Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षष्टितमोऽध्यायः


श्रीकृष्णोपदिष्टतारोद्धरणोपायज्ञानम् -
तारा के उद्धार का उपाय-कथन -


नारद उवाच
नारायण महाभाग वेदवेदाङ्‌गपारग ।
निपीतं च सुधाख्यानं त्वन्मुखेन्दुविनिःसृतम् ॥ १ ॥
नारद बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! आप वेद-वेदांग के पारगामी विद्वान् हैं, आपके मुखचन्द्र से निकले हुए आख्यान रूप अमृत का मैंने यथेच्छ पान किया ॥ १ ॥

अधुना श्रोतुमिच्छामि किमुवाच बृहस्पतिः ।
शिवं च गत्वा कैलासं दातारं सर्वसंपदाम् ॥ २ ॥
सम्प्रति मैं यही सुनना चाहता हूँ कि बृहस्पति ने कैलास जाकर समस्त सम्पत्ति के प्रदाता शिव जी से क्या कहा ॥ २ ॥

जगत्कर्ता विधाता च किंवा तं प्रत्युवाच सः ।
एतत्सर्वं समालोच्य वद वेदविदां वर ॥ ३ ॥
और जगन्नियन्ता एवं रचयिता शिव जी ने । उन्हें क्या उत्तर दिया । हे वेदविदों में श्रेष्ठ ! यह सब बात भलीभाँति विचार कर मझे बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥

नारायण उवाच
शीघ्रं गत्वा च कैलासं भ्रष्टश्रीः शंकरं गुरुः ।
प्रणम्य तस्थौ पुरतो लज्जामलिनविग्रहः ॥ ४ ॥
नारायण बोले-श्रीहत गर बृहस्पति ने शीघ्र कैलास जाकर शंकर को प्रणाम किया और लज्जा से कन्धा झुकाये उन्हीं के सामने बैठ गये ॥ ४ ॥

दृष्ट्‍वा गुरुसुतं शंभुरुदतिष्ठत्कुशासनात् ।
आलिङ्‌गनं ददौ तस्मै शीघ्रं माङ्‌गलिकाशिषः ॥ ५ ॥
अनन्तर शिव ने गुरुपुत्र बृहस्पति को सामने देख कर तुरन्त कुशासन से उठ कर उनका आलिंगन किया और मांगलिक शुभाशिष प्रदान किया ॥ ५ ॥

स्वासने वासयित्वा वै पप्रच्छ कुशलं वचः ।
उवाच मधुरं वाक्यं भीतं तं लज्जितं शिवः ॥ ६ ॥
शिव जी ने उन्हें अपने आसन पर बैठा कर जो भयभीत और लज्जित हो रहे थे, मधुर शब्दों में उनसे कुशल पूछा ॥ ६ ॥

शंकर उवाच
कथमेवविधस्त्वं च दुःखी मलिनविग्रहः ।
साश्रुनेत्रो लज्जितश्च भ्रातस्तत्कारणं वद ॥ ७ ॥
किंवा तपस्या हीना ते संध्या हीनाऽथवा मुने ।
किंवा श्रीकृष्णसेवा सा विहीना दैवदोषतः ॥ ८ ॥
किंवा गुरौ भक्तिहीनोऽभीष्टदेवेऽथवा हरौ ।
किंवा न रक्षितुं शक्तः प्रपन्नं शरणागतम् ॥ ९ ॥
श्रीशंकर बोले-हे भ्रातः ! इस भांति तुम दुःखी और मलिन शरीर आँखों में आंसू भरे तथा लज्जित क्यों हो रहे हो, उसका कारण कहो । हे मुने ! क्या तुम्हारी तपस्या नहीं हो पायी या सन्ध्यारहित हो गये ? अथवा देवदोषवश भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा नहीं कर पाये ? या अभीष्ट देव या गुरु की भक्ति से विहीन हो गए या किसी शरण-प्राप्त की रक्षा नहीं कर पाये ? ॥ ७-९ ॥

किंवाऽतिथिस्ते विमुखः किंवा पोष्या बुभुक्षिताः ।
किंवा स्वतन्त्रा स्त्री वा ते किंवा पुत्रोऽवचस्करः ॥ १० ॥
या तुम्हारे यहाँ से अतिथि निराश होकर चला तो नहीं गया ? या तुम्हारे पोष्य वर्ग भूखे तो नहीं हैं ? क्या तुम्हारी स्त्री स्वतन्त्र हो गयी ? या पूत्र तुम्हारा कहना नहीं मानता ? ॥ १० ॥

सुशासितो न शिष्यो वा किं भृत्याश्चोत्तरप्रदाः ।
किंवा ते विमुखा लक्ष्मीः किंवा रुष्टो गुरुस्तव ॥ ११ ॥
या शिष्य सुशासित नहीं है ? सेवक वर्ग ने कहीं उत्तर तो नहीं दे दिए हैं ? क्या लक्ष्मी विमुख होकर चली गयी ? क्या गुरु तुम पर रुष्ट हो गए ? ॥ ११ ॥

गरिष्ठश्च वरिष्ठश्च शश्वत्संतुष्टमानसः ।
गुरुस्तव वसिष्ठश्च प्रेष्ठः श्रेष्ठः सतामहो ॥ १२ ॥
हे निरन्तर सन्तुष्ट रहने वाले ! तुम गौरवपूर्ण और श्रेष्ठ हो, अहो तुम्हारे गुरु वशिष्ठ जी सज्जनों में अति श्रेष्ठ और बड़े हैं ॥ १२ ॥

