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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


राधोपाख्याने राधापूजास्तोत्रादिकथनम् -
राधा की पूजा, स्तोत्र आदि -


पार्वत्युवाच
श्रीकृष्णस्य स्थिते मन्त्रे चान्येषामीश्वरस्य वः ।
कथं जग्राह राधाया मन्त्रं वै वैष्णवो नृपः ॥ १ ॥
किं विधानं च किं ध्यानं किं स्तोत्रं कवचं च किम् ।
कं मन्त्रं च ददौ राज्ञे तां पूजापद्धतिं वद ॥ २ ॥
पार्वती बोलीं-आपके और दूसरों के भी ईश्वर श्रीकृष्ण के मंत्र के रहते उस वैष्णव राजा ने कैसे राधा का मंत्र ग्रहण किया ? तथा उसका विधान, ध्यान, स्तोत्र एवं कवच क्या है, उन्होंने राजा को कौन मन्त्र बताया ? उस पूजापद्धति को बताने की कृपा कीजिये ॥ १-२ ॥

महेश्वर उवाच
हे विप्र कं भजामीति प्रश्नं कुर्वति राजनि ।
शीघ्रं प्राप्नोमि गोलोकं कस्याऽऽराधनतो मुने ॥ ३ ॥
महेश्वर बोले-हे विष ! मैं किसकी आराधना करूँ, तथा हे मने ! किसकी सेवा से मुझे गोलोक की शीघ्र प्राप्ति होगी ॥ ३ ॥

इत्युक्तवन्तं राजेन्द्रमुवाच ब्राह्मणोत्तमः ।
तत्सेवया च तल्लोकं प्राप्स्यसे बहुजन्मतः ॥ ४ ॥
तत्प्राणाधिष्ठातृदेवीं भज राधां परात्पराम् ।
कृपामयीप्रसादेन शीघ्रं प्राप्नोषि तत्पदम् ॥ ५ ॥
ऐसा उस महाराज के पूछने पर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने कहा कि-भगवान् की सेवा करने से अनेक जन्मों में गोलोक की प्राप्ति होगी । अतः उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी राधा का भजन करो; क्योंकि उसी परात्पर (सर्वश्रेष्ठ) एवं कृपामयी के प्रसाद से तुम्हें शीघ्र उस स्थान की प्राप्ति हो जायगी ॥ ४-५ ॥

इत्युक्त्वा राधिकामन्त्रं ददौ तस्मै षडक्षरम् ।
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ६ ॥
प्राणायामं भूतशुद्धिं मन्त्रन्यासं तथैव च ।
कराङ्‌गन्यासमेवं च ध्यानं सर्वसुदुर्लभम् ॥ ७ ॥
स्तोत्रं च कवचं तं च शिक्षयामास भक्तितः ।
राजा तेन क्रमेणैव जजाप परमं मनुम् ॥ ८ ॥
ध्यानं च सामवेदोक्तं मङ्‌गलानां च मङ्‌गलम् ।
कृष्णस्तां पूजयामास पुरा ध्यानेन येन च ॥ ९ ॥
श्वेतचम्पकवर्णाभां कोटिचन्द्रसमप्रभाम् ।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यां शरत्पङ्‌कजलोचनाम् ॥ १० ॥
सुश्रोणीं सुनितम्बां च पक्वबिम्बाधरां वराम् ।
मुक्तापङ्‌क्तिप्रतिनिधिदन्तपङ्‌क्तिमनोहराम् ॥ ११ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्‍नमालाविभूषिताम् ॥ १२ ॥
रत्‍नकेयूरवलयां रत्‍नमञ्जीररञ्जिताम् ।
रत्‍नकुण्डलयुग्मेन विचित्रेण विराजिताम् ॥ १३ ॥
सूर्यप्रभाप्रतिकृतिगण्डस्थलविराजिताम् ।
अमूल्यरत्‍नखचितग्रैवेयकविभूषिताम् ॥ १४ ॥
सद्‌रत्‍नसारखचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलाम् ।
रत्‍नाङ्‌गुलीयसंयुक्तां रत्‍नपाशकशोभिताम् ॥ १५ ॥
ऐसा कहकर (ब्राह्मण ने) उसे राधा जी का षडक्षर वाला 'ओं राधाय स्वाहा' मन्त्र, प्राणायाम, भूतशुद्धि, मन्त्रन्यास, करन्यास, अंगन्यास, तथा सबके लिए अति दुर्लभ ध्यान, स्तोत्र एवं कवच की भी उन्हें शिक्षा दी । अनन्तर राजा ने उसी व्रत से उस परम मन्त्र का जप तथा ध्यान भी किया, जो सामवेदानुसार एवं समस्त मंगलों का मंगल था । पूर्वकाल में जिस ध्यान द्वारा भगवान् श्री कृष्ण ने उस राधा की पूजा की थी वह यह हैउनका श्वेत चम्पा पुष्प के समान रूप-रंग है एवं करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्ति, शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति मुख, शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र, सुन्दर श्रोणी भाग, अति सुन्दर नितम्ब, पके बिम्बाफल के समान अधरोष्ठ, स्वयं सबसे उत्तम, मोती की पंक्ति के समान दाँतों की मनोहर पंक्तियाँ तथा मन्दहास समेत प्रसन्नतापूर्ण मुख हैं । वे भक्तों पर अनुकम्पा करने वाली, अग्नि-विशुद्ध वस्त्र से सुसज्जित, रत्नों की मालाओं से विभूषित, रत्नों के केयूर (अंगद), रत्नों के मंजीर, रत्नों के नूपुर और रत्नों के विचित्र एवं युगल कुण्डलों से विभूषित तथा सूर्य की कान्ति के समान कान्तिपूर्ण गण्डस्थल (कपोल) से सुशोभित, अमूल्य रत्नों के हार से भूषित, उत्तम रत्नों के सार भाग से खचित किरीट-मुकुट से देदीप्यमान, रत्नों की अंगूठी आदि भूषण एवं पाशक (चेन या पासा आदि) भूषणों से सुशोभित हैं ॥ ६-१५ ॥

बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यशोभितम् ।
रूपाधिष्ठातृदेवीं च मत्तवारणगामिनीम् ॥ १६ ॥
गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्घमधश्चन्दनबिन्दुना ॥ १७ ॥
मालती की माला से विभूषित केश-पाश धारण करने वाली, रूप की अधिष्ठात्री और मतवाले हाथी की भांति गमन करने वाली उन (राधा देवी) को अत्यन्त प्रिय गोपियाँ श्वेत चामरों से सेवा कर रही हैं । उनके भाल में कस्तूरी बिन्दी के साथ नीचे चन्दन की बिन्दी लगी है ॥ १६-१७ ॥

सिन्दूरबिन्दुना चारुसीमन्ताधःस्थलोज्ज्वलाम् ।
नित्यं सुपूजिता भक्त्या कृष्णेन परमात्मना ॥ १८ ॥
कृष्णसौभाग्यसंयुक्तां कृष्णप्राणाधिकां वराम् ।
कृष्णप्राणाधिदेवीं च निर्गुणां च परात्पराम् ॥ १९ ॥
महाविष्णुविधात्रीं च प्रदात्रीं सर्वसंपदाम् ।
कृष्णभक्तिप्रदां शान्तां मूलप्रकृतिमीश्वरीम् ॥ २० ॥
वैष्णवीं विष्णुमायां च कृष्णप्रेममयीं शुभाम् ।
रासमण्डलमध्यस्थां रत्‍नसिंहासनस्थिताम् ॥ २१ ॥
रासे रासेश्वरयुतां राधां रासेश्वरीं भजे ॥ २२ ॥
सुन्दर सीमन्त (मांग) में सिन्दूर की बिन्दी लगने के कारण उसके नीचे के भाग में समुज्ज्वल, परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा भक्तिपूर्वक नित्य सुपूजित, कृष्ण के सौभाग्य से युक्त, उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय, उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी, निर्गुण और परात्पर (सर्वश्रेष्ठ), महाविष्णु की जननी, समस्त सम्पत्ति की प्रदायिनी, कृष्ण-भक्ति देने वाली, शान्तस्वरूप, मूलप्रकृति, ईश्वरी, वैष्णवी, विष्णु की माया, भगवान् कृष्ण की प्रेममयी मूर्ति, शुम, रासमण्डल के मध्य रत्नसिंहासन पर विराजमान, रास में रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के साथ रहनेवाळी रासेश्वरी श्रीराधा जी की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ १८-२२ ॥

ध्यात्वा पुष्पं मूर्ध्नि दत्त्वा पुनर्ध्यायेज्जगत्प्रसूम् ।
दद्यात्पुष्पं पुनर्ध्यात्वा चोपचाराणि षोडश ॥ २३ ॥
आसनं वसनं पाद्यमर्घ्यं गन्धानुलेपनम् ।
धूपं दीपं सुपुष्पं च स्नानीयं रत्‍नभूषणम् ॥ २४ ॥
नानाप्रकारनैवेद्यं ताम्बूलं वासितं जलम् ।
मधुपर्कं रत्‍नतल्पमुपचाराणि षोडश ॥ २५ ॥
प्रत्येकं वेदमन्त्रेण दत्तं भक्त्या च भूभृता ।
मन्त्रांश्चश्रूयतां दुर्गे वेदोक्तान्सर्वसंमतान् ॥ २६ ॥
इस प्रकार ध्यान करने के उपरान्त उस पुष्प को मस्तक पर रख कर पुनः जगदम्बा (श्रीराधा) का ध्यान करे और फूल चढ़ावे । पुनः ध्यान के पश्चात् सोलह उपचार-आसन, वस्त्र, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, लेपन, धूप, दीप, उत्तम पुष्प, स्नान का जल, रत्न के आभूषण, अनेक भांति के नैवेद्य, सुवासित ताम्बूल जल, मधुपर्क, रत्नजड़ित शय्या समर्पित करे । इनमें से प्रत्येक को राजा ने वेदमंत्र से भक्तिपूर्वक अर्पित किया । हे दुर्गे ! वेदोक्त एवं सर्वसम्मत उन मंत्रों को बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ २३-२६ ॥

रत्‍नसारविकारं च निर्मितं विश्वकर्मणा ।
वरं सिंहासनं रम्यं राधे पूजासु गृह्यताम् ॥ २७ ॥
हे राधे ! उत्तम रत्नों के सारभाग का विश्वकर्मा द्वारा सुरचित यह रमणीक एवं उत्तम सिंहासन इस पूजा में तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो ॥ २७ ॥

अमूल्यरत्‍नखचितममूल्यं सूक्ष्ममेव च ।
वह्निशुद्धं निर्मलं च वसनं देवि गृह्यताम् ॥ २८ ॥
हे देवि ! अमूल्य रत्नों से विभूषित, अमूल्य, सूक्ष्म, अग्नि की भांति विशुद्ध तथा निर्मल (स्वच्छ) वस्त्र तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करो ॥ २८ ॥

