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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुःषष्टितमोऽध्यायः


दुर्गोपाख्याने पूजाविधिबलिपशुलक्षणविशेषः -
पूजाविधि और बलिदान के पशु का लक्षण कथन -


नारायण उवाच
राजा येन क्रमेणैव भेजे तां प्रकृतिं पराम् ।
तच्छ्रूयतां महाभाग वेदोक्तं क्रममेव च ॥ १ ॥
नारायण बोले-हेमहाभाग ! राजा ने जिम क्रमानुसार उस देवी की उपासना की, उस वेदोक्त क्रम को मैं बता रहा हूँ, सुनो ॥ १ ॥

स्नात्वाऽऽचम्य महाराजः कृत्वा न्यासत्रयं तदा ।
स्वकराङ्‌गाङ्‌गमन्त्राणां भूतशुद्धिं चकार सः ॥ २ ॥
स्नान-आचमन करके महाराज ने तीनों न्यास-करन्यास, हृदयन्यास और अंगन्यास-को उनके मंत्रोच्चारण पूर्वक समाप्त कर भूतशुद्धि की ॥ २ ॥

प्राणायामं ततः कृत्वा कृत्वा च स्वाङ्‌गशोधनम् ।
ध्यात्वा देवीं च मृन्मय्या चकाराऽऽवाहनं तदा ॥ ३ ॥
अनन्तर प्राणायाम और अपने अंगों का शोधन करके ध्यान समेत देवी का मिट्टी की मूर्ति में आवाहन किया ॥ ३ ॥

पुनर्ध्यात्वा च भक्त्या च पूजयामास भक्तितः ।
देव्याश्च दक्षिणे भागे संस्थाप्य कमलालयाम् ॥ ४ ॥
संपूज्य भक्तिभावेन भक्त्या परमधार्मिकः ।
देवषट्कं समावाह्य देव्याश्च पुरतो घटे ॥ ५ ॥
पुनः भक्तिपूर्वक ध्यान-यूजन करके उनके दक्षिण भाग में कमला (लक्ष्मी) को स्थापित किया और भक्तिभावना से उनकी पूजा करके उस परम धार्मिक राजा ने देवी के सामने घट में छहों देवों का आवाहन किया ॥ ४-५ ॥

भक्त्या च पूजयामास विधिपूर्वं च नारद ।
गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् ॥ ६ ॥
हे नारद ! भक्तिपूर्वक राजा ने गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और शिवा (पार्वती) को सविधि अर्चना सम्पन्न की ॥ ६ ॥

देवषट्कं च संपूज्य नमस्कृत्य विचक्षणः ।
तदा ध्यायेन्महादेवीं ध्यानेनानेन भक्तितः ॥ ७ ॥
छहों देवों को नमस्कारपूर्वक अर्चना करके उस बुद्धिमान् राजा ने इसी ध्यान द्वारा भक्तिपूर्वक महादेवी का ध्यान किया ॥ ७ ॥

