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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः राधोपाख्याने तन्मन्त्रादिकथनम् -
राधा के मंत्र आदि का निरूपण - पार्वत्युवाच पूजाविधानं स्तोत्रं च श्रुतमत्यद्भुतं मया । अधुना कवचं ब्रूहि श्रोष्यामि त्वत्प्रसादतः ॥ १ ॥ श्री पार्वती बोलीं-मैंने अति अद्भुत पूजा विधान और स्तोत्र तो सुन लिया, किन्तु तुम्हारे प्रसाद से सम्प्रति उनका कवच भी सुनना चाहती हूँ, अतः उसे कहने की कृपा करें ॥ १ ॥ महेश्वर उवाच शृणु वक्ष्यामि हे दुर्गे कवचं परमाद्भुतम् । पुरा मह्यं निगदितं गोलोके परमात्मना ॥ २ ॥ श्री महेश्वर बोले हे दुर्गे ! पूर्व समय गोलोक में परमात्मा श्रीकृष्ण ने जिसे मुझे बताया था, वह परम अद्भुत कवच तुम्हें मैं बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ २ ॥ अतिगुह्यं परं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मा संप्राप्तो वेदमातरम् ॥ ३ ॥ जो अति गुप्त, परमतत्त्व रूप तथा समस्त मन्त्रों का समूह स्वरूप है और जिसके धारण एवं पाठ करने से ब्रह्मा ने वेदमाता सावित्री को प्राप्त किया । ॥ ३ ॥ यद्धृत्वाऽहं तव स्वामी सर्वमाता सुरेश्वरी । नारायणश्च यद्धृत्वा महालक्ष्मीमवाप सः ॥ ४ ॥ जिसे धारण कर मैं सबकी जननी और देवों की अवीश्वरी देवी तुम्हारा पति हूँ । जिसे धारण कर नारायण ने महालक्ष्मी की प्राप्ति की ॥ ४ ॥ यद्धृत्वा परमात्मा च निर्गुणः प्रकृतेः परः । बभूव शक्तिमान्कृष्णः सृष्टिं कर्तुं पुरा विभुः ॥ ५ ॥ जिसे धारण कर परमात्मा श्रीकृष्ण, जो निर्गुण प्रकृति से परे और विमु (व्यापक) हैं, सृष्टि करने के लिए शक्तिमान् हुए ॥ ५ ॥ विष्णुः पाता च यद्धृत्वा संप्राप्तः सिन्धुकन्यकाम् । शेषो बिभर्ति ब्रह्माण्डं मूर्ध्नि सर्षपवद्यतः ॥ ६ ॥ प्रत्येकं लोमकूपे पुत्र ब्रह्माण्डानिमहान्विराट् । बिभर्तिधारणाद्यस्यसर्वाधारोबभूवसः ॥ ७ ॥ यद्धारणाच्चपठनाद्-धर्मःसाक्षि च सर्वतः । यद्धारणाकुबेरश्च धनाह्यक्ष्यश्चभारते ॥ ८ ॥ इन्द्रःसुराणामीशश्चपठनाद्धारणाद्विभुः । नृपाणांमनुरीशश्च पठनाद्धारणात्प्रभुः ॥ ९ ॥ श्रीमांश्चन्द्रश्चयद्धृत्वाराजसूयंश्चकार सः । स्वयंसूर्यस्त्रिलोकेशः पठनाद्धारणाद्धरिः ॥ १० ॥ यद्धृत्वा पठनादग्निर्जगत्पूतं करोति च । यद्धृत्वा वाति वातोऽयं पुनाति भुवनत्रयम् ॥ ११ ॥ जिसे धारण कर विष्णु विश्वपालक हुए और उन्होंने सिन्धु-पुत्री लक्ष्मी को प्राप्त किया । जिसके कारण शेष समस्त ब्रह्माण्ड को अपने मस्तक पर राई के समान रखते हैं तथा महाविराट् जिसे धारण लोकों को पवित्र करते हैं । जगत्पालक विष्णुने इसीको धारण करके सिन्धुकन्याको प्राप्त किया। इसी कवचके प्रभावसे शेषनाग समस्त ब्रह्माण्डको अपने मस्तकपर सरसोंके दानेकी भाँति धारण करते हैं। इसीका आश्रय ले महाविराट् प्रत्येक रोमकूपमें असंख्य ब्रह्माण्डौंको धारण करते हैं