सद्‌रत्‍नसारपात्रस्थं सर्वतीर्थोदकं शुभम् ।
पादप्रक्षालनार्थं च राधे पाद्यं च गृह्यताम् ॥ २९ ॥
हे राधे ! यह पाद्य (पैर घोने वाला जल) जो उत्तम रत्नों के सारभाग के बने पात्र में स्थित है, तथा समस्त तीर्थों का शुभ जल है, चरण धोने के लिए तुम्हें । करो ॥ २९ ॥

दक्षिणावर्तशङ्खस्थं सदूर्वापुष्पचन्दनम् ।
पूतं युक्तं तीर्थतोये राधेऽर्घ्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३० ॥
हे राधे ! दक्षिणावर्त (दाहिनी ओर को घूमे हुए) शंख में दूर्वा, पुष्प और चन्दन समेत यह पवित्र तीर्थ के जल का अर्घ्य तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करो ॥ ३० ॥

पार्थिवद्रव्यसंभूतमतीव सुरभीकृतम् ।
मङ्‌गलार्हं पवित्रं च राधे गन्धं गृहाण मे ॥ ३१ ॥
हे राधे ! पार्थिव द्रव्य से बनाया गया अत्यन्त सुगन्धित, मंगलमय और पवित्र यह मेरा दिया हुआ गन्ध ग्रहण करो ॥ ३१ ॥

श्रीखण्डचूर्णं सुस्निग्धं कस्तूरीकुङ्‌कुमान्वितम् ।
सुगन्धयुक्तं देवेशि गृह्यतामनुलेपनम् ॥ ३२ ॥
हे देवेशि ! श्रीखण्ड के चूर्ण का बना हुआ यह अनुलेपन, जो कस्तूरी, कुंकुम युक्त होने के नाते, अति स्निग्ध और अति सुगन्धपूर्ण है, तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो ॥ ३२ ॥

वृक्षनिर्याससंयुक्तं पार्थिवद्रव्यसंयुतम् ।
अग्निखण्डशिखाजातं धूपं देवि गृहाण मे ॥ ३३ ॥
हे देवि ! वृक्ष की गोंद और पार्थिव द्रव्यों से युक्त यह धूप, जो अग्नि-शिखा से उत्पन्न है, तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ ॥ ३३ ॥

अन्धकारे भयहरममूल्यमणिशोभितम् ।
रत्‍नप्रदीपं शोभाढ्यं गृहाण परमेश्वरि ॥ ३४ ॥
हे परमेश्वरि ! अन्धकार में उत्पन्न भय का नाशक, अमूल्य मणियों से सुशोभित और शोभाशाली यह रत्नप्रदीप तुम्हें समर्पित है । ॥ ३४ ॥

पारिजातप्रसूनं च गन्धचन्दनचर्चितम् ।
अतीव शोभनं रम्यं गृह्यतां परमेश्वरि ॥ ३५ ॥
हे परमेश्वरि ! गन्ध, चन्दन-चचित यह पारिजात (मन्दार), पुष्प, जो अत्यन्त सुशोभित और सुन्दर है, अर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो ॥ ३५ ॥

सुगन्धामलकीचूर्णं सुस्निग्धं सुमनोहरम् ।
विष्णुतैलसमायुक्तं स्नानीयं देवि गृह्यताम् ॥ ३६ ॥
हे देवि ! स्नान के लिए सुगन्धित आंवले का चूर्ण मिश्रित जल जो अति स्निग्ध, अति मनोहर और विष्णतेल से युक्त है, तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो ॥ ३६ ॥

अमूल्यरत्‍नखचितं केयूरवलयादिकम् ।
शश्वत्सुशोभनं राधे गृह्यतां भूषणं मम ॥ ३७ ॥
हे राधे ! अमूल्य रत्नों से खचित केयर (बहूंटा), ककण आदि मेरे द्वारा अपित भूषण, जो निरन्तर सौन्दर्यपूर्ण रहता है, ग्रहण करो ॥ ३७ ॥

कालदेशोद्‌भवं पक्वफलं वै लड्डुकादिम् ।
परमान्नं च मिष्टान्नं नैवेद्यं देवि गृह्यताम् ॥ ३८ ॥
हे देवि ! देश-काल के अनुसार उपलब्ध पके फल तथा लड्डू आदि मिष्टान्न समेत यह परमान्न नैवेद्य तुम्हें समर्पित है, ग्रहण करो ॥ ३८ ॥

ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् ।
सर्वभोगाधिकं स्वादु ताम्बूलं देवि गृहताम् ॥ ३९ ॥
हे देवि ! कपूर आदि से सुवासित, समस्त भोगों से अधिक स्वादुपूर्ण, उत्तम और सुन्दर ताम्बूल ग्रहण करो ॥ ३९ ॥

अशनं रत्‍नपात्रस्थं सुस्वादु सुमनोहरम् ।
मया निवेदितं भक्त्या गृह्यतां परमेश्वरि ॥ ४० ॥
हे परमेश्वरि ! रत्नों के पात्रों में स्थापित यह अतिस्वादिष्ठ भोजन, जो अत्यन्त मनोहर है, तुम्हें भक्तिपूर्वक मैं समर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो ॥ ४० ॥