ध्यानं च सामवेदोक्तं परं कल्पतरुं मुने ।
ध्यायेन्नित्यं महादेवीं मूलप्रकृतिरीश्वरीम् ॥ ८ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां पूज्यो वन्द्यां सनातनीम् ।
नारायणीं विष्णुमायां वैष्णवीं विष्णुभक्तिदाम् ॥ ९ ॥
सर्वस्वरूपां सर्वेशां सर्वाधारां परात्पराम् ।
सर्वविद्यासर्वमन्त्रसर्वशक्तिस्वरूपिणीम् ॥ १० ॥
सगुणां निर्गुणां सत्यां वरां स्वेच्छामयीं सतीम् ।
महाविष्णोश्च जननीं कृष्णस्यार्धाङ्‌गसंभवाम् ॥ ११ ॥
कृऽष्णप्रियां कृष्णशक्तिं कृष्णबुद्ध्यधिदेवताम् ।
कृष्णस्तुतां कृष्णपूज्यांकृष्णवन्द्यां कृपामयीम् ॥ १२ ॥
हे मुने ! वह ध्यान सामवेदानुसार एवं परम कल्पतरु रूप है--महादेवी का मैं नित्य ध्यान करता हूँ, जो मूलप्रकृति, ईश्वरी, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवादि देवों की पूज्या, वन्दनीया एवं सनातनी, नारायणी, विष्णु की माया, वैष्णवी, विष्णुभक्तिप्रदा, सबका स्वरूप, सबका आधार, परात्परा, समस्त विद्या, समस्त मन्त्र और समस्त शक्तिस्वरूपिणी, सगूण, निर्गुण, सत्यस्वरूपा, श्रेष्ठा, स्वेच्छामयी, सती, महाविष्णु को उत्पन्न करनेवाली, भगवान् श्रीकृष्ण की आधी देह से उत्पन्न, कृष्ण को प्रिया, उनकी शक्ति, उनकी बुद्धि की अधिदेवता, कृष्ण से स्तुत, उनसे पूजिता, उनकी वन्द्या और कृपामयी हैं ॥ ८-१२ ॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभां कोटिसूर्यसमप्रभाम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भवतानुग्रहकारिकाम् ॥ १३ ॥
दुर्गां शतभुजां देवीं महद्‌दुर्गतिनाशिनीम् ।
त्रिलोचनप्रियां साध्वीं त्रिगुणां च त्रिलोचनाम् ॥ १४ ॥
त्रिलोचनप्राणरूपां शुद्धार्धचन्द्रशेखराम् ।
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम् ॥ १५ ॥
वर्तुलं वामवक्त्रं च शंभोर्मानसमोहिनोम् ।
रत्‍नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिताम् ॥ १६ ॥
तपाये हुए सुवर्ण के समान रूपरंग, करोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण, मन्दहासयुक्त प्रसन्न मुख, भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, सौ भुजा वाली दुर्गा देवी को, जो महादुर्गति की नाशिनी, त्रिलोचन (शिव) की प्रिया, सती, त्रिगुणा, तीन नेत्रबाली, त्रिलोचन (शिव) की प्राणरूप, चन्द्रशेखर की शुद्ध अर्धांगिनी, मालती माला से सुशोभित कबरीभार (केशपाश) को धारण करने वाली, गोलाकार सुन्दर मुख, शम्भु की मन-मोहिनी तथा रत्नों के युगल कुण्डलों से विभूषित कपोल वाली हैं ॥ १३-१६ ॥

नासादक्षिणभागेन बिभ्रतीं गजमौक्तिकम् ।
अमूल्यरत्‍नं बहुलं बिभ्रतीं श्रवणोपरि ॥ १७ ॥
मृक्तापङ्क्तितविनिन्द्यैक-दन्तपङ्क्तिसुशोभिताम् ।
पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च सुप्रसन्नां सुमङ्‌गलाम् ॥ १८ ॥
चित्रपत्रावलीरम्यकपोलयुगलोज्ज्वलाम् ।
रत्‍नकेयूरवलयरत्‍नमञ्जीररञ्जिताम् ॥ १९ ॥
रत्‍नकङ्णभूषाढ्यां रत्‍नपाशकशोभिताम् ।
रत्‍नाङ्‌गुलीयनिकरैः कराङ्‌गुलिचयोज्ज्वलाम् ॥ २० ॥
पदाङ्‌गुलिनखासक्ता-लक्तारेखासुऽशोभनाम् ।
वह्निशुद्धांकाधानां गन्धचन्दनचर्चिताम् ॥ २१ ॥
नासिका के दाहिने भाग में गजमुक्ता से सुशोभित, अमूल्य रत्न के अनेक भूषण कानों में धारण किये हुई, मोतियों की पंक्तियों को निन्दित करनेवाली दांतों की पंक्तियों से सुशोभित, पके बिम्बाफल के समान ओष्ठवाली, अत्यन्त प्रसन्न, अतिमंगलमयी, चित्र विचित्र पत्रावलियों से युक्त रमणीक युगल कपोल से समुज्ज्वल, रत्नों के केयूर (बहूँटा), वलय (कड़ा) और रत्नों के नूपुरों से विभूषित, रत्नों के कंकण आदि भूषणों से अलंकृत और रत्नों के पाशकः (चूड़ामणि) से सुशोभित हैं । एवं रत्नों की अंगूठियों के समूहों से देदीप्यमान हाथ की अंगुलियों वाली, नखों में लगे हुए अलते की रेखा से सुशोभित, अग्नि की भांति विशुद्ध वस्त्र पहने, तथा सुगन्धित चन्दन से चचित हैं ॥ १७-२१ ॥

