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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकषष्टितमोऽध्यायः दुर्गोपाख्याने गुरोस्ताराप्राप्तिबुधोत्पद्यादिवर्णनम् -
बृहस्पति को तारा की प्राप्ति तथा बुध की उत्पत्ति - नारद उवाच ततः परं कि रहस्यं बभूवासुरदेवयोः । श्रोतुमिच्छामि भगवन्परं कौतूहलं मम ॥ १ ॥ नारद बोले-हे भगवन ! उसके पश्चात् दैत्यों और देवों में क्या हुआ ? यह रहस्य सुनने का मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है ॥ १ ॥ नारायण उवाच ब्रह्मा जगाम निलयं शुक्रस्य च महात्मनः । नानादैत्यगणाकीर्णं रत्नमण्डपभूषितम् ॥ २ ॥ नारायण बोले-ब्रह्मा महात्मा शुक्र के भवन गये जो अनेक भांति के दैत्यों से आच्छन्न एवं रत्नों के मण्डपों से विभूषित था ॥ २ ॥ पञ्चाशत्कोटिभिः शिष्यैः परीतं ब्रह्मवादिभिः । सप्तभिः परिखाभिश्च वेष्टितं दुर्गमेव च ॥ ३ ॥ पचास करोड़ ब्रह्मवेत्ता शिष्य उनके चारों ओर वर्तमान थे और उनका दुर्ग सात परिखाओं (खाइयों) से घिरा था ॥ ३ ॥ रक्षितं रक्षकगणैर्दैत्यैश्च शतकोटिभिः । पद्मरागैविरचितैः प्रावारैः परिशोभितम् ॥ ४ ॥ सौ करोड़ दैत्य रक्षकगण दुर्ग की रक्षा करते थे और वह दुर्ग पद्मराग मणियों की बनी चहारदीवारों से सुशोभित था ॥ ४ ॥ ददर्श जगतां धाता सभायां भृगुनन्दनम् । स्तुतं मुनिगणैर्देत्यै रत्नसिंहासनस्थितम् ॥ ५ ॥ उपरान्त जगत् के विधाता ब्रह्मा ने वहाँ भृग-पुत्र शुक्र को देखा जो दैत्यों तथा मुनिगणों द्वारा स्तुत और रत्नसिंहासन पर सुखासीन थे ॥ ५ ॥ जपन्तं परमं ब्रह्म कृष्णमात्मानमीश्वरम् । कोटिसूर्यप्रभं शश्वज्ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ६ ॥ परब्रह्म, परमात्मा एवं ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का जप कर रहे थे, जो करोड़ों सूर्य की प्रभा से पूर्ण तथा ब्रह्मतेज से निरन्तर देदीप्यमान थे ॥ ६ ॥ दृष्ट्वा पौत्रं प्रभायुक्तं विधाता हृष्टमानसः । आत्मानं कृतिनं मेने पुत्रं पौत्रं च नारद ॥ ७ ॥ हे नारद ! इस प्रकार प्रभायुक्त पौत्र को देखकर ब्रह्मा का मन उस समय हर्षमग्न हो गया । वे अपने को और पुत्र-पौत्र को कृतकृत्य समझने लगे ॥ ७ ॥ दृष्ट्वा पितामहं शुक्रो धातारं जगतां प्रभुम् । उत्थाय सहसा भीतः प्रणनाम कृताञ्जलिः ॥ ८ ॥ पश्चात् शुक्र जगत् के विधाता एवं प्रभु ब्रह्मा को देखते ही सहसा उट खड़े हए और भयभीत होते हुए अंजली बांधकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ८ ॥ आदाय पूजयामास चोपचारांस्तु षोडश । तुष्टाव परया भक्त्या सभ्रमेण यथागमम् ॥ ९ ॥ विद्यामन्त्रप्रदातारं दातारं सर्वसंपदाम् । स्वकर्मणां च फलदं सर्वेषां विश्वतो वरम् ॥ १० ॥ षोडशोपचार मंगाकर सविधि पूजन किया, तथा परमभक्ति से आगमानुसार उनकी स्तुति आरम्भ की, जो विद्या और मन्त्र के प्रदाता, समस्त सम्पत्ति तथा अपने कर्मों के फल देने वाले एवं विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ ९-१० ॥ शुक्रस्य स्तवनेनैव संतुष्टो जगतां पतिः । अवरुह्य रथात्तूर्णमवसत्तत्र संसदि ॥ ११ ॥ शुक्र की ऐसी स्तुति से जगत्पति ब्रह्मा सन्तुष्ट होकर शीघ्र रथ से उतर पड़े और उनकी सभा को सम्बोधित किया ॥ ११ ॥ शुक्रेण शिरसो दत्तरत्नसिंहासने वरे । तेजसा ज्वलिते रम्ये निर्मिते विश्वकर्मणा ॥ १२ ॥ शुक्र ने उनके बैठने के लिए शिर झुकाकर वह उत्तम सिंहासन प्रदान किया, जो तेज से प्रज्वलित, रम्य और विश्वकर्मा द्वारा सुनिर्मित था ॥ १२ ॥ शुक्रः प्रणम्य ब्रह्माणं कुमारं सनकं क्रतुम् । वसिष्ठं च मरीचिं च सनन्दं च सनातनम् ॥ १३ ॥ कपिलं वै पञ्चशिखं वोढुमङ्गिरसं मुने । धर्मं मां च नरं भक्त्या प्रणनाम कृताञ्जलिः ॥ १४ ॥ हे मुने ! शुक्र ने ब्रह्मा को प्रणाम करने के उपरान्त कुमार, सनक, क्रतु, वसिष्ठ, मरीचि, सनन्द, सनातन, कपिल, पञ्चशिख, वोढु, अंगिरा, धर्म, मुझे (नारायण) और नर को भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ १३-१४ ॥ प्रत्येकं पूजयामास सादरं च यथोचितम् । सिंहासनेषु रम्येषु वासयामास धार्मिकः ॥ १५ ॥ उस धार्मिक ने सादर यथोचित प्रत्येक की पूजा की और उन्हें रत्नसिंहासनों पर बैठाया ॥ १५ ॥ प्रहृष्टवदना सर्वे प्रणेमुर्दितिनन्दनाः । ऋषिसंघाश्च धातारं तुष्टुवुश्च यथागमम् ॥ १६ ॥ अनन्तर दितिनन्दन और वहाँ के ऋषिसंघ ने प्रसन्नचित्त होकर शास्त्रानुसार ब्रह्मा को प्रणाम किया । १६ ॥ सर्वान्संस्तूय स कविरवोचत्संपुटाञ्जलिः । साश्रुनेत्रः सपुलकः प्रणतो विनयान्वितः ॥ १७ ॥ ब्रह्मा का सादर स्वागत करने के अनन्तर कवि (शुक्र) ने अंजली बाँधकर, सजल नेत्र, पुलकायमान शरीर से विनय-विनम्र होकर कहना आरम्भ किया ॥ १७ ॥ शुक्र उवाच अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् । स्वयं विधाता भगवान्साक्षाद्दृष्टः स्वमन्दिरे ॥ १८ ॥ बोल-आज हमारा जन्म सफल हो गया, हमारा जीवन सुजीवन हो गया, क्योंकि आज अपने भवन में साक्षात् भगवान् ब्रह्मा स्वयं दृष्टिगोचर हुए हैं ॥ १८ ॥ साक्षाद्दृष्टाश्च तत्पुत्रा भगवन्तः सनातनाः । तुष्टः कृष्णोऽद्य मामेव परमात्मा परात्परः ॥ १९ ॥ और उनके पुत्र-भगवान् सनातन आदि भी–प्रसन्न चित्त से साक्षात् दर्शन दे रहे हैं । इससे आज परात्पर एवं परमात्मा श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यधिक प्रसन्न मालूम हो रहे हैं ॥ १९ ॥ कृतार्थं कर्तुमीशा मां युष्माकं स्वागतं शिशुम् । स्वात्मारामेषु कुशलं प्रश्नमेव विडम्बनम् ॥ २० ॥ मुझ शिशु को कृतार्थ करने में समर्थ आप लोगों का स्वागत है । अपने आत्मा में रमण करने वालों को कुशल पूछना तो बिडम्बना मात्र है ॥ २० ॥ पवित्रं कर्तुमीशा मां हेतुरागमनेऽत्र वः । अपरं ब्रूथ किंवाऽपि शास्त नः करवाणि किम् ॥ २१ ॥ हमें पवित्र करने के लिए ही आप महानुभावों का यहाँ आगमन हुआ है । हमें बतायें या शासन करें कि मैं क्या करूँ ॥ २१ ॥ ब्रह्मोवाच उद्विग्नश्चिरविच्छेदात्त्वां पौत्रं द्रष्टुमागतः । विच्छेदः पुत्रपौत्राणां मरणादतिरिच्यते ॥ २२ ॥ ब्रह्मा बोले-तुम्हारे चिरकाल के वियोग के नाते हमें बड़ी उद्विग्नता थी अतः अपने पौत्र (तुम) को देखने के लिए आया हूँ । क्योंकि पुत्र-पौत्र का वियोग मरण से भी अधिक दुःखप्रद होता है ॥ २२ ॥ कुशलं ते मुनिश्रेष्ठ पुत्रयोश्चापि योषितः । कुशलं ते स्वधर्माणां काम्यानां तपसामपि ॥ २३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम कुशल से तो हो ? तुम्हारे पुत्र, स्त्रियाँ, स्वधर्म तथा काम्य तप कुशलपूर्वक चल रहे हैं न ? ॥ २३ ॥ दिने दिनेऽपरिच्छन्नं श्रीकृष्णार्चनमीप्सितम् । स्वगुरोः सेवनं नित्यमविच्छिन्नं भवेत्तव ॥ २४ ॥ तुम्हारा दिनप्रतिदिन भगवान् श्रीकृष्ण का यथेष्ट पूजन और अपने गुरु की नित्य अविच्छिन्न सेवा चलती रहे ॥ २४ ॥ गुर्विष्टयोः पूजनं च सर्वमङ्गलकारणम् । पापाधिरोगशोकघ्नं पुण्यं हर्षप्रदं शुभम् ॥ २५ ॥ क्योंकि गरु और इष्टदेव का पूजन करना समस्त मंगलों का कारण होता है, पाप, रोग एवं शोक का नाश करता है और पुण्य, हर्षप्रद तथा शुभ होता है ॥ २५ ॥ अभीष्टदेवः संतुष्टो गुरौ तुष्टे नृणामिह । इष्टदेवे च संतुष्टे संतुष्टाः सर्वदेवताः ॥ २६ ॥ गुरु के संतुष्ट होने पर मनुष्यों के इष्टदेव सन्तुष्ट रहते हैं और इष्टदेव के प्रसन्न होने पर समस्त देवगण प्रसन्न होते हैं ॥ २६ ॥ गुरुर्विप्रः सुरो रुष्टो येषां पातकिनामिह । तेषां च कुशलं नास्ति विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ २७ ॥ जिन पापियों से गुरु, ब्राह्मण तथा देवता रुष्ट रहते हैं, उनका कुशल नहीं होता है एवं पद-पद पर उनका विघ्न ही होता है ॥ २७ ॥ तुष्टश्च सततं वत्स श्रीकृष्ण प्रकृतेः परः । सर्वान्तरात्मा भगवांस्तव भक्त्या च निर्गुणः ॥ २८ ॥ हे वत्स ! तुम्हारी भक्ति से भगवान् श्रीकृष्ण, जो प्रकृति से परे और सभी के अन्तरात्मा एवं निर्गुण हैं, तुम्हारी भक्ति से सतत सन्तुष्ट रहते हैं ॥ २८ ॥ तव तुष्टो गुरुरहं विधाता जगतामपि । मयि तुष्टे हरिस्तुष्टो हरौ तुष्टे तु देवताः ॥ २९ ॥ जगत् का विधाता मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम पर प्रसन्न हूँ, मेरे प्रसन्न होने से भगवान् प्रसन्न हैं और भगवान् के प्रसन्न होने पर सभी देवगण प्रसन्न हैं ॥ २९ ॥ सांप्रतं शृणु मे धीमन्नत्राऽऽगमनकारणम् । प्रेषितस्य सुराणां च विश्वसंहर्तुरेव च ॥ ३० ॥ शिवस्य गुरुपुत्रस्य साध्वीं तारां बृहस्पतेः । अपहृत्य निशानाथस्तवैव शरणागतः ॥ ३१ ॥ हे धीमन् ! सम्प्रति मेरे यहाँ आने का कुछ और कारण है, कह रहा हूँ, सुनो । मैं देवगणों और विश्व के संहार करने वाले (शिव) का भेजा हुआ हूँ । शिवजी के गुरुपुत्र बृहस्पति को पतिव्रता पत्नी तारा का अपहरण करके चन्द्रमा तुम्हारी ही शरण में आकर रह रहा है ॥ ३०-३१ ॥ शंभुर्धर्मश्च सूर्यश्च शक्रोऽनन्तश्च पुत्रक । आदित्या वसवो रुद्रा दिक्पालाश्च दिगीश्वराः ॥ ३२ ॥ युद्धायाऽऽयान्ति संनद्धास्तिस्रः कोट्यश्च देवताः । नागाः किंपुरुषाश्चैव यक्षराक्षसगुह्यकाः ॥ ३३ ॥ भूताः प्रेताः पिशाचाश्च कूष्माण्डा ब्रह्मराक्षसाः । किराताश्चैव गन्धर्वाः समुद्रपुलिनेऽधुना ॥ ३४ ॥ हे पुत्र ! इसी कारण शम्भु, धर्म, गूर्य, इन्द्र, अनन्त, आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, दिक्पाल, और दिशाओं के अधीश्वर युद्ध के लिए आ रहे हैं, जिसमें तीन करोड़ देवता, नागवर्ग, किम्पुरुषगण, यक्ष, राक्षस, गुह्यकवर्ग, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, किरात, और गन्धर्वगण अत्यन्त सन्नद्ध होकर इस समय समुद्र के तट पर अवस्थित हैं ॥ ३२-३४ ॥ तारकामयसंग्रामे मध्यस्थोऽहं सुतैः सह । देहि तारां रणं किंवा त्यज चन्द्रं च कामिनम् ॥ ३५ ॥ इस युद्ध में सनत्कुमार आदि पुत्रों समेत मैं ही मध्यस्थ बनाया गया हूँ, अतः तारा को लौटा दो या युद्ध करो । किन्तु मेरा कहना है कि कामी चन्द्रमा का ही त्याग कर दो ॥ ३५ ॥ शुक्र उवाच आगच्छन्तु सुराः सर्वे संनद्धा रणदुर्मदाः । योत्स्ये विना महेशं च सर्वेषां च गुरु परम् ॥ ३६ ॥ शक्र बोले-युद्ध के लिए तैयार होने वाले दुर्मदान्ध देवगणों को आने दीजिए, सभी के परमगुरु एक शिव को छोड़कर शेष सभी लोगों से मैं युद्ध करूंगा ॥ ३६ ॥ दैत्या ऊचुः उभयेषां गुरुः शंभुर्मान्यो वन्द्यश्च सर्वदा । धर्मश्च साक्षी सर्वेषां त्वमेव च पितामह ॥ ३७ ॥ अन्यांश्च तृणतुल्यांश्च नहि मन्यामहे वयम् । आगच्छन्तु च योत्स्यामो व्रज ब्रूहि जगद्गुरो ॥ ३८ ॥ दैत्य बोले--शिव जो दोनों (दैत्य-देवगणों) के गुरु, मान्य और सर्वदा वन्दनीय हैं, धर्म (कर्मों के) साक्षी हैं और आप पितामह ही हैं । शेष अन्य देवों को हम लोग तृण के तुल्य भी नहीं गिनते हैं । अतः हे जगद्ग्रो ! जाओ, उनसे कहो, आवें, हम लोग युद्ध के लिए तैयार हैं ॥ ३७-३८ ॥ कृपया गुरुपुत्रस्य यद्यायाति महेश्वरः । आग्नेयास्त्रं प्रयोक्ष्यामः पश्चाद्योत्स्यामहे प्रभो ॥ ३९ ॥ हे प्रभो ! यदि शिवभी गुरुपुत्र (बृहस्पति) के ऊपर कृपा करने के नाते आयेंगे, तो सर्वप्रथम आग्नेयास्त्र का प्रयोग करके पश्चात् युद्ध करेंगे ॥ ३९ ॥ ब्रह्मोवाच कालाग्निरुद्रः संहर्ता विश्वस्य बलिनां वरः । हे वत्सास्तेन सार्धं च को वा युद्धं करिष्यति ॥ ४० ॥ ब्रह्मा बोले-हे वत्स ! वे कालाग्नि हैं, विश्व के संहर्ता होने के नाते सभी बलवानों में बड़े हैं, इसलिए उनके साथ कौन युद्ध कर सकेगा ? ॥ ४० ॥ भद्रकाली जगन्माता खड्गखर्परधारिणी । तया दुर्धर्षया सार्धं को वा युद्धं करिष्यति ॥ ४ १ ॥ उनके साथ में रहने वाली जगन्माता भद्रकाली हैं, जो हाथ में खङ्ग और खप्पर लिये रहती हैं, उस दुर्द्धर्षा के साथ कौन युद्ध करेगा ? ॥ ४१ ॥ सा सहस्रभुजा देवी मुण्डमालाविभूषणा । योजनायतवक्त्रा च दशयोजनविस्तृता ॥ ४२ ॥ सप्ततालप्रमाणाश्च यस्या दन्ता भयानकाः । क्रोशप्रमाणजिह्वा च महालोला भयंकरी ॥ ४३ ॥ उस सहस्रभुजा देवी के साथ कौन लड़ेगा, जो मुण्डमाला से विभूषित है तथा जिसका मुख एक योजन लंबा है और दश योजन विस्तृत है । उसके सात ताड़ के प्रमाण भयानक दाँत तथा एक कोश की लपलपाती और भयंकरी जिह्वा है ॥ ४२-४३ ॥ अतीवरौद्राः संनद्धा भीमाः शंकरकिंकराः । अतिभीमा भैरवाश्च नन्दी चरणकर्कशः ॥ ४४ ॥ शिवस्य पार्षदाः सर्वे महाबलपराक्रमाः । वीरभद्रादयः शूराः कोटिसूर्यसमप्रभाः ॥ ४५ ॥ सहस्रमूर्ध्नः शेषस्य फणामण्डलभूषणम् । विश्वं सर्षपतुल्यं च को वा योद्धा च तत्समः ॥ ४६ ॥ अत्यन्त रौद्र और भीषण शंकर के सेवक भी सन्नद्ध हैं, और अति भयंकर भैरव एवं रणकर्कश नन्दी तथा शिवजी के अन्य सभी वीरभद्र आदि पार्षदगण महाबलवान्, पराक्रमी, शूर और करोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण हैं । सहस्र शिर वाले शेष भी हैं, जिनके फणा-मण्डल ही भूषण हैं एवं जो विश्व को राई के समान अपने शिरपर रखते हैं । उनके समान कौन योद्धा है ? ॥ ४४-४६ ॥ कालाग्निरुद्रः संहर्ता यस्य शंभोश्च किंकराः । शूलिनस्त्रिपुरघ्नस्य ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥ ४७ ॥ यस्य पाशुपतास्त्रेण दुर्निवार्येण पुत्रकाः । भस्मीभूतं भवेद्विश्वं दैत्यानां चैव का कथा ॥ ४८ ॥ हे पुत्र ! त्रिपुरहन्ता और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित होने वाले जिस शिव जी के कालाग्नि रुद्र संहर्ता हैं एवं सेवक त्रिशूलधारी हैं, तथा जिनके दुनिवार पाशुपत अस्त्र से समस्त विश्व भस्म हो सकता है, उनके सामने दैत्यों की क्या गिनती है ? ॥ ४७-४८ ॥ यस्य शूलेन भिन्नश्च शङ्खचूडः प्रतापवान् । सुदामा पार्षदवरः कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ४९ ॥ त्रिकोटिसूर्यसदृशस्तेजस्वी परमाद्भुतः । राधाकवचकण्ठश्च सर्वदैत्यजनेश्वरः ॥ ५० ॥ मधुकैटभयोर्हन्ता हिरण्यकशिपोश्च यः । स च विष्णुः समायाति श्वेतद्वीपात्स्वयं प्रभुः ॥ ५१ ॥ जिनके शूल से प्रतापी शंखचूड़ छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया, जो परमात्मा श्रीकृष्ण का सुदामा नामक उत्तम पार्षद और तीन करोड़ सूर्य के समान तेजस्वी, परम अद्भुत, कण्ट में राधा जी के कवच से भूपित एवं समस्त दैत्यों का अधीश्वर था, वे तथा मधु-कैटभ के निहन्ता और हिरण्यकशिपु को विदीर्ण करने वाले स्वयं प्रभु विष्णु भी श्वेतद्वीप से आ रहे हैं ॥ ४९-५१ ॥ इत्युक्त्वा जगतां धाता विरराम च संसदि । प्रहस्योवाच दैतेयो दानवानामधीश्वरः ॥ ५२ ॥ इस प्रकार उस सभा में कहकर जगत् के विधाता ब्रह्मा चुप हो गये । अनन्तर दानवों के अधीश्वर दैत्य ने हँसकर कहा ॥ ५२ ॥ प्रह्लाद उवाच नमस्तुभ्यं जगद्धातः सर्वेषां प्राक्तनेश्वर । सर्वपूज्यः सर्वनाथः किं वक्ष्यामि तवाग्रतः ॥ ५३ ॥ प्रह्लाद बोले-हे जगत् के विधाता एवं सभी के प्राचीन अधीश्वर ! आप सभी के पूज्य और सभी के स्वामी हैं, अतः आपके सामने मैं क्या कहूँ ॥ ५३ ॥ हिरण्यकशिपोर्हन्ता मधुकैटभयोश्च यः । सा कला यस्य कृष्णस्य परिपूर्णतमस्य च ॥ ५४ ॥ सर्वान्तरात्मनस्तस्य चक्रं नाम सुदर्शनम् । अस्माकं लोकमस्मांश्च शश्वद्रक्ष्यति दुःसहम् ॥ ५५ ॥ ततो न बलवाञ्छंभुर्न च पाशुपतं विधे । न च काली न शेषश्च न च रुद्रादयः सुराः ॥ ५६ ॥ जो हिरण्यकशिपु और मधुकैटभ का हनन करने वाला है, वह जिसकी कला है वह भगवान् श्रीकृष्ण परिपूर्णतम हैं और सभी के अन्तरात्मा हैं । उनका दुःसह सुदर्शन चक्र हमारे लोक और हम लोगों की निरन्तर रक्षा करेगा । हे विधे ! उससे बलवान् न शिव हैं, न पाशुपत अस्त्र, न काली, न शेष, और न रुद्र आदि देवता हैं ॥ ५४-५६ ॥ यस्य लोमसु विश्वानि निखिलानि जगत्पते । सर्वाधारस्य च विभोः स्थूलात्स्थूलतरस्य च ॥ ५७ ॥ हे जगत्पते ! जिसके लोम में समस्त विश्व निहित है और जो सभी का आधार, विभु और स्थूल से स्थूलतर है ॥ ५७ ॥ षोडशांशो भगवतः स चैव हि महान्विराट् । अनन्तो न हि तत्स्थूलो न काली न बृहती ततः ॥ ५८ ॥ उसो भगवान् का सोलहवाँ अंश महान् विराट् है । उसके समान स्थूल न तो अनन्त है और न काली ही उससे बड़ी है ॥ ५८ ॥ आगच्छन्तु सुराः सर्वे युद्धं कुर्वन्तु सांप्रतम् । न बिभेमि शरेभ्यश्च न च पाशुपताद्धरात् ॥ ५९ ॥ अब सभी देवगण आयें और युद्ध करें क्योंकि शिवके बाणों और उनके पाशुपत से मैं डरता नहीं ॥ ५९ ॥ नमस्तुभ्यं भगवते शिवाय शिवरूपिणे । नमोऽनन्ताय साधुभ्यो वैष्णवेभ्यः प्रजापते ॥ ६० ॥ हे प्रजापते ! शिव (कल्याण) रूपी उस भगवान् शिव को नमस्कार है, अनन्त को नमस्कार है, साधु, वैष्णवों को नमस्कार है ॥ ६० ॥ श्रीकृष्णस्य प्रसादेन निर्भयोऽहं निरामयः । न मे स्वात्मबलं ब्रह्मंस्तद्बलं यत्प्रभोर्बलम् ॥ ६१ ॥ हे प्रभो ! भगवान् श्रीकृष्ण के प्रमाद से मैं निर्भय और स्वस्थ हूँ । मेरा अपना कुछ बल नहीं है, जो कुछ है वह प्रभु का है ॥ ६१ ॥ स्वपापेन मृतस्तातो पुरा वै विष्णुनिन्दया । निर्बन्धाच्छङ्खचूडश्च दर्पाच्च मधुकैटभौ ॥ ६२ ॥ त्रिपुरः किंकरोऽस्माकं वीरत्वेन न गण्यते । तथाऽपि प्रेरितस्तेन सरथश्च महेश्वरः ॥ ६३ ॥ पूर्वकाल में मेरे पिता अपने पाप-विष्णु की निन्दा-करने से मरे । निर्बन्ध (दुराग्रह) के कारण शंखचूड मारा गया और दर्प (अभिमान) के नाते मधुकैटभ का निधन हुआ । त्रिपुर हम लोगों का किंकर (सेवक) था, वीरों में उसकी गणना नहीं है । तथापि उससे उकसाये जाने पर महादेव ने रथ पर बैठ कर उसका संहार किया था ॥ ६२-६३ ॥ इत्युक्त्वा दानवश्रेष्ठो विरराम च संसदि । उवाच जगतां धाता पुनरेव च नारद ॥ ६४ ॥ हे नारद ! सभा में दानवश्रेष्ठ प्रह्लाद इतना कहकर चुप हो गये, अनन्तर जगत् के विधाता ब्रह्मा ने पुनः कहना आरम्भ किया ॥ ६४ ॥ ब्रह्मोवाच विनाशकारणं युद्धमुभयोर्दैत्यदेवयोः । सुप्रीत्याचरणं वत्स सर्वमङ्गलकारणम् ॥ ६५ ॥ ब्रह्मा बोले-हे वत्स ! युद्ध देव-दानव दोनों कुल के विनाश का कारण होगा, अतः अति प्रेम से व्यवहार करो, जो समस्त मंगलों का कारण है ॥ ६५ ॥ तारां भिक्षां देहि मह्यं भिक्षुकाय च वेधसे । विमुखे भिक्षुके राजन्गृहस्थः सर्वपापभाक् ॥ ६६ ॥ हे राजन् ! मैं ब्रह्मा होकर तुम्हारे यहाँ भिक्षुक बना हूँ, अतः मुझे भिक्षा रूप में तारा को दे दो । क्योंकि भिक्षुक के विमुख होने पर गृहस्थ को समस्त पाप का भागी होना पड़ता है ॥ ६६ ॥ सनत्कुमार उवाच स्वकीर्तिं रक्ष राजेन्द्र सिंहस्त्वं सुरदैत्ययोः । यस्य भिक्षुर्जगद्धाता तस्य कीर्तेश्च का कथा ॥ ६७ ॥ सनत्कुमार बोले हे राजेन्द्र ! देव और दैत्य के वंश में तुम सिंह हो, अतः अपनी कीर्ति की रक्षा करो । और जिसके यहाँ (द्वार पर) जगत् के विधाता भिक्षुक हों, उसकी कीर्ति की कौन बात कही जाये ॥ ६७ ॥ सनातन उवाच न जितस्त्वं सुरेन्द्रैश्च ब्रह्मेशानपुरोगमैः । रक्षितः कृष्णचक्रेण वैष्णवः पुण्यवाञ्छुचिः ॥ ६८ ॥ सनातन बोले- ब्रह्मा, शिव आदि देवगण तुम्हें जीत नहीं सके, क्योंकि तुम पुण्यवान एवं पवित्र वैष्णव हो और इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र से सुरक्षित हो ॥ ६८ ॥ सनन्दन उवाच यस्येष्टदेवः सर्वात्मा श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः । गुरुश्च वैष्णवः शुक्रः स च केन जितो महान् ॥ ६९ ॥ सनन्दन बोले-जिसके इष्टदेव सर्वात्मा श्रीकृष्ण हैं, जो प्रकृति से परे हैं और गुरु वैष्णव शुक्र हैं, उस महान् को कौन जीत सकता है ॥ ६९ ॥ सनक उवाच पुण्यवान्न जितः केन जितः पापी स्वपातकैः । पुण्यदीपो न निर्वाति पाषण्डेनैव वायुना ॥ ७० ॥ सनक बोले -पुण्यवान् को कोई नहीं जीत सकता है । पापी अपने पातकों से विजित होता है । क्योंकि पाषण्डरूपी वायु से पुण्यदीप कभी भी नहीं बुझता ॥ ७० ॥ ऋषय ऊचुः देहि तारां महाभाग चन्द्रं प्राणाधिकं गुरोः । स्वकीर्तिं रक्ष सुचिरं प्रार्थयामः पुनः पुनः ॥ ७१ ॥ ऋषिगण बोले-हे महाभाग ! गुरु (बृहस्पति) को तारा और नाणों से बढ़कर चन्द्रमा दे दो । मैं बार-बार प्रार्थना करता हूँ कि अपनी कीर्ति को अति चिरकाल तक के लिए सुरक्षित रखो ॥ ७१ ॥ प्रह्लाद उवाच स्थिते मदीश्वरे साक्षान्नहि भृत्यो विराजते । कर्तारं ब्रूहि मन्नाथं गुरुं शुक्रं सतां वरम् ॥ ७२ ॥ शिष्याणामाधिपत्ये च साधूनां गुरुरीश्वरः । गुरौ समर्पितं पूर्वं सर्वैश्वर्यं मुनीश्वरे ॥ ७३ ॥ प्रह्लाद बोले-हम लोगों के अधीश्वर के साक्षात् विद्यमान रहते हुए, कोई सेवक उस पद को सुशोभित नहीं कर सकता है (अर्थात् इसकी स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकता) । यह बातें मेरे गुरु एवं स्वामी शुक्र से कहिये, जो सज्जनों में प्रवर हैं । सज्जन शिष्यों के अधिपति गुरु होते हैं, जो ईश्वर के समान होते हैं । मैंने अपना समस्त ऐश्वर्य पूर्वकाल में ही गुरु को सौंप दिया था ॥ ७२-७३ ॥ वयं भृत्याश्च पोष्याश्च स्वगुरोः परिचारकाः । ते च शिष्याः कुशलिनः गुर्वाज्ञां पालयन्ति ये ॥ ७४ ॥ हम लोग अपने गुरु के सेवक एवं पोष्य वर्ग हैं क्योंकि वे ही शिष्य कुशली कहे जाते हैं जो गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं ॥ ७४ ॥ प्रह्लादस्य वचः श्रुत्वा चकार प्रार्थनां कविम् । ददौ शुक्रश्च तारां तां चन्द्रं च मलिनं मुने ॥ ७५ ॥ हे मुने ! प्रह्लाद की ऐसी बातें सुनकर उन्होंने कवि (शुक्र) से प्रार्थना की । अनन्तर शुक्र ने तारा को और पापी चन्द्रमा को उन्हें लौटा दिया ॥ ७५ ॥ दत्त्वा तारां विधुं शुक्रः प्रणनाम विधेः पदे । नमस्कृत्य मुनिभ्यश्च प्रणतः स्वपुरं ययौ ॥ ७६ ॥ शुक्र ने तारा और चन्द्रमा को देकर ब्रह्मा का चरणस्पर्श करते हुए उन्हें प्रणाम किया और विनय-विनम्र होकर मुनियों को प्रणाम करके अपने नगर को चले गये ॥ ७६ ॥ प्रह्लादः सगणो भक्त्या नमस्कृत्य विधेः पदे । प्रत्येकं वै मुनिगणान्प्रणतः स्वगृहं ययौ ॥ ७७ ॥ अपने गण समेत प्रह्लाद ने भी भक्तिपूर्वक ब्रह्मा का चरण स्पर्श करके प्रत्येक मुनिगण को प्रणाम किया और अपने गृह चले गये ॥ ७७ ॥ ब्रह्मा ददर्श तारां च प्रणतां स्वपदे सतीम् । लज्जया नम्रवक्त्रां च रुदतीं गुर्विणीं मुने ॥ ७८ ॥ हे मुने ! ब्रह्मा ने सती तारा को अपना चरणस्पर्श करते देखा जो लज्जा से नीचे मुख किये, गर्भिणी एवं रोदन कर रही थी ॥ ७८ ॥ चन्द्रं च प्रणतं धाता क्रोडे संस्थाप्य मायया । उवाच मलिनां तारां कातरां च कृपामयः ॥ ७९ ॥ अनन्तर प्रणाम करते हुए चन्द्रमा को देखकर दयालु ब्रह्मा ने उन्हें उठाया और माया से अपनी गोद में बैठा कर मलिन तथा डरी हुई तारा से कहा ॥ ७९ ॥ तारे त्यज भयं मत्तो भयं किं ते मयि स्थिते । सौभाग्ययुक्ता स्वपतौ भविष्यसि वरेण मे ॥ ८० ॥ हे तारे ! मुझसे भय न करो और मेरे रहते तुम्हें भय कैसा ? मेरे वरदान द्वारा तुम पुनः अपने पति को सौभाग्यशालिनी हो जाओगो ॥ ८० ॥ दुर्बला बलिना ग्रस्ता निष्कामा न च्युता भवेत् । प्रायश्चित्तेन शुद्धा सा न स्त्री जारेण दुष्यति ॥ ८१ ॥ क्योंकि दुर्बला निष्काम स्त्री किसी बलवान् से ग्रस्त होने पर (स्वधर्म से) च्युत नहीं होती है । वह प्रायश्चित्त से शुद्ध हो जाती है, और जार (व्यभिचारी) द्वारा दूषित नहीं मानी जाती ॥ ८१ ॥ सकामा कामतो जारं भजते स्वसुखेन च । प्रायश्चित्तान्न शुद्धा सा स्वामिना परिवर्जिता ॥ ८२ ॥ जो कामनापूर्वक कामुकी होकर अपने सुख के लिए जार (व्यभिचारी) पुरुष का सेवन करती है, उसकी शुद्धि प्रायश्चित्त से भी नहीं होती है, इसीलिए वह पति त्यक्ता हो जाती है ॥ ८२ ॥ कुम्भीपाके पच्यते सा यावच्चन्द्रदिवाकरौ । अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं स्पर्शनं सर्वपापदम् ॥ ८३ ॥ तथा चन्द्र-सूर्य के समय तक वह कुम्भीपाक नरक में पकती रहती है । उसका अन्न विष्ठा के तुल्य, जल मूत्र के समान और स्पर्श समस्तपापप्रदायक होता है ॥ ८३ ॥ पापीयस्याश्च तस्याश्च साधुभिः परिवर्जितम् ॥ ८४ ॥ अतः उस अत्यन्त पापिनी का अन्न-पान साधुओं को त्याज्य है । हे वत्से ! अब यह बताओ कि यह किसका गर्भ है ? और तुम बृहस्पति के यहाँ चली जाओ ॥ ८४ ॥ कस्य गर्भं वद शुभे गच्छ वत्से गुरोर्गृहम् । त्यज लज्जां महाभागे सर्वं च प्राक्तनाद्भवेत् ॥ ८५ ॥ ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा तमुवाच सती तदा । चन्द्रस्य गर्भं हे तात बिभर्म्यद्य स्वकर्मणा ॥ ८६ ॥ सर्वे मे साक्षिणः सन्ति दुर्बलायाः प्रजापते । यदा जग्राह चन्द्रो मां दयाहीनश्च दुर्मतिः ॥ ८७ ॥ हे महाभागे ! अब लज्जा त्याग दो, क्योंकि सभी कुछ प्राक्तन (जन्मान्तरीय) कर्म के अनुसार ही होता है । ब्रह्मा की ऐसी बातें सुनकर उस पतिव्रता ने उनसे कहा-हे तात ! यह चन्द्रमा का गर्भ है, जिसका अपने कर्मानुसार मैं भरण-पोषण कर रही हूँ । हे प्रजापते ! जिस समय दुष्टबुद्धि एवं निर्दय चन्द्रमा ने मुझ दुर्बला को पकड़ लिया उस समय के सभी लोग मेरे साक्षी हैं । इतना कहकर तारा ने सुवर्ण के समान प्रभापूर्ण एक कुमार उत्पन्न किया ॥ ८५-८७ ॥ इत्युक्त्वा तारकादेवी सुषाव कनकप्रभम् । कुमारं सुन्दरं तत्र ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ८८ ॥ गृहीत्वा तनयं चन्द्रो नत्वा ब्रह्माणमीश्वरम् । जगाम स स्वभवनं ब्रह्मा सिन्धुतटं ययौ ॥ ८९ ॥ साध्वीं तारां च गुरवे देवेभ्योऽप्यभयं ददौ । आशिषं शंभुधर्माभ्यां दत्त्वा लोकं ययौ विधिः ॥ ९० ॥ उस सुन्दर कुमार को, जो ब्रह्मतेज से देदीप्यमान था, लेकर चन्द्रमा ने ब्रह्मा को नमस्कार किया और अपने घर चले गये । पश्चात् ब्रह्मा भी बृहस्पति को तारा सौंपकर, देवों को अभय और शिव एवं धर्म को शुभाशिष प्रदान कर अपने लोक चले गये । अनन्तर देवता लोग और बृहस्पति भी अपने-अपने घर गये । ॥ ८८-९० ॥ देवा ययुः स्वभवनं स्वगृहं च बृहस्पतिः । भावानुरक्तवनितां प्राप्य संहृष्टमानसः ॥ ९१ ॥ तारकागर्भसंभूतः स एव च बुधः स्वयम् । तेजस्वी सद्ग्रहो ब्रह्मंश्चन्द्रस्य तनयो महान् ॥ ९२ ॥ स एव नन्दनवने चित्रां संप्राप्य निर्जने । घृताच्या गर्भसंभूतां कुबेरस्य च रेतसा ॥ ९३ ॥ दृष्ट्वा च निर्जने रम्या कन्यां कमललोचनाम् । अतीव यौवनस्थां च बालां षोडशवार्षिकीम् । गान्धर्वेण विवाहेन तां जग्राह विधोः सुतः ॥ ९४ ॥ अपनी भावानुरागिणी स्त्री को पुनः प्राप्त कर गुरु अत्यन्त प्रसन्न हुए । इस प्रकार तारा के गर्भ से उत्पन्न होनेवाले कुमार का नाम बुध हुआ । हे ब्रह्मन् ! चन्द्रमा का वह (बुध) पुत्र महान् तेजस्वी एवं उत्तम ग्रह हुआ । उसी बुध ने एक बार निर्जन नन्दन वन में चित्रा को देखकर, जो कुबेर के वीर्य से घृताची अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थो तथा रम्य, कमल के समान नेत्रों वाली तथा पूर्ण यौवन सम्पन्न सोलह वर्ष की बाला थो, गान्धर्व विवाह द्वारा उसको अपना लिया ॥ ९१-९४ ॥ तस्यामथायं रहसि वीर्याधानं चकार सः । बभूव राजा चित्रायां चैत्रो वै मण्डलेश्वरः ॥ ९५ ॥ एकान्त में उसके साथ उपभोग कर उन्होंने उसमें गर्भाधान किया, जिससे चित्रा में चैत्र नामक मण्डलेश्वर राजा उत्पन्न हुआ ॥ ९५ ॥ सप्तद्वीपवतीं पृथ्वीं शास्ति वै धार्मिको बली । शतं नद्यो घृतानां च दध्नां नद्यः शतानि च ॥ ९६ ॥ शतानि नद्यो दुग्धानां मधुनद्यश्च षोडश । दश नद्यश्च तैलानां शर्करालक्षराशयः ॥ ९७ ॥ मिष्टान्नानां स्वस्तिकानां लक्षराश्यश्च नित्यशः । पञ्चकोटिगवां मांसं सापूपं स्वन्नमेव च ॥ ९८ ॥ एतेषां च नदीराशीर्भुञ्जते ब्राह्मणा मुने । गवां लक्षं च रत्नानां मणीनां लक्षमेव च ॥ ९९ ॥ शतलक्षं सुवर्णानां लक्षं वै सूक्ष्मवाससाम् । रत्नानां भूषणं पात्रमतीव सुमनोहरम् ॥ १०० ॥ ददौ द्विजातये राजा नित्यं वै जीवितावधि । तस्य चैत्रस्य पुत्रश्च राजाऽधिरथ एव च ॥ १०१ ॥ उस धार्मिक तथा बलवान् (राजा) ने सातों द्वीप वाली पृथिवी पर (एकच्छत्र) शासन किया । उसके शासन-काल में घृत की सौ नदियाँ, दही की सौ नदियाँ, दुग्ध को सौ नदियाँ, मधु (शहद) की सोलह नदियाँ एवं तेल की दश नदियाँ बहती थीं । तथा एक लक्ष शक्कर की राशि और लड्डुओं तथा मिष्टान्नों को नित्य एक लक्षराशि, पाँच करोड़ मांसराशि, एवं मालपूआ आदि समेत सुन्दर भोजन बनता था । हे मुने ! इन नदियों एवं राशियों के उपभोग ब्राह्मणवृन्द नित्य करते थे । इस भाँति राजा अपने जीवन काल तक नित्य एक लाख गौ, एक लाख रत्न मणि, सौ लाख सुवर्ण, एक लाख सूक्ष्म वस्त्र, रत्नों के आभूषण और अति मनोहर पात्र ब्राह्मणों को दान करता था । अनन्तर उस चैत्र राजा के अधिरथ नामक पुत्र हुआ ॥ ९६-१०१ ॥ तस्य पुत्रश्च सूऽरथश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः । महाज्ञानं च संप्राप्य मेधसो मुनिसत्तमात् ॥ १०२ ॥ भेजे पुरा विष्णुमायां पुण्यक्षेत्रे च भारते । शरत्काले महापूजां चकार स सरित्तटे ॥ १०३ ॥ उसके सुरथ नामक चक्रवर्ती राजा बृहच्छ्वा पुत्र हुआ, जिसने पूर्वकाल में मुनिश्रेष्ठ मेधस् ऋषि से महाज्ञान को प्राप्ति कर पुण्यक्षेत्र भारत में विष्णुमाया (दुर्गा) को उपासना की थी । उस महाज्ञानी ने शारदीय नवरात्र में नदी के तट पर वैश्य के साथ महापूजा सुसम्पन्न को ॥ १०२-१०३ ॥ वैश्येन सार्धं स महाञ्ज्ञानिनां मुनिसत्तम । राजा कलिङ्गदेशस्य विराधश्च विशां वरः ॥ १०४ ॥ तस्य पुत्रो महायोगी द्रुमिणो ज्ञानिनां वरः । द्रुमिणो वैष्णवः प्राज्ञः पुष्करे दुष्करं तपः ॥ १०५ ॥ कृत्वा समाधिं संप्राप ज्ञानिनां वैष्णवाग्रणीः । पुत्रैर्दारैर्निरस्तश्च धनलोभाद्दुरात्मभिः ॥ १०६ ॥ स च कोटिसुवर्णं च नित्यं दत्त्वा जलं पपौ । मुक्तिं संप्राप संसेव्य विष्णुमायां सनातनीम् ॥ १०७ ॥ हे मुनिष्ठ ! कलिंग देश का राजा विराध वैश्यों में श्रेष्ठ था । उसका पुत्र दुमिण महायोगी एवं ज्ञानिप्रवर हुआ । महाबुद्धिमान् एवं वैष्णव द्रुमिण ने पुष्कर क्षेत्र में महाकठिन तप किया जिससे उसके गमाधि-नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जो ज्ञानियों और वैष्णवों में अग्रणी था । उसके दुष्ट पुत्र और स्त्री ने धन के लोभ से उसे घर से निकाल दिया था, जो नित्य करोड़ सुवर्ण-मुद्रा दान कर जल पीता था । उपरान्त उसने सनातनो विष्णुमाया (दुर्गा) की आराधना करके मुक्ति प्राप्त की ॥ १०४-१०७ ॥ राजा लेभे मनुत्वं च राज्यं निष्कण्टकं मुने । उवाच मधुरं वाक्यं धाता त्रिजगतां पतिः ॥ १०८ ॥ हे मुने ! इस प्रकार उस राजा ने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया तथा जन्मान्तर में वह मनु हुआ जिसे तीनों लोकों के स्वामी विधाता ने मधुर वाक्य कहा था ॥ १०८ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने गुरोस्ताराप्राप्ति- बुधोत्पद्यादिवर्णनं नामैकषष्टितमाऽध्यायः ॥ ६१ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति खण्ड में नारद-नारायण-संवादान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में गुरु को तारा को प्राप्ति और बुध को उत्पत्ति आदि का वर्णन नामक इकसठवां अध्याय समाप्त ॥ ६१ ॥ |