रत्‍नेन्द्रसारखचितं वह्निशुद्धांशुकान्वितम् ।
पुष्पचन्दनचर्चाढ्यं पर्यङ्‌कं देवि गृह्यताम् ॥ ४१ ॥
हे देवि ! उत्तम रत्नों के सार भाग से खचित, अग्नि-विशुद्ध वस्त्र से सुसज्जित और पुष्पों एवं चन्दनों से अतिर्चित (उत्तम) पलंग तुम्हें समर्पित है, ग्रहण करो ॥ ४१ ॥

एवं संपूज्य देवीं तां दद्यात्पुष्पाञ्जलित्रयम् ।
यत्‍नेन पूजयेद्‌देवीं नायिकाश्च व्रते व्रती ॥ ४२ ॥
प्रागादिक्रमयोगेन दक्षिणावर्ततः प्रिये ।
भक्त्या पञ्चोपचारेण सुप्रियाः परिचारिकाः ॥ ४३ ॥
इस भांति यत्न से सविधान देवी की पूजा करने के अनन्तर व्रती को व्रत में तीन पुष्पांजलि देनी चाहिए तथा हे प्रिये ! उनकी अतिप्रिय परिचारिका नायिकाओं की भी, जो पूर्वादि दिशाओं के क्रम से स्थित रहती हैं, दक्षिणावर्त से भक्तिपूर्वक पांचों उपचारों द्वारा पूजा आरम्भ करनी चाहिए ॥ ४२-४३ ॥

मालावतीं पूर्वकोणे वह्निकोणे च माधवीम् ।
दक्षिणे रत्‍नमालां च सुशीलां नैर्ऋते सतीम् ॥ ४४ ॥
पश्चिमे वै शशिकलां पारिजातां च मारुते ।
पद्मावतीमुत्तरे चाथैशान्यां सुन्दरीं तथा ॥ ४५ ॥
पूर्वकोण में मालावती, अग्निकोण में माधवी, दक्षिण में रत्नमाला, नैर्ऋत में सती सुशीला, पश्चिम में शशिकला, वायुकोण में पारिजाता, उत्तर में पद्मावती और ईशान में सुन्दरी की पूजा करनी चाहिए ॥ ४४-४५ ॥

यूथिकामालतीपद्ममाला दद्याद्‌व्रते व्रती ।
परीहारं च कुरुते सामवेदोक्तमेव च ॥ ४६ ॥
व्रत में जूही, मालती और कमल की मालाएँ अर्पित कर व्रती सामवेदानुसार परिहार नामक स्तुति करे ॥ ४६ ॥

त्वं देवि जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।
कृष्णप्राणाधिदेवी च कृष्णप्राणाधिका शुभा ॥ ४७ ॥
कृष्णप्रेममयी शक्तिः कृष्णे सौभाग्यरूपिणी ।
कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मङ्‌गलप्रदे ॥ ४८ ॥
हे देवि ! तुम जगत् को माता, भगवान् विष्णु की सनातनी माया, भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी, उनके प्राणों से अधिक प्रिय, शुभमूर्ति, भगवान् कृष्ण की प्रेममय एवं मूर्तिमती शक्ति, कृष्ण में सौभाग्य रूप, उनकी भक्ति प्रदान करने वाली और मंगलदायिन । हो, अतः हे राधे ! तुम्हें नमस्कार है. ॥ ४७-४८ ॥

अद्य मे सफलं जन्म जीवनं सार्थकं मम ।
पूजिताऽसि मया सा च या श्रीकृष्णेन पूजिता ॥ ४९ ॥
आज हमारा जन्म सफल हो गया और जीवन सार्थक हुआ क्योंकि मैंने उसकी प्रार्थना की है, जिसे भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना आराध्य बनाकर पूजन किया है ॥ ४९ ॥

कृष्णवक्षसि या राधा सर्वसौभाग्यसंयुता ।
रासे रासेश्वरीरूपा वृन्दा वृन्दावने वने ॥ ५० ॥
कृष्णप्रिया च गोलोके तुलसीकानने तुला ।
चम्पावती कृष्णसङ्‌गे क्रीडा चम्पकानने ॥ ५१ ॥
मुचन्द्रावली चन्द्रवने शतशृङ्‌गे सतीति च ।
विरजादर्पहन्त्री च विरजातटकानने ॥ ५२ ॥
पद्मावती पद्मवने कृष्णा कृष्णसरोवरे ।
भद्रा कुञ्जकुटीरे च काम्या वै काम्यके वने ॥ ५३ ॥
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्वाणी नारायणोरसि ।
क्षीरोदे सिन्धुकन्या च मर्त्ये लक्ष्मीर्हरिप्रिया ॥ ५४ ॥
जो राधिका जी समस्त सौभाग्य लिये भगवान् श्र कृष्ण के वक्षःस्थल पर बिहार करती हैं, वही रास में रासेश्वरी, वृन्दावन नामक वन में वृन्दा, गोलोक में कृष्ण को परम प्रिया, तुलसी वन में चम्पावती, चम्पकः वन में कृष्ण के साथ उनकी क्रीड़ा मूर्ति, चन्द्रवन में चन्द्रावली, सौ शिखरवाले पर्वत पर सती, विरजा (नदी) के तट वाले जंगल में विरजा (सखी) के दर्प (अभिमान) का नाश करने वाली, पावन में पद्मावती, कृष्ण सरोबर (तालाब) में कृष्णा, कुञ्जकुटीर में भद्रा, काम्यक वन में काम्या, वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, नारायण के हृदय में वाणी, क्षीर सागर में सिन्धुकन्या, मनुष्यों के लोक में हरिप्रिया लक्ष्मी हैं ॥ ५०-५४ ॥