बिभ्रतीं स्तनयुग्मं च कस्तूरीबिन्दुशोभिताम् ।
सर्वरूपगुणवतीं गजेन्द्रमन्दगामिनीम् ॥ २२ ॥
अतीव कान्तां शान्तां च नितान्तां योगसिद्धिषु ।
विधातुश्च विधात्रीं च सर्वधात्रीं च शंकरीम् ॥ २३ ॥
कस्तूरी को बिन्दी से विभूषित युगल स्तन धारण किये हुई, सबसे सुन्दर एवं गुणवती, गजेन्द्र की भांति मन्द-मन्द गमन करने वाली, अतीव कमनीय, शान्तस्वरूप, योगसिद्धि में नितान्त लगी रहने वाली, विधाता (ब्रह्मा) की विधात्री और सबका धारण करने वाली शंकरी (पार्वती) हैं ॥ २२-२३ ॥

शरत्पार्वणचन्द्रास्यामतीव सुमनोहराम् ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्धमधश्चन्दनबिन्दुना ॥ २४ ॥
सिन्दूरबिन्दुना शश्वद्‌भालमध्यस्थलोज्ज्वलाम् ।
शरन्मध्याह्नकमलप्रभामोचनलोचनाम् ॥ २५ ॥
चारुकज्जलरेखाभ्यां सर्वतश्च समुज्ज्वलाम् ।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितविग्रहाम् ॥ २६ ॥
रत्‍नसिंहासनस्थां च सद्‌रत्‍नमुकुटोज्ज्वलाम् ।
सृष्टौ स्रष्टुः शिल्परूपां दयां पातुश्च पालने ॥ २७ ॥
संहारकाले संहर्तुः परां संहाररूपिणीम् ।
निशुम्भशुम्भमथिनीं महिषासुरमर्दिनीम् ॥ २८ ॥
शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख वाली, अत्यंत मनोहारिणी, कस्तूरी की बिन्दी के साथ नीचे चन्दन बिन्दू और सिन्दूर बिन्दी से निरन्तर अंकित भाल के मध्यस्थल से समुज्ज्वल, शरत्कालीन मध्याह्न कमल की प्रभा से युक्त नेत्रों वाली, काजल की सुन्दर रेखाओं से चारों ओर समुज्ज्वल, करोड़ों कामदेव के लावण्य को लीलापूर्वक तिरस्कृत करने वाले शरीर वाली, रत्नसिंहासन पर विराजित, उत्तम रत्नों के मुकुटों से देदीप्यमान, स्रष्टा (ब्रह्मा) की सृष्टि में शिल्प (सृष्टि) रूप, पाता (विष्ण) के पालन में दयारूप और संहर्ता (शिव) के संहार-काल में महासंहार-रूपिणी निशुम्भ, शुम्भ को मथने वाली एवं महिषासुर का मर्दन करने वाली है ॥ २४-२८ ॥

पुरा त्रिपुरयुद्धे च संस्तुता त्रिपुरारिणा ।
मधुकैटभयोर्युद्धे विष्णुशक्तिस्वरूपिणीम् ॥ २९ ॥
पूर्वकाल में त्रिपुर युद्ध के समय त्रिपुरारि (शिव) द्वारा संस्तुत हैं और मधुकैटभ के युद्ध में विष्णुशक्तिस्वरूपिणी हैं ॥ २९ ॥

सर्वदैत्यनिहन्त्रीं च रक्तबीजविनाशिनीम् ।
नृसिंहशक्तिरूपां च हिरण्यकशिपोर्वधे ॥ ३० ॥
वराहशक्तिं वाराहे हिरण्याक्षवधे तथा ।
परब्रह्मस्वरूपां च सर्वशक्तिं सदा भजे ॥ ३१ ॥
समस्त दैत्यों का हनन करने वाली, रक्तबीज की नाशिनी एवं हिरण्यकशिपु के वध में नृसिंहशक्तिरूप, हिरण्याक्ष-वध में वाराह भगवान् की वाराह शक्तिरूप तथा परब्रह्म स्वरूप समस्त शक्तिवाली (दुर्गा) को मैं सदा भजता हूँ ॥ ३०-३१ ॥