किंवा रुष्टोऽभीष्टदेवः किंवा रुष्टाश्च वाडवाः ।
किंवा रुष्टा वैष्णवाश्च किंवा ते प्रबलो रिपुः ॥ १३ ॥
किंवा ते बन्धुविच्छेदो विग्रहो बलिना सह ।
किंवा पदं परग्रस्तं किंवा बन्धुधनं च वा ॥ १४ ॥
क्या अभीष्ट देव रुष्ट हो गए हैं या ब्राह्मणवर्ग रुष्ट है ? या वैष्णव लोग रुष्ट हो गए हैं ? या तुम्हारा शत्र प्रबल हो गया है ? या बन्धु-वियोग हो गया है ? या बलवान् के साथ युद्धारम्भ हो गया है ? या तुम्हारा पद या बन्धुओं का धन दूसरे के अधीन हो गया है ? ॥ १३-१४ ॥

केन ते वा कृता निन्दा खलैर्वा पापिभिर्मुने ।
केन वा त्वं परित्यक्तो बान्धवेन प्रियेण वा ॥ १५ ॥
बन्धूस्त्यक्तस्त्वया किंवा वैराग्येण क्रुधाऽथवा ।
किंवा तीर्थे नहि स्नातं न दत्तं पुण्यवासरे ॥ १६ ॥
हे मुने ! अथवा किसी पापी दुष्ट ने तुम्हारी निन्दा की है ? या प्रिय बन्धु ने तुम्हारा त्याग कर दिया है ? या तुम्हीं ने वैराग्य अथवा क्रोधवश बन्धु-त्याग कर दिया है या तीर्थ में स्नान नहीं किया अथवा पुण्य अवसर पर दान नहीं दिया ? ॥ १५-१६ ॥

गुरुनिन्दा बन्धुनिन्दा खलवक्त्राच्छुताऽथवा ।
गुरुनिन्दा हि साधूनां मरणादतिरिच्यते ॥ १७ ॥
या दुष्टों के मुख से गुरु या बन्धुओं की निन्दा तो नहीं सुनी ? क्योंकि गुरुनिन्दा साधु स्वभाव वाले को मरण से भी अधिक दुःखप्रद होती है ॥ १७ ॥

असद्वंशप्रजातानां खलानां निन्दनं तथा ।
दौःशील्यमेवमसतां शश्वन्नारकिणामिह ॥ १८ ॥
असत्कुल में उत्पन्न दुष्ट स्वभाव वाले प्राणियों का, जो निरन्तर नरक-सेवन करते हैं, निन्दा करना स्वभाव ही होता है ॥ १८ ॥

परप्रशंसकाः सन्तः पुष्पवन्तो हि भारते ।
शश्वन्मङ्‌गलयुक्ताश्च राजन्तेऽमलमानसाः ॥ १९ ॥
भारत में पुण्यात्मा सन्त लोग दूसरे की प्रशंसा ही करते हैं, इसीलिए निरन्तर मंगल युक्त होकर सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं । १९ ॥

पुत्रे यशसि तोये च समृद्धे च पराक्रमे ।
ऐश्वर्ये वा प्रतापे च प्रजाभूमिधनेषु च ॥ २० ॥
वचनेषु च बुद्धौ च स्वभावे च चरित्रतः ।
आचारे व्यवहारे च ज्ञायते हृदयं नृणाम् ॥ २१ ॥
क्योंकि पुत्र, यश, जल, धन, पराक्रम, ऐश्वर्य, प्रताप, प्रजा, भूमि, धन, वचन, बुद्धि, स्वभाव, चरित्र, आचार और व्यवहार में मनुष्यों का हृदय स्वयं प्रवृत्त होता है ॥ २०-२१ ॥

यादृग्येषां च हृदयं तादृक्तेषां च मङ्‌गलम् ।
यादृग्येषां पूर्वपुण्यं तादृक्तेषां च मानसम् ॥ २२ ॥
इमलिए जिन लोगों के हृदय में जितनी शुद्धता रहती है, उतना ही उन्हें मंगल प्राप्त होता है और पूर्व का (किया हुआ) जिनकः जैसा पुण्य रहता है वैसा उनका मन होता है ॥ २२ ॥

इत्युक्त्वा च महादेवो विरराम स्वसंसदि ।
तमुवाच महावक्ता स्वयमेव बृहस्पतिः ॥ २३ ॥
इस प्रकार अपनी सभा में कह कर महादेव चुप हो गये । अनन्तर महावक्ता बहस्पति जी स्वयं कहने लगे ॥ २३ ॥

बृहस्पतिरुवाच
अकथ्यमेव वृत्तान्तं कथयामि किमीश्वर ।
लोकाः कर्मवशा नित्यं नानाजन्मसु यत्कृतम् ॥ २४ ॥
स्वकर्मणां फलं भुङ्क्ते जन्तुर्जन्मनि जन्मनि ।
नहि नष्टं च तत्कर्म विना भोगाच्च भारते ॥ २५ ॥
बहस्पति बोले-हे ईश्वर ! यद्यपि मेरा समाचार कहने योग्य नहीं है, तथापि कहंगा ही । कर्म के अर्घन प्राणी अनेक जन्मों में जो कुछ कर्म करता है, अपने कर्मों के फल उसे प्रत्येक जन्म में भोगने पड़ते हैं । क्योंकि भारत में विना उपभोग किए कर्म नष्ट नहीं होता है ॥ २४-२५ ॥

