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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः दुर्गोपाख्याने दुर्गादिनामव्युत्पत्त्यादिकथनम् -
दुर्गा आदि नामों की व्युत्पत्ति - नारद उवाच सर्वाख्यानं श्रुतं ब्रह्मन्नतीव परमाद्भुतम् । अधुना श्रोतुमिच्छामि दुर्गोपाख्यानमुत्तमम् ॥ १ ॥ दुर्गा नारायणीशाना विष्णुमाया शिवा सती । नित्या सत्या भगवती शर्वाणी सर्वमङ्गला ॥ २ ॥ अम्बिका वैष्णवी गौरी पार्वती च सनातनी । नामानि कौथुमोक्तानि सर्वेषां शुभदानि च ॥ ३ ॥ नारद बोले-हे ब्रह्मन् ! मैंने परम अद्भुत समस्त आख्यान सुन लिया, अब श्री दुर्गा जी का उत्तम उपाख्यान सुनना चाहता हूँ । दुर्गा, नारायणी, ईशानी, विष्णुमाया, शिवा, सती, नित्या, सत्या, भगवती, शर्वाणी, सर्वमंगला, अम्बिका, वैष्णवी, गौरी, पार्वती और सनातनी ये कौथुम शाखा में कहे गये सभी नाम शुभप्रद हैं ॥ १-३ ॥ अर्थं षोडशनाम्नां च सर्वेषामीप्सितं वरम् । ब्रूहि वेदविदां श्रेष्ठ वेदोक्तं सर्वसंमतम् ॥ ४ ॥ हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! इन सोलह नामों के समचित अर्थ बताने की कृपाकरें, जो सभी के लिए अभिलषित, श्रेष्ठ, वेदोक्त और सर्वसम्मत हों ॥ ४ ॥ केन वा पूजिता साऽऽदौ द्वितीये केन वा पुरा । तृतीये वा चतुर्थे वा केनसर्वत्र पूजिता ॥ ५ ॥ सर्वप्रथम इस देवी को किसने आराधना की ? पुनः दूसरा, तीसरा और चौथा कौन हैं जिन्होंने उनकी पूजा को ? और किसके द्वारा ये पूजित हुईं ॥ ५ ॥ नारायण उवाच अर्थं षोडशनाम्नां च विष्णुर्वेदे चकार सः । ज्ञात्वा पुनः पृच्छसि त्वं कथयामि यथागमम् ॥ ६ ॥ नारायण बोले-भगवान् विष्णु ने वेद में इन सोलह नामों के अर्थ बताये हैं, उसे जानते हुए भी मुझसे पूछ रहे हो, अतः शास्त्रानुसार मैं कह रहा हूँ ॥ ६ ॥ दुर्गो दैत्ये महाविघ्ने भवबन्धे च कर्मणि । शोके दुःखे च नरके यमदण्डे च जन्मनि ॥ ७ ॥ महाभयेऽतिरोगे चाप्याशब्दो हन्तृवाचकः । एतान्हन्त्येव या देवी सा दुर्गा परिकीर्तिता ॥ ८ ॥ (दुर्गा शब्द में) दुर्ग शब्द दैत्य, महाविघ्न, संसाररूपी बन्धन, संसार के कर्म, शोक, दुःख, नरक, यमदण्ड, जन्म, महाभय, और असाध्यरोग अर्थ में प्रयुक्त होता है, तथा आ शब्द का हन्ता अर्थ है अतः इन सभी का जो हनन (नाश) करती है उस देवी को दुर्गा कहा जाता है ॥ ७-८ ॥ यशसा तेजसा रूपैर्नारायणसमा गुणैः । शक्तिर्नारायणस्येयं तेन नारायणो स्मृता ॥ ९ ॥ यश, तेज, रूप और गुणों में यह नारायण के समान है और उन्हीं की यह शक्ति है अतः इसे नारायणी कहते हैं ॥ ९ ॥ ईशानः सर्वसिद्ध्यर्थं चाशब्दो दातृवाचकः । सर्वसिद्धिप्रदात्री या साऽपीशाना प्रकीर्तिता ॥ १० ॥ समस्त सिद्धि अर्थ में ईशान शब्द प्रयुक्त होता है और आ शब्द का अर्थ दाता है अतः सर्वसिद्धि प्रदान करने वाली देवी को 'ईशाना' कहा जाता है ॥ १० ॥ सृष्टामाया पुरा सृष्टौ विष्णुना परमात्मना । मोहितं मायया विश्वं विष्णुमाया प्रकीर्तिता ॥ ११ ॥ परमात्मा विष्णु ने सृष्टि के पूर्वकाल में माया को उत्पन्न किया और उस माया द्वारा समस्त विश्व को मोहित कर दिया, अतः इसे विष्णुमाया कहते हैं ॥ ११ ॥ शिवे कल्याणरूपा च शिवदा च शिवप्रिया । प्रिये दातरि चाऽऽशब्दो शिवातेन प्रकीर्तिता ॥ १२ ॥ शिव में वह कल्याण रूप है, शिवदायिनी और शिव की प्रिया है । प्रिय और दाता अर्थ में आ शब्द प्रयुक्त होता है, इसी से उसे शिवा कहा जाता है ॥ १२ ॥ सद्बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी विद्यमाना युगे युगे । पतिव्रता सुशीला च सा सती परिकीर्तिता ॥ १३ ॥ प्रत्येक युग में यह सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी विद्यमान रहती है, तथा पतिव्रता और उत्तमस्वभाव की होने के नाते इसे 'सती' कहा जाता है ॥ १३ ॥ यथा नित्यो हि भगवान्नित्या भगवती तथा । स्वमायया तिरोभूता तत्रेशे प्राकृते लये ॥ १४ ॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव कृत्रिमम् । दुर्गा सत्यस्वरूपा सा प्रकृतिर्भगवान्यथा ॥ १५ ॥ जिस प्रकार भगवान् नित्य हैं उसी प्रकार यह भगवती भी नित्या है । प्राकृत लय के समय अपनी माया द्वारा उस ईश (भगवान् कृष्ण में) तिरोहित हो जाती है । इसीलिए तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ कृत्रिम (बनावटी) और मिथ्या है । भगवान् की भांति प्रकृति दुर्गा भी सत्यस्वरूपा हैं ॥ १४-१५ ॥ सिद्धैश्वर्यादिकं सर्वं यस्यामस्ति युगे युगे । सिद्धादिके भगो ज्ञेयस्तेन सा भगवती स्मृता ॥ १६ ॥ प्रत्येक युग में जिसमें सभी सिद्धियाँ और ऐश्वर्यादि वर्तमान रहते हैं, उस सिद्धादिक अर्थ में भग शब्द प्रयुक्त होने के कारण उसे भगवती कहते हैं ॥ १६ ॥ सर्वान्मोक्षं प्रापयति जन्ममृत्युजरादिकम् । चराचरांश्च विश्वस्थाञ्छर्वाणी तेन कीर्तिता ॥ १७ ॥ जो सभी को मोक्ष दिलाती हैं और समस्त विश्व के चर-अचर प्राणियों को जन्म, मृत्यु एवं जरा आदि प्रदान करती हैं, उसे 'शर्वाणी' कहते हैं ॥ १७ ॥ मङ्गलं मोक्षवचनं चाऽऽशब्दो दातृवाचकः । सर्वान्भोक्षान्या ददाति सैव स्यात्सर्वमङ्गला ॥ १८ ॥ मंगल शब्द का मोक्ष अर्थ और आ शब्द का दाता अर्थ है, तथा जो सभी को मोक्ष प्रदान करती है, उसे 'सर्वमंगला' कहा गया है ॥ १८ ॥ हर्षे संपदि कल्याणे मङ्गलं परिकीर्तितम् । तान्ददाति च सर्वेभ्यस्तेन सा सर्वमङ्गला ॥ १९ ॥ हर्ष, सम्पत्ति और कल्याण अर्थ में मंगल शब्द प्रयुक्त होता है और वह सभी प्राणियों को प्रदान करती है, इसलिये भी उसे 'सर्वमंगला' कहते हैं ॥ १९ ॥ अम्बेति मातृवचनो वन्दने पूजने सदा । पूजिता वन्दिता माता जगतांतेन साऽम्बिका ॥ २० ॥ माता तथा सदा वन्दन एवं पूजन अर्थ में अम्बा शब्द प्रयुक्त होता है अतः जगत् की वन्दिता एवं पूजिता माता होने के नाते उसे अम्बिका कहते हैं ॥ २० ॥ विष्णुभक्ता विष्णुरूपा विष्णोः शक्तिस्वरूपिणी । सृष्टौ च विष्णुना सृष्टा वैष्णवी तेन कीर्तिता ॥ २१ ॥ विष्णुभक्त विष्णुस्वरूप, विष्णु की शक्ति और सृष्टि में विष्णु द्वारा उत्पन्न होने के नाते उसे वैष्णवी' कहते हैं ॥ २१ ॥ गौरः पीते च निलिप्ते परे ब्रह्मणि निर्मले । तस्याऽऽत्मनः शक्तिरियं गौरी तेन प्रकीर्तिता ॥ २२ ॥ गौर शब्द पीत वर्ण, निलिप्त परब्रह्म और निर्मल अर्थ में प्रयुक्त होता है और परमात्मा की शक्ति होने के कारण उसे 'गौरी' कहा जाता है ॥ २२ ॥ गुरुः शंभुश्च सर्वेषां तस्य शक्तिः प्रिया सती । गुरुःकृष्णश्च तन्माया गौरी तेन प्रकीर्तिता ॥ २३ ॥ सभी के गुरु शिव हैं, उनकी यह शक्ति है और कृष्ण भी सभी के गुरु हैं उनकी यह माया है इससे भी इन्हें 'गौरी' कहा गया है ॥ २३ ॥ तिथिभेदे पर्वभेदे कल्पभेदेऽन्यभेदके । ख्यातौ तेषु च विख्याता पार्वती तेन कीर्तिता ॥ २४ ॥ तिथिभेद, पर्वभेद कल्पभेद और अन्य भेद तथा ख्याति में विख्यात होने के नाते उसे 'पार्वती' कहा गया है ॥ २४ ॥ महोत्सवविशेषे च पर्वन्निति सुकीर्तिता । तस्याधिदेवी या सा च पार्वती परिकीर्तिता ॥ २५ ॥ महोत्सव विशेष अर्थ में पर्वन् शब्द प्रयुक्त होता है, उसकी अधिष्ठात्री देवी होने के नाते उसे 'पार्वती' कहा जाता है ॥ २५ ॥ पर्वतस्य सुता देवी साऽऽविर्भूता च पर्वते । पर्वताधिष्ठातृदेवी पार्वती तेन कीर्तिता ॥ २६ ॥ और यह देवी पर्वत की कन्या होकर पर्वत पर प्रकट हुई और पर्वतों की अधिष्ठात्री देवी होने के नाते भी उसे 'पार्वती' कहा गया है ॥ २६ ॥ सर्वकाले सना प्रोक्तो विस्तृते च तनीति च । सर्वत्र सर्वकाले च विद्यमाना सनातनी ॥ २७ ॥ सर्वकाल अर्थ में सना शब्द प्रयुक्त होता है, और विस्तृत अर्थ में तनी शब्द । अतः सभी जगह सब समय विद्यमान रहने के कारण उसका 'सनातनी' नामकरण हुआ है ॥ २७ ॥ अर्थः षोडशनाम्नां च कीर्तितश्च महामुने । यथागमं त्वं वेदोक्तोपाख्यानं च निशामय ॥ २८ ॥ हे महामुने ! सोलहों नामों का अर्थ मैंने कह दिया है, अब वेदानुसार उनका उपाख्यान भी शास्त्र रीति से कह रहा हूँ, सुनो ॥ २८ ॥ प्रथमे पूजिता सा च कृष्णेन परमात्मना । वृन्दावने च सृष्ट्यादौ गोलोके रासमण्डले ॥ २९ ॥ सृष्टि के आदि में परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में वृन्दावन के रासमण्डल में इनकी सर्वप्रथम अर्चना की ॥ २९ ॥ मधुकैटभभीतेन ब्रह्मणा सा द्वितीयतः । त्रिपुरप्रेरितेनैव तृतीये त्रिपुरारिणा ॥ ३० ॥ दूसरे मधुकैटम से भयभीत होकर ब्रह्मा ने और तीसरे त्रिपुर से प्रेरित होकर त्रिपुरारि (शिव) ने उनकी पूजा की ॥ ३० ॥ भ्रष्टश्रिया महेन्द्रेण शापाद्दुर्वाससः पुरा । चतुर्थे पूजिता देवी भक्त्या भगवती सती ॥ ३१ ॥ चौथे पूर्वसमय में महेन्द्र ने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त शाप के कारण ऐश्वर्यादि से भ्रष्ट होने पर भक्तिपूर्वक सती भगवती देवी की अर्चना की ॥ ३१ ॥ तदा मुनीन्द्रैः सिद्धेन्द्रैर्देवैश्च मुनिपुंगवैः । पूजिता सर्वविश्वेषु समभूत्सर्वतः सदा ॥ ३२ ॥ उसी समय से वह समस्त विश्व में मुनीन्द्रवृन्द, सिद्धगण, देवों और श्रेष्ठ महर्षियों द्वारा पूजित होकर चारों ओर सदैव पूजित होने लगी ॥ ३२ ॥ तेजःसु सर्वदेवानां साऽऽविर्भूता पुरा मुने । सर्वे देवा ददुस्तस्यै शस्त्राण्याभरणानि च ॥ ३३ ॥ दुर्गादयश्च दैत्याश्च निहिता दुर्गया तथा । दत्तं स्वराज्यं देवेभ्यो वरं च यदभीप्सितम् ॥ ३४ ॥ हे मुने ! प्राचीन समय में समस्त देवों के तेजःपुञ्ज से प्रकट होकर उस दुर्गा देवी ने, जिसे समस्त देवों ने अपने शस्त्र और आभूषण प्रदान किये थे, दुर्ग आदि दैत्यों को मारकर समस्त राज्य और मनइच्छित वरदान देवों को प्रदान किया ॥ ३३-३४ ॥ कल्पान्तरे पूजिता सा सूरथेन महात्मना । राज्ञा च मेधशिष्येण मृन्मय्यां च सरित्तटे ॥ ३५ ॥ कल्पान्तर में मेध के शिष्य राजा सुरथ ने नदी के तट पर मिट्टी की मूर्ति बनाकर देवी की पूजा की थी ॥ ३५ ॥ मेषादिभिश्च महिषैः कृष्णसारैश्च गण्डकैः । छागैरिक्षुसुकूष्माण्डैः पक्षिभिर्बलिभिर्मुने ॥ ३६ ॥ वेदोक्तांश्चैव दत्त्वैवमुपचारांस्तु षोडश । ध्यात्वा च कवचं धृत्वा संपूज्य च विधानतः ॥ ३७ ॥ राजा कृत्वा परीहारं वरं प्राप यथेप्सितम् । मुक्तिं संप्राय वैश्यश्च संपूज्य च सरित्तटे ॥ ३८ ॥ हे मुने ! भेड़ें आदि, भैंसे, मृग, मेढ़क, बकरे, ऊख, कुम्हड़े, और पक्षियों को बलि प्रदान द्वारा वेदोक्त षोडशोपचार से सविधि-पूजन करने के उपरान्त राजा ने कवच धारण किया तथा देवी की स्तुति करके मनइच्छित वर प्राप्त किया । (समाधि नामक) वैश्य ने भी नदी-तट पर देवी की आराधना करके मुक्ति प्राप्त की ॥ ३६-३८ ॥ तुष्टाव राजा वैश्यश्च साश्रुनेत्रः कृताञ्जलिः । ससर्ज मृन्मयीं तां वै गभीरे निर्मले जले ॥ ३९ ॥ राजा और वैश्य दोनों ने सजलनयन एवं हाथ जोड़े स्तुति करते हुए मिट्टी की उस प्रतिमा को गम्भीर जल में डाल दिया ॥ ३९ ॥ मृन्मयीं तामदृष्ट्वा च जलधौतां नराधिपः । रुरोद च तदा वैश्यस्ततः स्थानान्तरं ययौ ॥ ४० ॥ अनन्तर राजा उस मिट्टी की मूर्ति को, जो जल में धुल गयी थी, न देखकर रुदन करने लगा और वह वैश्य उसी समय वहाँसे दूसरी जगह चला गया ॥ ४० ॥ त्यक्त्वा देहं च वैश्यस्तु पुष्करे दुष्करं तपः । कृत्वा जगाम गोलोकं दुर्गादेवीवरेण सः ॥ ४१ ॥ राजा ययौ स्वराज्यं च पूज्यो निष्कण्टकं बली । भोगं च बुभुजे भूपः षष्टिवर्षसहस्रकम् ॥ ४२ ॥ भार्या स्वराज्यं संन्यस्य पुत्रे वै कालयोगतः । मनुर्बभूव सावर्णिस्तप्त्वा वै पुष्करे तपः ॥ ४३ ॥ इत्येवं कथितं वत्स समासेन यथागमम् । दुर्गाख्यानं मुनिश्रेष्ठ किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥ पुष्कर में कठिन तप करके उस वैश्य ने अपनी देह का त्याग किया और दुर्गा देवी के वरदान द्वारा गोलोक की प्राप्ति की एवं उस बलवान् राजा ने अपने निष्कण्टक राज्य का साठ सहस्र वर्ष तक उपभोग किया । अनन्तर स्त्री और राज्य पुत्र को सौंपकर कालयोगवश पुष्कर में तप करके सावणि मनु होकर जन्म ग्रहण किया । हे वत्स ! हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें शास्त्रानुसार दुर्गा जी का उपाख्यान सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४१-४४ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे मनसोपाख्याने दुर्गोपाख्याने दुर्गादिनामव्युत्पत्त्यादिकथनं नाम सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यान में दुर्गा आदि नामों की व्युत्पत्ति आदि कथन नामक सत्तावनवा अध्याय समाप्त ॥ ५७ ॥ |