और सबके आधार बने हैं। इस कवचका धारण और पाठ करनेसे धर्म सबके साक्षी और कुबेर धनाध्यक्ष हुए हैं। इसके पाठ और धारणका ही यह प्रभाव है कि इन्द्र देवताओंके स्वामी तथा मनु नरेशोंके भी सम्राट हुए हैं। इसके पाठ और धारणसे ही श्रीमान् चन्द्रदेव राजसूय-यज्ञ करनेमें सफल हुए और सूर्यदेव तीनों लोकोंके ईश्वर-पदपर प्रतिष्ठित हो सके। इसका मनके द्वारा धारण और वाणीद्वारा पाठ करनेसे अग्निदेव जगत्को पवित्र करते हैं तथा पवनदेव मन्दगतिसे प्रवाहित हो तीनों भुवनोंको पावन बनाते हैं। ॥ ६-११ ॥ यद्धृत्वा च स्वतन्त्रो हि मृत्युश्चरति जन्तुषु । त्रिःसप्तकृत्वो निःक्षत्त्रां चकार च वसुन्धराम् ॥ १२ ॥ जामग्दन्यश्च रामश्च पठनाद्धारणात्प्रभुः । ययौ समुद्रं यद्धृत्वा राजसूयं चकार सः । पपौ समुद्रं यद्धृत्वा पठनात्कुम्भसंभवः ॥ १३ ॥ सनत्कुमारो भगवान्यद्धृत्वा ज्ञानिनां गुरुः । जीवन्मुक्तौ च सिद्धौ च नरनारायणावृषी ॥ १४ ॥ जिसे धारण कर मृत्यु जीवों में स्वतन्त्र विचरती है । जमदग्नि के पुत्र परशरामजी ने जिसके धारण से समर्थ होकर सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियरहित कर दिया था । जिसे धारण कर कुम्भ-पुत्र अगस्त्य ने समुद्र का पान कर लिया था । जिसके कारण सनत्कुमार भगवान् ज्ञानियों के गुरु हुए तथा नर-नारायण ऋषि जीवन्मुक्त और सिद्ध हो गये ॥ १२-१४ ॥ यद्धृत्वा पठनात्सिद्धो वसिष्ठो ब्रह्मपुत्रकः । सिद्धेशः कपिलो यस्माद्यस्माद्दक्षः प्रजापतिः ॥ १५ ॥ यस्माद्भृगुश्च मां द्वेष्टि कर्मःशेषं बिभर्ति च । सर्वाधारो यतो वायुर्वरुणः पवनो यतः ॥ १६ ॥ जिसके धारण और पाठ से ब्रह्मा के सुपुत्र वशिष्ठ सिद्ध हो गये तथा जिसके बल से कपिल सिद्धेश हुए, दक्ष प्रजापति और भृगु मुझसे द्वेष रखते हैं, कच्छप शेष को धारण करता है और वायु एवं वरुण समस्त के आधार हुए हैं ॥ १५-१६ ॥ ईशानो दिक्पतिश्चैव यमः शास्ता यतः शिवे । कालः कालाग्निरुद्रश्च संहर्ता जगतां यतः ॥ १७ ॥ यद्धृत्वा गौतमः सिद्धः कश्यपश्च प्रजापतिः । वसुदेवसुतां प्राप चैकांशेन तु तत्कलाम् ॥ १८ ॥ पुरा स्वजायाविच्छेदे दुर्वासा मुनिपुंगवः । संप्राप रामः सीतां च रावणेन हृतां पुरा ॥ १९ ॥ हे शिवे ! जिसके बल से ईशान (शिव), दिक्पाल और यम शासन करते हैं, काल एवं कालाग्नि रुद्र जगत् का संहार करते हैं, जिसके धारण करने से गौतम सिद्ध हुए कश्यप प्रजापति हुए । पहले समय में मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने अपनी स्त्री के मरणानन्तर वसुदेव जी की कन्या से विवाह किया था, जो राधा के कला अंश से उत्पन्न हुई थी । और पहले समय में राम ने जानकी जी को प्राप्त किया था, जिसे रावण हर ले गया था ॥ १७-१९ ॥ पुरा नलश्च संप्राप दयमन्तीं यतःसतीम् । शङ्खचूडो महावीरो दैत्यानामीश्वरो यतः ॥ २० ॥ जिसके कारण पहले समय में नल को सती दमयन्ती प्राप्त हुई थी और महाबलवान् शंखचूड़ दैत्यों का अधीश्वर हुआ ॥ २० ॥ वृषो वहति मां दुर्गे यतो हि गरुडो हरिम् । एवं संप्राप्य संसिद्धिं सिद्धाश्च मुनयः सुराः ॥ २१ ॥ हे दुर्गे ! जिसके बल से बैल हमारा वाहन हुआ और गरुड़ भगवान् का और पूर्वकाल में मुनिवृन्द जिसके बल से संसिद्धि प्राप्त कर सिद्ध हो गये ॥ २१ ॥ यद्धृत्वा च महालक्ष्मीः प्रदात्री सर्वसंपदाम् । सरस्वती सतां श्रेष्ठा यतः क्रीडावती रतिः ॥ २२ ॥ सावित्री वेदमाता च यतः सिद्धिमवाप्नुयात् । सिन्धुकन्या मर्त्यलक्ष्मीर्यतो विष्णुमवाप सा ॥ २३ ॥ जिसे धारण कर महालक्ष्मी समस्त सम्पत्ति प्रदान करती हैं, सरस्वती सज्जनों में श्रेष्ठ हो गयीं, रति क्रीड़ावती हुई और जिसके कारण वेदमाता सावित्री को सिद्धि प्राप्त हो गयी । मर्त्यलोक की लक्ष्मी सिन्ध-कन्या को जिसके बल से विष्णु (पति) रूप में प्राप्त हुए । ॥ २२-२३ ॥ यद्धृत्वा तुलसी पूता गङ्गा भुवनपावनी । यद्धृत्वा सर्वसस्याढ्या सर्वाधारा वसुंधरा ॥ २४ ॥ जिसे धारण करने से तुलसी पवित्र हो गयी, गंगा लोकपावनी बनी, वसुन्धरा समस्त सस्य (फसलों) से परिपूर्ण और सभी का आधार हुई ॥ २४ ॥ यद्धृत्वा मनसा देवी सिद्धा वै विश्वपूजिता । यद्धृत्वा देवमाता च विष्णुं पुत्रमवाप सा ॥ २५ ॥ जिसे धारण कर मनसा देवी सिद्ध होकर विश्वपूजित हुई, देवमाता (अदिति) को विष्णु पुत्र रूप में प्राप्त हुए ॥ २५ ॥ पतिव्रता च यद्धृत्वा लोपामुद्राऽप्यरुन्धती । लेभे च कपिलं पुत्रं देवहूती यतः सती ॥ २६ ॥ लोपामुद्रा और अरुन्धती पतिव्रता हुई तथा सती देवहूति को कपिल पुत्र रूप में प्राप्त हुए ॥ २६ ॥ प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ प्राप च तत्प्रसूः । त्वन्माता चापि संप्राप त्वां देवीं गिरिजां यतः ॥ २७ ॥ शतरूपा को प्रियव्रत एवं उत्तानपाद पुत्र मिले और जिसके नाते तुम्हारी माता मेना ने तुम गिरिजा देवी को प्राप्त किया ॥ २७ ॥ एवं सर्वे सिद्धगणाः सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः । श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ॥ २८ ॥ ऋषिश्छन्दोऽस्यगायत्री देवी रासेश्वरी स्वयम् । श्रीकृष्णभक्तिसंप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ २९ ॥ इस भाँति सभी सिद्धगणों ने समस्त ऐश्वर्य प्राप्त किये हैं । इस जगन्मंगल (नामक) कवच के प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द, स्वयं रासेश्वरी (राधा) देवी और श्रीकृष्ण की भक्ति की प्राप्ति के लिए इसका विनियोग है ॥ २८-२९ ॥ शिष्याय कृष्णभक्ताय ब्राह्मणाय प्रकाशयेत् । शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ ३० ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त शिष्य एवं ब्राह्मण से ही इसे प्रकट करना चाहिए क्योंकि किसी दूसरे के शिष्य एवं शठ को बताने से मृत्यु प्राप्त होती है ॥ ३० ॥ राज्यं देयं शिरो देयं न देयं कवचं प्रिये । कण्ठे धृतमिदं भक्त्या कृष्णेन परमात्मना ॥ ३१ ॥ मया दृष्टं च गोलोके ब्रह्मणा विष्णुना पुरा । ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ३२ ॥ कृष्णोनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्षः शिरोऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं राधिकां ङेन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ३३ ॥ कपालं नेत्रयुग्मम् च श्रोत्रयुग्मं सदाऽवतु । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं राधिकायै वह्निजायान्तमेव च ॥ ३४ ॥ मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदाऽवतु । ॐ रां राधां चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ३५ ॥ सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिकां मुखम् । क्लीं ह्रीं कृष्णप्रियां ङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम् ॥ ३६ ॥ हे प्रिये ! राज्य दे सकते हैं शिर भी दे सकते हैं, किन्तु यह कवच कभी नहीं देना चाहिए । क्योंकि परमात्मा श्रीकृष्ण इसे भक्तिपूर्वक अपने कण्ठ में धारण करते हैं जिसे ब्रह्मा विष्णु के साथ मैंने गोलोक में (एक बार) पहले समय देखा था । 'ओं राधायै स्वाहा' यह भगवान् कृष्ण द्वारा उपासित कल्पवृक्ष तुल्य मन्त्र (मेरे) शिर की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा' यह मन्त्र मेरे कपाल, दोनों नेत्रों तथा दोनों कानों की सदा रक्षा करे । 'ओं ह्रीं श्री राधिकायै स्वाहा' यह मन्त्रराज मस्तक और केशसमूह की सदा रक्षा करे । 'ओं रां राधायै स्वाहा' यह समस्त सिद्धिदायक मंत्र कपोल, नासिका और मुख की रक्षा करे । 'क्लीं ह्रीं कृष्णप्रियायै नमः' कण्ठ की रक्षा करे ॥ ३१-३६ ॥ ॐ रां रासेश्वरीं ङेन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम् । ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ३७ ॥ 'ओं रां रासेश्वर्य नमः' स्कन्ध की रक्षा करे, 'ओं रां रासविलासिन्यै स्वाहा' सदा पीठ की रक्षा करे ॥ ३७ ॥ वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु । तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम् ॥ ३८ ॥ 'वृन्दावन विलासिन्यै स्वाहा' सदा वक्षःस्थल की रक्षा करे, 'तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा' नितम्ब की रक्षा करे ॥ ३८ ॥ कृष्णप्राणाधिका ङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम् । पादयुग्मं च सर्वाङ्गं संततं पातु सर्वतः ॥ ३९ ॥ 'ओं कृष्णप्राणाधिकार्य स्वाहा' युगल चरण और चारों ओर से सर्वांग की सतत रक्षा करे ॥ ३९ ॥ प्राच्यां रक्षतु सा राधा वह्नौ कृष्णप्रियाऽवतु । दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैर्ऋतेऽवतु ॥ ४० ॥ पूर्व की ओर राधा रक्षा करें, अग्निकोण की ओर कृष्णप्रिया रक्षा करें, दक्षिण की ओर रासेश्वरी रक्षा करें, नैर्ऋतकोण में गोपीशा रक्षा करें ॥ ४० ॥ पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता । उत्तरे संततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ ४१ ॥ पश्चिम दिशा में निर्गुणा, वायव्य कोण में कृष्णपूजिता और उत्तर की ओर ईश्वरी मूल प्रकृति निरन्तर रक्षा करें ॥ ४१ ॥ सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता । जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा ॥ ४२ ॥ महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम् । कवचं कथितं दुर्गे श्राजगन्मङ्गलं परम् ॥ ४३ ॥ यस्मै कस्मै न दातव्यं गुह्याद्गुह्यतरं परम् । तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ४४ ॥ ईशान कोण में सदा सर्वेश्वरी मेरी रक्षा करें, जल, स्थल, अन्तरिक्ष (आकाश में), स्वप्न, जागरण (सोते-जागते) में सर्वपूजिता और महाविष्णु की जननी चारों ओर से निरन्तर रक्षा करें । हे दुर्गे ! यह श्री जगन्मंगल नामक कवच तुम्हें बता दिया, जो जिस किसी को देने योग्य नहीं है क्योंकि यह गुप्त से भी परमगुप्ततर है, तुम्हारे स्नेहवश मैंने तुम्हें बताया है, अतः किसी से न कहना ॥ ४२-४४ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्रालकारचन्दनैः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णुसमोभवेत् ॥ ४५ ॥ वस्त्र, अलंकार, चन्दन द्वारा गुरु की सविधि अर्चा करने के अनन्तर कण्ठ में अथवा दाहिने बाहु में इस कवच को धारण करने से वह विष्णु के समान हो जाता है ॥ ४५ ॥ महोत्सवविशेषे च पर्वन्निति सुकीर्तिता । तस्याधिदेवी या सा च पार्वती परिकीर्तिता ॥ ४६ ॥ पर्वतस्य सुता देवी साऽऽविर्भूता च पर्वते । पर्वताधिष्ठातृदेवी पार्वती तेन कीर्तिता ॥ ४७ ॥ सर्वकाले सना प्रोक्तो विस्तृते च तनीति च । सर्वत्र सर्वकाले च विद्यमाना सनातनी ॥ ४८ ॥ शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत् । यदि स्यात्सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत् ॥ ४९ ॥ विशेष प्रकार के महोत्सव में वह 'पर्वन्' कही गई है । उसको जो अधिष्ठात्री देवी है, वह पार्वती कही गई हैं । पर्वत की पुत्री के रूप में वह देवी पर्वत में उत्पन्न हुई थी । इस लिए पर्वत की अधि ष्ठात्री देवी (होने) से पार्वती कहलायी । 'सना' शब्द का प्रयोग सर्वकाल के अर्थ में होता है और 'तनी' का प्रयोग विस्तृत अर्थ में होता है । इसलिए सर्वत्र सर्वकाल में विद्यमान होने से वह सनातनी है । सौ लाख जप करने से यह कवच सिद्ध होता है, यदि कवच सिद्ध हो गया, तो वह अग्नि से जल नहीं सकता ॥ ४६-४९ ॥ एतस्मात्कवचाद्दुर्गे राजा दुर्योधनः पुरा । विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम् ॥ ५० ॥ मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे । सूर्यपर्वणि मेरौ च स सांदीपनये ददौ ॥ ५१ ॥ बल्लाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय सः । कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ ५२ ॥ हे दुर्गे ! पूर्वकाल में राजा दुर्योधन ने इसी कवच द्वारा जल और अग्नि का स्तम्भन किया था । पहले समय में मैंने पुष्कर क्षेत्र में सनत्कुमार को यह दिया था । मेरु पर्वत पर सान्दीपनि को सूर्य ग्रहण के समय उन्होंने दिया और सान्दीपनि ने बलराम को तथा बलराम ने वह दुर्योधन को दिया था । इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ ५०-५२ ॥ नित्यं पठति भक्त्येदं तन्मन्त्रोपासकश्च यः । विष्णुतुल्यो भवेन्नित्यं राजसूयफलं लभेत् ॥ ५३ ॥ उन (राधा) के मन्त्र की उपासना करने वाला यदि भक्तिपूर्वक नित्य इसका पाठ करता है, तो वह विष्णु के समान होकर नित्य राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त करता है ॥ ५३ ॥ स्नानेन सर्वतीर्थानां सर्वदानेन यत्फलम् । सर्वव्रतोपवासेन पृथिव्याश्च प्रदक्षिणैः ॥ ५४ ॥ सर्वयज्ञेषु दीक्षायां नित्यं वै सत्यरक्षणे । नित्यं श्रीकृष्णसेवायां कृष्णनैवेद्यभक्षणे ॥ ५५ ॥ पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं च लभेन्नरः । तत्फलं लभते नूनं पठनात्कवचस्य च ॥ ५६ ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण तोयों के स्नान, समस्त दान, सम्पूर्ण व्रतों के उपवास, पृथिवी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा, नित्य सत्य की रक्षा, भगवान् श्रीकृष्ण को नित्य सेवा, उनके नैवेद्य के भक्षण और चारों वेदों के पारायण से जो फल प्राप्त होता है, वह इस कवच के पाठ करने से निश्चय प्राप्त होता है ॥ ५४-५६ ॥ राजद्वारे श्मशाने च सिंहव्याघ्रान्विते वने । दावाग्नौ संकटे चैव दस्युचौरान्विते भये ॥ ५७ ॥ कारागारे विपद्ग्रस्ते घोरे च दृढबन्धने । व्याधियुक्तो भवेन्मुक्तो धारणात्कवचस्यच ॥ ५८ ॥ राज दरबार, श्मशान, सिंह-बाघ से युक्त वन, दावाग्नि, संकट, चोर-डाकुओं के भय, कारगार (जेल), घोर विपत्ति, दृढ़बन्धन (गिरफ्तारी) और रोगी होने पर इस कवच के धारण करने से (उस संकट से) शीघ्र मुक्त हो जाता है । ५७-५८ ॥ इत्येतत्कथितं दुर्गे तवैवेदं महेश्वरि । त्वमेव सर्वरूपा मां माया पृच्छसि मायया ॥ ५९ ॥ हे दुर्गे ! हे महेश्वरि ! यह जो मैंने तुम्हें सुनाया है, वह तुम्हारी ही वस्तु है, क्योंकि तुम सर्वरूपा हो, माया होकर माया (छल) करके मुझसे पूछ रही हो ॥ ५९ ॥ नारायण उवाच इत्युक्त्वा राधिकाख्यानं स्मारं स्मारं च माधवम् । पुलकाङ्कितसर्वाङ्गः साश्रुनेत्रो बभूव सः ॥ ६० ॥ नारायण बोले-इस प्रकार राधिका जी का आख्यान कहने के अनन्तर बार-बार भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करने से शिवजी के समस्त शरीर में रोमाञ्च हो आया और नेत्र सजल हो गये ॥ ६० ॥ न कृष्णसदृशो देवो न गङ्गासदृशी सरित् । न पुष्करात्परं तीर्थं न वर्णो ब्राह्मणात्परः ॥ ६१ ॥ क्योंकि भगवान् श्री कृष्ण के समान कोई देव नहीं है तथा गंगा के समान नदी, पुष्कर से बढ़कर तीर्थ और ब्राह्मण से बढ़कर उच्चवर्ण कोई नहीं है ॥ ६१ ॥ परमाणोः परं सूक्ष्मं महाविष्णोः परो महान् । नभः परं च विस्तीर्णं यथा नास्त्येव नारद ॥ ६२ ॥ तथा न वैष्णवाज्ज्ञानी योगीन्द्रः शंकरात्परः । कामक्रोधलोभमोहा जितास्तेनैव नारद ॥ ६३ ॥ स्वप्ने जागरणे शश्वत्कृष्णध्यानरतः शिवः । यथा कृष्णस्तथा शंभुर्न भेदो माधवेशयोः ॥ ६४ ॥ यथा शंभुर्वैष्णवेषु यथा देवेषु माधवः । तथेदं कवचं वत्स कवचेषु प्रशस्तकम् ॥ ६५ ॥ हे नारद ! जिस भाँति परमाणु से बढ़कर सूक्ष्म, महाविष्णु से बढ़कर महान् और आकाश से बढ़ कर विस्तीर्ण कोई नहीं है उसी प्रकार वैष्णव से बढ़ कर ज्ञानी, शंकर जी से बढ़कर योगिराज और नहीं है, क्योंकि हे नारद ! इन्होंने ही काम, क्रोध, लोभ और मोह को जीता है । सोते-जागते सब समय शिव भगवान् कृष्ण के ध्यान में निरन्तर मग्न रहते हैं, अतः जैसे कृष्ण हैं वैसे शिव हैं, इन माधव और शंकर में कोई भेद नहीं है । हे वत्स ! जिस प्रकार वैष्णवों में शम्भु, देवों में माधव (धेष्ठ) हैं, वैसे ही समस्त कवचों में यह कवच अति प्रशस्त है ॥ ६२-६५ ॥ शिशब्दो मङ्गलार्थश्च वकारो दातृवाचकः । मङ्गलानां प्रदाता यः स शिवः परिकीर्तितः ॥ ६६ ॥ (शिव शब्द में) शि शब्द का मंगल अर्थ और वकार का दाता अर्थ है, अतः मंगलों के प्रदाता को शिव कहा जाता है ॥ ६६ ॥ नराणां संततं विश्वे शं कल्याणं करोति यः । कल्याणं मोक्ष इत्युक्तं स एव शंकरः स्मृतः ॥ ६७ ॥ विश्व में मनुष्यों का जो निरन्तर कल्याण करता है, उसे शंकर कहा गया है कल्याण को मोक्ष कहा गया है ॥ ६७ ॥ ब्रह्मादीनां सुराणां च मुनीनां वेदवादिनाम् । तेषां च महतां देवो महादेवः प्रकीर्तितः ॥ ६८ ॥ ब्रह्मादि देवगण तथा वेदवक्ता मुनिवृन्द का जो महान् देवता है, उसे 'महादेव' कहा गया है ॥ ६८ ॥ महती पूजिता विश्वे मूलप्रकृतिरीश्वरी । तस्या देवः पूजितश्च महादेवः स च स्मृतः ॥ ६९ ॥ समस्त विश्व में ईश्वरी मूल प्रकृति अत्यन्त पूजित है और उसका जो पूजित देव है, उसे महादेव कहा जाता है ॥ ६९ ॥ विश्वस्थानां च सर्वेषां महतामीश्वरः स्वयम् । महेश्वरं च तेनेमं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ७० ॥ हे ब्रह्मपुत्र धन्योऽसि यद्गुरुश्च महेश्वरः । श्रीकृष्णभक्तिदाता यो भवान्पृच्छति मां च किम् ॥ ७१ ॥ विश्व के समस्त महान् प्राणियों का वह स्वयं ईश्वर है, इसी से मनीषी लोग उन्हें 'महेश्वर' कहते हैं । हे ब्रह्मपुत्र ! तुम धन्य हो, श्रीकृष्ण की भक्ति देने वाले महेश्वर जिसके गुरु हैं, ऐसे आप मुझसे क्यों पूछते हैं ॥ ७०-७१ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे राधिकोपाख्याने तन्मन्त्रादिकथनं नाम षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के राधिकोपाख्यान में उनके मंत्र आदि कथन नामक छप्पनवा अध्याय समाप्त ॥ ५६ ॥ |