सुखं दुःखं भयं शोको नराणां यत्कृतं प्रभो ।
केचिद्वदन्ति हि भवेत्स्वकृतेन च कर्मणा ॥ २६ ॥
केचिद्वदन्ति दैवेन स्वभावेनेति केचन ।
त्रिविधा गतयो ह्यस्य वेदवेदाङ्‌गपारग ॥ २७ ॥
हे प्रभो ! कुछ लोगों का कहना है कि भारत में मनुष्यों के सुख, दुःख, भय एवं शोक अपने किए कर्म वश होते हैं, कोई कहते हैं कि देव वश और कुछ लोग कहते हैं कि स्वभावतः होते हैं । हे वेद-वेदांग के पारगामी (विद्वान्) ! इस प्रकार इसकी तीन प्रकार की गतियाँ बतायी गयी हैं ॥ २६-२७ ॥

स्वयं च कर्मजनकः कर्म वै दैवकारणम् ।
स्वभावो जायते नृणां स्वात्मनः पूर्वकर्मणः ॥ २८ ॥
प्राणी जो स्वयं कर्म करता है, वही कर्म देव का कारण होता है और मनुष्यों का स्वभाव उसके पूर्व जन्म के कर्मानुसार ही होता है ॥ २८ ॥

स्वकर्मणां च सर्वेषां जन्तूनां प्रतिजन्मनि ।
सुखं दुःखं भयं शोकः स्वात्मनश्च प्रजायते ॥ २९ ॥
इस प्रकार सभी प्राणियों को प्रत्येक जन्म में उसके पूर्वजन्मकृत कर्मानुसार ही सुख, दुःख, भय एवं शोक होता है ॥ २९ ॥

स्वकर्मफलभोक्ता च जीवो हि सगुणः सदा ।
आत्मा भोजयिता साक्षी निर्गुणः प्रकृतेः परः ॥ ३० ॥
अपना कर्म फल भोगने के लिए जीव सदा सगण रहता है, और आत्मा भोग कराने वाला, साक्षी, निर्गण और प्रकृति से परे है ॥ ३० ॥

स एवाऽत्मा सर्वसेव्यः सर्वेषां च फलप्रदः ।
स वै सृजति दैवं च स्वभावं कर्म चैव हि ॥ ३१ ॥
इसीलिए वह आत्मा सभी के सेवन करने योग्य है । वही सब को फल प्रदान करता है, वही दैव (भाग्य), स्वभाव और कर्म का सर्जन करता है ॥ ३१ ॥

कर्मणा च नृणां लज्जा प्रशंसा च प्रफुल्लता ।
लज्जाबीजं च वृत्तान्तं तथाऽपि कथयामि ते ॥ ३२ ॥
इसलिए मनुष्यों को कर्मानुसारही लज्जा, प्रशंसा और प्रफुल्लता (प्रसन्नता) प्राप्त होती है । हमारा समाचार लज्जाजनक है, किन्तु मैं आप से कह ही रहा हूँ ॥ ३२ ॥

इक्त्युत्वा सर्ववृत्तान्तमवोचत्तं बृहस्पतिः ।
श्रुत्वा बभूव नम्रास्यो गौरीशो लज्जया तदा ॥ ३३ ॥
इतना कह कर बृहस्पति ने उन्हें अपना वृत्तान्त सुना दिया, जिसे सुन कर गौरी के प्राणेश्वर शिव ने उसी समय लज्जित होकर नीचे मुख कर लिया ॥ ३३ ॥

जपमाला कराद्‌भ्रष्टा कोपाविष्टस्य शूलिनः ।
बभूव सद्यः कम्पश्च रक्तपङ्‌कजलोचने ॥ ३४ ॥
अनन्तर क्रुद्ध होने पर शिव के हाथ से जपमाला गिर पड़ी और नेत्र रक्त कमल की भांति लाल हो गये और वे स्वयं काँपने लगे ॥ ३४ ॥

संहर्तुरीशो रुद्रस्य विष्णोः पातुः सखा शिवः ।
स्रष्टुः स्तुत्यश्च मान्यश्च स्वात्मनः परमा गतिः ॥ ३५ ॥
निर्गुणस्य च कृष्णस्य प्रकृतीशस्य नारद ।
कोपात्प्रवक्तुमारेभे शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः ॥ ३६ ॥
हे नारद ! शिव जी संहर्ता रुद्र के ईश, पालन करने वाले विष्णु के सखा, सर्जन करने वाले (ब्रह्मा) के स्तुत्य और मान्य तथा स्वात्मभूत, निर्गण एवं प्रकृति के ईश श्रीकृष्ण की परम गति हैं । कोप के नाते शिव जी का कण्ट, ओंठ और ताल सूख गया । अनन्तर उन्होंने कहना आरम्भ किया ॥ ३५-३६ ॥

शिव उवाच
शिवमस्तु च साधूनां वैष्णवानां सतामिह ।
अवैष्णवानामसतामशिवं च पदे पदे ॥ ३७ ॥
शिव बोले-साधओं, वैष्णवों एवं सज्जनों का कल्याण हो और अवैष्णव असज्जनों का पग-पग पर अशुभ हो ॥ ३७ ॥

ददाति वैष्णवेभ्यश्च यो दुःखं सुस्थितो जनः ।
श्रीकृष्णस्तस्य संहर्ता विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ ३८ ॥
जो प्राणी अच्छी स्थिति में रह कर वैष्णवों को दुःख देता है, उसका संहार भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं करते हैं और पद-पद पर उसका अशुभ होता है ॥ ३८ ॥

अवैष्णवानां हृदयं नहि शुद्धं सदामलम् ।
श्रीकृष्णमन्त्रस्मरणं मनोनैर्मल्यकारणम् ॥ ३९ ॥
जो वैष्णव नहीं है उसका हृदय शुद्ध नहीं रहता है, सदा मल से भरा रहता है; क्योंकि मन के निर्मल होने में भगवान् श्रीकृष्ण के मन्त्र का स्मरण करना ही कारण कहा गया है ॥ ३९ ॥