इति ध्यात्वा च दुर्गायै पुष्पं दत्त्वा विचक्षणः ।
पुनर्ध्यात्वा चैव भक्त्या कुर्यादावाहनं ततः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार ध्यान कर बृद्धिमान् पुरुष, अपने शिर पर पुष्प रखे, भक्तिपूर्वक पुनः ध्यान करके देवी का आवाहन करे ॥ ३२ ॥

प्रकृतेः प्रतिमां धृत्वा मन्त्रमेवं पठेन्नरः ।
जीवन्यासं ततः कुर्यान्मनुनाऽनेन यत्‍नतः ॥ ३३ ॥
अनन्तर देवी की प्रतिमा को पकड़ कर यह मंत्र पढ़ना चाहिए और इसी मंत्र द्वारा उसे सप्रयत्न जीवन्यास भी करना चाहिए ॥ ३३ ॥

एह्येहि भगवत्यम्ब शिवलोकात्सनातनि ।
गृहाण मम पूजां च शारदीयां सुरेश्वरि ॥ ३४ ॥
हे भगवति, हे अम्ब ! हे सनातनि, हे सुरेश्वरि, आप शिवलोक से यहां आकर मेरी यह शारदीय पूजा स्वीकार करें ॥ ३४ ॥

इहाऽऽगच्छ जगत्पूज्ये तिष्ठ तिष्ठ महेश्वरि ।
हे मातरस्यामर्चायां संनिरुद्धा भवाम्बिके ॥ ३५ ॥
हे जगत्पूज्ये ! महेश्वरि ! यहाँ आकर सुखासीन हों । हे मातः ! हे अम्बिके ! इस पूजन में रुकी रहें ॥ ३५ ॥

इहाऽऽगच्छन्तु त्वत्प्राणाश्चाऽऽधिप्राणैः सहाच्युते ।
इहाऽऽगच्छन्तु त्वरितं तवैव सर्वशक्तयः ॥ ३६ ॥
हे अच्युते ! इस पूजन में अधिप्राणों के साथ तुम्हारे प्राण आयें और तुम्हारी सभी शक्तियाँ यहाँ शीघ्र पधारें ॥ ३६ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं च दुर्गायै वह्निजायान्तमेव च ।
समुच्चार्योरसि प्राणाः संतिष्ठन्तु सदा शिवे ॥ ३७ ॥
हे सदाशिवे ! 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गायै स्वाहा' इस मंत्र का उच्चारण कर कहे-'हे शिवे ! मेरे हृदय में प्राण सदा संस्थित हों ॥ ३७ ॥

सर्वेन्द्रियाधिदेवास्त इहाऽऽगच्छन्तु चण्डिके ।
ते शक्तयोऽत्राऽऽगच्छन्तु इहाऽऽच्छन्तु ईश्वराः ॥ ३८ ॥
हे चण्डिके ! समस्त इन्द्रियों के अधीश्वरदेव यहाँ आयें । हे चण्डिके ! तुम्हारी शक्तियां तथा ईश्वर यहाँ आयें ॥ ३८ ॥

इत्यावाह्य महादेवीं परीहारं करोति च ।
मन्त्रेणानेन विप्रेन्द्र तच्छृणुष्व समाहितः ॥ ३९ ॥
हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार महादेवी का आवाहन करके इसी मंत्र से परीहार करना चाहिए, उसे कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ३९ ॥

स्वागतं भगवत्यम्ब शिवलोकाच्छिवप्रिये ।
प्रसादं कुरु मां भद्रे भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ ४० ॥
हे भगवति ! हे अम्ब ! हे शिवप्रिये ! शिवलोक से आओ, तुम्हारा स्वागत है । हे भद्रे ! मेरे ऊपर कृपा करो । हे भद्रकालि ! तुम्हें नमस्कार है ॥ ४० ॥

धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं सफलं जीवनं मम ।
आगताऽसि यतो दुर्गे माहेश्वरि मदालयम् ॥ ४१ ॥
हे दुर्गे ! हे माहेश्वरि ! आज हम धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, मेरा जीवन सफल हो गया क्योंकि मेरे गृह में आपका आगमन हुआ है ॥ ४१ ॥

