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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रिषष्टितमोऽध्यायः दुर्गोपाख्याने सुरथसमाधिमेधः संवादे
प्रकृतिवैश्यसंवादकथनम् - दुर्गा और वैश्य का संवाद - नारद उवाच नारायण महाभाग वद वेदविदां वर । राजा केन प्रकारेण सिषेवे प्रकृतिं पराम् ॥ १ ॥ नारद बोले-हे नारायण, हे महाभाग, हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! राजा ने किस प्रकार परा प्रकृति (दुर्गा) की आराधना की ॥ १ ॥ समाधिर्नाम वैश्यो वा निष्कामं निर्गुणं विभुम् । भेजे केन प्रकारेण प्रकृतेरुपदेशतः ॥ २ ॥ समाधि नामक वैश्य ने भी किस प्रकार प्रकृति (दुर्गाजी) के उपदेश द्वारा निप्काम एवं निर्गुण व्यापक ब्रह्म की उपासना की ॥ २ ॥ किं वा पूजाविधानं च ध्यानं वा मनुमेव च । किं स्तोत्रं कवचं किं वा ददौ राज्ञे महामुनिः ॥ ३ ॥ महामुनि ने राजा को कौन पूजा-विधान, ध्यान, मंत्र, स्तोत्र और कवच प्रदान किया ॥ ३ ॥ वैश्याय प्रकृतिस्तस्मै किं वा ज्ञानं ददौ परम् । साक्षाद्बभूव तपसा केन वा प्रकृतिस्तयोः ॥ ४ ॥ और दुर्गा ने वैश्य को कौन परमोत्तम ज्ञान प्रदान किया तथा किस उपाय द्वारा दुर्गा ने उन दोनों को साक्षात् दर्शन दिया ॥ ४ ॥ ज्ञानं संप्राप्य वैश्यश्च किं पदं प्राप दुर्लभम् । गतिर्बभूव राज्ञश्च का वा तां च शृणोम्यहम् ॥ ५ ॥ पुनः ज्ञान प्राप्त कर उस वैश्य ने कौन दुर्लभ पद प्राप्त किया और राजा को कौन गति प्राप्त हुई (ये सब) मुझे बताने की कृपा करें ॥ ५ ॥ नारायण उवाच राजा वैश्यश्च संप्राप्य मन्त्रं वै मेधसो मुनेः । स्तोत्रं च कवचं देव्या ध्यानं चैव पुरस्क्रियाम् ॥ ६ ॥ जजाप परमं मन्त्रं राजा वैश्यश्च पुष्करे । स्नात्वा त्रिकालं वर्षं च ततः सिद्धो बभूव सः ॥ ७ ॥ श्री नारायण बोले-राजा और वैश्य दोनों ने मेधस् मुनि द्वारा (दुर्गा) देवी का मंत्र, स्तोत्र, कवच, और ध्यान प्राप्त कर पुष्कर क्षेत्र में उनके परम मंत्र का जप किया । तब तीनों काल स्नान-पूजा करने पर एक वर्ष में उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई ॥ ६-७ ॥ साक्षाद्बभूव तत्रैव मूलप्रकृतिरीश्वरी । राज्ञे ददौ राज्यवरं मनुत्वं वाञ्छितं सुखम् ॥ ८ ॥ उसी समय ईश्वरी (दुर्गा) मूल प्रकृति ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया । राजा को उत्तम राज्य समेत मनुत्व और अमोष्ट सुख तथा वैश्य को अत्यन्त दुर्लभ निगढ़ ज्ञान देवी ने प्रदान किया, जो पूर्व समय परमात्मा कृष्ण ने शिव को प्रदान किया था ॥ ८ ॥ ज्ञानं निगूढं वैश्याय ददौ चातिसुदुर्लभम् । यद्दत्तं शूलिने पूर्वं कृष्णेन परमात्मना ॥ ९ ॥ निराहारमतिक्लिष्टं दृष्ट्वा वैश्यं कृपामयी । रुरोद कृत्वा क्रोडे तमचेष्टं श्वासवर्जितम् ॥ १० ॥ चेतनां कुरु भो वत्सेत्युच्चार्य च पुनः पुनः । चेतनां च ददौ तस्मै स्वयं चैतन्यरूपिणी ॥ ११ ॥ संप्राप्य चेतनां वैश्यो रुरोद प्रकृतेः पुरः । तमुवाच प्रसन्नाऽसौ कृपयाऽतिकृपामयो ॥ १२ ॥ कृपामयी भगवती ने निराहार के कारण अतिक्षीणकाय वैश्य को देखकर अपनी गोद में उसे बैठा लिया और श्वास को गति रुक जाने से उसे चेतनाहीन देखकर-'हे वत्स ! चेतना (प्राप्त) करो । ' ऐसा बार-बार कहकर वे रुदन करने लगीं । अनन्तर चैतन्यस्वरूपिणी देवी ने स्वयं उसे चैतन्य प्रदान किया और वैश्य भी चेतना प्राप्त होने पर देवी के सामने रुदन करने लगा । पश्चात् अतिकृपामयी भगवती ने प्रसन्न होकर कृपापूर्वक उससे कहा ॥ ९-१२ ॥ प्रकृतिरुवाच वरं वृणुष्व हे वत्स यत्ते मनसि वर्तते । ब्रह्मत्वममरत्वं वा ततो वाऽतिसुदुर्लभम् ॥ १३ ॥ प्रकृति बोली-हे वत्स ! अपना मनोनीत वरदान मांगो । ब्रह्मत्व या अमरत्व चाहते हो या उससे भी अतिदुर्लभ कोई अन्य वस्तु ॥ १३ ॥ इन्द्रत्वं वा मनुत्वं वा सर्वसिद्धत्वमेव च । तुच्छं तुभ्यं न दास्यामि नश्वरं बालवञ्चनम् ॥ १४ ॥ किन्तु इन्द्रत्व, मनुत्व एवं सर्वसिद्धत्व तो तुच्छ होने के नाते तुम्हें दिया नहीं जायेगा, क्योंकि वह नश्वर होने के नाते बालकों को बहकाने की वस्तु है ॥ १४ ॥ वैश्य उवाच ब्रह्मत्वममरत्वं वा मातर्मे नहि वाञ्छितम् । ततोऽतिदुर्लभं किंवा न जाने तदभोप्सितम् ॥ १५ ॥ त्वय्येव शरणापन्नो देहि यद्वाञ्छितं तव । अनश्वरं सर्वसारं वरं मे दातुमर्हसि ॥ १६ ॥ वैश्य बोले-हे मातः ! ब्रह्मत्व और अमरत्व तो हमें अभीष्ट नहीं है । और उससे अतिदुर्लभ मनोनीत बस्तु क्या है, मैं जानता नहीं । मैं तुम्हारी ही शरणमें प्राप्त हूँ, हमें ऐसा वरदान दो जो अनश्वर एवं समस्त का साररूप हो ॥ १५-१६ ॥ प्रकृतिरुवाच अदेयं नास्ति मे तुभ्यं दास्यामि मम वाञ्छितम् । यतो यास्यसि गोलोकं पदमेव सुदुर्लभम् ॥ १७ ॥ प्रकृति बोली-तुम्हारे लिए मुझे अदेय वस्तु कुछ भी नहीं है, अतः मैं अपना अभीष्ट तुम्हें दे रही हूँ, जिससे तुम अतिदुर्लभ गोलोक पद प्राप्त करोगे ॥ १७ ॥ सर्वसारं च यज्ज्ञानं सुरर्षीणां सुदुर्लभम् । तद्गृह्यतां महाभाग गच्छ वत्स हरेः पदम् ॥ १८ ॥ हे वत्स ! मैं तुम्हें समस्त का सार भाग और देवर्षियों का अति दुर्लभ ज्ञान दे रही हूँ जिससे तुम भगवान् के लोक में जाओगे ॥ १८ ॥ स्मरणं वन्दनं ध्यानमर्चनं गुणकीर्तनम् । श्रवणं भावनं सेवा कृष्णे सर्वनिवेदनम् ॥ १९ ॥ एतदेव वैष्णवानां नवधाभक्तिलक्षणम् । जन्ममृत्युजराव्याधियमताडनखण्डनम् ॥ २० ॥ भगवान् का स्मरण, वन्दन, ध्यान, अर्चन, गणगान, श्रवण, मनन, सेवा और उन्हें समस्त निवेदन करना, यही वैष्णवों का नव प्रकार का भक्तिलक्षण है, जो जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और यमदण्ड का नाशक है ॥ १९-२० ॥ आयुर्हरति लोकानां रविरेव हि संततम् । नवधाभक्तिहीनानामसतां पापिनामपि ॥ २१ ॥ इस नवधा भक्ति से रहित असज्जनों एवं पापी लोगों को भी आयु का अपहरण सूर्य नित्य किया करते हैं ॥ २१ ॥ भक्तास्तद्गतचित्ताश्च वैष्णवाश्चिरजीविनः । जीवन्मुक्ताश्च निष्पापा जन्मादिपरिवर्जिताः ॥ २२ ॥ भक्त वैष्णव लोग, जो भगवान् में तन्मय रहते हैं, चिरायु, जीवन्मुक्त, पापरहित एवं जन्म आदि से शून्य होते हैं ॥ २२ ॥ शिवः शेषश्च धर्मश्च ब्रह्मा विष्णुर्महान्विराट् । सनत्कुमारः कपिलः सनकश्च सनन्दनः ॥ २३ ॥ वोढुः पञ्चशिखो दक्षो नारदश्च सनातनः । भृगुर्मरीचिर्दुर्वासाः कश्यपः पुलहोऽङ्गिराः ॥ २४ ॥ मेधावी लोमशः शुक्रो वसिष्ठः क्रतुरेव च । बृहस्पतिः कर्दमश्च शक्तिरत्रिः पराशरः ॥ २५ ॥ मार्कण्डेयो बलिश्चैव प्रह्लादश्च गणेश्वरः । यमः सूर्यश्च वरुणो वायुश्चन्द्रो हुताशनः ॥ २६ ॥ अकूपार उलूकश्च नाडीजङ्घश्च वायुजः । नरनारायणौ कूर्म इन्द्रद्युम्नो विभीषणः ॥ २७ ॥ नवधाभक्तियुक्ताश्च कृष्णस्य परमात्मनः । एते महान्तो धर्मिष्ठा भक्तानां प्रवरास्तथा ॥ २८ ॥ शिव, शेष, धर्म, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, सनत्कुमार, कपिल, सनक, सनन्दन, वोढु, पञ्चशिख, दक्ष, नारद, सनातन, भृगु, मरीचि, दुर्वासा, कश्यप, पुलह, अंगिरा, मेघावी, लोमश, शुक्र, वसिष्ठ, बृहस्पति, कर्दम, शक्ति, अत्रि, पराशर, मार्कण्डेय, बलि, प्रहलाद, गणेश्वर, यम, सूर्य, वरुण, वायु, चन्द्र, अग्नि, अकूपार, उलूक, नाडीजंघ, वायुपुत्र (हनुमान्), नर और नारायण, कर्म, इन्द्रद्युम्न और विभीषण, ये सब परमात्मा श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति से सम्पन्न हैं, जो महान् धमिष्ठ, एवं भक्तप्रवर हैं ॥ २३-२८ ॥ ये तद्भक्तास्ते तदंशा जीवन्मुक्ताश्च संततम् । पापापहारास्तीर्थानां पृथिव्याश्च विशां पते ॥ २९ ॥ हे विशांपते ! जो उनके भक्त हैं, वे उनके अंश होने के नाते निरन्तर जीवन्मुक्त और पृथिवी के समस्त तीर्थों के पापापहारी हैं ॥ २९ ॥ ऊर्ध्वं च सप्त स्वर्गाश्च सप्तद्वीपा वसुंधरा । अधः सप्त च पाताला एतद्ब्रह्माण्डमेव च ॥ ३० ॥ ऊपर के स्वर्ग आदि सात लोक, मध्य के सातों द्वीप और नीचे के पाताल आदि सातों लोक यही (मिलकर) 'ब्रह्माण्ड' कहलाता है ॥ ३० ॥ एवंविधानां विश्वानां संख्या नास्त्येव पुत्रक । एवं च प्रतिविश्वेषु ब्रह्मविष्णुर्शिवादयः ॥ ३१ ॥ हे पुत्र ! ऐसे विश्वों की संख्या नहीं है, और प्रत्येक विश्व में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि देवता पृथक्-पृथक् रहते हैं ॥ ३१ ॥ देवा देवर्षयश्चैव मनवो मानवादयः । सर्वाश्रमाश्च सर्वत्र सन्ति बद्धाश्च मायया ॥ ३२ ॥ और सभी विश्व के देव, ऋषि, मनु, मानव आदि और सभी आश्रम माया से आबद्ध हैं ॥ ३२ ॥ महाविष्णोर्लोमकूपे सन्ति विश्वानि यस्य च । स षोडशांशः कृष्णस्य चाऽऽत्मनश्च महान्विराट् ॥ ३३ ॥ जिस महाविष्णु के लोमकूप में समस्त विश्व निहित हैं, वह महाविराट् परमात्मा श्रीकृष्ण का सोलहवां अंश है ॥ ३३ ॥ भज सत्यं परं ब्रह्म नित्यं निर्गुणमच्युतम् । प्रकृतेः परमीशानं कृष्णमात्मानमीश्वरम् ॥ ३४ ॥ निरीहं च निराकारं निर्विकारं निरञ्जनम् । निष्कामं निर्विरोधं च नित्यानन्दं सनातनम् ॥ ३५ ॥ स्वेच्छामयं सर्वरूपं भक्तानुग्रहविग्रहम् । तेजः स्वरूपं परमं दातारं सर्वसंपदाम् ॥ ३६ ॥ ध्यानासाध्यं दुराराध्यं शिवादीनां च योगिनाम् । सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वेषां सर्वकामदम् ॥ ३७ ॥ सर्वाधारं च सर्वज्ञं सर्वानन्दकरं परम् । सर्वधर्मप्रदं सर्वं सर्वज्ञं प्राणरूपिणम् ॥ ३८ ॥ सर्वधर्मस्वरूपं च सर्वकारणकारणम् । सुखदं मोक्षदं सारं पररूपं च भक्तिदम् ॥ ३९ ॥ दास्यदं धर्मदं चैव सर्वसिद्धिप्रदं सताम् । सर्वं तदतिरिक्तं च नश्वरं कृत्रिमं सदा ॥ ४० ॥ इसलिए सत्यरूप, परब्रह्म, नित्य, निर्गुण, अच्युत, प्रकृति-से परे, ईशान, परमात्मा श्रीकृष्ण को भजो, जो ईश्वर, ईहारहित, आकाररहित, निविकार, निरञ्जन, निष्काम, निर्विरोध, नित्यानन्द, सनातन, स्वेच्छामय, सर्वरूप, भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीरधारी, तेजःस्वरूप, समस्त सम्पत्ति के प्रदाता, शिव आदि योगियों के लिए भी ध्यान से असाध्य एवं दुराराध्य, सभी के ईश्वर, सबके पूज्य, सब की समस्त कामनायें पूरी करने वाले, सर्वाधार, सर्वज्ञाता, सर्वानन्दकारी, श्रेष्ठ, सभी धर्मों के प्रदायक, सर्वस्वरूप, सर्वज्ञ, प्राणरूप, समस्त धर्मों के स्वरूप, समस्त कारणों के कारण, सुखदायक, मोक्षप्रद, सारभाग, श्रेष्टरूप भक्ति, दास्य और धर्म के दाता, सज्जनों को सभी सिद्धि देने वाले हैं तथा उनके अतिरिक्त सब वस्तुएँ सदा नश्वर एवं कृत्रिम हैं ॥ ३४-४० ॥ परात्परतरं शुद्धं परिपूर्णतमं शिवम् । यथासुखं गच्छ वत्स भगवन्तमधोक्षजम् ॥ ४१ ॥ हे वत्स ! भगवान् कृष्ण को आनन्दपूर्वक प्राप्त करो, जो पर से भी अत्यन्त परे, शुद्ध, परिपूर्णतम तथा शिव (कल्याण) रूप हैं ॥ ४१ ॥ कृष्णेति द्व्यक्षरं मन्त्रं गृहीत्वा कृष्णदास्यदम् । पुष्करं दुष्करं गत्वा दशलक्षमिमं जप ॥ ४२ ॥ 'कृष्ण' इस दो अक्षर वाले मंत्र को प्राप्त कर, जो भगवान् श्रीकृष्ण की दास्यभक्ति देनेवाला है, दुष्कर पुष्कर तीर्थ में जाकर इसका दशलक्ष जप करो ॥ ४२ ॥ दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेत्तव । इत्युक्त्वा सा भगवती तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४३ ॥ दशलक्ष जप करने से तुम्हारी मंत्रसिद्धि हो जायगी । इतना कहकर वह भगवती उसी स्थान पर अन्तहित हो गयी ॥ ४३ ॥ वैश्यो नत्वा च तां भक्त्या चागमत्पुष्करं मुने । पुष्करे दुस्तरे तप्त्वा स लेभे कृष्णमीश्वरम् ॥ भगवत्याः प्रसादेन कृष्णदासो बभूव सः ॥ ४४ ॥ हे मुने ! अनन्तर वह वैश्य देवी को नमस्कार करके पुष्कर क्षेत्र में आया और वहाँ दुष्कर तप करके ईश्वर श्रीकृष्ण को प्राप्त किया । भगवती के प्रसाद से वह (वैश्य) भगवान् श्रीकृष्ण का दास हो गया ॥ ४४ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने सुरथसमाधिमेधः संवादे प्रकृतिवैश्यसंवादकथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यान में सुरथ, समाधि एवं मेधस् के संवाद में प्रकृति और वैश्य का संवाद कथन नामक तिरसठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ६३ ॥ |