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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः दुर्गोपाख्याने ताराचन्द्रयोर्दोषनिवारणम् -
तारा और चन्द्रमा का दोष-निवारण - नारद उवाच कस्य वंशोद्भवो राजा सुरथो धर्मिणां वरः । कथं संप्राप वै ज्ञानं मेधसो ज्ञानिनां वरात् ॥ १ ॥ नारद बोले-धार्मिकों में श्रेष्ठ राजा सुरथ किसके वंश में उत्पन्न हुआ ? और ज्ञानिप्रवर श्री मेधस् ऋषि से उसने कैसे ज्ञान प्राप्त किया ? ॥ १ ॥ कस्य वंशोद्भवो ब्रह्मन्मेधसो मुनिसत्तम । बभूव कुत्र संवादो नृपस्य मुनिना सह ॥ २ ॥ हे ब्रह्मन् ! हे मुनिसत्तम ! मेधस् ऋषि किस वंश में उत्पन्न हुए ? और राजा का मुनि के साथ संवाद किस स्थान पर हुआ ? ॥ २ ॥ सख्यं बभूव कुत्रास्य वा प्रभो नृपवैश्ययोः । व्यासेन श्रोतुमिच्छामि वद वेदविदां वर ॥ ३ ॥ हे प्रभो ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य की मित्रता कहाँ हुई थी ? मैं यह सब विस्तार से सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥ नारायण उवाच अत्रिश्च ब्रह्मणः पुत्रस्तस्य पुत्रो निशाकरः । स च कृत्वा राजसूयं द्विजराजो बभूव ह ॥ ४ ॥ नारायण बोले--ब्रह्मा के पुत्र अत्रि और उनके चन्द्रमा नामक पुत्र हुए, जो राजसूय यज्ञ सुसम्पन्न करने के कारण 'द्विजराज' कहलाये थे ॥ ४ ॥ गुरुपत्न्या च तारायां तस्याभूच्च बुधः सुतः । बुधपुत्रस्तु चैत्रश्च तत्पुत्रः सुरथः स्मृतः ॥ ५ ॥ उन्होंने गुरु (बृहस्पति) की पत्नी तारा में बुध नामक पुत्र उत्पन्न किया । बुध के पुत्र चैत्र और चैत्र के पुत्र सुरथ हुए ॥ ५ ॥ नारद उवाच गुरुपत्न्यां च तारायां समभूत्तत्सुतः कथम् । अहो व्यतिक्रमं ब्रूहि देवस्य च महामुने ॥ ६ ॥ नारद बोले-हे महामुने ! गुरुपत्नी तारा में उन्होंने कैसे पूत्र उत्पन्न किया, क्योंकि यह तो देव का व्यतिक्रम है, अतः उसे अवश्य बताने की कृपा कीजिये ॥ ६ ॥ नारायण उवाच संपन्मत्तो महाकामी ददर्श जाह्नवीतटे । तारां सुरगुरोः पत्नीं धर्मिष्ठां च पतिव्रताम् ॥ ७ ॥ नारायण बोले-एक बार धन-मदान्ध और महाकामी चन्द्रमा गंगा के किनारे विचरण कर रहे थे । उसी समय स्नान के लिए आई हुई पतिव्रता तारा को उन्होंने देखा, जो देवगुरु (बृहस्पति) की पत्नी और धर्मात्मा थी ॥ ७ ॥ सुस्नातां सुन्दरीं रम्यां पीनोन्नतपयोधराम् । सुश्रोणीं सुनितम्बाढ्यां मध्यक्षीणां मनोहराम् ॥ ८ ॥ सुदतीं कोमलोङ्गी च नवयौवनसंयुताम् । सूक्ष्मवस्त्रपरीधाना रत्नभूषणभूषिताम् ॥ ९ ॥ कस्तूरीबिन्दुना सार्धमधश्चन्दनबिन्दुना । सिन्दूरबिन्दुनाचारुफालमध्यस्थलोज्ज्वलाम् ॥ १ ० ॥ वह रमणीय सुन्दरी मोटे और उन्नत स्तन, उत्तम जघन माग, अति सुन्दर नितम्ब, पतली कमर, सुन्दर दांतों की पंक्ति, कोमल अंग, नवयौवन, सूक्ष्म वस्त्र एवं रत्नों के भूषणों से भूषित थी । उसके भाल पर कस्तूरी की बिन्दी के साथ नीचे चन्दन-बिन्दु था और सुन्दर तथा उज्ज्वल मांग में सिन्दूर लगा था ॥ ८-१० ॥ वायुनाऽधोवस्त्रहीनां सकामां रक्तलोचनाम् । शरत्पार्वणचन्द्रास्यां पक्वबिम्बाधरां वराम् ॥ ११ ॥ सुस्मितां नम्रवक्त्रां च लज्जया चन्द्रदर्शनात् । गच्छन्तीं स्वगृहं हर्षान्मत्तवारणगामिनीम् ॥ १२ ॥ उसी बीच वायु के झकोरे से अधोवस्त्र हट गया । तब रक्तवर्ण के नेत्र, शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख और पके बिम्बाफल के समान अवरोष्ठ वाली वह कामिनी, मन्द मुसुकाती, नीचे मुख किये, लज्जा की ओट में चन्द्रमा को देखती हुई अति हर्ष से मतवाले हाथी की-सी चाल से अपने घर जाने लगी ॥ ११-१२ ॥ तां दृष्ट्वा मन्मथाक्रान्तश्चन्द्रो लज्जां जहौ मुने । पुलकाङ्कितसर्वाङ्गः सकामस्तामुवाच सः ॥ १३ ॥ हे मुने ! उसे देखकर चन्द्रमा अति कामपीड़ित हो गये । इससे उन्होंने लज्जा त्याग कर शरीर के सर्वांग में पुलकायमान होने के नाते काम-भावना से उससे कहा- ॥ १३ ॥ चन्द्र उवाच योषिच्छ्रेष्ठे क्षणं तिष्ठ वरिष्ठे रसिकासु च । सुविदग्धे विदग्धानां मनो हरसि संततम् ॥ १४ ॥ चन्द्र बोले-हे रमणाश्रेष्ठ ! एवं रसिक ललनाओं में उत्तम ! क्षणमात्र ठहर जाओ ! हे सुदक्षे ! तुम विदग्ध (चतुर) पुरुषों के मन का निरन्तर अपहरण करती हो ॥ १४ ॥ निषेव्य प्रकृतिं जन्मसहस्रं कामसागरे । तपःफलेन त्वा प्राप बृहच्छ्रोणीं बृहस्पतिः ॥ १५ ॥ हे काम- सागरे ! बृहस्पति ने सहस्रों जन्म श्री दुर्गा जी की सेवा करके उस तपस्या के फलस्वरूप तुम बृहत् श्रोणी भाग वाली स्त्री को प्राप्त किया है । ॥ १५ ॥ अहो तपस्विना सार्धमविदग्धेन वेधसा । योजिता त्वं रसवती शश्वत्कामातुरा वरा ॥ १६ ॥ किन्तु आश्चर्य है कि मूर्ख ब्रह्मा ने रसीली और निरन्तर कामातुर रहने वाली तुम ऐसी उत्तम स्त्री को एक तपस्वी के गले बांध दिया है ॥ १६ ॥ किं वा सुखं च विज्ञातमविज्ञेषु समागमे । विदग्धाया विदग्धेन संगमः सुखसागरः ॥ १७ ॥ इसलिए उस अज्ञानी (बृहस्पति) के साथ समागम में तुम्हें कौन सुख मिलता होगा । क्योंकि विदग्धा (चतुर) स्त्री का विदग्ध (चतुर) पुरुष के ही साथ जब समागम होता है, तब सुखसागर उमड़ पड़ता है ॥ १७ ॥ कामेन कामिनी त्वं च दग्धाऽसि व्यर्थमीश्वरि । कर्मणा वाऽऽत्मदोषाद्वा को जानाति मनः स्त्रियाः ॥ १८ ॥ हे ईश्वरि ! तुम कामिनी होकर जो काम द्वारा व्यर्थ जल रही हो, यह कर्मवश या अपने दोष के नाते हो रहा है । क्योंकि स्त्री के मन को कौन जान सकता है ॥ १८ ॥ दिने दिने वृथा याति दुर्लभं नवयौवनम् । नवीनयौवनस्थाया वृद्धेन स्वामिना तव ॥ १९ ॥ तुम्हारी नयी जवानी है और प िवृद्ध हैं, अतः उनके साथ तुम्हार यह दुर्लभ नव यौवन दिन-दिन व्यर्थ होता जा रहा है ॥ १९ ॥ शश्वत्तपस्यायुक्तश्च कृष्णमात्मनमीप्सितम् । स्वर्णे जागरणेवाऽपि ध्योयन्नास्ते बृहस्पतिः ॥ २० ॥ और बृहस्पति तो निरन्तर तपस्या में लगे रहते हैं सोते-जागते सब समय अपने इष्टदेव परमात्मा श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न रहते हैं ॥ २० ॥ सर्वकामरसज्ञा त्वं निष्कामं काममीप्सितम् । ध्यायन्ती कामुकी शश्वद्यूना शृंगारमात्मनि ॥ २१ ॥ वे तो निष्काम हैं और तुम काम के समस्त रस को जानती हो, इससे तुम्हें काम की चाह है, क्योंकि निरन्तर कामुकी बन कर युवा पुरुषों के शृंगार का तुम ध्यान करती रहती हो ॥ २१ ॥ अन्यश्च त्वन्मनः कामो भिन्नं त्वद्भर्तुरीप्सितम् । ययोश्च भिन्नौ विषयौ का प्रीतिः संगमे तयोः ॥ २२ ॥ तुम्हारा मन काम चाहता है और तुम्हारे पति के मन को इससे भिन्न और ही कुछ अमीष्ट है । तो जिस (पति-पत्नी) के (मन के) विषय भिन्न-भिन्न हों, उनके समागम में उन्हें कौन सुख भिल सकेगा ? ॥ २२ ॥ वसन्ती पुष्पतल्पे च गन्धचन्दनचर्चिते । मोदस्व मां गृहीत्वा त्वं वसन्ते माधवीवने ॥ २३ ॥ इसलिए वसन्त के समय इस माधवी वन में गन्ध एवं चन्दन से चचित वासन्ती पुष्प की शय्या पर तुम हमारे साथ (रति का) आनन्द प्राप्त करो ॥ २३ ॥ सुगन्ध्युत्फुल्लकुसुमे निर्जने चन्दने वने । भवती युवती भाग्यवती तत्रैव मोदताम् ॥ २४ ॥ उस निर्जन च दन के वन में, जो सुगन्धित और पूर्णविकसित पुष्पों से सुशोभित है, भाग्यवती युवती आप (वहाँ चलकर) आनन्द लें ॥ २४ ॥ चन्दने चम्पकवने शीतचम्पकवायुना । रम्ये चम्पकतल्पे च क्रीडां कुरु मयो सह ॥ २५ ॥ चन्दन वन के अनन्तर चम्पक वन में चम्पक के शीतल वायु के लहरों में चम्पा की रमणीक शय्या पर मेरे साथ विहार करो ॥ २५ ॥ रम्यायां मलयद्रोण्यां मन्दचन्दनवायुना । रामे रम मया सार्धमतीव निर्जने वने ॥ २६ ॥ हे सुन्दरि ! मन्द चन्दन-वायु से युक्त मन्दराचल की कन्दरा के निर्जन वन में मेरे साथ रमण करो ॥ २६ ॥ स्वर्णरेखातटवने नर्मदापुलिने शुभे । सुराणां वाञ्छितस्थाने रतिं कुरु मया सह ॥ २७ ॥ हे शुभे ! नर्मदा के किनारे स्वर्णरेखा के तटवर्ती वन में-देवताओं के अभीष्ट स्थान में--मेरे साथ रति करो ॥ २७ ॥ इत्युक्त्वा मदनोन्मत्तो मदनाधिकसुन्दरः । पपात चरणे देव्या मन्दो मन्दाकिनीतटे ॥ २८ ॥ इस प्रकार मन्दाकिनी के तट पर मन्दबुद्धि चन्द्रमा, जो काम से उन्मत्त और काम से अधिक सुन्दर थे, इतना कहकर तारा देवी के चरण पर गिर पड़े ॥ २८ ॥ निरुद्धमार्गा चन्द्रेण शुष्ककण्ठौष्ठतालुका । अभीतोवाच कोपेन रक्तपङ्कजलोचना ॥ २९ ॥ चन्द्रमा के इस भांति मार्ग रोक लेने पर तारा के कण्ठ, ओष्ठ और ताल सूख गये और उसके नेत्र रक्त कमल की भांति लाल-लाल हो गये । अनन्तर उसने निर्भय होकर क्रोध से कहा ॥ २९ ॥ तारोवाच धिक् त्वां चन्द्र तृणं मन्ये परस्त्रीलम्पटं शठम् । अत्रेरभाग्यात्त्वं पुत्रो व्यर्थं ते जन्म जीवनम् ॥ ३० ॥ तारा बोली-हे चन्द्र ! तुम्हें धिक्कार है, मैं तुम्हें तृणवत् समझती हैं, क्योंकि तुम परस्त्रीलम्पट होने के नाते शठ हो । अत्रि का दुर्भाग्य था, जो तुम्हें पुत्ररूप में प्राप्त किया, क्योंकि तुम्हारा जन्म और जीवन दोनों व्यर्थ हैं ॥ ३० ॥ अरे कृत्वा राजसूयमात्मानः मन्यसे बली । बभूव पुण्यं ते व्यर्थं विप्रस्त्रीषु च यन्मनः ॥ ३१ ॥ अरे ! राजसूय यज्ञ करके तुम अपने को बड़ा बलवान् समझते हो । ब्राह्मण की स्त्रियों में तुम्हारे मन के दूषित होने के कारण वह तुम्हारा समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया है ॥ ३१ ॥ यस्य चित्तं परस्त्रीषु सोऽशुचिः सर्वकर्मसु । न कर्मफलभाक्पापी निन्द्यो विश्वेषु सर्वतः ॥ ३२ ॥ क्योंकि जिसका चित्त परस्त्रियों में लगा रहता है, वह सभी कर्मों में अपवित्र माना जाता है । इतना ही नहीं, वह पापी समस्त विश्व में सब प्रकार से निन्दित होने के नाते (उत्तम) कर्मफल का भागी नहीं होता है ॥ ३२ ॥ सतीत्वं मे नाशयसि यक्ष्मग्रस्तो भविष्यसि । अत्युच्छ्रितो निपतनं प्राप्नोतीति श्रुतौ श्रुतम् ॥ ३३ ॥ यदि तुमने मेरा सतीत्व नष्ट किया तो तुम्हें यक्ष्मा (तपेदिक) का रोग हो जायगा । क्योंकि वेद में ऐसा सुना गया है कि जो अत्यन्त उन्नत हो जाता है उसका पतन होता ही है ॥ ३३ ॥ दुष्टानां दर्पहा कृष्णो दर्पं ते निहनिष्यति । त्यज मां मातरं वत्स सत्यं ते शं भविष्यति ॥ ३४ ॥ दुष्टों के अभिमान को नष्ट करने वाले भगवान् कृष्ण तुम्हारे दर्प का हनन करेंगे । अतः हे वत्स ! मैं तुम्हारी माता हूँ, मुझे छोड़ दो, सत्य कहती हूँ, तुम्हारा कल्याण होगा ॥ ३४ ॥ इत्युक्त्वा तारका साध्वी रुरोद च मुहुर्मुहुः । चकार साक्षिणं धर्मं सूर्यं वायुं हुताशनम् ॥ ३५ ॥ ब्रह्माणं परमात्मानमाकाशं पवनं धराम् । दिनं रात्रिं च संध्यां च सर्वं सुरगणं मुने ॥ ३६ ॥ इतना कह कर पवित्रता तारा ने बार-बार रुदन किया और धर्म, सूर्य, वायु, अग्नि, ब्रह्मा, परमात्मा, आकाश, पवन, पृथ्वी, दिन-रात्रि, सन्ध्या, और समस्त देवों को साक्षी (गवाही) बनाने लगी ॥ ३५-३६ ॥ तारकावचनं श्रुत्वा न भीतः स चुकोप ह । करे धृत्वा रथे तूर्णं स्थापयामास सुन्दरीम् ॥ ३७ ॥ रथं च चालयामास मनोयायी मनोहरम् । मनोहरां गृहीत्वा तां स च रमे मनोहरः ॥ ३८ ॥ हे मुने ! तारा की ऐसी बातें सुनकर चन्द्रमा भयभीत नहीं हुआ अपितु क्रुद्ध हो गया और उसने उस सुन्दरी के दोनों हाथ पकड़ कर बलात् शीघ्रता से रथ पर बैठा लिया । मन की भांति वेग से चन्द्रमा ने अपने मनोहर रथ का संचालन किया और उस सुन्दरी को पकड़कर उसके साथ रमण किया ॥ ३७-३८ ॥ विस्पन्दके सुरवने चन्दने पुष्पभद्रके । पुष्करे च नदीतीरे पुष्पिते पुष्पकानने ॥ ३९ ॥ सुगन्धिपुष्पतल्पे च पुष्पचन्दनवायुना । निर्जने मलयद्रोण्यां स्निग्धचन्दनचर्चिते ॥ ४० ॥ शैले शैले नदे नद्यां शृङ्गारं कुर्वतोस्तयोः । गतं वर्षशतं हर्षान्मुहूर्तमिव नारद ॥ ४१ ॥ पुष्पभद्रा नदी के तट पर देवों के विस्पन्दक नामक चन्दन वन, पुष्कर के किनारे, खिले हुए पुष्पों के उपवन में, पुष्प-चन्दन और वायु द्वारा सुगन्धित पुष्प की शय्या पर तथा मलयपर्वत के बीच की निर्जन भूमि में स्निग्ध और चन्दनचचित पर्वतों, नदी और नदों में केलि करते उन दोनों के, हे नारद ! सौ वर्ष का समय मुहुर्त (दो घड़ी) की भाँति व्यतीत हो गया ॥ ३९-४१ ॥ बभूव शरणापन्नो भीतो दैत्येषु चन्द्रमाः । तेजस्विनि तथा शुक्रे तेषां च बलिनां गुरौ ॥ ४२ ॥ अनन्तर (देवों से) भयभीत होकर चन्द्रमा दैत्यों और उन बलवानों के तेजस्वी गुरु शुक्र की शरण में गया ॥ ४२ ॥ अभयं च ददौ तस्मै कृपया भृगुनन्दनः । गुरुं जहास देवानां स्वविपक्षं बृहस्पतिम् ॥ ४३ ॥ भृगुनन्दन (शुक्र) ने कृपा करके उसे अभय दान दिया और देवों के गुरु बृहस्पति की, जो उनके शत्रु हैं, हंसी उड़ाने लगे ॥ ४३ ॥ सभायां जहसुर्हृष्टा बलिनो दितिनन्दनाः । अभयं च ददुस्तस्मै भीताय च कलङ्किने ॥ ४४ ॥ उस सभा में बलोन्मत्त दैत्यों ने भी भीत और कलंकी चन्द्रमा को अभयदान देकर बृहस्पति की खिल्ली उड़ायी ॥ ४४ ॥ सतीसतीत्वध्वंसेन पापिष्ठे चन्द्रमण्डले । बभूव शशरूपं च कलङ्कं निर्मले मलम् ॥ ४५ ॥ सती स्त्री का सतीत्व नष्ट करने के कारण पापी चन्द्रमा के निर्मल मण्डल में कलंक मल स्वरूप ही शश (खरहे) का स्वरूप हो गया है । ॥ ४५ ॥ उवाच तं महाभीतं शुक्रो वेदविदां वरः । हितं तथ्यं वेदयुक्तं परिणामसुखावहम् ॥ ४६ ॥ वेदवेताओं में श्रेष्ठ शुक्र ने महाभयभीत चन्द्रमा से उसके हित, सत्य, वेदानुसार और परिणाम में सुखप्रदायक वचन कहा ॥ ४६ ॥ शुक्र उवाच त्वमहो ब्रह्मणः पौत्रोऽप्यत्रेर्भगवतः सुतः । दुर्नीतं कर्म ते पुत्र नीचवन्न यशस्करम् ॥ ४७ ॥ शुक्र बोले--अहो ! तुम ब्रह्मा के पौत्र और भगवान् अत्रि महर्षि के पुत्र हो । हे पुत्र ! तुम्हारा यह उद्दण्डक नोवों को भांति है, कीर्तिकारी नहीं है ॥ ४७ ॥ राजसूयस्य सुफले निर्मले कीर्तिमण्डले । सुधाराशौ सुराबिन्दुरूपमङ्गमुपार्जितम् ॥ ४८ ॥ राजसूय यज्ञ के सुसम्पन्न करने पर उसके परिगानबहा यह निर्मल कीर्तिमण्डल तुम्हें प्राप्त हुआ था, किन्तु सुधा-समूह में सुराबिन्दु के समान उसमें तुमने कलंक लगा ही लिया ॥ ४८ ॥ त्यज देवगुरोः पत्नीं प्रसूमिव महासतीम् । धर्मिष्ठस्य वरिष्ठस्य ब्राह्मणानां बृहस्पतेः ॥ ४९ ॥ मैं चाहता हूँ, देवगुरु बृहस्पति की पत्नी की तुम छोड़ दो । वह (तुम्हारी) जननी और महासती है । बृहस्पति भी अत्यन्त धर्मात्मा एवं ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं ॥ ४९ ॥ शंभोः सुराणामीशस्य गुरुपुत्रस्य वेधसः । पौत्रस्याऽऽङ्गिरसो नित्यं ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥ ५० ॥ देवों के अधीश्वर शिव हैं, उनके गुरुपुत्र ब्रह्मा हैं तथा उनके गैत्र और अंगिरा के पुत्र बृहस्पति हैं, जो ब्रह्मतेज से नित्य प्रज्वलित रहा करते हैं ॥ ५० ॥ शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि । इति सद्वंशजातानां स्वभावं च सतामपि ॥ ५१ ॥ शत्रु के भी गुणों को कहना चाहिए और गुरु के दोष भी । क्योंकि उत्तम कुल में उत्पन्न होने वाले सज्जनों का ऐसा ही स्वभाव होता है ॥ ५१ ॥ स शत्रुर्मे सुरगुरुः परो विश्वे निशाकर । तथाऽपि सहजाख्यानं वर्णितं धर्मसंसदि ॥ ५२ ॥ यत्र लोकाश्च धर्मिष्ठास्तत्र धर्मः सनातनः । यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ ५३ ॥ हे निशाकर ! यद्यपि विश्व में देवगुरु बृहस्पति हमारे परम शत्रु हैं, तथापि इस धर्मसभा में ऐसा कहना स्वाभाविक है । क्योंकि जहाँ धर्मात्मा लोग रहते हैं वहाँ सनातन धर्म रहता है, जहाँ धर्म रहता है, वहाँ कृष्ण रहते हैं और जहां कृष्ण हैं विजय वहीं होती है ॥ ५२-५३ ॥ गौरेकं पञ्च च व्याघ्री सिंही सप्त प्रसूयते । हिंसका प्रलयं यान्ति धर्मो रक्षति धार्मिकम् ॥ ५४ ॥ देवाश्च गुरवो विप्राः शक्ता यद्यपि रक्षितुम् । तथाऽपि नहि रक्षन्ति धर्मघ्नं पापिनं जनम् ॥ ५५ ॥ कुलटाविप्रपत्नीनां गमने सुरविप्रयोः । ब्रह्महत्याषोडशांशपातकं च भवेद्ध्रुवम् ॥ ५६ ॥ गौ एक बच्चा उत्पन्न करती है, व्याघ्री पाँच और सिहिनी सात उत्पन्न करती है ( ?), हिंसक नष्ट हो जाते हैं । अतः धर्म ही धार्मिक की रक्षा करता है । देववृन्द, गुरु और ब्राह्मण लोग यद्यपि रक्षा करने में समर्थ हैं तथापि धर्मनाशक पापी प्राणी की ये लोग रक्षा नहीं करते । कुलटा ब्राह्मणपत्नियों के साथ देवता या ब्राह्मण नमन करता है तो उन्हें ब्रह्महत्या का सोलहवाँ भाग पातक अवश्य लगता है और उन स्त्रियों के स्वयं उपस्थित होने पर उन्हें उसका चतुर्थांश भाग पातक लगता है ॥ ५४-५६ ॥ तासामुपस्थितानां च गमने तच्चतुर्थकम् । त्यागे धर्मो नास्ति पापमित्याह कमलोद्भवः ॥ ५७ ॥ उनका त्याग करने पर धर्म होता है न कि पाप, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ ५७ ॥ विप्रपत्नीसतीनां च गमनं वै बलेन चेत् । ब्रह्महत्याशतं पापं भवेदेव श्रुतौ श्रुतम् ॥ ५८ ॥ और सती ब्राह्मणियों के साथ बलप्रयोग द्वारा उपभोग करने पर सौ ब्रह्महत्या का पापभागी होना पड़ता है, ऐसा वेद में निश्चित सुना है ॥ ५८ ॥ धर्मं चर महाभाग ब्राह्मणीं त्यज सांप्रतम् । कृत्वाऽऽनुतापं पापाच्च निवृत्तिस्तु महाफला ॥ ५९ ॥ इसलिये हे महाभाग ! धर्माचरण करो, इस समय ब्राह्मणी को छोड़ दो । और जो पाप हो गया है, उसके लिए अनुताप (पश्चात्ताप) करो (जिससे उस पाप से निवृत्त हो जाओ), क्योंकि पापों से निवृत्त होना ही महाफल है ॥ ५९ ॥ उपायेन च ते पापं दूरीभूतं भवेन्ननु । शरणागतभीतस्य मयि देवस्य धर्मतः ॥ ६० ॥ शस्त्रहीनं च भीतं च दीनं च शरणार्थिनम् । यो न रक्षत्यधर्मिष्ठः कुम्भीपाके वसेद्ध्रुवम् ॥ ६१ ॥ और अन्य किसी उपाय द्वारा भी तुम्हारा पाप निश्चित नष्ट हो सकता है । भयभीत होकर तुम देव होकर भी धर्मतः मेरी शरण आये हो अतः तुम्हारी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है, क्योंकि शस्त्र-रहित, भयभीत, दीन, शरणार्थी की जो रक्षा नहीं करता है, वह अधर्मी कुम्भीपाक नरक में निश्चित जाता है ॥ ६०-६१ ॥ राजसूयशतानां च रक्षिता लभते फलम् । परमेश्वरयुक्तश्च धर्मेण स भवेदिह ॥ ६२ ॥ और रक्षा करने से उसे सौ राजसूय यज्ञ के फल प्राप्त होते हैं तथा इस लोक में वह परम ऐश्वर्य से संयुक्त होकर धार्मिक होता है ॥ ६२ ॥ इत्युक्त्वा वै दैत्यगुरुः स्वर्गे मन्दाकिनीतटे । स्नात्वा तं स्नापयामास विष्णुपूजां चकार सः ॥ ६३ ॥ इस प्रकार स्वर्ग में मन्दाकिनी नदी के तट पर दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने इतना कहकर स्वयं स्नान किया और उसे भी स्नान कराया एवं भगवान विष्णु की पूजा की ॥ ६३ ॥ विष्णुपादाब्जजातेन तन्नैवेद्यं शुभप्रदम् । गङ्गोदकेन पुण्येन भोजयामास चन्द्रकम् ॥ ६४ ॥ तथा भगवान् विष्णु के चरण-कमल से निकले हुए गंगाजल और उनके पवित्र नैवेद्य से चन्द्रमा को भोजन कराया ॥ ६४ ॥ क्रोडे कृत्वा तु तं भीतं लज्जितं पापकर्मणा । कुशहस्तस्तमित्यूचे स्मारंस्मारं हरिं मुने ॥ ६५ ॥ हे मुने ! पुन: उस भयभीत और पाप-कर्म से लज्जित चन्द्रमा को शुक्र ने अपनी गोद में बैठा कर उसके हाथ में कुश रखा और बार-बार भगवान का स्मरण करके उससे कहा ॥ ६५ ॥ शुक्र उवाच यद्यस्ति मे तपः सत्यं सत्यं पूजाफलं हरेः । सत्यं व्रतफलं चैव सत्यं सत्यवचः फलम् ॥ ६६ ॥ तीर्थस्नानफलं सत्यं सत्यं दानफलं यदि । उपवासफलं सत्यं पापान्मुक्तो भवान्भवेत् ॥ ६७ ॥ शक्र बोले-यदि हमारा तप सत्य है, हरि का पूजाफल सत्य है, व्रत का फल सत्य है, सत्य बोलने का फल सत्य है, तीर्थों का स्नान-फल सत्य है, दान का फल सत्य है और उपवास फल सत्य है, तो आप पापमुक्त हो जायं । ॥ ६६-६७ ॥ विप्रं त्रिसंध्यहीनं च विष्णुपूजाविहीनकम् । तदाप्नोतु महाघोरं चन्द्रपापं सुदारुणम् ॥ ६८ ॥ तीनों काल की संध्याओं से रहित और भगवान् विष्णु की अर्चना से हीन रहने वाला ब्राह्मण चन्द्रमा के इस अति दारुण (भीषण) और महाघोर पाप का भागी हो ॥ ६८ ॥ स्वभार्यावञ्चनं कृत्वा यः प्रयाति परस्त्रियम् । स यातु नरकं घोरं चन्द्रपापेन पातकी ॥ ६९ ॥ अपनी स्त्री को जो प्रवंचना (धूर्तता) से ठगकर परस्त्री से सम्भोग करता है, वह पापी चन्द्रमा के पाप से युक्त होकर घोर नरक में जाय ॥ ६९ ॥ वाचा वा ताडयेत्कान्तं दुःशीला दुर्मुखा च या । सा युगं चन्द्रपापेन यातु लालामुखं ध्रुवम् ॥ ७० ॥ जो दुष्ट स्वभाव वाली कटुमुंही स्त्री वाणी द्वारा अपने पति को प्रताड़ित करती है, वह चन्द्रमा के पाप द्वारा लाला (लार) मुख नामक नरक में यगपर्यन्त निश्चित पड़ी रहे ॥ ७० ॥ अनैवेद्यं वृथान्नं च यश्च भुङ्क्ते हरेर्द्विजः । स यातु कालसूत्रं च चन्द्रपापाच्चतुर्युगम् ॥ ७१ ॥ जो द्विज भगवान् को भोग बिना लगाये उस व्यर्थ अन्न का भोजन करता है, वह चन्द्रमा के पाप से चारों युग पर्यन्त कालसूत्र नामक नरक में जाकर रहे ॥ ७१ ॥ अम्बुवीच्यां भूखननं यः करोति नराधमः । चन्द्रपापाद्युगशतं कालसूत्रं स गच्छतु ॥ ७२ ॥ अम्बुवीचीयोग में (जिसमें भूमि खोदना शास्त्रनिषिद्ध है) खोदने वाला नराधम चन्द्रपाप वश सौ युगों तक कालसूत्र नामक नरक में रहे ॥ ७२ ॥ स्वकान्तं वञ्चयित्वा च या याति परपूरुषम् । सा यातु वह्निकुण्डं च चन्द्रपापाच्चतुर्युगम् ॥ ७३ ॥ जो स्त्री अपने पति को वञ्चित कर पर पुरुष के पास जाती है, वह चन्द्र-पाप से अग्निकुण्ड नामक नरक में चारों युग पर्यन्त रहे ॥ ७३ ॥ कीर्तिं करोति रजसा परकीर्तिं विलुप्य च । स युगं चन्द्रपापेन कुम्भीपाकं च गच्छतु ॥ ७४ ॥ जो लोभवश दूसरे की कीर्ति लुप्त कर अपनी कीर्ति बढ़ाता है वह चन्द्र-पाप से एक युग पर्यन्त कुम्भीपाक नरक में जाकर रहे ॥ ७४ ॥ पितरं मातरं भार्यां यो न पुष्णाति पातकी । स्वगुरुं चन्द्रपापेन यातु चण्डालतां ध्रुवम् ॥ ७५ ॥ जो पुरुष अपने पिता, माता, स्त्री और गुरु का पालन-पोषण नहीं करता है, वह पापी चन्द्रपाप से निश्चित चाण्डाल हो जाये ॥ ७५ ॥ कुलटान्नमवीरान्नमृतुस्नातान्नमेव च । योऽश्नाति चन्द्रपापं च यातु तं पापिनं ध्रुवम् ॥ ७६ ॥ स यातु तेन पापेन कुम्भीपाकं चतुर्युगम् । तस्मादुत्तीर्य चाण्डालीं योनिमाप्नोति पातकी ॥ ७७ ॥ कुलटा, पतिपुत्रहीना और रजस्वला स्त्री का अन्न जो भोजन करता है, वह पापी चन्द्र पाप का भागी हो और उसा पाप से चारों युगों तक कुम्भीपाक नरक में रहने पर अन्त में उस पातकी को चाण्डाल के यहाँ जन्म लेना पड़े ॥ ७६-७७ ॥ दिवसे यो ग्राम्यधर्मं महापापी करोति च । यो गच्छेत्कामतः कामी गुर्विणीं वा रजस्वलाम् ॥ ७८ ॥ तं यातु चन्द्रपापं च महाघोरं च पापिनम् । स यातु तेन पापेन कालसूत्रं चतुर्युगम् ॥ ७९ ॥ जो महापापी दिन में मैथुन करता है और काम-भावना से गर्भिणी अथवा रजस्वला स्त्री का उपभोग करता है वह पापी महाघोर चन्द्र-पाप का भागी होता है और उस पाप के नाते कालसूत्र नामक नरक में चारों युग पर्यन्त रहता है ॥ ७८-७९ ॥ मुखं श्रोणीं स्तनं योनिं यः पश्यति परस्त्रियाः । कामतः कामदग्धश्च यातु तं चन्द्रकल्मषम् ॥ ८० ॥ स यातु लालाभक्ष्यं च चन्द्रपापाच्चतुर्युगम् । तस्मादुत्तीर्य भवतु चाण्डालोऽन्धो नपुंसक ॥ ८१ ॥ जो कामी कामपीड़ित होकर परस्त्री के मुख, श्रोणीभाग और स्तन को देखता है, वह चन्द्रपाप का भागी होता है और उस पाप के कारण चारों युगों तक लालाभक्ष्य नामक नरक में पड़ा रहता है । पश्चात् चांडाल, अन्धा एवं नपुंसक होता है ॥ ८०-८१ ॥ कुहूपूर्णेन्दुसंक्रान्तिचतुर्दश्यष्टमीषु च । मांसं मसूरं लकुचं यश्च भुङ्क्ते हरेर्दिने ॥ ८२ ॥ कुरुते ग्राम्यधर्मं च यातु तं चन्द्रकिल्विषम् । चतुर्युगं कालसूत्रं तेन पापेन गच्छतु ॥ ८३ ॥ चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति और अष्टमी तथा एकादशी या रविवार के दिन जो मांस, मसूर और बढ़हर खाता है तथा मैथुन करता है, वह चन्द्रपाप का भागी होता है और चारों युगपर्यन्त कालसूत्र नामक नरक में रहता है ॥ ८२-८३ ॥ तस्मादुत्तीर्य चाण्डालीं योनिमाप्नोतु पातकी । सप्तजन्म महारोगी दरिद्रः कुब्ज एव च ॥ ८४ ॥ पुनः उसमें से निकल कर वह पातकी चाण्डाल-योनि में जाता है और सात जन्म तक रोगी, दरिद्र तथा कूबड़ा होता है । ८४ ॥ एकादश्यां च यो भुडःक्ते कृष्णजन्माष्टमीदिने । शिवरात्रौ महापापी यातु तं चन्द्रपातकम् ॥ ८५ ॥ एकादशी, भगवान श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी तथा शिवरात्रि के दिन जो भोजन करता है वह महापापी चन्द्रपाप का भागी होता है । ८५ ॥ स यातु कुम्भीपाकं च यावदिन्द्राश्चतुर्दश । तेन पापेन चाऽऽप्नोतु चाण्डालीं योनिमेव च ॥ ८६ ॥ तथा चौदहों इन्द्रों के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहता है । और उसी पाप के कारण चाण्डाल-योनि में उत्पन्न होता है ॥ ८६ ॥ ताम्रस्थं दुग्धमाध्वीकमुच्छिष्टं घृतमेव च । नारिकेलोदकं कांस्ये दुग्धं सलवणं तथा ॥ ८७ ॥ पीतशेषजलं चैव भुक्तशेषं तथौदनम् । असकृच्चौदनं भुङ्क्ते सूर्ये नास्तंगते द्विजः ॥ ८८ ॥ तं यातु चन्द्रशापं च दुर्निवारं च दारुणम् । स यातु तेन पापेन चान्धकूपं चतुर्युगम् ॥ ८९ ॥ तांबे के पात्र में दुग्ध, महुए की शराब, उच्छिष्ट घृत; कांसे के पात्र में नारियल का जल, लवण समेत दुग्ध, पीने से बचा हुआ जल, खाने से बचा हुआ भात और सूर्यास्त के पहले जो बार-बार भात खाता है, वह दुनिवार एवं भीषण चन्द्रपाप का भागी होता है और उस पाप के कारण उसे अन्धकूप नरक में चारों युग पर्यन्त रहना पड़ता है ॥ ८७-८९ ॥ स्वकन्याविक्रयी विप्रो देवलो वृषवाहकः । शूद्राणां शवदाहो च तेषां वै सूपकारकः ॥ ९० ॥ अश्वत्थतरुघाती च विष्णुवैष्णवनिन्दकः । तं यातु चन्द्रपापं च दारुणं पापिनं भृशम् ॥ ९१ ॥ जो ब्राह्मण अपनी कन्या का विक्रय करता है, मन्दिर का पुजारी है, बैलों की सवारी करता है, शूद्रों के शव का दहन एवं उनके भोजन बनाने का काम करता है, पीपल का वृक्ष काटता है, विष्णु और वैष्णवों की निन्दा करता है, उस पापी को अति दारुण चन्द्रपाप लगता है ॥ ९०-९१ ॥ स यातु तस्मात्पापाच्च तप्तसूर्मीं च पातकी । शश्वद्दग्धो भवतु स यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ९२ ॥ उस पाप के नाते वह पातकी, तप्तसूर्मी नामक नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक निरन्तर दग्ध होता रहता है ॥ ९२ ॥ तस्मादुत्तीर्य चाण्डालीं योनिमाप्नोतु पातकी । सप्तजन्मसु चाण्डालो वृषभः पञ्चजन्मसु ॥ ९३ ॥ गर्दभो जन्मशतकं सूकरः सप्तजन्मसु । तीर्थध्वाङ्क्षः सप्तसु वै विट्कृमिः पञ्चजन्मसु । जलौका जन्मशतकं शुचिर्भवतु तत्परम् ॥ ९४ ॥ पुन: उसमें से निकलने पर वह पापी चाण्डाल-योनि प्राप्त कर सात जन्मों तक चाण्डाल, पाँच जन्मों तक बैल, सौ जन्मों तक गधा, सात जन्मों तक सूकर, सात जन्मों तक तीर्थ में काक, पाँच जन्मों तक विष्टा का कीड़ा और सौ जन्मों तक जोंक होकर पश्चात् शुद्ध होता है ॥ ९३-९४ ॥ वृथामांसं च यो भुङ्ते स्वार्थं पाकान्नमेव च । तददत्तं महापापी प्राप्नुयाच्चन्द्रपातकम् ॥ ९५ ॥ जो व्यर्थ मांस भोजन करता है और बिना किसी को दिये अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह महापापी चन्द्र-पाप का भागी होता है ॥ ९५ ॥ स यातु चन्द्रपापेन चासिपत्रं चतुर्युगम् । ततो भवतु सर्पश्च पशुः स्यात्सप्तजन्मसु ॥ ९६ ॥ उस पाप के नाते उसे चारों युग पर्यन्त असिपत्र नामक नरक में रहना पड़ता है । पश्चात् वह सात जन्मों तक सर्प और पशु होता है । ॥ ९६ ॥ विप्रो वार्धुषिको यो हि योनिजीवी चिकित्सकः । हरेर्नाम्नां च विक्रेता यश्च वा स्वाङ्गविक्रयी ॥ ९७ ॥ स्वधर्मकथकश्चैव यश्च स्वात्मप्रशंसकः । मषीजीवी धावकश्च कुलटापोष्य एव च ॥ ९८ ॥ तं यातु चन्द्रपापं च चन्द्रो भवतु विज्वरः । न यातु तेन पापेन शूलप्रोतं सुदारुणम् ॥ ९९ ॥ तत्र विद्धो भवतु स यावदिन्द्राश्चतुर्दश । ततो दरिद्रो रोगी च दीक्षाहीनो नरः पशुः ॥ १०० ॥ जो ब्राह्मण ब्याज लेता है, योनि द्वारा जीविका निर्वाह करता है, चिकित्सक है, भगवान के नामों का विक्रेता है तथा अपना अंग विक्रय करता है, अपना धर्म कहता है, अपनी प्रशंसा करता है, स्याही से जीविका चलाता है, हरकारे का काम करता है, कुलटा स्त्री द्वारा पालित होता है, वह चन्द्रपाप का भागी हो और चन्द्रमा पाप से मुक्त हो जायें । उस पापवश वह अति भीषण शूलपोत नामक नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक उसमें छिद कर टंगा रहे, अनन्तर दरिद्र, रोगी और दीक्षाहीन नरपशु हो ॥ ९७-१०० ॥ लाक्षामांसरसानां च तिलानां लवणस्य च । अश्वानां चैव लोहानां विक्रेता नरघातकः ॥ १०१ ॥ विप्रः कुलालः चौरश्च यातु तं चन्द्रपातकम् । स यातु तेन पापेन क्षुरधारं सुदुःसहम् ॥ १०२ ॥ तत्र च्छिन्नो भवतु स यावदिन्द्रसहस्रकम् । तस्मादुत्तीर्य स भवेत्सृगालः सप्तजन्मसु ॥ १०३ ॥ सप्तजन्मसु मार्जारो महिषो जन्मपञ्चकम् । सप्तजन्मसु भल्लूकः कुक्कुरः सप्तजन्मसु ॥ १०४ ॥ मत्स्यश्च जन्मशतकं कर्कटी जन्मपञ्चकम् । गोधिका जन्मशतकं गर्दभः सप्तजन्मसु ॥ १०५ ॥ सप्तजन्मसु मण्डूकस्ततः स्यान्मानवोऽधमः । चर्मकारश्च रजकस्तैलकारश्च वर्धकिः ॥ १०६ ॥ नाविकः शवजीवी च व्याधश्च स्वर्णकारकः । कुम्भकारो लोहकारस्ततः क्षत्रस्ततो द्विजः ॥ १०७ ॥ लाख (लाह), मांस, रस, तिल, लवण (नमक) अश्व (घोड़े) और लोहे का विक्रेता, नरघाती तथा कुम्हार का कार्य करने वाला एवं चोरी करने वाला ब्राह्मण चन्द्रपाप का भागी हो । उस पाप से वह अतिदुःसह क्षुरधार नामक नरक में सहस्र इन्द्रों के समय तक छिन्न-भिन्न होता रहे । उसमें से निकलने पर वह सात जन्मों तक स्यार होता है । अनन्तर सात जन्मों तक बिलाड़, पाँच जन्मों तक भैसा. सात जन्मों तक भालू सात जन्मों तक कुत्ता, सौ जन्मों तक मछली, पाँच जन्मों तक कर्कटी (केकड़ा), सौ जन्मों तक गोह, सात जन्मों तक गधा, सातजन्मों तक मण्डक (मेढक) होकर अनन्तर अधम मनुष्य होता है-चर्मकार (चमार), धोबी, तेली, बढ़ई, काछी, शवजीवी, व्याध, सोनार, कुम्हार लोहार के उपरान्त क्षत्रिय होकर पुनः ब्राह्मण के यहाँ उत्पन्न होता है ॥ १०१-१०७ ॥ इति चन्द्रं शुचिं कृत्वा समुवाच स तारकाम् । त्यक्त्वा चन्द्रं महासाध्वि गच्छकान्तमिति द्विजः ॥ १०८ ॥ इस भांति चन्द्रमा को पवित्र करके शुक्र ने तारा से कहा--हे महासाध्वि ! चन्द्रमा को छोड़कर तू अब अपने पति के पास चली जा ॥ १०८ ॥ प्रायश्चित्तं विना पूता त्वमेवं शुद्धमानसा । अकामा या बलिष्ठेन न स्त्री जारण दुष्यति ॥ १०९ ॥ क्योंकि शुद्ध मन होने के नाते तू प्रायश्चित्त बिना ही शुद्ध है, कामहीन स्त्री बलवान् जार के द्वारा (दूषित होने पर भी) अदूषित ही रहती है ॥ १०९ ॥ इत्येवमुक्त्वा शुक्रश्च चन्द्रं वा तारकां सतीम् । सस्मितां सस्मितं चैव चकार च शुभाशिषः ॥ ११० ॥ मुसकराते हुए चन्द्रमा तथा सती तारा को इस प्रकार कह कर शुक्र ने उन दोनों को शुभ आशीर्वाद प्रदान किया ॥ ११० ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने ताराचन्द्रयो- र्दोषनिवारणं नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यानमें तारा-चन्द्रमा का दोष-निवारण नामक अट्टावनवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५८ ॥ |