लीना च मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ ९१ ॥ इस भांति महाविष्णु की जननी प्रकृति जो ईश्वरी एवं मूल प्रकृति कही जाती है, अपने में सबका संहरण कर के स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में विलीन हो जाती है ॥ ९१ ॥ सन्तो वदन्ति तां दुर्गां विष्णुमायां सनातनीम् । सर्वशक्तिस्वरूपां च परां नारायणीं सतीम् ॥ ९२ ॥ जिसे सन्त महात्मागण दुर्गा, विष्णु-माया, सनातनी, समस्त शक्ति रूप और सर्वश्रेष्ठ सती नारायणी कहते हैं ॥ ९२ ॥ बुद्ध्यधिष्ठातृदेवीं च कृष्णस्य त्रिगुणात्मिकाम् । यन्मायामोहिताश्चैव ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ९३ ॥ वही भगवान् श्रीकृष्ण की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी है, जिसकी माया से ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव मोहित रहा करते हैं ॥ ९३ ॥ वैष्णवास्तां महालक्ष्मीं परां राधां वदन्ति ते । यदर्धाङ्गा महालक्ष्मीः प्रिया नारायणस्य च ॥ ९४ ॥ वैष्णवगण उसे ही महालक्ष्मी एवं सर्वोत्तम राधा कहते हैं, जो नारायण की अर्धांगिनी एवं प्रिया महालक्ष्मी है ॥ ९४ ॥ प्राणाधिष्ठातृदेवीं च प्रेम्णा प्राणाधिकां वराम् । स्थिरप्रेममयीं शक्तिं निर्गुणां निर्गुणस्य च ॥ ९५ ॥ वह उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी, प्रेमतः प्राण से अधिक प्रिय एवं श्रेष्ठा है, और निर्गुण को स्थिरप्रेममयी निर्गुणा शक्ति है ॥ ९५ ॥ नारायणश्च शंभुश्च संहृत्य स्वगणान्बहून् । शुद्धसत्त्वस्वरूपी श्रीकृष्णे लीनश्च निर्गुणे ॥ ९६ ॥ नारायण (विष्णु) और शिव (अपने में) अपने-अपने गणों का संहरण कर के शुद्ध सत्व रूप से निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं ॥ ९६ ॥ गोपा गोप्यश्च गावश्च सवत्साश्च नराधिप । सर्वे लीनाः प्रकृत्यां च प्रकृतिः परमेश्वरे ॥ ९७ ॥ हे नराधिप ! गोप, गोपी, बछड़ों समेत गौएँ प्रकृति में लीन होती हैं और प्रकृति परमेश्वर में ॥ ९७ ॥ महाविष्णौ विलीनाश्च ते सर्वे क्षुद्रविष्णवः । महाविष्णुः प्रकृत्यां च सा चैवं परमात्मनि ॥ ९८ ॥ सब छोटे विष्णु महाविष्णु में लीन होते हैं, महाविष्णु प्रकृति में और प्रकृति परमात्मा में विलीन होती है ॥ ९८ ॥ प्रकृतिर्योगनिद्रा च श्रीकृष्णनयनद्वये । अधिष्ठानं चकारैवं मायया चेश्वरेच्छया ॥ ९९ ॥ ईश्वरेच्छया प्रकृति योगनिद्रा होकर भगवान् श्रीकृष्ण के दोनों नेत्रों पर माया से अपना अधिष्ठान बनाती है ॥ ९९ ॥ प्रकृतेर्वासरो यावन्मितः कालः प्रकीर्तितः । तावद्वृन्दावने निद्रा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ १०० ॥ इस भांति प्रकृति का वासर (दिन) काल जितने समय का रहता है, उतने समय तक वृन्दावन में परमात्माश्रीकृष्ण को निद्रा रहता है ॥ १०० ॥ अमूल्यरत्नतल्पे च वह्निशुद्धांशुकार्चिते । गन्धचन्दनमाल्यौघवाय्वादिसुरभीकृते ॥ १०१ ॥ पुनः प्रजागरे तस्य सर्वसृष्टिर्भवेत्पुनः । एवं सर्वे प्राकृताश्च श्रीकृष्णं निर्गुणं विना ॥ १०२ ॥ तद्वन्दनं तक्त्यरण तस्य ध्यानं तदर्चनम् । कीर्तनं तद्गुणानां च महापातकनाशनम् ॥ १०३ ॥ एतत्ते कथितं सर्वं यद्यन्मृत्युंजयाच्छ्रुतम् । यथागमं महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १०४ ॥ वे अमूल्य रत्नों की शय्या पर, जो अग्नि विशुद्ध वस्त्र से सुसज्जित एवं गन्ध, चन्दन तथा मालाओं की वायु से अति सुवासित रहती है, शयन करते हैं । उनके जागने पर पुनः सब की सृष्टि होने लगती है, इस प्रकार केवल निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त सभी प्राकृत (प्रकृति से उत्पन्न) कहे जाते हैं । अतः उनका वन्दन, स्मरण, ध्यान, अर्चन और उनके गुणों का कीर्तन करना महापाप का नाश करता है । हे महाराज ! मृत्युञ्जय के मुख से मैंने आगमानुसार जो कुछ सुना था, वह तुम्हें सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ १०१-१०४ ॥ सुयज्ञ उवाच कालाग्निरुद्रो विश्वानां संहर्ता च तमोगुणः । ब्रह्मणोऽन्ते विलीनश्च सत्त्वं मृत्युंजये शिवे ॥ १०५ ॥ सुयज्ञ बोले-विश्व के संहर्ता कालाग्नि रुद्र, जो तमोगुण रूप हैं, ब्रह्मा का अन्त होने पर सत्त्व रूप से मृत्युञ्जय शिव में विलीन होते हैं ॥ १०५ ॥ शिवो लीनो निर्गुणे च श्रीकृष्णे प्राकृते लये । कथं तव गुरोर्नाम मृत्युंजय इति श्रुतम् ॥ १०६ ॥ और शिव जी प्राकृत लय के समय निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं । तो तुम्हारे गुरु शिव मृत्युञ्जय कैसे कहे जाते हैं ? ॥ १०६ ॥ कथं प्रसूर्महाविष्णोर्मूलप्रकृतिरीश्वरो । असंख्यानि च विश्वानि सन्ति वै यस्य लोमसु ॥ १०७ ॥ और जिस महाविष्णु के लोम में असंख्य विश्व सुनिहित रहता है, ईश्वरी मूल प्रकृति उनकी जननी कैसे कही जाती है ? ॥ १०७ ॥ सुतपा उवाच ब्रह्मणोऽन्ते मृत्युकन्या प्रणष्टा जलबिन्दुवत् । संहर्त्री सर्वलोकानां ब्रह्मादीनां नराधिप ॥ १०८ ॥ सुतपा बोले-हे नराधिप ! ब्रह्मा के अन्त होने पर मृत्युकन्या जो समस्त लोकों के समेत ब्रह्मा आदि का संहार करती है, जलविन्दु की भाँति स्वयं नष्ट हो जाती है, ॥ १०८ ॥ कतिधा मृत्युकन्यानां ब्रह्मणा कोटिशो लये । कालेन लीनः शंभुश्च सत्त्वरूपेच निर्गुणे ॥ १०९ ॥ इस प्रकार कितनी मृत्यु-कन्याओं और करोड़ों ब्रह्मा के लय होने के अनन्तर शिव जी अवसर देखकर सत्त्व रूप एवं निर्गुण (श्रीकृष्ण) में लीन हो जाते हैं ॥ १०९ ॥ मृत्युकन्या जिता शश्वच्छिवेन गुरुणा मम । न मृत्युना जितः शंभुः कल्पे कल्पे श्रुतौ श्रुतम् ॥ ११० ॥ मेरे गुरु शिव जी ने ही मृत्युकन्या को जीता है, न कि मृत्यु ने शंकर जी को, ऐसा प्रत्येक कल्प में वेद में सुना गया है ॥ ११० ॥ शंभुर्नारायणस्यैव प्रकृतेश्च नराधिप । नित्यानां लीनता नित्ये तन्माया न तु वास्तवी ॥ १११ ॥ हे नराधिप ! शिव, नारायण और प्रकृति ये तीनों नित्य हैं, अतः नित्य में नित्यों की लीनता उनकी माया है, वास्तव में नहीं है ॥ १११ ॥ स्वयंपुमान्निर्गुणश्च कालेन सगुणः स्वयम् । स्वयं नारायणः शंभुर्मायया प्रकृतिः स्वयम् ॥ ११२ ॥ क्योंकि स्वयं पुरुष निर्गुण है और वही समय पाकर सगुण होता है । स्वयं नारायण ही शिव हैं और माया से स्वयं प्रकृति है ॥ ११२ ॥ तदंशस्तत्समः शश्वद्यथा वह्नेः स्फुलिङ्गवत् । ये ये च ब्रह्मणा सृष्टा रुद्रादित्यादयस्तथा ॥ ११३ ॥ कल्पे कल्पे जितास्ते ते नश्वरा मृत्युकन्यया । न शिवो ब्रह्मणा सृष्टः सत्यो नित्यः सनातनः ॥ ११४ ॥ जो अग्नि की चिनगारी की भांति उसी का अंश और निरन्तर उसी के समान है । ब्रह्मा द्वारा रुद्र, आदित्य आदि जिन-जिन की प्रत्येक कल्पों में सृष्टि होती है, वे मृत्यु कन्या द्वारा विजित होने के नाते नश्वर हैं । किन्तु शिव की सृष्टि ब्रह्मा द्वारा नहीं होती है, वे सत्य, नित्य एवं सनातन हैं ॥ ११३-११४ ॥ कतिधा ब्रह्मणां पातो यन्निमेषेण भूमिप । अथाऽऽदिसर्गे श्रीकृष्णः प्रकृत्यां च जगद्गुरुः ॥ ११५ ॥ चकार वीर्याधानं च पुण्ये वृन्दावने वने । तद्वामांशसमुद्भूता रासे रासेश्वरी परा ॥ ११६ ॥ गर्भं दधार सा राधा यावद्वै ब्रह्मणो वयः । ततः सुषाव सा डिम्भं गोलोके रासमण्डले ॥ ११७ ॥ हे भूमिप ! जिनके निमेष मात्र से कितने ब्रह्मा का पतन हो जाता है । वे जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में वृन्दावन नामक पुण्य स्थान में प्रकृति में वीर्याधान करते हैं । उस समय रासमण्डल में उनके बाँयें भाग से सर्वश्रेष्ठा रासेश्वरी राधा उत्पन्न होती हैं । जो भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा वीर्याधान करने पर ब्रह्मा की आयु तक उस गर्भ को धारण किए रहती हैं । अनन्तर गोलोक के रासमण्डल में डिम्भ (अंड) को उत्पन्न करती हैं ॥ ११५-११७ ॥ चुकोप डिम्भं सा दृष्ट्वा हृदयेन विदूयता । तड्डिम्भं प्रेरयामास तदधो विश्वगोलके ॥ ११८ ॥ किन्तु उसे देख कर उन्हें महान् क्रोध उत्पन्न होता है जिससे हार्दिक दुःख प्रकट करती हुई वे उस डिम्भ (अंडे) को गोलोक से नीचे विश्व के कुण्डों में फेंक देती हैं ॥ ११८ ॥ त्यक्त्वाऽपत्यं महादेवी रुरोद च मुहुर्मुहुः । कृष्णस्तां बोधयामास महायोगेन योगवित् ॥ ११९ ॥ इस प्रकार सन्तान त्याग कर वह महादेवी बार-बार रुदन करती है और योगवेत्ता भगवान् श्रीकृष्ण महायोग द्वारा उन्हें बोध कराते (समझाते) हैं ॥ ११९ ॥ बभूव तस्माड्डिम्भाच्च सर्वाधारो महाविराट् ॥ १२० ॥ उसी अंडे से समस्त का आधार महाविराट् (महाविष्णु) उत्पन्न होता है ॥ १२० ॥ सुयज्ञ उवाच अद्य मे सफलं जन्म जीवनं सार्थकं मम । शापो मे वररूपश्चाप्यभवद्भक्तिकारणम् ॥ १२१ ॥ सुयज्ञ बोले-आज मेरा जन्म सफल हो गया, जीवन सार्थक हुआ और यह शाप वरदान रूप में मिला है, क्योंकि इसी कारण भक्ति प्राप्त हुई है ॥ १२१ ॥ सुदुर्लभा हरेर्भक्तिः सर्वमङ्गलमङ्गला । न तस्याश्च समं विप्र वेदोक्तं भक्तिपञ्चकम् ॥ १२२ ॥ यथा भक्तिर्मम भवेच्छ्रीकृष्णे परमात्मनि । सुदुर्लभा च सर्वेषां तत्कुरुष्व महामुने ॥ १२३ ॥ हे विप्र ! भगवान् की भक्ति समस्त मंगलों का मंगल होने के नाते अति दुर्लभ है और वेद में कही हुई पाँच प्रकार की भक्ति, उसके समान नहीं है । हे महामुने ! उन परमात्मा श्रीकृष्ण में जिस प्रकार मेरी भक्ति उत्पन्न हो, जो सबको अति दुर्लभ है, वही उपाय करने की कृपा करें ॥ १२२-१२३ ॥ नह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्त्युरुकालेन कृष्णभक्ताश्च दर्शनात् ॥ १२४ ॥ क्योंकि तीर्थ जलमय ही नहीं होते हैं और न देव मिट्टी पत्थरों में ही रहते हैं । वे लम्बे समय में पवित्र करते हैं और भगवान् कृष्ण के भक्त देखते ही पवित्र कर देते हैं ॥ १२४ ॥ सर्वेषामाश्रमाणां च द्विजातेर्जातिरुत्तमा । स्वधर्मनिरतश्चैव तेषु श्रेष्ठश्च भारते ॥ १२५ ॥ सभी आश्रमों में द्विजाति की जाति अति उत्तम कही गयी है, उसमें भी जो अपने धर्म का पालन करने में लगा रहता है वह श्रेष्ठ है ॥ १२५ ॥ कृष्णमन्त्रोपासकश्च कृष्णभक्तिपरायणः । नित्यं नैवेद्यभोजी च ततः श्रेष्ठो महाञ्छुचिः ॥ १२६ ॥ कृष्ण मन्त्र की उपासना करने वाला, उनकी भक्ति में लीन रहने वाला, और नित्य उनके नैवेद्य का भोजन करने वाला व्यक्ति महान् पवित्र होता है, अतः वह उस (द्विज) से श्रेष्ठ है ॥ १२६ ॥ त्वां वैष्णवं द्विजश्रेष्ठं महाज्ञानार्णवं परम् । संप्राप्य शिवशिष्यं च कं यामि शरणं मुने ॥ १२७ ॥ अधुनाऽहं गलत्कुष्ठी तव शापान्महामुने । कथं तपस्यामशुचिर्नाधिकारी करोमि च ॥ १२८ ॥ हे मुने ! शंकर के शिष्य, द्विजों में श्रेष्ठ, विष्णु के भक्त तथा महान् ज्ञानसागर आपको पाकर मैं अन्य किसकी शरण में जाऊं । हे महामुने ! इस समय आपके शाप द्वारा हमें गलित-कुष्ठ हो गया है, अतः अशुद्ध रहने के नाते मुझे तपस्या करने का अधिकार नहीं है । इसलिए मैं तप नहीं कर सकता हूँ ॥ १२७-१२८ ॥ सुतपा उवाच हरिभक्तिप्रदात्री सा विष्णुमाया सनातनी । सा व याननुगृह्णाति तेभ्यो भक्तिं ददाति च ॥ १२९ ॥ सुतपा बोले--भगवान् विष्णु की सनातनी माया भगवान् की भक्ति प्रदान करती है । वह जिसके ऊपर अनुग्रह करती है, उन्हें भक्ति प्रदान करती है ॥ १२९ ॥ यांश्च माया मोहयति तेभ्यस्तां न ददाति व । करोति वञ्चनां तेषां नश्वरेण धनेन च ॥ १३० ॥ वह माया जिन्हें मोहित करती है, उन्हें नश्वर वस्तुएँ-धन आदि देकर भक्ति से वंचित रखती है ॥ १३० ॥ कृष्णप्रेममयी शक्तिं प्राणाधिष्ठातृदेवताम् । भज राधां निर्गुणां तां प्रदात्रो सर्वसंपदाम् ॥ १३१ ॥ अतः उस राधा को भजो, जो भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेममयी शक्ति, उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवता, निर्गुण और समस्त सम्पदा प्रदान करने वाली है ॥ १३१ ॥ शीघ्रं यास्यसि गोलोकं तदनुग्रहसेवया । या सेविता श्रीकृष्णेन सर्वाराध्येन पूजिता ॥ १३२ ॥ सेवा करने पर उनकी कृपा से शीघ्र गोलोक प्राप्त करोगे, क्योंकि सभी के आराध्य देव भगवान् श्रीकृष्ण ने उनकी सेवा-पूजा स्वयं की है ॥ १३२ ॥ ध्यानसाध्यं दुराराध्यं भक्ताः संसेव्य निर्गुणम् । सुचिरेण च गोलोकं प्रयान्ति बहुजन्मतः ॥ १३३ ॥ ध्यानसाध्य, दुराराध्य एवं निर्गण श्री कृष्ण की सम्यक् सेवा करके भक्त जन सुदीर्घकाल किंवा अनेक जन्मों के पश्चात् गोलोक प्राप्त करते हैं ॥ १३३ ॥ कृपामयीं च संसेव्य भक्ता यान्त्यचिरेण वै । सा प्रसूश्च महाविष्णोः सर्वसंपत्स्वरूपिणी ॥ १३४ ॥ किन्तु उस कृपामयी जननी की सेवा करने पर भक्तगण थोड़े काल में ही गोलोक चले जाते हैं और समस्त सम्पत्ति स्वरूप वाली यही महाविष्णु की जननी है ॥ १३४ ॥ विप्रपादोदकं भुङ्क्ष्व वर्षं च संयतः शुचिः । कामदेवस्वरूपश्च रोगहीनो भविष्यसि ॥ १३५ ॥ अतः तुम संयमपूर्वक एक वर्ष तक ब्राह्मण का चरणोदक पान करो, उससे तुम्हें कामदेव के समान रूप प्राप्त होगा और नीरोग हो जाओगे ॥ १३५ ॥ विप्रपादोदकक्लिन्ना यावत्तिष्ठति मेदिनी । तावत्पुष्करपत्रेषु पिबन्ति पितरो जलम् ॥ १३६ ॥ क्योंकि ब्राह्मण के चरणोदक से पृथ्वी जब तक भीगी रहती है, उतने दिनों तक पितर गण कमल के पत्ते में जलपान करते हैं ॥ १३६ ॥ पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि तीर्थानि सागरे । सागरे यानि तीर्थानि विप्रपादेषु तानि च ॥ १३७ ॥ पृथ्वी पर जितने तीर्थ हैं उतने ही सागर में भी हैं और सागर में जितने तीर्थ हैं उतने ही ब्राह्मणों के चरणों में भी रहते हैं ॥ १३७ ॥ विप्रपादोदकं चैव पापव्याधिविनाशनम् । सर्वतीर्थोदकसमं भुक्तिमुक्तिप्रदं शुभम् ॥ १३८ ॥ इस कारण ब्राह्मण का चरणोदक समस्त रोगों का नाशक, समस्त तीर्थों के जल के समान भुक्ति-मुक्ति-दायक और शुभ है ॥ १३८ ॥ विप्रो मानवरूपी च देवदेवो जनार्दनः । विप्रेण दत्तं द्रव्यं च भुञ्जते सर्वदेवताः ॥ १३९ ॥ क्योंकि मनुष्य रूप में ब्राह्मण देवाधिदेव जनार्दन हैं और ब्राह्मणों द्वारा दी गई वस्तुओं का उपभोग सभी देव करते हैं ॥ १३९ ॥ इत्येवमुक्त्वा विप्रश्च गृहीत्वा तस्य पूजनम् । जगाम गृहमित्युक्त्वा त्वायास्ये वत्सरान्तरे ॥ १४० ॥ इतना कह कर वह ब्राह्मण उनकी पूजा ग्रहण करने के अनन्तर अपना घर चला गया और कहता गया कि-'वर्ष बीतने पर मैं पुनः आऊँगा । ' ॥ १४० ॥ भक्त्या च बुभुजे राजा विप्रपादोदकं शिवे । विप्रांश्च पूजयामास भोजयामास वत्सरम् ॥ १४१ ॥ संवत्सरे व्यतीते तु निर्मुक्तो व्याधितो नृपः । आजगाम मुनिश्रेष्ठः सुतपाः कश्यपाग्रणीः ॥ १४२ ॥ राधापूजाविधानं च स्तोत्रं च कवचं मनुम् । ध्यानं च सामवेदोक्तं ददौ तस्मै नृपाय सः ॥ १४३ ॥ हे शिवे ! उसके पश्चात् राजा भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों का चरणोदक पान कर उनकी पूजा करने लगा । उन्हें वर्ष भर भोजन भी कराया । वर्ष के व्यतीत होते ही वह राजा नीरोग हो गया और उसी समय वह मुनिश्रेष्ठ सुतपा, जो कश्यप-गोत्रों में अग्रसर थे, वहाँ पुनः आ पहुंचे । उन्होंने राजा को राधा जी का पूजा-विधान, स्तोत्र, कवच, मन्त्र, और सामवेदानुसार ध्यान बताया ॥ १४१-१४३ ॥ राजन्निर्गम्यतां शीघ्रमित्युक्त्वा तपसे मुनिः । जगाम स्वालयाद्दुर्गं निर्जगाम त्वरन्नृपः ॥ १४४ ॥ और कहा-'हे राजन् ! अब तप के लिए शीघ्र चले जाओ । ' इतना कह कर मुनि के चले जाने पर राजा ने भी अपने भवन से प्रस्थान कर दिया ॥ १४४ ॥ रुरुदुर्बान्धवाः सर्वे त्रिरात्रं शोकमूर्च्छिताः । भार्याश्च तत्यजुः प्राणान्पुत्रो राजा बभूव ह ॥ १४५ ॥ उनके वियोग में, बान्धवगण तीन रात्रि तक शोक-निमग्न पड़े रहे और स्त्रियों ने तो प्राण परित्याग ही कर दिया । अन्त में उनका पुत्र राजसिंहासन पर सुशोभित हुआ ॥ १४५ ॥ सुयशः पुष्करं गत्वा चक्रे वै दुष्करं तपः । दिव्यं वर्षशतं राजा जजाप परमं मनुम् ॥ १४६ ॥ राजा सुयज्ञ ने पुष्कर जाकर दिव्य सौ वर्षों तक उस परम मन्त्र का जप करते हुए अति कठिन तप किया ॥ १४६ ॥ तदा ददर्श गगने रथस्थां परमेश्वरीम् । स तद्दर्शनमात्रेण निष्पापश्च बभूव ह ॥ १४७ ॥ अनन्तर आकाश में रथ पर सुशोभित परमेश्वरी राधा का दर्शन उन्हें प्राप्त हुआ, जिससे ये उसी समय पापरहित हो गये ॥ १४७ ॥ तत्याज मानुषं देहं दिव्यां मूर्तिं दधार ह । सा देवी तेन यानेन रत्नेन्द्रैर्निमितेन च ॥ १४८ ॥ नृपं नीत्वा च गोलोकं तत्र चैषा ययौ तदा । राजा ददर्श गोलोकं नद्या विरजयाऽऽवृतम् ॥ १४९ ॥ वेष्टितं पर्वतेनैव शतशृङ्गेण चारुणा । श्रीवृन्दावनसंयुक्तं रासमण्डलमण्डितम् ॥ १५० ॥ एवं अपनी मनुष्यदेह का त्याग कर दिव्य शरीर धारण किया और रत्नेन्द्र-निर्मित उस रथ पर देवी के साथ बैठ कर राजा गोलोक चले गये । वहाँ पहुँच कर राजा ने विरजा नदी से आवृत (घिरा) उस गोलोक को देखा, जो सौन्दर्यपूर्ण सौ शिखरों वाले पर्वत से वेष्टित, श्रीवृन्दावन से युक्त एवं रासमण्डल से विभूषित था ॥ १४८-१५० ॥ गोगोपगोपीनिकरैः शोभितं परिसेवितैः । रत्नेन्द्रसारखचितैर्मन्दिरैः सुमनोहरैः ॥ १५१ ॥ नानाचित्रविचित्रैश्च राजितं परिशोभितम् । सप्तत्रिंशद्भिराक्रीडैः कल्पवृक्षसमन्वितैः ॥ १५२ ॥ पारिजातद्रुमाकीणैर्वेष्टितं कामधेनुभिः । आकाशवत्सुविस्तीर्णं वर्तुलं चन्द्रबिम्बवत् ॥ १५३ ॥ गौओं, गोपों और गोपियों के वृन्दों से सुसेवित होने के नाते अति सुशोभित, उत्तम रत्नों के सार भागों से खचित, अति मनोहर एवं चित्र-विचित्र मन्दिरों से सुविराजित था । एवं क्रीडा स्थान वाले सैतीस कल्पवृक्षों से युक्त, पारिजात से आच्छादित, कामधेनुओं से पूर्ण, आकाश की भांति अति विस्तृत और चन्द्र बिम्ब के समान गोलाकार था ॥ १५१-१५३ ॥ अत्यूर्ध्वमपि वैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम् । शून्ये स्थितं निराधारं ध्रुवमेवेश्वरेच्छया ॥ १५४ ॥ वैकुण्ठ लोक से अत्यन्त ऊपर पचास करोड़ योजन की दूरी पर स्थित एवं ईश्वरेच्छया शून्य प्रदेश में निराधार होते हुए ध्रुव की भाँति अटल था ॥ १५४ ॥ आत्माकाशसमं नित्यमस्माकं च सुदुर्लभम् । अहं नारायणोऽनन्तो ब्रह्मा विष्णुर्महान्विराट् ॥ १५५ ॥ धर्मक्षुद्रविराट्संघो गङ्गा लक्ष्मी सरस्वती । त्वं विष्णुमाया सावित्री तुलसी च गणेश्वरः ॥ १५६ ॥ सनत्कुमारः स्कन्दश्च नरनारायणावृषी । कपिलो दक्षिणा यज्ञो ब्रह्मपुत्राश्च योगिनः ॥ १५७ ॥ पवनो वरुणश्चन्द्रः सूर्यो रुद्रो हुताशनः । कृष्णमन्त्रोपासकाश्च भारतस्थाश्च वैष्णवाः ॥ १५८ ॥ एभिर्दृष्टश्च गोलोको नान्यैर्दृष्टः कदाचन । निरामये च तत्रैव रत्नसिंहासने स्थितम् ॥ १५९ ॥ रत्नमालाकिरीटैश्च भूषितं रत्नभूषणैः । सुनिर्मलैः पीतवस्त्रैर्वह्निशुद्धैर्विराजितम् ॥ १६० ॥ बह आत्मा और आकाश की भांति नित्य तथा हम लोगों के लिए भी अति दुर्लभ है । मैं, नारायण, अनन्त, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट् (महाविष्णु), धर्म, क्षुद्रविष्णु-वृन्द, गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती, तुम, विष्णुमाया, सावित्री, तुलसी, गणेश्वर, सनत्कुमार, स्कन्द, नर-नारायण दोनों ऋषि, कपिल, दक्षिणा, यज्ञ, ब्रह्मा के योगी पुत्रगण, वायु, वरुण, चन्द्र, सूर्य, रुद्र, अग्नि और भारत के रहने वाले एवं भगवान् श्रीकृष्ण के मन्त्र की आराधना करने वाले वैष्णव वृन्द, इन्हीं लोगों ने गोलोक को देखा है अन्य कोई नहीं । उसी गोलोक में निरामय (सुरचित) रत्नसिंहासन पर भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं, जो रत्नों की माला, किरीट, रत्नों के भूषणों से भूषित, अतिनिर्मल एवं अग्नि की भांति विशुद्ध पीताम्बर से सुसज्जित हैं ॥ १५५-१६० ॥ चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं किशोरं गोपरूपिणम् । नवीननीरदश्यामं श्वेतपङ्कजलोचनम् ॥ १६१ ॥ शरत्पार्वणचन्द्रास्यमीषद्धास्यं मनोहरम् । द्विभुजं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ १६२ ॥ स्वेच्छामयं परं ब्रह्म निर्गुणं प्रकृतेः परम् । ध्यानसाध्यं दुराराध्यमस्माकं च सुदुर्लभम् ॥ १६३ ॥ सर्वाङ्ग में चन्दन लगाये किशोरावस्था तथा गोपरूप धारण किये हुए हैं । जो नये मेघ के समान श्यामल और श्वेतकमल की भाँति नेत्र वाले एवं शारदीय पूर्णचन्द्रमा के समान मुख वाले हैं । वे मन्द मुसुकान से युक्त एवं मनोहर हैं । दो भुजाओं से युक्त, हाथ में मुरली लिये हुए, भक्तों के अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले, स्वेच्छामय, परब्रह्म, निर्गुण,प्रकृति से परे, ध्यान द्वारा ही साध्य होने वाले अन्यथा दुराराध्य और हम लोगों के लिए अति दुर्लभ हैं ॥ १६१-१६३ ॥ प्रियैर्द्वादशगोपालैः सेवितं श्वेतचामरैः । वीक्षितं गोपिकावृन्दैः सस्मितैः सुमनोहरैः ॥ १६४ ॥ पीडितैः कामबाणैश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनैः । वह्निशुद्धांशुकाधानै रत्नभूषणभूषितैः ॥ १६५ ॥ उनकी सेवा में बारह प्रिय गोपाल श्वेत चामर डुला रहे हैं, गोपियों का अति मनोहर समूह मन्द मुसुकान भरी चितवन से देख रहा है,जो अति स्थायी यौवन से निरन्तर भूषित, काम के बाणों से आहत, अग्निविशुद्ध वस्त्रों से सुसज्जित और रत्नों के भूषणों से विभूषित था ॥ १६४-१६५ ॥ रासमण्डलमध्यस्थं श्रीकृष्णं च परात्परम् । ददर्श राजा तत्रैव राधया दर्शितं तदा ॥ १६६ ॥ स्तुतं चतुर्भिर्वेदैश्च मूर्तिमद्भिर्मनोहरैः । रागिणीनां च रागाणामतीव सुमनोहरम् ॥ १६७ ॥ श्रुतवन्तं च संगीतं यन्त्रवक्त्रोत्थितं शिवे । नित्यया च सनातन्या प्रकृत्या च सह त्वया ॥ १६८ ॥ अनन्तर राजा ने राधिका जी द्वारा दिखाये गए परात्पर भगवान् श्रीकृष्ण को रत्नसिंहासन पर विराजमान देखा, जो मनोहर मूर्ति धारण किये चारों वेदों द्वारा स्तुत, राग-रागिनियों से आवृत होने के नाते अति मनोहर थे । हे शिवे ! नित्य सनातनी प्रकृति रूप तुम्हारे साथ, यंत्र-मुख से निकले हुए संगीत को वे सुन रहे थे ॥ १६६-१६८ ॥ शश्वत्पूजितपादाब्जमखण्डतुलसीदलैः । कस्तूरीकुङ्कुमाक्तैश्च गन्धचन्दनचर्चितैः ॥ १६९ ॥ दूर्वाभिरक्षताभिश्च पारिजातप्रसूनकैः । निर्मलैर्विरजातोयैर्दत्तार्घ्यैरतिशोभितम् ॥ १७० ॥ सुप्रसन्नं स्वतन्त्रं च सर्वकारणकारणम् । सर्वेषां चान्तरात्मानं सर्वेशं सर्वजीवनम् ॥ १७१ ॥ सर्वाधारं परं पूज्यं ब्रह्मज्योतिः सनातनम् । सर्वसंपत्स्वरूपं च दातारं सर्वसंपदाम् ॥ १७२ ॥ सर्वमङ्गलरूपं च सर्वमङ्गलकारणम् । सर्वमङ्गलदं सर्वमङ्गलानां च मङ्गलम् ॥ १७३ ॥ उनके चरण कमल की निरन्तर पूजा हो रही थी, जो कस्तूरी, कुंकुम से आर्द्र, गन्ध एवं चन्दन-चचित अखण्ड तुलसी दल अक्षत-दुर्वादल, पारिजात (मन्दार) के पुष्पों और विरजा नदी के जल के दिए गये अर्घ्य से अति शोभित थे तथा जो स्वयं अति प्रसन्न, स्वतन्त्र, समस्त कारणों के कारण, सभी के अन्तरात्मा, सर्वाधीश, सब के जीवन, सबके आधार, परमपूज्य, ब्रह्म, सनातन ज्योतिःस्वरूप, समस्त सम्पत्ति स्वरूप, सम्पूर्ण सम्पदाओं के प्रदाता, समस्त मंगल स्वरूप, सम्पूर्ण मंगलों के कारण, सर्वमंगलप्रद और समस्त मंगलों के मंगल हैं ॥ १६९-१७३ ॥ तं दृष्ट्वा नृपतिस्त्रस्तो ह्यवरुह्य रथात्त्वरन् । साश्रूनेत्रः पुलकितो मूर्ध्ना स प्रणनाम च ॥ १७४ ॥ उन्हें देख कर राजा ने भयभीत होकर सजल नयन और रोमाञ्चित होते हुए रथ से उतर कर शीघ्र शिर से प्रणाम किया ॥ १७४ ॥ परमात्मा ददौ तस्मै स्वदास्यं च शुभाशिषम् । स्वभक्तिं निश्चलां सत्यामस्माकं च सुदुर्लभाम् ॥ १७५ ॥ उपरान्त परमात्मा ने शुभ आशीर्वाद देकर उन्हें अपना दास (पार्षद) बनाया और अपनी निश्चल एवं सत्य भक्ति भी प्रदान की जो हम लोगों को अति दुर्लभ है ॥ १७५ ॥ राधाऽवरुह्य स्वरथात्कृष्णवक्षस्युवास सा । गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेविता श्वेतचामरैः ॥ १७६ ॥ अनन्तर राधा अपने रथ से उतर कर भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर निवसित हो गयीं और उनकी अत्यन्त प्रेयसी गोपियाँ श्वेत चामरों से उनकी सेवा करने लगीं ॥ १७६ ॥ संभाषिता श्रीकृष्णेन सस्मितेन च पूजिता । समुत्थितेन सहसा भक्त्या वै संभ्रमेण च ॥ १७७ ॥ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने भी मन्द हास करते हुए उनसे प्रेमालाप और पूजा तथा सहसा खड़े होकर भक्तिपूर्वक सम्मान किया ॥ १७७ ॥ आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं च माधवम् । प्रवदन्ति च वेदेषु वेदविद्भिः पुरातनैः ॥ १७८ ॥ (इस कारण) पहले राधा पश्चात् कृष्ण या माधव कहना चाहिए, ऐसा वेदों में प्राचीन वेदवेत्ताओं ने कहा है ॥ १७८ ॥ विपर्ययं ये वदन्ति ये निन्दन्ति जगत्प्रसूम् । कृष्णप्राणाधिकां प्रेममयीं शक्तिं च राधिकाम् ॥ १७९ ॥ ते पच्यन्ते कालसूत्रे यावच्चन्द्रदिवाकरौ । भवन्ति स्त्रीपुत्रहीना रोगिणः शतजन्मसु ॥ १८० ॥ क्योंकि जो विपर्यय (उलटा अर्थात् कृष्ण कह कर राधा का नामोच्चारण करते हैं और उस जगज्जननी राधिका की, जो भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों से अधिक प्रिय एवं उनकी प्रेममयी शक्ति है, निन्दा करते हैं, उन्हें चन्द्र-सूर्य के समय तक कालसूत्र नामक नरक में रहना पड़ता है और सौ जन्मों तक स्त्री-पुत्र से हीन एवं रोगी भी होना पड़ता है ॥ १७९-१८० ॥ इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् । सा त्वं सती भगवती वैष्णवी च सनातनी ॥ १८१ ॥ नारायणी विष्णुमाया मूलप्रकृतिरीश्वरी । मायया मां पृच्छसि त्वं सर्वज्ञा सर्वरूपिणी ॥ १८२ ॥ स्त्रीजातिष्वधिदेवी च परा जातिस्मरा वरा । कथितं राधिकाख्यानं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १८३ ॥ हे दुर्गे ! इस प्रकार मैंने श्री राधिका जी का परमोत्तम आख्यान तुम्हें सुना दिया और तुम भी वही सती, भगवती, वैष्णवी, सनातनी, नारायणी, विष्णु की माया, मूल प्रकृति, ईश्वरी होकर माया से मुझसे पूछ रही हो क्योंकि तुम भी सब कुछ जानने वाली, समस्त का स्वरूप, स्त्री जाति की अधीश्वरी, श्रेष्ठा और जाति स्मरण रखने वाली देवी हो । इस भांति मैंने राधिका जी का आख्यान कह दिया अब पुनः क्या सुनना चाहती हो ॥ १८१-१८३ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्याने सुयज्ञगोलोकगमनं नाम चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥ श्रीब्रह्मवैर्वतमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत हरगौरी के संवाद में राधाख्यान एवं सुयज्ञाख्यान में सुयज्ञ का गोलोक-प्राप्ति-कथन नामक चौवनवा अध्याय समाप्त ॥ ५४ ॥ |