अद्य मे सफलं जन्म सार्थकं जीवनं मम ।
पूजयामि यतो दुर्गां पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ४२ ॥
आज मेरा जन्म सफल है, मेरा जीवन सार्थक हो गया क्योंकि इस पुण्यक्षेत्र भारत में मैं दुर्गाजी की पूजा कर रहा हूँ ॥ ४२ ॥

भारते भवतीं पूज्या दुर्गां यः पूजयेद्‌बुधः ।
सोऽन्ते याति च गोलोकं परमैश्वर्यवानिह ॥ ४३ ॥
जो इस भारत में पूज्य दुर्गा जी की अर्चना करता है, वह विद्वान् परम ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर अन्त में गोलोक प्राप्त करता है ॥ ४३ ॥

कृत्वा च वैष्णवीपूजां विष्णुलोकं व्रजेत्सुधीः ।
माहेश्वरीं च संपूज्य शिवलोकं च गच्छति ॥ ४४ ॥
विद्वान् को वैष्णवी की पूजा करने पर विष्णुलोक की प्राप्ति होती है और माहेश्वरी की आराधना करने पर शिवलोक को वह जाता है ॥ ४४ ॥

सात्त्विकी राजसी चैव त्रिधा पूजा च तामसी ।
भगवत्याश्च वेदोक्ता चोत्तमा मध्यमाऽधमा ॥ ४५ ॥
भगवती की वेदोक्त अर्चना सात्त्विकी, राजसी और तामसी भेद से उत्तम, मध्यम और अघम तीन प्रकार की होती है ॥ ४५ ॥

सात्त्विकी वैष्णवानां च शाक्तादीनां च राजसी ।
अदीक्षितानामसतामन्येषां तामसी स्मृता ॥ ४६ ॥
उसमें वैष्णवों की सात्त्विकी, शाक्त आदि लोगों की राजसी और दीक्षाहीन असज्जन एवं अन्य लोगों के लिए तामसी पूजा बतायी गयी है ॥ ४६ ॥

जीवहत्याविहीना या वरा पूजा तु वैष्णवी ।
वैष्णवा यान्ति गोलोकं वैष्णवीबलिदानतः ॥ ४७ ॥
जीवहत्या विहीन होने के नाते वैष्णवी पूजा श्रेष्ठ बतायी गयी है, वैष्णवी बलि द्वारा वैष्णवों को गोलोक प्राप्त होता है ॥ ४७ ॥

माहेश्वरी राजसी च बलिदानसमन्विता ।
शाक्तादयो राजसाश्च कैलासं यान्ति ते तथा ॥ ४८ ॥
किरातास्त्रिदिवं यान्ति तामस्या पूजया तया ।
त्वमेव जगतां माता चतुर्वर्गफलप्रदा ।
सर्वशक्तिस्वरूपा च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ४९ ॥
माहेश्वरी की राजसी अर्चना और बलि प्रदान करने से राजस शाक्त आदि कैलास की यात्रा करते हैं और किरातगण तामसी देवी की आराधना द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं । चतुर्वर्ग (धर्म अर्थ , काम और मोक्ष) फल प्रदान करने वाली तुम्ही जगत् की माता हो ॥ ४८-४९ ॥

जन्ममृत्युजराव्याधिहरा त्वं च परात्परा ।
सुखदा मोक्षदा भद्रा कृष्णभक्तिप्रदा सदा ॥ ५० ॥
तुम परमात्मा श्रीकृष्ण की सर्वशक्ति रूप हो, जो जन्म, मृत्यू, जरा एवं व्याधि का नाश करने वाली, पर से मी श्रेष्ठ, सुख देने वाली, मोक्ष देने वाली, कल्याणरूपा तथा सदा कृष्ण भक्तिदायिका हो ॥ ५० ॥

नारायणि महामाये दुर्गे दुर्गतिनाशिनि ।
दुर्गेति स्मृतिमात्रेण याति दुर्गं नृणामिह ॥ ५१ ॥
हे नारायणि ! हे महामाये ! हे दुर्गे ! हे दुर्गतिनाशिनि ! इस प्रकार दुर्गा के स्मरण मात्र से मनुष्यों का दुर्ग (कठिन) दुःख नष्ट हो जाता है ॥ ५१ ॥