सर्वस्वर्गे स्वर्गलक्ष्मीर्देवदुःखविनाशिनी ।
सनातनी विष्णुमाया दुर्गा शंकरवक्षसि ॥ ५५ ॥
सावित्री वेदमाता च कलया ब्रह्मवक्षसि ।
कलया धर्मपत्‍नी त्वं नरनारायणप्रभोः ॥ ५६ ॥
तथा समस्त स्वर्ग में देवों के दुःख विनाश करने वाली स्वर्गलक्ष्मी, शंकरजी के वक्षःस्थल पर (विहार करने वाली) भगवान् विष्णु की सनातनी माया दुर्गा और ब्रह्मा के वक्षःस्थल पर बिहरने वाली अपनी कला से वेदमाता सावित्री हैं । तुम्हीं अंश द्वारा भगवान् नरनारायण की धर्मपत्नी हो । ॥ ५५-५६ ॥

कलया तुलसी त्वं च गङ्‌गा भुवनपावनी ।
लोमकूपोद्‌भवा गोप्यः कलांशा रोहिणी रतिः ॥ ५७ ॥
कलाकलांशरूपा च शतरूपा शची दितिः ।
अदितिर्देवमाता च त्वत्कलांशा हरिप्रिया ॥ ५८ ॥
अपनी कला से तुम तुलसी और लोकपावनी गंगा, लोमकूपों से उत्पन्न होने वाली गोपियाँ, कलांश रूप रोहिणी, रति, तथा कला-कलांश रूप शतरूपा, शची, (इन्द्राणी), दिति (दैत्यमाता), देवों की माता अदिति और हरिप्रिया भी तुम्हारी । कलांशरूपा हैं ॥ ५७-५८ ॥

देव्यश्च मुनिपत्‍न्यश्च त्वत्कलाकलया शुभे ।
कृष्णभक्तिं कृष्णदास्यं देहि मे कृष्णपूजिते ॥ ५९ ॥
हे शुभे ! तुम्हारी कला की कलामात्र देवियाँ और मुनियों को पत्नियाँ हैं । अतः हे कृष्णपूजिते ! मुझे भगवान् कृष्ण की भक्ति देकर उनका दास (पार्षद) बनाओ ॥ ५९ ॥

एवं कृत्वा परीहारं स्तुत्वा च कवचं पठेत् ।
पुरा कृतं स्तोत्रमेतद्‌भक्तिदास्यप्रदं शुभम् ॥ ६० ॥
इस प्रकार परिहारपूर्वक स्तुति करने के अनन्तर उनका कवच पाठ करे । भक्ति और दास्य प्रदान करने वाला यह शुभ स्तोत्र प्राचीन काल में ही बनाया गया था ॥ ६० ॥

एवं नित्यं पूजयेद्यो विष्णुतुल्यः स भारते ।
जीवन्मुक्तश्च पूतश्च गोलोकं याति निश्चितम् ॥ ६१ ॥
इस भांति भारत में जो नित्य पूजन करते हैं वे भगवान् विष्णु के समान होकर जीवन्मुक्त और पवित्र हो जाते हैं तथा निश्चित गोलोक में निवास करते हैं ॥ ६१ ॥

कार्तिके पूर्णिमायां च राधां यः पूजयेच्छिवे ।
एवं क्रमेण प्रत्यब्दं राजसूयफलं लभेत् ॥ ६२ ॥
हे शिवे ! कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन जो राधा जी की अर्चना करते हैं और प्रति वर्ष करते रहते हैं वे सदैव राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं ॥ ६२ ॥

परमैश्वर्ययुक्तः स्यादिह लोके स पुण्यवान् ।
सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो यात्यन्ते विष्णुमन्दिरम् ॥ ६३ ॥
इस लोक में समस्त ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर वह पुण्यात्मा समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और अन्त में भगवान् विष्णु के लोक में चला जाता है ॥ ६३ ॥

आदावेवं क्रमेणैव रासे वृन्दावने वने ।
स्तुता सा पूजिता राधा श्रीकृष्णेन पुरा सती ॥ ६४ ॥
पूर्वकाल में पतिव्रता राधा सर्वप्रथम वृन्दावन के रासमण्डल में इसी क्रम द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण से स्तुत और पूजित हुई थीं ॥ ६४ ॥

संपूजिता द्वितीये च धात्रा त्वेवं क्रमेण च ।
त्वद्वरेण च संप्राप्य विधाता वेदमातरम् ॥ ६५ ॥
दूसरे ब्रह्मा ने भी इसी क्रम से उनकी अर्चना की थी, जिससे तुम्हारे वरदान द्वारा वेदमाता सावित्री उन्हें प्राप्त हुई थी ॥ ६५ ॥

नारायणो महालक्ष्मीं प्राप संपूज्य भारतीम् ।
गङ्‌गां च तुलसीं चैव परां भुवनपावनीम् ॥ ६६ ॥
नारायण ने भी अर्चना करके महालक्ष्मी, सरस्वती, लोकपावनी गंगा और तुलसी को प्राप्त किया था ॥ ६६ ॥

