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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकोनषष्टितमोऽध्यायः दुर्गोपाख्याने बृहस्पतेः कैलासगमनम् -
बृहस्पति की कैलास-यात्रा - नारद उवाच बृहस्पतिः किं चकार तारकाहरणान्तरे । कथं संप्राप तां साध्वीं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ नारद बोले--तारा का अपहरण हो जाने पर बहस्पति ने क्या किया-उस पतिव्रता को उन्होंने कैसे प्राप्त किया ? मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ नारायण उवाच दृष्ट्वा विलम्बं तारायाः स्नान्त्याश्चापि गुरुः स्वयम् । प्रस्थापयामास शिष्यमन्वेषार्थं च जाह्नवीम् ॥ २ ॥ श्री नारायण बोले- र वहस्पति ने स्नान के लिए गयी हुई तारा का विलम्ब जानकर स्वयं उसकी खोज के लिए जाह्नवी-तट पर एक शिष्य को भेजा ॥ २ ॥ शिष्यो गत्वा च तद्वृत्तं ज्ञात्वा वै लोकवक्त्रतः । रुदन्नुवाच स्वगुरुं तारकाहरणं मुने ॥ ३ ॥ हे मुने ! शिष्य ने वहाँ जाकर लोगों के मुख से वहाँ का समस्त वृत्तान्त सुना और वहाँ से लौट कर तारा का अपहरण अपने गुरु से रोदन करते हुए उसने कहा ॥ ३ ॥ श्रुत्वा सुरगुरुर्वार्तां शशिना च प्रियां हृताम् । मुहूर्तं प्राप मूर्छां च ततः संप्राप्य चेतनाम् ॥ ४ ॥ रुरोदोच्चैः सशिष्यश्च हृदयेन विदूयता । शोकेन लज्जयाऽऽविष्टो विललाप मुहुर्मुहुः ॥ ५ ॥ देवगरु बृहस्पति उससे सभी बातें जानकर कि-चन्द्रमा ने मेरी प्रियतमा का अपहरण कर लिया -मच्छित हो गये । दो घडी के उपरान्त चेतना होने पर शिष्य समेत गुरु हार्दिक दुःख प्रकट करते हुए ऊँचे स्वर से रोने लगे । शोक और लज्जा से उन्होंने बार-बार विलाप किया ॥ ४-५ ॥ उवाच शिष्यान्संबोध्य नीतिं च श्रुतिसंमताम् । साश्रुनेत्रः साश्रुनेत्राञ्छोकार्तः शोककर्शितान् ॥ ६ ॥ अनन्तर वे शिष्यों को सम्बोधित कर वेद-सम्मत नीति कहने लगे । उस समय शिष्य-वर्ग भी आँखों में आँसू भरे शोकव्याकुल हो रहा था ॥ ६ ॥ बृहस्पतिरुवाच हे वत्साः केन शप्तोऽहं न जाने कारणं परम् । दुःखं धर्मविरुद्धो यः स प्राप्नोति न संशयः ॥ ७ ॥ बृहस्पति बोले- हे वत्स ! मुझे किसने शाप दे दिया, मैं इस महान कारण को नहीं जानता हूँ । क्योंकि धर्म-विरोधी प्राणी को ही दुःख प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ७ ॥ यस्य नास्ति सती भार्या गृहेषु प्रियवादिनी । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम ॥ ८ ॥ जिसके गृह में पतिप्राणा एवं मघरभाषिणी स्त्री नहीं है, उसे (गृह त्यागकर) जंगल चला जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए जंगल और गृह दोनों समान हैं ॥ ८ ॥ भावानुरक्ता वनिता हृता यस्य च शत्रुणा । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम् ॥ ९ ॥ जिसकी प्रेमानुर गिणी स्त्री का शत्रु द्वारा अपहरण हो गया हो, उसे जंगल में निवास करन । चाहिए, क्योंकि अरण्य और गृह दोनों उसके लिए समान हैं ॥ ९ ॥ सुशीला सुन्दरी भार्या गता यस्य गृहादहो । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम् ॥ १० ॥ अहो ! जिसके घर से सुशीला एवं सुन्दरी पत्नी चली जाये, उसे (उसी समय) अरण्य चला जाना चाहिए; क्योंकि जंगल और घर उसके लिए दोनों समान हैं ॥ १० ॥ दैवेनापहृता यस्य पतिसाध्या पतिव्रता । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम् ॥ ११ ॥ देवसंयोगवश जिसकी पतिव्रता एवं पतिपरायणा स्त्री का अपहरण हो जाय उसे बन में चला जाना चाहिए, उसके लिए जैसे घर वैसे वन है ॥ ११ ॥ यस्य माता गृहे नास्ति गृहिणी वा सुशासिता । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम् ॥ १२ ॥ जिसके घर में माता नहीं है और सुशासित स्त्री नहीं है, उसे अरण्य और गृह दोनों समान होने के नाते बन चला जाना चाहिए ॥ १२ ॥ प्रियाहीनं गृहं यस्य पूर्णं द्रविणबन्धुभिः । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम् ॥ १३ ॥ जिसके घर में धनराशि एवं बन्धु वर्ग अधिक हैं, किन्तु प्रिया नहीं है उसे अरण्य चला जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान हैं ॥ १३ ॥ भार्याशून्या वनसमाः सभार्याश्च गृहा गृहाः । गृहिणी च गृहं प्रोक्तं न गृहं गृहमुच्यते ॥ १४ ॥ स्त्री-शून्य गह वन के समान है, जिस घर में स्त्री है वही गृह है, क्योंकि स्त्री ही घर है, केवल गृह को गृह नहीं कहा गया है ॥ १४ ॥ अशुचिः स्त्रीविहीनश्च दैवे पित्र्ये च कर्मणि । यदह्ना कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥ १५ ॥ इसलिए स्त्रीविहीन पुरुष देव एवं पित कर्मों में अपवित्र माना गया है और वह दिन में जो कुछ कर्म करता है, उसका फलभागी नहीं होता है ॥ १५ ॥ दाहिकाशक्तिहीनश्च यथा मन्दो हुताशनः । प्रभाहीनो यथा सूर्यः शोभाहीनो यथा शशी ॥ १६ ॥ शक्तिहीनो यथा जीवो यथा चाऽऽत्मा तनुं विना । विनाऽऽधारं यथाऽऽधेयो यथेशः प्रकृतिं विना ॥ १७ ॥ जिस प्रकार दाहिका शक्ति से हीन अग्नि, प्रभाहीन सूर्य, शोभाहीन चन्द्रमा, शक्तिहीन जीव, शरीर बिना आत्मा, आधार बिना आधेय, प्रकृति बिना ईश मन्द (शन्य) रहता है ॥ १६-१७ ॥ न च शक्तो यथा यज्ञः फलदां दक्षिणां विना । कर्मणां च फलं दातुं सामग्री मूलमेव च ॥ १८ ॥ हे द्विज ! जिस प्रकार फलदायक यज्ञ दक्षिणा बिना असमर्थ रहता है, यज्ञ की सामग्री और उसका मूल भाग कर्मों के फल प्रदान में असमर्थ होता है ॥ १८ ॥ विना स्वर्णं स्वर्णकारो यथाऽशक्तः स्वकर्मणि । यथाऽशक्तः कुलालश्च मृत्तिकां च विना द्विज ॥ १९ ॥ तथा गृही न शक्तश्च संततं सर्वकर्मणि । गृहाधिष्ठातृदेवीं च स्वशक्तिगृहिणीं विना ॥ २० ॥ एवं सोनार जिस प्रकार सुवर्ण के बिना अपने कर्म में अशक्त रहता है और मृत्तिका (मिट्टी) के बिना कुम्हार अपने कार्यों में असमर्थ रहता है उसी प्रकार गृहस्थ गृह की अधिष्ठात्री देवी एवं अपनी शक्ति रूप गृहिणी के बिना अपने सभी कर्मों में निरन्तर अशक्त रहता है ॥ १९-२० ॥ भार्यामूलाः क्रियाः सर्वा भार्यामूला गृहास्तथा । भार्यामूलं सुखं सर्वं गृहस्थानां गृहे सदा ॥ २१ ॥ क्योंकि जितनी क्रियायें हैं सभी स्त्री द्वारा आरम्भ होती हैं, सभी गृह स्त्री के कारण ही बनते हैं, इसलिए गृहस्थों को गृह में भी सुख स्त्री द्वारा ही प्राप्त होता है ॥ २१ ॥ भार्यामूलः सदा हर्षो भार्यामूलं च मङ्गलम् । भार्यामूलश्च संसारो भार्यामूलं च सौरभम् ॥ २२ ॥ यथा रथश्च रथिनां गृहिणां च तथा गृहम् । सारथिस्तु यथा तेषां गृहिणां च तथा प्रिया ॥ २३ ॥ सदा हर्ष भी स्त्री मूलक ही प्राप्त होता है, सभी मंगल स्त्री द्वारा होते हैं । इस भांति सारा संसार स्त्री मलक है । प्रसन्नता भी स्त्री द्वारा ही प्राप्त होती है । जिस प्रकार रथी का रथ होता है उसी प्रकार गृहस्थों का गृह होता है और रथ का संचालक सारथी जैसे होता है उसी भांति गृहस्थों की संचालिका उसकी प्रिया पत्नी होती है ॥ २२-२३ ॥ सर्वरत्नप्रधानं च स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि । गृहीता सा गृहस्थेनैवेत्याह कमलोद्भवः ॥ २४ ॥ इसलिए सभी रत्नों में स्त्रीरत्न प्रधान है । उसे दुष्कुल से भी गृहस्थों को ले लेना चाहिए, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ २४ ॥ यथा जलं विना पद्मं पद्मं शोभां विना यथा । तथैव पुंसां स्वगृहं गृहिणां गृहिणीं विना ॥ २५ ॥ जैसे बिना कमल का जल और बिना शोभा के कमल (हेय) होता है उसी भांति गृही पुरुषों का गृह बिना गृहिणी का होता है ॥ २५ ॥ इत्येवमुक्त्वा स गुरुः प्रविवेश गृहं मुहुः । गृहाद्बहिर्निःससार भूयो भूयः शुचाऽन्वितः ॥ २६ ॥ मुहुर्मुहुश्च मूर्च्छां च चेतनां समवाप सः । भूयो भूयो रुरोदोच्चैः स्मारंस्मारं प्रियागुणान् ॥ २७ ॥ इतना कह कर गुरु बृहस्पति घर के भीतर चले गये और फिर घर से बाहर निकल आये । अधिक शोकमग्न होने के नाते उनका यही क्रम बना रहा । बार-बार मच्छित हो जाते थे और थोड़े समय में चेतना भी आ जाती थी । अपनी प्रिया के गुणों का बार-बार स्मरण करके उच्च स्वर से वे वार-बार रोदन करते थे ॥ २६-२७ ॥ अथान्तरे महाज्ञानी ज्ञानिभिश्च प्रबोधितः । सच्छिष्यैर्मुनिभिश्चान्यैः पुरंदरगृहं ययौ ॥ २८ ॥ अनन्तर महाज्ञानी बृहस्पति को उनके बड़े-बड़े शिष्यों और अन्य महर्षियों ने भलीभांति समझाया, जिससे वे सुरेन्द्र के घर गये ॥ २८ ॥ स गुरुः पूजितस्तेन चाऽऽतिथ्येन मरुत्वता । तमुवाच स्ववृत्तान्तं हृदि शल्यमिवाप्रियम् ॥ २९ ॥ इन्द्र ने उनकी अर्चना समेत आतिथ्य सत्कार किया और कुशल पूछा । गुरु ने अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जो हृदय में शल्य (कील) की भाँति चुभनेवाला था ॥ २९ ॥ बृहस्पतिवचः श्रुत्वा रक्तपङ्कजलोचनः । तमुवाच महेन्द्रश्च कोपप्रस्फुरिताधरः ॥ ३० ॥ बृहस्पति की बातें सुनकर इन्द्र के नेत्र रक्त कमल की भाँति रक्तवर्ण हो गये । क्रोध से अधरोष्ठ फड़काते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ ३० ॥ महेन्द्र उवाच दूतानां वै सहस्रं च चारकर्मणि गच्छतु । अतीव निपुणं दक्षं तत्त्वप्राप्तिनिमित्तकम् ॥ ३ १ ॥ महेन्द्र बोले--इस बात की खोज करने के लिए एक सहस्र गुप्तचर भेज रहा हूँ, जो अति निपुण एवं दक्ष होने के नाते इसके रहस्य का ठीक-ठीक पता लगायेंगे ॥ ३१ ॥ यत्रास्ति पातकी चन्द्रो मन्मात्रा तारया सह । गच्छामि तत्र संनद्धः सर्वैर्देवगणैः सह ॥ ३२ ॥ और मेरी माता तारा के साथ पापी चन्द्रमा जहाँ होगा, वहीं सर्भ देवगणों के साथ तैयार होकर चल रहा है ॥ ३२ ॥ त्यज चिन्तां महाभाग सर्वं भद्रं भविष्यति । भद्रबीजं दुर्गमिदं कस्य संपद्विपद्विना ॥ ३३ ॥ हे महाभाग ! आप चिन्ता त्याग दें. सब अच्छा ही होगा । यह विपत्ति कल्याण मलक है क्योंकि बिना विपत्ति भोगे किसे सम्पत्ति प्राप्त होती है ॥ ३३ ॥ इत्युक्त्वा च शुनासीरो दूतानां च सहस्रकम् । तूर्णं प्रस्थापयामास तत्कर्मनिपुणं मुने ॥ ३४ ॥ हे मुने ! इतना कहकर इन्द्र ने अतिशीघ्र एक सहस्र दूतों को भेज दिया, जो उस कर्म में अति निपुण थे ॥ ३४ ॥ ते दूता वै वर्षशतं ययुनिर्जनमेव च । सुदुर्लङ्घ्यं च विश्वेषु भ्रमित्वा शक्रमाययुः ॥ ३५ ॥ चन्द्रं च शुक्रभवने तं प्रपन्नं च विज्वरम् । दृष्ट्वा सतारकं भीतं कथयामासुरीश्वरम् ॥ ३६ ॥ वे दूतगण समस्त विश्व के अति दुर्लघ्य और निर्जन स्थानों में उस रहस्य का पता लगाते हए सौ वर्ष के उपरान्त लौटकर इन्द्र से मिले और कहने लगे-शुक्राचार्य के यहाँ चन्द्रमा सुखपूर्वक रह रहा है, तारा समेत भयभीत होकर वह उन्हीं की शरण में है-ऐसा दूतों ने इन्द्र से कहा ॥ ३५-३६ ॥ इति श्रुत्वा शुनासीरो नतवक्त्रो बृहस्पतिम् । उवाच शोकसंतप्तो हदयेन विदूयता ॥ ३७ ॥ महेन्द्र उवाच शृणु नाथ प्रवक्ष्यामि परिणामसुखावहम् । भयं त्यज महाभाग सर्वं भद्रं भविष्यति ॥ ३८ ॥ त्वया नहि जितः शुक्रो न मया दितिनन्दनः । एतदालोच्य चन्द्रश्च जगाम शरणं कविम् ॥ ३९ ॥ इसे सुनकर इन्द्र ने मुख नीचे कर लिया और शोक सन्तप्त होकर हार्दिक दुःख प्रकट करते हुए उन्होंने बहस्पति से कहा । महेन्द्र बोले- हे नाथ ! सुनिये मैं कह रहा हूँ, जो परिणाम में सुखप्रदायक होगा । हे महाभाग ! आप भय छोड़ दें, अनन्तर सब कुछ अच्छा ही होगा । न तो आपने शुक्र को जीता और न मैंने दैत्य को जीता यही सोचकर चन्द्रमा कवि शुक्र की शरण में गया है ॥ ३७-३९ ॥ गच्छ शीघ्रं ब्रह्मलोकमस्माभिः सार्धमेव च । ब्रह्मणा सह यास्यामः कैलासे शंकरं वयम् ॥ ४० ॥ इसलिए हमलोगों के साथ आप शीघ्र ब्रह्मलोक चलें और ब्रह्मा को साथ लेकर हमलोग शिवजी के यहाँ चलेंगे ॥ ४० ॥ इत्युक्त्वा तु महेन्द्रश्च संतप्तो गुरुणा सह । जगाम ब्रह्मलोकं च सुखदृश्यं निरामयम् ॥ ४१ ॥ इतना कहकर महेन्द्र सन्तप्त होते हुए गुरु को साथ लिये ब्रह्मलोक गये, जो देखने में सुखप्रद और निरामय था ॥ ४१ ॥ तत्र दृष्ट्वा च ब्रह्माणं ननाम गुरुणा सह । प्रोवाच सर्ववृत्तान्तं देवानामीश्वरं परम् ॥ ४२ ॥ वहाँ ब्रह्मा को देखकर गुरु समेत उन्होंने उन्हें नमस्कार किया और देवों के परमेश्वर उन ब्रह्मा को समस्त वृत्तान्त कहकर सुनाया ॥ ४२ ॥ महेन्द्रवचनं श्रुत्वा हसित्वा कमलोद्भवः । हितं तथ्यं नीतिसारमुवाच विनयान्वितः ॥ ४३ ॥ महेन्द्र की बातें सुनकर कमल से उत्पन्न होने वाले विनययुक्त ब्रह्मा ने हंस कर उनसे कहा, जो हित, तथ्य एवं नीति का सार था ॥ ४३ ॥ ब्रह्मोवाच यो ददाति परस्मै च दुःखमेव च सर्वतः । तस्मै ददाति दुःखं च शास्ता कृष्णः सनातनः ॥ ४४ ॥ ब्रह्मा बोले--जो दूसरे को दुःख पहुंचाता है, उसे सनातन भगवान् श्रीकृष्ण शासक होने के नाते स्वयं दुःख देते हैं ॥ ४४ ॥ अहं स्रष्टा च सृष्टेश्च पाता विष्णुः सनातनः । यथा रुद्रश्च संहर्ता ददाति च शिवं शिवः ॥ ४५ ॥ निरन्तरं सर्वसाक्षी धर्मो वै सर्वकारणम् । सर्वे देवा विषयिणः कृष्णाज्ञापरिपालकाः ॥ ४६ ॥ मैं सष्टि का स्रष्टा हूँ, सनातन विष्णु उसकी रक्षा करते हैं, रुद्र संहार करते हैं और शिव (कल्याण) प्रदान करते हैं । धर्म समस्त के साक्षी एवं निरन्तर सब के कारण हैं, इस प्रकार सभी देवगण अपने-अपने विषय में भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करते हैं ॥ ४५-४६ ॥ बृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्तश्च जितेन्द्रियः । त्रयश्चाङ्गिरसः पुत्रा वेदवेदाङ्गपारगाः ॥ ४७ ॥ बृहस्पति, उतथ्य और जितेन्द्रिय संवर्त, ये तीन पुत्र अंगिरा से उत्पन्न हुए जो वेद-वेदांग के पारगामी थे ॥ ४७ ॥ संवर्ताय कनिष्ठाय न च किंचिद्ददौ गुरुः । स बभूव तपस्वी च कृष्णं ध्यायति चेश्वरम् ॥ ४८ ॥ अंगिरा ने कनिष्ठ (छोटे) पुत्र संवर्त को कुछ नहीं दिया, वह तपस्वी हो गया, परमेश्वर श्रीकृष्ण का सतत ध्यान करता है ॥ ४८ ॥ मध्यमस्योतथ्यकस्य सतीं भार्यां च गुर्विणीम् । जहार कामतस्तां च भ्रातृजायामकामुकीम् ॥ ४९ ॥ यो हरेद्भ्रातृजायां च कामी कामादकामुकीम् । ब्रह्महत्यासहस्रं च लभते नात्र संशयः ॥ ५० ॥ मध्यम (मझला) पुत्र उतथ्य की पतिव्रता पत्नी का, जो उस समय गभिणी एवं कामभावनाहीन तथा भाई की पत्नी थी, इन्होंने कामवश अपहरण कर लिया । जो कामी कामवश भाई की कॉमभावनाहीन पत्नी का अपहरण करता है, उसे सहस्र ब्रह्महत्या का पाप लगता है, इसमें संशय नहीं ॥ ४९-५० ॥ स याति कुम्भीपाकं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ । भ्रतृजायापहारी च मातृगामो भवेन्नरः ॥ ५१ ॥ उसे चन्द्र-सूर्य के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहना पड़ता है, क्योंकि भाई की स्त्री का अपहरण करनेवाला मनष्य मातगामी कहलाता है ॥ ५१ ॥ तस्मादुत्तीर्य पापी च विष्ठायां जायते कृमिः । वर्षकोटिसहस्राणि तत्र स्थित्वा च पातकी ॥ ५२ ॥ ततो भवेन्महापापी वर्षकोटिसहस्रकम् । पुंश्चलियोनिगर्ते च कृमिश्चैव पुरंदर ॥ ५३ ॥ उपरान्त वहाँ से निकलकर वह पापी विष्ठा का कीड़ा होता है, सहस्रों करोड़ वर्ष तक उसमें रहकर वह पातकी महापापी होता है । हे पुरन्दर ! पश्चात् पुंश्चली (व्यभिचारिणी) स्त्री की योनि के गड्ढे का कीड़ा होता है ॥ ५२-५३ ॥ गृध्रःकोटिसहस्राणि शतजन्मानि कुक्कुरः । भ्रातृजायापहरणाच्छतजन्मानि सूकरः ॥ ५४ ॥ अनन्तर सहस्र करोड़ वर्ष गीध, सौ जन्मों तक कुत्ता और भाई की पत्नी का अपहरण करने के नाते सौ जन्मों तक सूकर होता है ॥ ५४ ॥ ददाति यो न दायं च बलिष्ठो दुर्बलाय च । स याति कुम्भीपाकं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ५५ ॥ एवं जो बलवान् पुरुष अपने दुर्बल भाई को उसका दाय भाग (हिस्सा) नहीं देता है, उसे चन्द्र-सूर्य के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहना पड़ता है ॥ ५५ ॥ नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ ५६ ॥ क्योंकि सैकड़ों करोड़ कल्प बीत जाने पर भी बिना उपभोग किये कर्म नष्ट नहीं होता है, अतः अपना किया हुआ शुभअशुभ कर्म अवश्य भोगना पड़ता है ॥ ५६ ॥ जगद्गुरोः शिवस्यापि गुरुपुत्रो बृहस्पतिः । ज्ञातं करोतु वृत्तान्तमीश्वरं बलिनां वरम् ॥ ५७ ॥ बृहस्पति जगद्गुरु शिव के गुरुपुत्र हैं, इसलिए बलवानों में श्रेष्ट उन ईश्वर को यह वृत्तान्त बता देना चाहिए ॥ ५७ ॥ सर्वे समूहा देवानां संनद्धाश्च सवाहनाः । मध्यस्था मुनयश्चैव सन्तु वै नर्मदातटे ॥ ५८ ॥ पश्चादहं च यास्यामि पुण्यं तं नर्मदातटम् । गुरुस्तद्गुरुपुत्रोऽपि शीघ्रं यातु शिवालयम् ॥ ५९ ॥ समस्त देववृन्द अपने वाहन समेत तैयार होकर नर्मदा के तटपर चलें और मुनिगण वहाँ मध्यस्थ रहेंगे, पीछे उस पुण्य नर्मदा तट पर हम भी आ रहे हैं । गुरुपुत्र (बृहस्पति) भी कैलाश जायें ॥ ५८-५९ ॥ महेन्द्र उवाच कथं वा वेदकर्तुश्च सिद्धानां योगिनां गुरोः । मृत्युंजयस्य शंभोश्च गुरुपुत्रो बृहस्पतिः ॥ ६० ॥ अङ्गिरास्तव पुत्रश्च तत्पुत्रश्च बृहस्पतिः । त्वत्तो ज्ञानी महादेवः कथं शिष्यो गुरोः पितुः ॥ ६१ ॥ महेन्द्र बोले- वेदों के प्रणेता, सिद्धों और योगियों के गुरु एवं मृत्युञ्जय शिव के गुरुपुत्र बृहस्पति कैसे हए ? क्योंकि अंगिरा तुम्हारे पुत्र हैं और उनके पुत्र बहस्पति हैं और महादेव तुम से श्रेष्ठ ज्ञानी हैं अतः गुरु के पिता के शिष्य कैसे हुए ? ॥ ६०-६१ ॥ ब्रह्मोवाच कथेयमतिगुप्ता च पुराणेषु पुरंदर । इमां पुराप्रवृतिं च कथयामि निशामय ॥ ६२ ॥ ब्रह्मा बोले-हे पुरन्दर ! यह कथा पुराणों में अति गुप्त है । अतः मैं इस प्राचीन कथा को पुन: कह रहा है, सुनो ॥ ६२ ॥ मृतवत्सा कर्मदोषाद्भार्या चाङ्गिरसः पुरा । व्रतं चकार मद्वाक्यात्कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ६३ ॥ पहले समय में अंगिरा की पत्नी कर्म दोषवश मतवत्सा थी (उसके बच्चे छोटी अवस्था में मर जाते थे) । उसने परमात्मा श्रीकृष्ण का व्रत किया ॥ ६३ ॥ व्रतं पुंसवनं नाम वर्षमेकं चकार सा । सनत्कुमारो भगवान्कारयामास तां व्रतम् ॥ ६४ ॥ तदाऽऽगत्य च गोलोकात्परमात्मा कृपामयः । स्वेच्छामयं परं ब्रह्म भक्तानुग्रहविग्रहः ॥ ६५ ॥ सुव्रतां च सलक्ष्मीकां तामुवाच कृपानिधिः । प्रणतां साश्रुनेत्रां च विनीतां च तया स्तुतः ॥ ६६ ॥ भगवान् सनत्कुमार ने एक वर्ष तक उससे पुंसवन नामक व्रत सविधि सम्पन्न कराया, जिससे उस समय दयामय एवं परमात्मा श्रीकृष्ण ने, जो कृपानिधि, स्वेच्छामय, परब्रह्म एवं भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले हैं, गोलोक से आकर उस लक्ष्मीमूर्ति सुव्रता से कहा, जो विनयविनम्र, आँखों में आँसू भरे स्तुति कर रही थी ॥ ६४-६६ ॥ श्रीकृष्ण उवाच गृहाणेदं व्रतफलं मम तेजः समन्वितम् । भुङ्क्ष्व मद्वरतः पुत्रो भविष्यति मदंशतः ॥ ६७ ॥ पतिर्गुरुश्च देवानां महतां ज्ञानिनां वरः । पुत्रस्ते भविता साध्वि मद्वरेण बृहस्पतिः ॥ ६८ ॥ श्रीकृष्ण बोले-हे पत्रि ! इस व्रत-फल को ग्रहण करो, जो मेरे तेज से युक्त है । इसका भक्षण कर लो, मेरे वरदान द्वारा मेरे अंश से पुत्र उत्पन्न होगा । जो देवों का पति और गुरु तथा बड़े-बड़े ज्ञानियों में श्रेष्ठ होगा । हे साध्वि ! मेरे वरदान द्वारा तुम्हारे बृहस्पति पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ६७-६८ ॥ मद्वरेण भवेद्यो हि स च मद्वरपुत्रकः । त्वद्गर्भे मम पुत्रोऽयं चिरजीवी भविष्यति ॥ ६९ ॥ मेरे वरदान द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मेरा वरपुत्र कहलायेगा । अतः तुम्हारे गर्भ में जो मेरा पुत्र होगा, वह चिरजीवी होगा ॥ ६९ ॥ वरजो वीर्यजश्चैव क्षेत्रजः पालकस्तथा । विद्यामन्त्रसुतौ चैव गृहीतः सप्तमः सुतः ॥ ७० ॥ वरदान से उत्पन्न, वीर्य से उत्पन्न, क्षेत्र से उत्पन्न पालक, विद्या एवं मंत्र जन्य दो पुत्र और सातवां यह बृहस्पति पुत्र है ॥ ७० ॥ इत्युक्त्वा राधिकानाथः स्वलोकं च जगाम सः । श्रीकृष्णवरपुत्रोऽयं ज्ञानी सुरगुरुः स्वयम् ॥ ७१ ॥ मृत्युंजयं महाज्ञानं शिवाय प्रददौ पुरा । दिव्यं वर्षत्रिलक्षं च तपश्चक्रे हिमालये ॥ ७२ ॥ स्वयोगं ज्ञानमखिलं तेजः स्वात्मसमं परम् । स्वशक्तिं विष्णुमायां च स्वांशं वै वाहनं वृषम् ॥ ७३ ॥ स्वशूलं च स्वकवचं स्वमन्त्रं द्वादशाक्षरम् । कृपामयः स्तुतस्तेन श्रीकृष्णश्च परात्परः ॥ ७४ ॥ शिवलोके शिवा सा च विष्णुमाया शिवप्रिया । शक्तिर्नारायणस्येयं तेन नारायणी स्मृता ॥ ७५ ॥ तेजःसु सर्वदेवानां साऽऽविर्भूता सनातनी । जघान दैत्यनिकरं देवेभ्यः प्रददौ पदम् ॥ ७६ ॥ कल्पान्ते दक्षकन्या च सा मूलप्रकृतिः सती । पितृयज्ञे तनुं त्यक्त्वा योगाद्वै सिद्धयोगिनी ॥ ७७ ॥ बभूव शैलकन्या सा साध्वी वै भर्तृनिन्दया । कालेन कृष्णतपसा शंकरं प्राप शंकरी ॥ ७८ ॥ श्रीकृष्णो हि गुरुः शंभोः परमात्मा परात्परः । कृष्णस्य वरपुत्रोऽयं स्वयमेव बृहस्पतिः ॥ ७९ ॥ अतो हेतोः सुरगुरुर्गुरुपुत्रः शिवस्य च । इत्येवं कथितं सर्वमतिगुह्यं पुरातनम् ॥ ८० ॥ इति प्रधानसंम्बन्धः श्रुतश्च कथितो मया । पारम्परिकमन्यं च कथयामि निशामय ॥ ८१ ॥ इतना कहकर राधिका-नाथ भगवान् श्रीकृष्ण अपने लोक चले गये । अत: भगवान श्रीकृष्ण का यह वर (दान जन्य) पुत्र है; जो ज्ञानीश्वर, और स्वयं गुरु है । भगवान् श्रीकृष्ण ने मृत्यु जीतने वाला महाज्ञान पहले शिव जी को दिया था । उन्होंने हिमालय पर तीन लाख दिव्य वर्ष तक तप किया, जिससे भगवान् ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना योग, सम्पूर्ण ज्ञान, अपने समान तेज, अपनी शक्ति विष्णुमाया, और अपना अंश वृष वाहन रूप में दिया तथा अपना शूल, अपना कवच, अपना द्वादशाक्षर मंत्र भी प्रदान किया । अनन्तर शिव ने कृपामय एवं परात्पर भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की । शिवलोक (कैलास) में विष्ण की माया शिवजी की प्रिया शिवा होकर रहने लगी । वह नारायण की सनातनी शक्ति है । उस सनातनी ने समस्त देवों के तेज से प्रकट होकर समस्त दैत्य-वन्दों का संहार किया और देवों को उनके अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित किया । वही मल प्रकृति कल्पान्त में दक्ष की कन्या सती होकर अवतीर्ण हई, जिसने पिता के यज्ञ में पति की निन्दावश योग द्वारा अपना शरीर त्याग कर हिमालय की कन्या होकर जन्म ग्रहण किया । वही पतिव्रता शंकरी अधिक काल तक भगवान कृष्ण का तप करके शंकर जी को प्राप्त हुई है । अतः परात्पर एवं परमात्मा श्रीकृष्ण शंकर जी के गुरु हैं । बृहस्पति स्वयमेव भगवान श्रीकृष्ण के वरदत्त पुत्र हैं, इसी कारण देवगरु (बहस्पति) शिवजी के गम्पुत्र हैं । इस प्रकार मैंने अति गुह्य एवं प्राचीन कथा तथा प्रधान सम्बन्ध जो सुना था, तुम्हें सुना दिया । परम्परा प्राप्त अन्य कथा भी सुना रहा हूँ, सुनो ॥ ७१-८१ ॥ दुर्वासा गरुडश्चैव शंकरांशः प्रतापवान् । शिष्यौ चाङ्गिरसस्तौ द्वौ गुरुपुत्रोऽथवा ततः ॥ ८२ ॥ प्राणाधिकायां सत्यां च मृतायां दक्षशापतः । स्वज्ञानं स्वं च भगवान्विसस्मार स्वमोहतः ॥ ८३ ॥ स्मरणं कारयामास कृष्णेन प्रेरितोऽङ्गिराः । अतो हेतोर्गुरुश्चैवं मत्सुतः स्याच्छिवस्य सः ॥ ८४ ॥ शीघ्रं गच्छतु कैलासं स्वयमेव बृहस्पतिः । त्वं गच्छ तत्र संनद्धः सदेवो नर्मदातटम् ॥ ८५ ॥ इत्युक्त्वा जगतां धाता विरराम च नारद । गुरुर्ययौ च कैलासं मन्हेद्रो नर्मदातटम् ॥ ८६ ॥ दुर्वासा और गरुड़ ये दोनों प्रतापी शंकर जी के अंश हैं और अंगिरा के शिष्य हैं । इस प्रकार भी बृहस्पति शिवजी के गुरुपुत्र हैं तथा दक्ष के शापवश माणप्रिया सती के मर जाने पर भगवान शिव मोहवश अपना ज्ञान और स्वयं अपने को भूल गये थे, भगवान् श्रीकृष्ण से प्रेरित होकर अंगिरा ने उन्हें पुनः उसका स्मरण कराया था । इसीलिए मेरे पुत्र अंगिरा शिवजी के गुरु हैं, अतः स्वयं बृहस्पति केवल कैलास जायें । और तुम देवों के साथ तैयार होकर नर्मदा तट पर चलो । हे नारद ! जगत् के विधाता ब्रह्मा इतना कहकर चुप हो गये । अनन्तर गुरु कैलास गये और महेन्द्र नर्मदा तट पर पहुंचे ॥ ८२-८६ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने बृहस्पतेः कैलासगमनं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥ श्रीब्रह्मवैवंतमहापुराण के दूसरे प्रकृति-खण्ड में नारद-नारायण-संवादविषयक दुर्गोपाख्यान में बृहस्पति का कैलास-गमन नामक उनसठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५९ ॥ |