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
विष्णुमन्त्रोपासनया क्षीयते कर्म तन्नृणाम् ॥ ४० ॥
भगवान् विष्ण के मन्त्र की उपासना करने से मनुष्यों के हृदय की ग्रन्थि नष्ट हो जाती है, समस्त सन्देह छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्मों का क्षय हो जाता है ॥ ४० ॥

अहो श्रीकृष्णदासानां कः स्वभावः सुनिर्मलः ।
हृतभार्यं मूर्च्छितश्च न शशाप रिपुं गुरुः ॥ ४१ ॥
अहो ! भगवान् श्रीकृष्ण के दासों का स्वभाव कैमा निर्मल होता है कि स्त्री के अपहरण हो जाने पर गरु (बृहस्पति) मच्छित हो गए, किन्तु उस शत्र को उन्होंने शाप नहीं दिया ॥ ४१ ॥

गुरुर्यस्य वरिष्ठश्च क्रोधहीनश्च धार्मिकः ।
शतपुत्रघ्नमप्येनं न शशाप रिपुं मुनिः ॥ ४२ ॥
जिसके गुरु श्रेष्ट, क्रोधरहित और धार्मिक हैं उस मनि ने सैकड़ों पुत्रों के हनन करने वाले के समान होते हुए भी उम शत्र को शाप नहीं दिया ॥ ४२ ॥

निःश्वासाद्वै सुरगुरोर्भ्रातुर्मम बृहस्पतेः ।
भस्मीभूतो निमेषेण शतचन्द्रो भवेद्ध्रुवम् ॥ ४३ ॥
तथाऽपि तं नो शशाप धर्मभङ्‌गभयेन च ।
तपस्या हीयते शप्तुः कोपाविष्टस्य नित्यशः ॥ ४४ ॥
यद्यपि हमारे भाई देव गुरु बृहस्पति के निःश्वास से निमेष (पलक) मात्र में सैकड़ों चन्द्रमा निश्चित भस्म हो सकते हैं, तथापि धर्म-भंग होने के भय से इन्होंने उसे शाप नहीं दिया । क्योंकि क्रुद्ध होकर जो शाप देते हैं उनकी तपस्या नित्यशः न्युन होती चली जाती है ॥ ४३-४४ ॥

अहो ह्यत्रेरसत्पुत्रः परस्त्रीलुब्धकः शठः ।
तपस्विनो वैष्णवस्य ब्रह्मपुत्रस्य धीमतः ॥ ४५ ॥
अहो ! तपस्वी, वैष्णव. ब्रह्मा के पुत्र एवं धीमान महर्षि अत्रि के असज्जन, परस्त्री-लोभी और शठ पुत्र-हो आश्चर्य है ॥ ४५ ॥

धर्मिष्ठा ब्रह्मणः पुत्रा वैष्णवा ब्राह्मणास्तथा ।
केचिद्‌देवा द्विजा दैत्याः पौत्राश्च त्रिविधा मताः ॥ ४६ ॥
ब्रह्मा के पुत्र धार्मिक, वैष्णव एवं ब्राह्मण हुए हैं तो कुछ देवता, कुछ ब्राह्मण एवं दैत्य तीन प्रकार के उनके पौत्र हैं ॥ ४६ ॥

ये सात्त्विका ब्राह्मणास्ते देवा राजसिकास्तथा ।
दैत्यास्तामसिका रौद्रा बलिष्ठाश्चोद्धताः सदो ॥ ४७ ॥
उनमें सात्त्विक जो हैं वे ब्राह्मण हैं, देव लोग राजसिक (रजोगुण प्रधान) और दैत्य गण तामसी हुए, जो सदा भीषण, बलवान् तथा उद्धत होते हैं ॥ ४७ ॥

स्वधर्मनिरता विप्रा नारायणपरायणाः ।
शैवाः शाक्ताश्च ते देवा दैत्याः पूजाविवर्जिताः ॥ ४८ ॥
ब्राह्मणगण अपने धर्म में लगे हुए नारायण का सतत चिन्तन करते हैं, देवगण शैव और शाक्त होते हैं और दैत्यगण पूजाहीन होते हैं ॥ ४८ ॥

मुमुक्षवो विष्णुभक्ता ब्राह्मणा दास्यलिप्सवः ।
ऐश्वर्यलिप्सवो देवाश्चासुरास्तामसास्तथा ॥ ४९ ॥
विष्णु के भक्त वैष्णव गण मुमक्ष (मोक्ष के इच्छुक) होते हैं, ब्राह्मण (भगवान के) दास होने की इच्छा रखते हैं; देवगण ऐश्वर्य के इच्छुक और असुरगण तामसी होते हैं ॥ ४९ ॥

ब्राह्मणानां स्वधर्मश्च कृष्णस्यार्चनमीप्सितम् ।
निष्कामानां निर्गुणस्य परस्य प्रकृतेरपि ॥ ५० ॥
निष्काम ब्राह्मणों का अपना धर्म है-भगवान् श्रीकृष्ण की अर्चा करना जो निर्गण और प्रकृति से भी परे हैं ॥ ५० ॥

ये ब्राह्मणा वैष्णवाश्च स्वतन्त्राः परमं पदम् ।
यान्त्यन्योपासकाश्चान्यैः सार्धं च प्राकृते लये ॥ ५१ ॥
जो ब्राह्मण वैष्णव होते हैं वे स्वतन्त्र होकर परमपद प्राप्त करते हैं और अन्य की उपासना करने वाले भी प्राकृत लय के समय अन्य के साथ परम पद प्राप्त कर लेते हैं ॥ ५१ ॥