विष्णुः क्षीरोदशायी च प्राप सिन्धुसुतां तथा ।
मृतायां दक्षकन्यायां मया कृष्णाज्ञया पुरा ॥ ६७ ॥
त्वमेव दुर्गा संप्राप्ता पूजिता पुष्करे च सा ।
अदितिं कश्यपः प्राप चन्द्रः संप्राप रोहिणीम् ॥ ६८ ॥
कामो रतिं च संप्राप धर्मो मूर्तिं पतिव्रताम् ।
देवाश्च मुनयश्चैव या संपूज्य पतिव्रताम् ॥ ६९ ॥
संप्रापुर्यद्वरेणैव धर्मकामार्थमोक्षकम् ।
एवं पूजाविधानं च कथितं च स्तवं शृणु ॥ ७० ॥
क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु ने सिन्धु-सुता (लक्ष्मी) प्राप्त की और पहले समय में दक्षकन्या (सती) के प्राण त्याग करने के अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने पुष्कर क्षेत्र में श्री राधिका जी की पूजा करके तुम दुर्गा को प्राप्त किया । उसी प्रकार कश्यप को अदिति, चन्द्रमा को रोहिणी, काम को रति और धर्म को पतिव्रता मूर्ति प्राप्त हुईं तथा देवगण एवं मुनिवृन्दों ने उस पतिव्रता (राधा) की अर्चना करके उनके वरदान द्वारा धर्म अर्थ काम और मोक्षरूप चारों पदार्थों की प्राप्ति की । इस प्रकार मैंने पूजा-विधान तुम्हें सुना दिया, अब स्तोत्र सुना रहा हूँ, सुनो ! ॥ ६७-७० ॥

महेश्वर उवाच
एकदा मानिनी राधा बभूवागोचरा प्रभोः ।
संसक्तस्य तुलस्यां च गोप्या च तुलसीवने ॥ ७१ ॥
सा संहृत्य स्वमूर्तीश्च कलाःसर्वाश्च लीलया ।
सर्वे बभूवुर्देवाश्च ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७२ ॥
भ्रष्टैश्वर्याश्च निःश्रीका भार्याहीना ह्युपद्रुताः ।
ते च सर्वे समालोच्य श्रीकृष्णं शरणं ययुः ॥ ७३ ॥
तेषां स्तोत्रेण संतुष्टः स्नात्वा संपूज्य तां शुचिः ।
तुष्टावपरमात्मा स सर्वेषां राधिकां सतीम् ॥ ७४ ॥
महेश्वर बोले-एक बार मानिनी राधा ने भगवान् श्री कृष्ण को तुलसी बन में तुलसी गोपी के साथ विहार-मग्न देख कर उनसे अपने को छिपा लिया और अपनी कला से उत्पन्न होने वाली सभी स्त्रियों को लीला की भाँति अपने में अन्तहित कर लिया, जिससे ब्रह्मा विष्णु और शिव आदि सभी देवगण ऐश्वर्य, श्री और स्त्री से हीन होने के कारण अति संतप्त होने लगे । अनन्तर भली भाँति विचार कर भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में पहुंचे । उन लोगों की स्तुति से सन्तुष्ट होकर परमात्मा ने स्नान आदि से पवित्र होकर उन सभी लोगों के हितार्थ पतिव्रता श्रीराधा जी की पूजा और स्तुति की ॥ ७१-७४ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
एवमेव प्रितोऽहं ते प्रमोदश्चैव ते मयि ।
सुव्यक्तमद्य कापट्यवचनं ते वरानने ॥ ७५ ॥
हे कृष्ण त्वं मम प्राणा जीवात्मेति च संततम् ।
यद्‌ब्रूहि नित्यं प्रेम्णा त्वं साप्रतं तत्कुतो गतम् ॥ ७६ ॥
श्रीकृष्ण बोले-हे वरानने ! यद्यपि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ और मुझमें तुम्हारा प्रेम भी रहता है, किन्तु तुम्हारी कपट की बातें आज सब प्रकट हो गयीं-तुम नित्य प्रेममग्न हो कर कहती थीं कि हे कृष्ण ! तुम मेरे प्राण हो, निरन्तर जीवात्मा हो ! यह सभी बातें सम्प्रति इतने शीघ्र कहाँ चली गयीं ॥ ७५-७६ ॥

तस्मात्सर्वमलीकं ते वचनं जगदम्बिके ।
क्षुरधारं च हृदयं स्त्रीजातीनां च सर्वतः ॥ ७७ ॥
हे जगदम्बिके ! इससे तुम्हारी सभी बातें झूठी हैं क्योंकि स्त्री जाति का हृदय सब ओर से क्षुर (स्तुरे) के धार के समान तीव्र होता है ॥ ७७ ॥

अस्माकं वचनं सत्यं यद्‌ब्रवीमि च तद्ध्रुवम् ।
पञ्चप्राणाधिदेवी त्वं राधा प्राणाधिकेति मे ॥ ७८ ॥
शक्तो न रक्षितुं त्वां च यान्ति प्राणास्त्वया विना ।
विनाऽधिष्ठात्रुदेवी च को वा कुत्र च जीवति ॥ ७९ ॥
और जो नाम भन मना है । नम दमारे पांचों प्राणों की अधीश्वरी और प्राणों से अधिक प्रिय राधा हो । मैं तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, अतः तुम्हारे बिना मेरे ये प्राण अब जा रहे हैं क्योंकि अधिष्ठात्री देवी बिना कौन कहाँ जीवित रह सकता है ॥ ७८-७९ ॥

महाविष्णोश्च माता त्वं मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
सगुणा त्वं च कलया निर्गुणा स्वयमेव तु ॥ ८० ॥
तुम महाविष्णु की माता ईश्वरी मूल प्रकृति, कला से सगुण और स्वयंनिर्गुणा हो ॥ ८० ॥