इति कृत्वा परीहारं देव्या वामे च साधकैः ।
त्रिपद्या उपरिष्टात्तु शङ्खं संस्थापयेत्तु सः ॥ ५२ ॥
तत्र दत्त्वा जलं पूर्णं दूर्वां पुष्पं च चन्दनम् ।
धृत्वा दक्षिणहस्तेन मन्त्रमेवं पठेन्नरः ॥ ५३ ॥
पुण्यस्त्वं शङ्ख पुण्यानां मङ्‌गलानां च मङ्‌गलम् ।
प्रभूतः शङ्खचूडात्त्वं पुराकल्पे पवित्रकः ॥ ५४ ॥
इस प्रकार साधक को देवी के बायें भाग में परीहार करके त्रिपदी (पीतल की बनी हई तीन पैर को बैठकी) पर शंख स्थापित करना चाहिए, जिसमें दूर्वा, पुष्प और चन्दन समेत जल भरा हो उसे दाहिने हाथ से पकड़ कर यह मंत्र पढ़े-हे शंख ! तुम पुण्यों के पुण्य और मंगलों के मंगल हो । हे पवित्रक ! पूर्व कल्प में तुम शंखचूड़ द्वारा उत्पन्न हुए हो ॥ ५२-५४ ॥

ततोऽर्घ्यपात्रं संस्थाप्य विधिनाऽनेन पण्डितः ।
दत्त्वा संपूजयेद्‌देवीमुपचाराणि षोडश ॥ ५५ ॥
पश्चात् पण्डित को चाहिए कि इसी विधि के द्वारा अर्घ्यपात्र स्थापित कर देवी का षोडशोपचार पूजन करें । ॥ ५५ ॥

त्रिकोणमण्डलं कृत्वा सजलेन कुशेन च ।
कूर्मं शेषं धरित्रीं च पूजयेत्तत्र धार्मिकः ॥ ५६ ॥
एवं कुश-जल समेत त्रिकोण मण्डल बनाकर उसमें कच्छप, शेष और पृथिवी का पूजन धार्मिक को करना चाहिए ॥ ५६ ॥

त्रिपदीं स्थापयेत्तत्र त्रिपद्यां शङ्‌खमेव च ।
शङ्खे त्रिभागतोयं च दत्त्वा संपूजयेत्ततः ॥ ५७ ॥
गङ्‌गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि चन्द्रभागे च कौशिकि ॥ ५८ ॥
स्वर्गरेखे कनखले पारिभद्रे च गण्डकि ।
श्वेतगङ्‌गे चन्द्ररेखे पम्पे चम्पे च गोमति ॥ ५९ ॥
पद्मावति त्रिपर्णाशे विपाशे विरजे प्रभे ।
शतह्रदे चेलगङ्‌गे जलेऽस्मिन्संनिधिं कुरु ॥ ६० ॥
पुनः त्रिपदी (तिपायी) रखकर उस पर शंख रखे, जिसमें तीन भाग जल रखकर अर्चना करे--हे गंगे ! हे यमुने ! हे गोदावरि ! हे सरस्वति ! हे नर्मदे ! हे सिन्धु ! हे कावेरि ! हे चन्द्रभागे ! हे कौशिकी ! हे स्वर्णरेखे ! हे कनखले ! हे पारिभद्रे ! हे गण्डकि ! हे श्वेतगंगे ! हे चन्द्ररेखे ! हे पम्पे ! हे चम्पे ! हे गोमति ! हे पद्मावति ! हे त्रिपर्णाशे ! हे विपाशे ! हे विरजे ! हे प्रभे ! हे शतहदे ! हे चेलगंगे ! इस जल में आवाम करो ॥ ५७-६० ॥

वह्निं सूर्यं च चन्द्रं च विष्णुं च वरुणं शिवम् ।
पूजयेत्तत्र तोये च तुलस्या चन्दनेन च ॥ ६१ ॥
अनन्तर उस जल में तुलसी और चन्दन द्वारा अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, वरुण, शिव की पूजा करे और उसी जल द्वारा सभी नैवेद्य का प्रक्षालन करे ॥ ६१ ॥