वर्णानां ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः साधवो वैष्णवा यदि ।
विष्णुमन्त्रविहीनेभ्यो द्विजेभ्यः श्वपचो वरः ॥ ५२ ॥
वर्गों में ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं यदि वे साधु एवं वैष्णव हों । क्योंकि भगवान विष्ण के मन्त्र से रहित ब्राह्मणों से श्वपच (चाण्डाल) कहीं श्रेष्ठ होता है । ॥ ५२ ॥

परिपक्वा विपक्वा वा वैष्णवाः साधवश्च ते ।
सततं पाति तांश्चैव विष्णुचक्रं सुदर्शनम् ॥ ५३ ॥
वैष्णव एवं साधु ब्राह्मण भक्ति में परिपक्व हों या अपक्व, विष्णु का चक्र सुदर्शन उन सब की रक्षा करता ही है ॥ ५३ ॥

यथा वह्नौ शुष्कतृणं भस्मीभूतं भवेत्सदा ।
तथा पापं वैष्णवेषु तेजस्विषु हुताशनात् ॥ ५४ ॥
जिस प्रकार अग्नि में सुखा तृण सदा भस्म हो जाता है, उसी तरह तेजस्वी वैष्णवों में अग्नि से पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ५४ ॥

गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे प्रवेक्ष्यति ।
तं वैष्णवं महापूतं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ५५ ॥
जिसके कान में गुरु के मुख से निकला हुआ विष्णु-मन्त्र प्रवेश करता है, विद्वद्वन्द उसे महापवित्र वैष्णव कहते हैं ॥ ५५ ॥

पुंसां शतं पितृणां च शतं मातामहस्य च ।
स्वसोदरांश्च जननीमुद्धरन्त्येव वैष्णवाः ॥ ५६ ॥
वैष्णव लोग पितरों (पूर्वजों) की सौ पीढ़ी, मातामह (नाना) की सौ पीढ़ी तथा अपने सहोदरों और माता का नद्धार करते हैं ॥ ५६ ॥

गयायां पिण्डदानेन पिण्डदा पिण्डभोजिनः ।
समुद्धरन्ति पुंसां च वैष्णवाश्च शतं शतम् ॥ ५७ ॥
गगा में पिण्डदान करने वाले केवल पिण्ड भोजियों का ही उद्धार करते हैं किन्तु वैष्णवगण सैकड़ों पीढ़ियों का उद्धार करते हैं ॥ ५७ ॥

मन्त्रग्रहणमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
यमस्तस्मान्महाभीतो वैनतेयादिवोरगः ॥ ५८ ॥
केवल मन्त्रग्रहण मात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है, गरुड़ से सर्प की भांति उससे यम भी महाभयभीत होता है ॥ ५८ ॥

पुनन्त्येव हि तीर्थानि गङ्‌गादीनि च भारते ।
कृष्णमन्त्रोपासकाश्च स्पर्शमात्रेण वाक्पते ॥ ५९ ॥
हे वाक्पते ! भारत में गंगादि तीर्थ नदियाँ स्नान करने पर पुनीत करती हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के मंत्र की उपासना करने वाले (वैष्णव) केवल स्पर्शमात्र से पवित्र करते हैं ॥ ५९ ॥

पापानि पापिनां तीर्थे यावन्ति प्रभवन्ति च ।
नश्यन्ति तानि सर्वाणि वैष्णवस्पर्शमात्रतः ॥ ६० ॥
तीर्थ में पापियों के जितने पाप उत्पन्न होते हैं, वे सभी पाप वैष्णव के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाते हैं । ॥ ६० ॥

कृष्णमन्त्रोपासकानां रजसा पादपद्मयोः ।
सद्यो मुक्ताः पातकेभ्यः कृत्स्ना पूता वसुंधरा ॥ ६१ ॥
भगवान कृष्ण के मन्त्र की उपासना करने वालों के चरण-कमल के रज से यह समस्त पृथ्वी पातकों से तुरन्त मुक्त होकर पवित्र हो जाती है ॥ ६१ ॥

वायुश्च पवनो वह्निः सूर्यः सर्वं पुनाति च ।
एते पूता वैष्णवानां स्पर्शमात्रेण लीलया ॥ ६२ ॥
यद्यपि वाय, पवन, अग्नि और सूर्य सभी को पुनीत करते हैं किन्तु ये सब वैष्णवों के लीलास्पर्श मात्र से पवित्र हो जाते हैं ॥ ६२ ॥

अहं ब्रह्मा च शेषश्च धर्मः साक्षी च कर्मणाम् ।
एते हृष्टाश्च वाञ्छन्ति वैष्णवानां समागमम् ॥ ६३ ॥
मैं, ब्रह्मा, शेष, और धर्म जो कर्मों के साक्षी हैं, ये सभी अति हर्षित होकर वैष्णवों के समागम की नित्य अभिलाषा रखते हैं ॥ ६३ ॥

फलं कर्मानुरूपेण सर्वेषां भारते भवेत् ।
न भवेत्तद्वैष्णवे च स्विन्नधान्ये यथाऽङ्‍कुरम् ॥ ६४ ॥
यद्यपि भारत में सभी को कर्मानुरूप ही फल प्राप्त होता है, किन्तु सिद्ध (पकाये) धान्य में अंकूर न होने की भाँति वैष्णवों को वैसा कर्मफल प्राप्त नहीं होता है ॥ ६४ ॥

हन्ति तेषां कर्म पूर्वं भक्तानां भक्तवत्सलः ।
कृपया स्वपदं तेभ्यो ददात्येव कृपानिधिः ॥ ६५ ॥
क्योंकि भक्तवत्सल एवं कृपानिधान भगवान् सर्वप्रथम भक्तों के पूर्व जन्म के कर्मों का नाश कर देते हैं, पश्चात् कृपया अपना पद प्रदान करते हैं ॥ ६५ ॥