ज्योतीरूपा निराकारा भक्तानुग्रहविग्रहा ।
भक्तानां रुचिवैचित्र्यान्नानामूर्तीश्च विश्वतो ॥ ८१ ॥
महालक्ष्मीश्च वैकुण्ठे भारती च गिरां प्रसूः ।
पुण्यक्षेत्रे भारते च सती त्वं पार्वती तथा ॥ ८२ ॥
तुम ज्योतिरूप, निराकार, भक्तों के अनुग्रहार्थशरीर धारण करनेवाली और भक्तों के विभिन्न रुचि के कारण अनेक मूर्ति धारण करने वाली तथा वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, पुण्य प्रदेश भारत में सज्जनों की जननी भारती, तुम सती एवं पार्वती हो ॥ ८१-८२ ॥

तुलसी पुण्यरूपा च गङ्‌गा भुवनपावनी ।
ब्रह्मलोके च सावित्री कलया त्वं वसुंधरा ॥ ८३ ॥
तुम पुण्य स्वरूपा तुलसी, लोकपादन । गंगा, ब्रह्मलोक में सावित्री और क्ला द्वारा वसुन्धरा (पृथ्वी) हो ॥ ८३ ॥

गोलोके राधिका त्वं च सर्वगोपालकेश्वरी ।
त्वया विनाऽहं निर्जीवो ह्यशक्तः सर्वकर्मसु ॥ ८४ ॥
गोलोक में तुम्हीं समस्त गोपालों की ईश्वरी राधा हो, तुम्हारे बिना मैं निर्जीव सा हो गया हूँ, सभी कर्मों में असमर्थ हूँ ॥ ८४ ॥

शिवः शक्तस्त्वया शक्त्या शवाकारस्त्वया विना ।
वेदकर्ता स्वयं ब्रह्मा वेदमात्रा त्वया सह ॥ ८५ ॥
नारायणस्त्वया लक्ष्म्या जगत्पाता जगत्पतिः ।
फलं ददाति यज्ञश्च त्वया दक्षिणया सह ॥ ८६ ॥
शिव जी तुम्हीं शक्ति को प्राप्त कर शक्तिमान् हैं और तुम्हारे बिना शवतुल्य हैं । तुम वेदमाता (सावित्री) के साथ रहने पर ब्रह्मा स्वयं वेदकर्ता कहलाते हैं, तुम लक्ष्मी के साथ नारायण जगत् के रक्षक और अधीश्वर होते हैं, तुम्हीं दक्षिणा के साथ यज्ञ फल प्रदान करता है ॥ ८५-८६ ॥

बिभर्ति सृष्टिं शेषश्च त्वां कृत्वा मस्तके भुवम् ।
बिभर्ति गङ्‌गारूपां त्वां मूर्ध्नि गङ्‌गाधरः शिवः ॥ ८७ ॥
शेष पृथ्वी रूप तुम्हें मस्तक पर रखकर सम्पूर्ण सृष्टि धारण करते हैं, गंगारूप तुम्हें धारण कर शिव गंगाधर कहलाते हैं ॥ ८७ ॥

शक्तिमच्च जगत्सर्वं शवरूपं त्वया विना ।
वक्ता सर्वस्त्वया वाण्या मृतो मूकस्त्वयाविना ॥ ८८ ॥
तुमसे ही सारा संसार शक्तिमान् है और तुम्हारे बिना शव रूप । तुम वाणी (सरस्वती) के योगदान से सभी लोग वक्ता हैं और तुम्हारे बिना सूत भी मूक हो जाता है ॥ ८८ ॥

यथा मृदा घटं कर्तुं कुलालः शक्तिमान्सदा ।
सृष्टिं स्रष्टुं तथाऽहं च प्रकृत्या च त्वया सह ॥ ८९ ॥
जिस प्रकार कुम्हार घड़े बनाने में सदा शक्तिशाली रहता है, उसी भांति मैं भी तुम प्रकृति के साथ सृष्टि की रचना करने में समर्थ हूँ ॥ ८९ ॥

त्वया विना जडश्चाहं सर्वत्र च न शक्तिमान् ।
सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं त्वमागच्छममान्तिकम् ॥ ९० ॥
किन्तु तुम्हारे बिना मैं शक्तिमान् न रहकर सर्वत्र जड़ हो गया हूँ क्योंकि तुम सम्पूर्ण शक्ति स्वरूपा हो, अतः मेरे समीप शीघ्र आओ ॥ ९० ॥

वह्नौ त्वं दाहिका शक्तिर्नाग्निः शक्तस्त्वया विना ।
शोभास्वरूपा चन्द्रे त्वं त्वां विना न स सुन्दरः ॥ ९१ ॥
अग्नि की दाहिका (जलाने वाली) शक्ति तुम्ही हो, तुम्हारे बिना वह अशक्त रहता है । चन्द्रमा में शोभास्वरूप तुम्हीं हो, तुम्हारे बिना वह सुन्दर नहीं हो सकता है ॥ ९१ ॥

प्रभारूपा हि सूर्ये त्वं त्वां विना न सभानुमान् ।
न कामः कामिनीबन्धुस्त्वया रत्या विना प्रिये ॥ ९२ ॥
तुम सूर्य में प्रभा रूप हो, तुम्हारे बिना वह भानु (किरण) युक्त नहीं हो सकता है । और हे प्रिये ! तुम रति बिना कामदेव भी कामिनियों का बन्धु नहीं हो सकता है ॥ ९२ ॥