नैवेद्यानि च सर्वाणि प्रोक्षयेत्तज्जलेन च ।
प्रत्येकं वै ततो दद्यादुपचारांश्च षोडश ॥ ६२ ॥
आसनं वसनं पाद्यं स्नानीयमनुलेपनम् ।
मधुपर्कं गन्धमर्घ्यं पुष्पं नैवेद्यभीप्सितम् ॥ ६३ ॥
पुनराचमनीयं च ताम्बूलं रत्‍नभूषणम् ।
धूपं प्रदीपं तल्पं चेत्युपचारास्तु षोडश ॥ ६४ ॥
पुनः प्रत्येक देव की सोलह उपचार से अर्चना करे-आसन, वस्त्र, पाद्य, स्नानीय जल, अनुलेपन, मधुपर्क, गन्ध, अर्घ्य, पुष्प, मनोनीत नैवेद्य, आचमनीय जल, ताम्बूल, रत्नभूषण, धूप, प्रदीप, और शय्या यही सोलह उपचार हैं ॥ ६२-६४ ॥

अमूल्यरत्‍नसंक्लृप्तं नानाचित्रविराजितम् ।
वरं सिंहासनश्रेष्ठं गृह्यतां शंकरप्रिये ॥ ६५ ॥
हे शंकरप्रिये ! अमूल्य रत्नों से खचित और अनेक भांति के चित्रों से सुशोभित यह श्रेष्ठ एवं सुन्दर सिंहासन ग्रहण करो ॥ ६५ ॥

अनन्तसूत्रप्रभवमीश्वरेच्छाविनिर्मितम् ।
ज्वलदग्निविशुद्धं च वसनं गृह्यतां शिवे ॥ ६६ ॥
हे शिवे ! अनन्त सूत्रों से रचित, ईश्वर की इच्छा से बना हुआ और प्रज्वलित अग्नि की भाँति विशुद्ध इस वस्त्र को अपनाने की कृपा करो ॥ ६६ ॥

अमूल्यरत्‍नपात्रस्थं निर्मलं जाह्नवीजलम् ।
पादप्रक्षालनार्थाय दुर्गे देवि प्रगृह्यताम् ॥ ६७ ॥
हे दुर्गे देवि ! अमूल्य रत्न के पात्र में स्थित एवं निर्मल इस गंगाजल को चरण प्रक्षालन के लिए स्वीकार करो ॥ ६७ ॥

सुगन्धामलकीस्निग्धद्रवमेतत्सुदुर्लभम् ।
सुपक्वं विष्णुतैलं च गृह्यतां परमेश्वरि ॥ ६८ ॥
हे परमेश्वरि ! सुगन्ध मिश्रित आँवले के रस से अत्यन्त पकाया हुआ यह अतिदुर्लभ विष्णुतैल स्वीकार करो । ॥ ६८ ॥

कस्तूरीकुङ्‌कुमाक्तं च सुगन्धिद्रुतचन्दनम् ।
सुवासितं जगन्मातर्गृह्यतामनुलेपनम् ॥ ६९ ॥
हे जगन्मातः ! कस्तूरी, कुंकुम से आर्द्र और सुगन्धित चन्दन से सुवासित यह अनुलेपन ग्रहण करो ॥ ६९ ॥

माध्वीकं रत्‍नपात्रस्थं सुपवित्रं सुमङ्‌गलम् ।
मधुपर्कं महादेवि गृह्यतां प्रीतिपूर्वकम् ॥ ७० ॥
हे महादेवि ! मधु का बना, रत्न के पात्र में स्थित, पवित्र एवं अतिमंगल रूप यह मधुपर्क प्रीतिपूर्वक ग्रहण करो ॥ ७० ॥

सुगन्धमूलचूर्णं च सुगन्धद्रव्यसंयुतम् ।
सुपवित्रं मङ्‌गलार्हं देवि गन्धं गृहाण मे ॥ ७१ ॥
हे देवि ! सुगन्ध के मूल का चूर्ण एवं सुगन्धित द्रव्य से युक्त, अति पवित्र और मंगलमय गन्ध को ग्रहण करो ॥ ७१ ॥

पवित्रं शङ्खपात्रस्थं दूर्वापुष्पाक्षतान्वितम् ।
स्वर्गमन्दाकिनीतोयमर्घ्यं चण्डि गृहाण मे ॥ ७२ ॥
हे चण्डि ! शंखपात्र में स्थित, दूर्वा, पुष्प एवं अक्षतयुक्त स्वर्ग की मन्दाकिनी (गंगा) जल का अर्घ्य ग्रहण करो ॥ ७२ ॥