तेजस्विनां च प्रवरं वैष्णवं भृगुनन्दनम् ।
स चन्द्रो दुर्बलो भीतः शुक्रं च शरणं ययौ ॥ ६६ ॥
वह दुर्बल चन्द्रमा भयभीत होकर तेजस्विजनों में श्रेष्ठ एवं वैष्णव भृगुनन्दन शुक्र की शरण में गया है ॥ ६६ ॥

सुदर्शनो बलिष्ठं च शुक्रं जेतुं न शक्तिमान् ।
तथाऽपि चोद्धरिष्यामि तारां मन्त्रेण यद्‌गुरोः ॥ ६७ ॥
यद्यपि (भगवान् का) सुदर्शन चक्र बली शुक्र को जीतने में सशक्त नहीं है, तथापि अपने गुरु (भगवान कृष्ण) के मंत्र द्वारा मैं तारा का उद्धार करूंगा ॥ ६७ ॥

भज सत्यं परं ब्रह्म कृष्णमात्मानमीश्वरम् ।
सुप्रसन्ने भगवति पत्‍नीं प्राप्स्यसि लीलया ॥ ६८ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण का भजन करो, जो सत्यमूर्ति, परब्रह्म एवं ईश्वर हैं । भगवान् के सुप्रसन्न होने पर तुम्हें पत्नी अनायास प्राप्त हो जायगी ॥ ६८ ॥

मन्त्रं तस्य प्रदास्यामि भ्रातः कल्पतरुं परम् ।
कोटिजन्माघनिघ्नं च सर्वमङ्‌गलकारणम् ॥ ६९ ॥
हे भ्रातः ! मैं तुम्हें उन्हीं का मन्त्र दे रहा हूँ, जो परम कल्पतरुरूप है । करोड़ों जन्म का पाप नष्ट करता है तथा समस्त मंगलों का कारण है ॥ ६९ ॥

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं नश्वरं जलबिन्दुवत् ।
शरणं याहि गोविन्दं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ७० ॥
तावद्‌भवेच्छा भोगेच्छा स्त्रीसुखेच्छा नृणामिह ।
यावद्‌गुरुमुखाम्भोजान्न प्राप्नोति मनुं हरेः ॥ ७१ ॥
ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सभी जल-बिम्ब के समान नश्वर हैं, अतः गोविन्द की शरण में जाओ, जो परमात्मा एवं ईश्वर हैं । मनुष्यों को तभी तक संसारी इच्छा,-भोग की इच्छा और स्त्री-सुख की इच्छा होती है जब तक गुरु के मुख-कमल से भगवान् का मंत्र प्राप्त नहीं कर लेता है । क्योंकि उस दुर्लभ मन्त्र के प्राप्त होने पर मनुष्य को कोई इच्छा ही नहीं होती है ॥ ७०-७१ ॥

संप्राप्य दुर्लभं मन्त्रं वितृष्णो हि भवेन्नरः ।
इन्द्रत्वममरत्वं च नहि वाञ्छन्ति वैष्णवाः ॥ ७२ ॥
इसलिए वैष्णव लोग भगवान् की दास्य-भक्ति के बिना इन्द्रत्व, अमरत्व नहीं चाहते हैं और मोक्ष भी नहीं चाहते हैं ॥ ७२ ॥

नहि वाञ्छन्ति मोक्षं च दास्यभक्तिं विना हरेः ।
भक्तिनिर्मथनं भक्तोमोक्षं नो वाञ्छति प्रभोः ॥ ७३ ॥
ज्ञानं मृत्युंजयत्वं च सर्वसिद्धिं तदीप्सितम् ।
वाक्सिद्धिं चैव धातृत्वं भक्तानां नहि वाञ्छितम् ॥ ७४ ॥
भक्तिं विहाय कृष्णस्य विषयं यो हि वाञ्छति ।
विषमत्ति सुधां त्यक्त्वा वञ्चितो विष्णुमायया ॥ ७५ ॥
अहं ब्रह्मा च विष्णुश्च धर्मोऽनन्तश्च कश्यपः ।
कपिलश्च कुमारश्च नरनारायणावृषी ॥ ७६ ॥
स्वायंभुवो मनुश्चैव प्रह्लादश्च पराशरः ।
भृगुः शुक्रश्च दुर्वासा वसिष्ठः क्रतुरङ्‌गिराः ॥ ७७ ॥
बलिश्च वालखिल्याश्च वरुणश्च हुताशनः ।
वायुः सूर्यश्च गरुडो दक्षो गणपतिः स्वयम् ॥ ७८ ॥
भक्त भगवद्भक्ति का विनाशक मोक्ष भी नहीं चाहता तथा ज्ञान, मृत्युंजयत्व, अभीष्ट सर्व सिद्धियाँ, वाक्सिद्धि और ब्रह्मा होना भी भक्तों को अभीष्ट नहीं है । क्योंकि भगवान् की भक्ति का त्याग कर जो विषय की अभिलाषा करता है वह (मानों) विष्णु की माया से वंचित होने के नाते सुधा त्याग कर विष भक्षण करता है । ब्रह्मा, विष्णु, धर्म, अनन्त कश्यप, कपिल, कुमार, नर-नारायण ऋषि, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, पराशर, भृगु, शुक्र, दुर्वासा, वसिष्ठ, ऋतु, अंगिरा, बलि, बालखिल्य, वरुण, अग्नि, वायु, सूर्य, गरुड़, दक्ष और गणपति, ये परमात्मा श्रीकृष्ण के श्रेष्ट भक्त हैं ॥ ७३-७८ ॥