इत्येवं स्तवनं कृत्वा तां संप्राप जगत्प्रभुः ।
देवा बभूवुः सश्रीकाः सभार्याः शक्तिसंयुताः ॥ ९३ ॥
इस प्रकार स्तुति करने पर जगत् के प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण को राधा मिल गयीं और सब देवगण श्री (ऐश्वर्य), स्त्री और शक्ति आदि से सम्पन्न हो गये ॥ ९३ ॥

सस्त्रीकं च जगत्सर्वं समभूच्छैलकन्यके ।
गोपीपूर्णश्च गोलोको ह्यभवत्तत्प्रसादतः ॥ ९४ ॥
हे शैलकन्ये ! उनकी प्रसन्नता से सारा संसार स्त्री-सम्पन्न और गोलोक गोपियों से भर गया ॥ ९४ ॥

राजा जगाम गोलोकमिति स्तुत्वा हरिप्रियाम् ।
श्रीकृष्णेन कृतं स्तोत्रं राधाया यः पठेन्नरः ॥ ९५ ॥
कृष्णभक्तिं च तद्‌दास्यं संप्राप्नोति न संशयः ।
स्त्रीविच्छेदे यः शृणोति मासमेकमिदं शुचिः ॥ ९६ ॥
अचिराल्लभते भार्यां सुशीलां सुन्दरीं सतीम् ।
भार्याहीनो भाग्यहीनो वर्षमेकं शृणोति यः ॥ ९७ ॥
अचिराल्लभते भार्यां सुशीलां सुन्दरीं सतीम् ।
पुरा मया च त्वं प्राप्ता स्तोत्रेणानेन पार्वति ॥ ९८ ॥
मृतायां दक्षकन्यायामाज्ञया परमात्मनः ।
स्तोत्रेणानेन संप्राप्ता सावित्री ब्रह्मणा पुरा ॥ ९९ ॥
पुरा दुर्वाससः शापान्निःश्रीके देवतागणे ।
स्तोत्रेणानेन देवैस्तैः संप्राप्ता श्रीः सुदुर्लभा ॥ १०० ॥
उसी हरिप्रिया श्री राधा जी की स्तुति करके राजा ने गोलोक की प्राप्ति की । इस प्रकार श्री कृष्ण द्वारा किये गये श्रीराधा जी के स्तोत्र का जो मनुष्य पाठ करेगा, उसे भगवान् कृष्ण की भक्ति और उनकी दासता प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं । स्त्री के मृतक होने पर जो पवित्र होकर एक मास तक इसे श्रवण करता है, वह अचिरकाल में ही सुशीला, सुन्दरी और पतिव्रता स्त्री प्राप्त करता है । भाग्यहीन और स्त्रीहीन पुरुष यदि वर्षपर्यन्त इसका श्रवण करता है, तो उसे सुशीला, सुन्दरी और पतिव्रता स्त्री शीघ्र प्राप्त होती है । हे पार्वति ! पहले समय में दक्षकन्या -(सती) के मरणानन्तर मैंने परमात्मा की आज्ञा शिरोधार्य कर इसी स्तोत्र द्वारा तुम्हें प्राप्त किया था । पूर्वकाल में ब्रह्मा ने भी इसी स्तोत्र द्वारा सावित्री की प्राप्ति की थी और पहले समय में दुर्वासा के शाप के कारण श्रीहीन होने पर देवों ने इसी स्तोत्र द्वारा अति दुर्लभ श्री (लक्ष्मी) प्राप्त की थी ॥ ९५-१०० ॥

शृणोति वर्षमेकं च पुत्रार्थी लभते सुतम् ।
महाव्याधी रोगमुक्तो भवेत्स्तोत्रप्रसादतः ॥ १०१ ॥
पुत्र की कामना से एक वर्ष तक इसे सुनने पर पुत्र को प्राप्ति होती है तथा इस स्तोत्र के प्रसाद से महारोगी प्राणी रोगमुक्त हो जाता है । ॥ १०१ ॥

कार्तिके पूर्णिमायां तु तां संपूज्य पठेत्तु यः ।
अचलां श्रियमाप्नोति राजसूयफलं लभेत् ॥ १०२ ॥
कार्तिक मास की पूर्णिमा में श्री राधा जी की पूजा के अनन्तर इसका पाठ करने से अचल लक्ष्मी और राज-सूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है ॥ १०२ ॥

नारीशृणोति चेत्स्तोत्रं स्वामिसौभाग्यसंयुता ।
भक्त्याशृणोति यः स्तोत्रं बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम् ॥ १०३ ॥
यदि स्त्री इसका श्रवण करती है तो स्वामी (पति) के सौभाग्य से युक्त होती है । भक्तिपूर्वक जो इसे सुनता है, वह निश्चित बन्धनमुक्त हो जाता है ॥ १०३ ॥

नित्यं पठति यो भक्त्या राधां संपूज्य भक्तितः ।
स प्रयाति च गोलोकं निर्मुक्तो भवबन्धनात् ॥ १०४ ॥
जो भक्तिपूर्वक श्री राधा जी की पूजा करने के उपरान्त इसका नित्य पाठ करता है, वह संसार (जन्ममरण) रूप बन्धन से मुक्त होकर गोलोक जाता है ॥ १०४ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे हरगौरीसंवादे
राधोपाख्याने राधापूजास्तोत्रादिकथनं
नाम पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत हरगौरी-संवाद के श्रीराधिकोपाख्यान में राधा की पूजा, स्तोत्र आदि कथन नामक पचपनवां अध्याय समाप्त ॥ ५५ ॥

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