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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्विषष्टितमोऽध्यायः दुर्गोपाख्याने सुरथमेधःसंवादे सुरथवैश्ययोरभिलषितसिद्धिः -
सुरथ और वैश्य की मनःकामना-सिद्धि - नारद उवाच कथं राजा महाज्ञानं संप्राप मुनिसत्तमात् । वैश्यो मुक्तिं मेधसश्च तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ नारद बोले-राजा सुरथ को मुनिश्रेष्ठ मेधस् द्वारा महाज्ञान की प्राप्ति और वैश्य (समाधि) को मुक्ति को प्राप्ति कैसे हुई थी, मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ नारायण उवाच ध्रुवस्य पौत्रो बलवान्नन्दिरुत्कलनन्दनः । स्वायंभुवमनोर्वश्यः सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ २ ॥ अक्षौहिणीनां शतकं गृहीत्वा सैन्यमेव च । कोलां च वेष्टयामास सुरथस्य महामतेः ॥ ३ ॥ श्री नारायण बोले-ध्रुव के पौत्र राजा नन्दि ने जो बलवान्, उत्कल का पुत्र, स्वायम्भुव मनू के वंश में उत्पन्न, सत्यवक्ता और इन्द्रियसंयमी था, अपनी सौ अक्षौहिणी सेना लेकर बुद्धिमान सूरथ की कोला नगरी को घेर लिया ॥ २-३ ॥ युद्धं बभूव नियतं पूर्णमब्दं च नारद । चिरंजीवी वैष्णवश्च जिगाय सुरथं नृपः ॥ ४ ॥ हे नारद ! पूरे वर्ष तक नियत रूप से युद्ध होता रहा । अनन्तर चिरजीवी एवं वैष्णव राजा नन्दि ने सुरथ को जीत लिया ॥ ४ ॥ एकाकी सुरथो भीतो नन्दिना च बहिष्कृतः । निशायां हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् ॥ ५ ॥ एकाकी एवं भयभीत सुरथ नन्दि द्वारा निकाल दिये जाने पर आधी रात के समय घोड़े पर बैठकर घोर वन में चला गया ॥ ५ ॥ ददर्श तत्र वैश्यं च पुष्पभद्रानदीतटे । तयोर्बभूव सप्रीतिः कृतबान्धवयोर्मुने ॥ ६ ॥ वहाँ पुष्पभद्रा नदी के तट पर उसे एक वैश्य दिखायी पड़ा । हे मुने ! उन दोनों में अतिप्रेम और भाईचारे का दृढ़ सम्बन्ध स्थापित हुआ ॥ ६ ॥ वैश्येन सार्धं नृपतिरगच्छन्मेधसाश्रमम् । पुष्करं दुष्करं पुण्यक्षेत्रं वै भारते सताम् ॥ ७ ॥ अनन्तर वैश्य को साथ लेकर राजा सुरथ मेधस् मुनि के आश्रम पुष्कर में गये, जो भारत में सज्जनों को कठिनता से प्राप्त होनेवाला पुण्यक्षेत्र है ॥ ७ ॥ ददर्श तत्र नृपतिर्मुनीन्द्रं तीव्रतेजसम् । शिष्येभ्यश्च प्रवोचन्तं ब्रह्मतत्त्वं सुदुर्लभम् ॥ ८ ॥ वहाँ राजा ने तीक्ष्ण तेज से युक्त मुनि को देखा, जो शिष्यों को अतिदुर्लभ ब्रह्मतत्त्व बता रहे थे ॥ ८ ॥ राजा ननाम वैश्यश्च शिरसा मुनिपुंगवम् । मुनिस्तौ पूजयामास ददौ ताभ्यां शुभाशिषम् ॥ ९ ॥ राजा और वैश्य दोनों ने मुनिश्रेष्ठ को शिर से प्रणाम किया तथा मुनि ने भी शुभाशिष प्रदानपूर्वक दोनों का स्वागत किया ॥ ९ ॥ प्रश्नं चकार कुशलं जातिनाम पृथक्पृथक् । ददौ प्रत्युत्तरं राजा क्रमेण मुनिपुंगवम् ॥ १० ॥ पृथक्-पृथक् जाति और नाम पूछते हुए उन्होंने उन दोनों से कुशल मंगल पूछा । राजा ने क्रमशः मुनिश्रेष्ठ को उत्तर दिया ॥ १० ॥ सुरथ उवाच राजाहं सुरथो ब्रह्मंश्चैत्रवंशसमुद्भवः । बहिष्कृतः स्वराज्याच्च नन्दिना बलिनाऽधुना ॥ ११ ॥ सुरथ बोले-हे ब्रह्मन् ! मैं चैत्र-वंश में उत्पन्न सुरथ नामक राजा हूँ । सम्प्रति बलवान् राजा नन्दि ने मुझे मेरे राज्य से पृथक् कर दिया है ॥ ११ ॥ कमुपायं करिष्यामि कथं राज्यं भवेन्मम । तन्मां ब्रूहि महाभाग त्वामेव शरणागतम् ॥ १२ ॥ हे महाभाग ! मैं क्या उपाय करूं जिससे मुझे अपना राज्य पुनः प्राप्त हो जाये, मुझे बतायें, इसीलिए मैं आपकी शरण आया हूँ ॥ १२ ॥ अयं वैश्यः समाधिश्च स्वगृहाच्च बहिष्कृतः । पुत्रैः कलत्रैर्दैवेन धनलोभेन धार्मिकः ॥ १३ ॥ यह समाधि नामक वैश्य है । दैववश धन के लोभ से पुत्र और स्त्री ने इस धार्मिक को अपने घर से निकाल दिया है ॥ १३ ॥ ब्राह्मणाय ददौ नित्यं रत्नकोटिं दिने दिने । निषिध्यमानः पुत्रैश्च कलत्रैर्बान्धवैरयम् ॥ १४ ॥ कोपान्निराकृतस्तैश्च पुनरन्वेषितः शुचा । अयं गृहं च न ययौ विरक्तो ज्ञानवाञ्छुचिः ॥ १५ ॥ यह प्रतिदिन ब्राह्मणों को करोड़ रत्न का दान देते थे । पुत्रों, स्त्रियों और बन्धुओं ने इन्हें मना किया । अन्त में न मानने पर क्रुद्ध होकर उन लोगों ने इन्हें निकाल दिया । क्रोध शान्त होने पर पुनः उन लोगों ने इनका पता लगाया । किन्तु ज्ञानी और पवित्रहृदय होने के नाते इन्हें विराग हो गया, जिससे ये पुनः घर नहीं लौट सके ॥ १४-१५ ॥ पुत्राश्च पितृशोकेन गृहं त्यक्त्वा ययुर्वनम् । दत्त्वा धनानि विप्रेभ्यो विरक्ताः सर्वकर्मसु ॥ १६ ॥ उधर पुत्रलोग पिता के शोक में घर छोड़कर वन चले गये । वहाँ सभी कर्मों से विरक्त होकर उन्होंने ब्राह्मणों को समस्त धन दे डाले ॥ १६ ॥ सुदुर्लभं हरेर्दास्यं वैश्यस्यास्य च वाञ्छितम् । कथं प्राप्नोति निष्कामस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १७ ॥ अब इनको एकमात्र यही अभिलाषा है कि-'किस प्रकार भगवान् की अतिदुर्लभ दास्यभक्ति प्राप्त हो । ' इन निष्काम को यह कैसे प्राप्त होगी, मुझे बताने की कृपा करें ॥ १७ ॥ मेधा उवाच करोति मायया छन्नं विष्णुमाया दुरत्यया । निर्गुणस्य च कृष्णस्य त्रिगुणा विश्वमाज्ञया ॥ १८ ॥ मेधस् ऋषि बोले-अजेय तथा त्रिगुणात्मक विष्णुमाया निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से समस्त विश्व को आच्छन्न किये (ढके) रहती है ॥ १८ ॥ कृपां करोति येषां सा धर्मिणां च कृपामयी । तेभ्यो ददाति कृपया कृष्णभक्तिं सुदुर्लभाम् ॥ १९ ॥ वह कृपामयी जिन धार्मिक जनों पर कृपा करती है, उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण की अतिदुर्लभ भक्ति प्रदान करती है ॥ १९ ॥ येषां मायाविनां माया न करोति कृपां नृप । मायया तान्निबध्नाति मोहजालेन दुर्गतान् ॥ २० ॥ हे नृप ! जिनके ऊपर यह माया कृपा नहीं करती है, उन्हें अपनी माया से (सांसारिक पदार्थों) में बांधे रहती है, और मोहजाल में फंसाकर उनकी दुर्गति कराती है ॥ २० ॥ नश्वरे नित्यसंसारे भ्रामयेद्बर्बरा सदा । कुर्वती नित्यबुद्धिं च विहाय परमेश्वरम् ॥ २१ ॥ इस नश्वर एवं अनित्य संसार में उन्हें यह सदैव भ्रमण कराती है और परमेश्वर से अलग करके संसार में नित्य बद्धि उत्पन्न करा देती है ॥ २१ ॥ देवमन्यं निषेवन्ते तन्मन्त्रं च जपन्ति च । मिथ्या किंचिन्निमित्तं च कृत्वा मनसि लोभतः ॥ २२ ॥ जिससे वे प्राणी लोभवश मन में कुछ मिथ्या निमित्त बनाकर अन्य देव की उपासना एवं उसका मंत्र जपते हैं । ॥ २२ ॥ सप्तजन्मसु संसेव्य देवताश्च हरेः कलाः । तदा प्रकृत्याः कृपया सेवन्ते प्रकृतिं सदा ॥ २३ ॥ सात जन्मों में भगवान् की कला (अंश) रूप देवों की सेवा करने के उपरान्त प्रकृति (दुर्गा) की कृपा से वे दुर्गा के भक्त होते हैं ॥ २३ ॥ सप्तजन्मसु संसेव्य विष्णुमायां कृपामयीम् । शिवे भक्तिं लभन्ते ते ज्ञानानन्दे सनातने ॥ २४ ॥ पुनः सात जन्मों तक कृपामयी एवं सनातनी विष्णुमाया (दुर्गा) की सेवा करने के बाद भगवान् शिव की भक्ति प्राप्त होती है, जो सनातन एवं ज्ञानानन्द रूप हैं ॥ २४ ॥ ज्ञानाधिष्ठातृदेवं च हरेः संसेव्य शंकरम् । अचिराद्विष्णुभक्ति च प्राप्नुवन्ति महेश्वरात् ॥ २५ ॥ पुनः ज्ञान के अधिष्ठाता देव भगवान् शंकर की सेवा करने पर, उनके द्वारा भगवान् विष्णु की भक्ति शीघ्र प्राप्त हो जाती है ॥ २५ ॥ सेवन्ते सगुणं सत्त्वं विष्णुं विषयिणं तदा । सत्त्वज्ञानाच्च पश्यन्ति ज्ञानं वै निर्मलं नराः ॥ २६ ॥ और सगुण एवं सत्व रूप विषयी विष्णु की सेवा करने पर मनुष्यों को सत्त्वज्ञान द्वारा निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है ॥ २६ ॥ निषेव्य सगुणं विष्णुं सात्त्विका वैष्णवा नराः । लभन्ते निर्गुणे भक्तिं श्रीकृष्णे प्रकृतेः परे ॥ २७ ॥ इस प्रकार सगुण विष्णु की सेवा करने पर सात्त्विक वैष्णव जनों को निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त होती है, जो प्रकृति से परे हैं ॥ २७ ॥ गृह्णन्ति सन्तस्तद्भक्ता मन्त्रं तस्य निरामयम् । निषेव्य निर्गुणं देवं ते भवन्ति च निर्गुणाः ॥ २८ ॥ उनके भक्त सन्त लोग उनका निरामय (निर्विकार) मंत्र ग्रहण करते हैं और उसके द्वारा निर्गुण देव (भगवान् श्रीकृष्ण) की सेवा कर के स्वयं भी निर्गुण हो जाते हैं ॥ २८ ॥ असंख्यब्रह्मणां पातं ते च पश्यन्ति वैष्णवाः । दास्यं कुर्वन्ति सततं गोलोके च निरामये ॥ २९ ॥ वे वैष्णव लोग निरामय गोलोक में भगवान् की दास्य भक्ति द्वारा सेवा करते हुए असंख्य ब्रह्मा का पतन (पूरी आयु में मरण) देखते हैं ॥ २९ ॥ कृष्णभक्तात्कृष्णमन्त्रं यो गृह्णाति नरोत्तमः । पुरुषाणां सहस्रं च स्वपितृणां समुद्धरेत् ॥ ३० ॥ मातामहानां साहस्रमुद्धरेन्मातरं तथा । दासादिकं समुद्धृत्य गोलोकं स प्रयाति च ॥ ३१ ॥ जो थेष्ठ मनुष्य, भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त द्वारा उनका मंत्र ग्रहण करता है, वह अपने पूर्वजों की सहस्र पीढ़ियों के उद्धार समेत मातामह (नाना) की सहस्र पीढ़ियों का तथा माता और मृत्य (नौकर) आदि का उद्धार करता है और अन्त में गोलोक चला जाता है ॥ ३०-३१ ॥ भवार्णवे महाघोरे कर्णधारस्वरूपिणी । दीनान्पारयते नित्यं कृष्णभक्त्या च नौकया ॥ ३२ ॥ वैष्णवी माया महाघोर संसार-सागर में भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति रूपी नौका के द्वारा कर्णधार स्वरूप होकर दोनों को नित्य पार करती है ॥ ३२ ॥ स्वकर्मबन्धनं छेत्तुं वैष्णवानां च वैष्णवी । तीक्ष्णशस्त्रस्वरूपा सा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ३३ ॥ एवं परमात्मा श्रीकृष्ण की वैष्णवी माया तीक्ष्ण शस्त्र स्वरूप होकर वैष्णवों के स्वकर्म-बन्धन को काटती है ॥ ३३ ॥ विवेचिका चाऽऽवरणी शक्तेः शक्तिर्द्विधा नृप । पूर्वं ददाति भक्ताय चेतराय परात्परा ॥ ३४ ॥ हे नृप ! शक्ति के विवेचिका और आवरणी नामक-दो भेद हैं । वह सर्वप्रथम भक्त को आवरणी शक्ति प्रदान करती है ॥ ३४ ॥ सत्यस्वरूपः श्रीकृष्णस्तस्मात्सर्वं च नश्वरम् । बुद्धिर्विवेचिकेत्येवं वैष्णवानां सतामपि ॥ ३५ ॥ 'भगवान् श्रीकृष्ण सत्य स्वरूप हैं, उनसे पृथक् सभी वस्तुएं नश्वर हैं' इस प्रकार को विवेचिका (विवेचन करने वाली) बुद्धि भी वह सनातनी देवी वैष्णवों को प्रदान करती है ॥ ३५ ॥ नित्यरूपा ममेयं श्रीरिति चाऽऽवरणी च धीः । अवैष्णवानामसतां कर्मभोगभुजामहो ॥ ३६ ॥ और कर्म-भोग भोगने वाले अवैष्णव असज्जनों को, 'मेरी यह लक्ष्मी नित्यस्थायी हैं ऐसी आवरणी (मोहात्मक) शक्ति सदैव बनी रहती है, यह आश्चर्य की बात है ॥ ३६ ॥ अहं प्रचेतसः पुत्रः पौत्रश्च ब्रह्मणो नृप । भजामि कृष्णमात्मानं ज्ञानं संप्राप्य शंकरात् ॥ ३७ ॥ हे नप ! मैं वरुण का पुत्र और ब्रह्मा का पौत्र हूँ । शंकर जी द्वारा ज्ञान प्राप्त कर आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को यहाँ भजता हूँ ॥ ३७ ॥ गच्छ राजन्नदीतीरं भज दुर्गां सनातनीम् । बुद्धिमावरणीं तुभ्यं देवी दास्यति कामिने ॥ ३८ ॥ हे राजन् ! तुम भी नदी के तीर पर जाकर सनातनी दुर्गा की आराधना करो । तुम्हें कामना है, अतः तुम्हें आवरणी बुद्धि प्राप्त होगी ॥ ३८ ॥ निष्कामाय च वैश्याय वैष्णवाय च वैष्णवी । बुद्धिं विवेचिकां शुद्धां दास्यत्येव कृपामयी ॥ ३९ ॥ और कृपामयी एवं वैष्णवी वह भगवती निष्काम एवं वैष्णव उस वैश्य को विवेचिका (विवेचन करने वाली) शुद्ध बुद्धि प्रदान करेगी ॥ ३९ ॥ इत्युक्त्वा च मुनिश्रेष्ठो ददौ ताभ्यां कृपानिधिः । पूजाविधानं दुर्गायाः स्तोत्रं च कवचं मनुम् ॥ ४० ॥ कृपानिधान मुनिश्रेष्ठ ने इतना कह कर उन दोनों को दुर्गा जी का पूजा-विधान, स्तोत्र, कवच और मंत्र प्रदान किया ॥ ४० ॥ वैश्यो मुक्तिं च संप्राप तां निषेव्य कृपामयीम् । राजा राज्यं मनुत्वं च परमैश्वर्यमीप्सितम् ॥ ४१ ॥ अनन्तर वैश्य ने उस कृपामयी भगवती की सेवा करके मुक्ति प्राप्त की और राजा को यथेच्छ परमैश्वर्य समेत राज्य और मनुत्व (मनु होना) प्राप्त हुआ ॥ ४१ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं दुर्गोपाख्यानमुत्तमम् । सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४२ ॥ इस प्रकार मैंने परमोत्तम दुर्गा जी का उपाख्यान सुना दिया, जो सुखप्रद, मोक्षदायक और सार रूप है । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४२ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने सुरथमेधःसंवादे सुरथवैश्ययोरभिलषितसिद्धिर्नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यान में सुरथ-मेघस् के संवाद में सुरथ-वैश्य की अभिलषित सिद्धि का वर्णन नामक बासठवां अध्याय समाप्त ॥ ६२ ॥ |