एते परा भक्तवराः कृणस्य परमात्मनः ।
ये च तस्य कलाः श्रेष्ठास्ते तद्‌भक्तिपरायणाः ॥ ७९ ॥
इत्युक्त्वा शंकरस्तस्मै ददौ कल्पतरुं मनुम् ।
लक्ष्मीमायाकामबीजं ङेन्तं कृष्णपदं मुने ॥ ८० ॥
एवं जो लोग उनकी श्रेष्ट कला (अंश) रूप हैं, वे उनकी भक्ति में निरत रहते हैं । हे मुने ! इतना कहकर शंकर जी ने भगवान् का कल्पवृक्ष तुल्य मंत्र 'ओं श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः,' उत्तम पूजाविधान, स्तोत्र और कवच गुरु-पुत्र को प्रदान किया ॥ ७९-८० ॥

परं पूजाविधानं च स्तोत्रं च कवचं तथा ।
तत्पुरश्चरणं ध्यानं शुद्धे मन्दाकिनीतटे ॥ ८१ ॥
गुरुः संप्राप्य तं मन्त्रं शंकराच्च जगद्‌गुरोः ।
वितृष्णो हि भवाब्धौ च बभूव तमुवाच ह ॥ ८२ ॥
हे मुने ! शुद्ध मन्दाकिनी-तट पर जगद्गुरु शिव द्वारा पुरश्चरणपूर्वक ध्यान एवं मंत्र प्राप्त कर बृहस्पति ने संसार-सागर से खिन्नता प्रकट करते हुए शिव से कहा ॥ ८१-८२ ॥

बृहस्पतिरुवाच
आज्ञां कुरु जगन्नाथ यामि तप्तुं हरेस्तपः ।
तारा तिष्ठतु तत्रैव न तया मे प्रयोजनम् ॥ ८३ ॥
बृहस्पति बोले-हे जगन्नाथ ! मुझे आज्ञा प्रदान करें, मैं भगवान् का तप करने जा रहा हूँ, और अब तारा से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है, अतः वह वहीं रहे ॥ ८३ ॥

पश्यामि विषतुल्यं च सर्वं नश्वरमीश्वर ।
श्रीकृष्णं शरणं यामि सत्यं नित्यं च निर्गुणम् ॥ ८४ ॥
क्योंकि हे ईश्वर ! संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर होने के नाते मुझे विष के समान दिखाई दे रही हैं । इसीलिए मैं भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाना चाहता हूँ, जो सत्य, नित्य और निर्गण हैं ॥ ८४ ॥

महादेव उवाच
परग्रस्तां स्त्रियं त्यक्त्वा न प्रशस्यं तपो मुने ।
संभावितस्य दुश्चर्चा मरणादतिरिच्यते ॥ ८५ ॥
श्री महादेव बोले-हे मने ! शत्र के अधीन पड़ी हई स्त्री को त्याग कर तप करने जाना अच्छा नहीं, क्योंकि सम्भावित दुश्चर्चा (अयश) मरण से अधिक दुःखप्रद होती है ॥ ८५ ॥

पुरो गच्छ महाभाग तमेतं नर्मदातटम् ।
यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्राहं यामि सत्वरम् ॥ ८६ ॥
हे महाभाग ! इसलिए तुम आगे चलो, मैं भी नर्मदा-तट पर , जहाँ ब्रह्मा आदि सभी देव हैं, शीघ्र ही चल रहा हूँ ॥ ८६ ॥

शिवस्य वचनं श्रुत्वा ययौ सुरगुरुः स्वयम् ।
आययौ च महाभागः शंकरो नर्मदातटम् ॥ ८७ ॥
शिव की बातें सुनकर देवगुरु बृहस्पति नर्मदा-तट की ओर चल पड़े और महाभाग शंकर भी वहाँ पहँच गये ॥ ८७ ॥

सगणं शकरं दृष्ट्‍वा प्रसन्नवदनेक्षणम् ।
प्रणेमुर्देवताः सर्वा मनवो मुनयस्तथा ॥ ८८ ॥
अपने गण समेत शिव को वहाँ आये हुए देख कर, जिनके मख और नेत्र से प्रसन्नता स्पष्ट प्रतीत हो रही थी, समस्त देवता, मनु और मुनियों ने सादर प्रणाम किया ॥ ८८ ॥

ननाम शंभुः शिरसा विष्णुं च कमलोद्‌भवम् ।
ददतुस्तौ महेशाय प्रेम्णाऽऽलिङ्‌गनमासनम् ॥ ८९ ॥
शिव ने भी विष्णु और ब्रह्मा को शिर से नमस्कार किया । अनन्तर विष्ण ने शिव से प्रेमालिंगन कर उन्हें आसन प्रदान किया ॥ ८९ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र चागमच्च बृहस्पतिः ।
प्रणनाम महादेवं विष्णुं च कमलोद्‌भवम् ॥ ९० ॥
सूर्यं धर्ममनन्तं च नरं मां च मुनीश्वरान् ।
स्वगुरुं पितरं भक्त्या चावसत्तत्र संसदि ॥ ९१ ॥
उसी बीच वहाँ वहस्पति भी आ गये । उन्होंने महादेव , विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, धर्म, अनन्त, नर-नारायण, मुनिवृन्द, अपने गरु और पिता को भक्तिपूर्वक सादर प्रणाम किया, और वहीं बैठ गये ॥ ९०-९१ ॥

संचिन्त्य मनसा युक्तिमूचे तत्र च संसदि ।
स्वयं विष्णुश्च भगवान्ब्रह्माणं चन्द्रशेखरम् ॥ ९२ ॥
अनन्तर वहाँ की सभा में भगवान् विष्णु ने मन से भलीभांति युक्ति सोच कर ब्रह्मा और शिव से स्वयं कहा ॥ ९२ ॥

विष्णुरुवाच
युवां च मुनयश्चैव समुद्रपुलिनं द्रुतम् ।
शुक्रं कविं च मध्यस्थं प्रस्थापयितुमर्हथ ॥ ९३ ॥
विग्रहेणैव विषमं भविष्यति न संशयः ।
मदाशिषा सुरगुरुस्तारां प्राप्स्यति निश्चितम् ॥ ९४ ॥
विष ले-तुम दोनों और मुनिवृन्द मिलकर समुद्रतट पर शुक्राचार्य के यहाँ किसी को मध्यस्थ बनाकर शीघ्र भेजो । क्योंकि युद्ध करने से विषम परिणाम होगा, इसमें संशय नहीं । और मेरे आशीर्वाद से बृहस्पति तारा को निश्चित प्राप्त करेंगे ॥ ९३-९४ ॥

सुरैः स्तुतश्च संतुष्टः शुक्राचार्यो भविष्यति ।
सुरैः शुक्रो हि न जितः कृष्णचक्रेण रक्षितः ॥ ९५ ॥
इसलिए देवलोग शुक्राचार्य की स्तुति करके उन्हें सन्तुष्ट करें, क्योंकि कृष्णचक्रसुदर्शन द्वारा रक्षित होने के नाते शुक्र को देवलोग भी जीत नहीं सकते हैं ॥ ९५ ॥

युवाभ्यां प्रार्थ्यमानोऽहं युवयोः स्तवनेन च ।
श्वेतद्वीपादागतोऽस्मि परितुष्टः स्तवेन च ॥ ९६ ॥
शुक्राश्रमसमीपं तु सर्वा गच्छन्तु देवताः ।
रिपुर्बलिष्ठः स्तोत्रेण वशीभूत इति श्रुतिः ॥ ९७ ॥
तुम लोगों की प्रार्थना-स्तुति से प्रसन्न होकर मैं श्वेत द्वीप से यहाँ आया हूँ । अतः शुक्र के आश्रम के पास सभी देवता जायें । क्योंकि श्रुति कहती है कि बलवान् शत्रु को उसकी स्तुति द्वारा वशीभूत करना चाहिए ॥ ९६-९७ ॥

इत्युक्त्वा जगतां नाथस्तत्रैवान्तरधीयत ।
स्तुतो ब्रह्मादिभिर्देवैः प्रणतैः परिपूजितः ॥ ९८ ॥
इतना कहकर जगत् के नाथ भगवान् विष्णु ब्रह्मादि देवों द्वारा प्रणाम, स्तुति तथा अर्चना करने के उपरान्त उसी स्थान पर अन्तहित हो गये ॥ ९८ ॥

गते च जगतां नाथे श्वेतद्वीपं च नारद ।
चिन्तिताश्च सुराः सर्वे विषण्णमनसस्तथा ॥ ९९ ॥
मुनीन्देवांश्च संबोध्य ब्रह्मा वै तत्र संसदि ।
उवाच नीतिसारं तत्संमतं शंकरस्य सः ॥ १०० ॥
हे नारद ! जगदीश्वर भगवान् विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर सभी देवता खिन्नमन होकर चिन्ताकुल हो उठे । उसी बीच सभा में मुनियों और देवों को सम्बोधित करते हुए ब्रह्मा ने कहा, जो नीति का सार और शंकर को पसन्द था । ॥ ९९-१०० ॥

ब्रह्मोवाच
मम शंभोश्च धर्मस्य विष्णोर्वा सर्वसाक्षिणः ।
अस्माकं च समः स्नेहो दैत्ये देवे च पुत्रकाः ॥ १०१ ॥
ब्रह्मा बोले-हे पुत्रवन्द ! मेरा, शिव का, धर्म का एवं सबके साक्षी विष्णु का देवों और दैत्यों में समान स्नेह रहा है ॥ १०१ ॥

दैत्यानां च गुरुं शुक्रं प्रपन्नश्च निशाकरः ।
न जितश्च सुरैः शुक्रः पूजितो दितिनन्दनैः ॥ १०२ ॥
और दैत्यों के गरु शुक्र के यहाँ चन्द्रमा रह रहा है, तथा दैत्यगणों से पूजित होने के नाते शुक्र को देवगण कभी जीत नहीं पाये ॥ १०२ ॥

ताराहेतोरहं यामि शुक्रस्य भवनं सुराः ।
सर्वे समुद्रपुलिनं यान्तु विष्णोर्निदेशतः ॥ १०३ ॥
इसलिए हे देवगण ! विष्ण की आज्ञानुसार तुम लोग समुद्रतट पर चलो और तारा के लिए मैं अकेला शुक्र के भवन में जा रहा हूँ ॥ १०३ ॥

इत्युक्त्वा जगतां धाता चागमच्छुक्रसंनिधिम् ।
प्रययुर्देवता विप्राः समुद्रपुलिनं मुने ॥ १०४ ॥
हे मुने ! इतना कहकर जगत् के धाता (ब्रह्मा) शुक्र के पास गये और देवगण एवं ब्राह्मण-वृन्द ने समुद्र-तट की यात्रा को ॥ १०४ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे श्रीकृष्णोपदिष्ट-
तारोद्धरणोपायज्ञानं नाम षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत श्री कृष्णोपदिष्ट तारा के उद्धार का उपाय ज्ञान नामक साठवां अध्याय समाप्त ॥ ६० ॥

GO TOP