सुगन्धिपुष्पश्रेष्ठं च पारिजाततरूद्‌भवम् ।
नानापुष्पादिमाल्यानि गृह्यतां जगदम्बिके ॥ ७३ ॥
हे जगदम्बिके ! पारिजात के सुगन्धित तथा उत्तम पुष्प एवं अनेक पुष्पों आदि मे बनी हुई मालाओं को स्वीकार करो ॥ ७३ ॥

दिव्यं सिद्धान्नमामान्नं पिष्टकं पायसादिकम् ।
मिष्टान्नं लड्डुकफलं नैवेद्यं गृह्यतां शिवे ॥ ७४ ॥
हे शिवे ! दिव्य सिद्धान्न, कच्चा अन्न, पीठी तथा पायस आदि समेत लड्ड आदि मिष्टान्न नैवेद्य को ग्रहण करो ॥ ७४ ॥

सुवासितं शीततोयं कर्पूरादिसुसंस्कृतम् ।
मया निवेदितं भक्त्या गृह्यतां शैलकन्यके ॥ ७५ ॥
हे शैलकन्ये ! सुवासित और कपूर आदि से सुसंस्कृत यह शीतल जल भक्तिपूर्वक तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करो ॥ ७५ ॥

गुवाकपर्णचूर्णं च कर्पूरादिसुवासितम् ।
सर्वभोगवरं रम्यं ताम्बूलं देवि गृह्यताम् ॥ ७६ ॥
हे देवि ! सुपारी के पत्ते के चूर्ण से मिश्रित, कर्पूर आदि से सुवासित, सब भोगों में श्रेष्ठ इस रम्य ताम्बूल को ग्रहण करो ॥ ७६ ॥

अमूल्यरत्‍नसारैश्च खचितं चेश्वरेच्छया ।
सर्वाङ्‌गशोभनकरं भूषणं देवि गृह्यताम् ॥ ७७ ॥
हे देवि ! ईश्वरेच्छया अमूल्य रत्नों के सारभाग से खचित और सांग को सुशोभित करने वाले इस आभूषण को स्वीकार करो ॥ ७७ ॥

तरुनिर्यासचूर्णं च गन्धवस्तुसमन्वितम् ।
हुताशनशिखाशुद्धं धूपं च देवि गृह्यताम् ॥ ७८ ॥
हे देवि ! वृक्ष के गोंद के चूर्ण, सुगन्धित वस्तु मिश्रित एवं अग्नि की शिखा से शुद्ध इस धूप को ग्रहण करो ॥ ७८ ॥

दिव्यरत्‍नविशेषं च सान्द्रध्वान्तनिवारकम् ।
सुपवित्रं प्रदीपं च गृह्यतां परमेश्वरि ॥ ७९ ॥
हे परमेश्वरि ! दिव्य एवं रत्न विशेष द्वारा रचित तथा घने अन्धकार का नाशक यह अति पवित्र दीप ग्रहण करें ॥ ७९ ॥

रत्‍नसारगणाकीर्णं दिव्यं पर्यङ्‌कमुत्तमम् ।
सूक्ष्मवस्त्रैश्च संस्यूतं देवि तल्पं प्रगृह्यताम् ॥ ८० ॥
हे देवि ! रत्नों के सार भाग से आच्छन्न यह दिव्य परमोत्तम पलंग, जो सूक्ष्म वस्त्रों से मिली हुई है, शय्या के रूप में स्वीकार करो ॥ ८० ॥

एवं संपूज्य तां दुर्गां दद्यात्पुष्पाञ्जलिं मुने ।
ततोऽष्टनायिकादेवीर्यत्‍नतः परिपूजयेत् ॥ ८१ ॥
हे मुने ! इस भाँति दुर्गा जी की अर्चना करके उन्हें पुष्पाञ्जलि अर्पित करे । पश्चात् आठों नायिकाओं की यत्नपूर्वक अर्चना करे ॥ ८१ ॥

उग्रचण्डां प्रचण्डां च चण्डोग्रा चण्डनायिकाम् ।
अतिचण्डां च चामुण्डां चण्डां चण्डवतीं तथा ॥ ८२ ॥
पद्ये चाष्टदले चैताः प्रागादिक्रमतस्तथा ।
पञ्चोपचारैः संपूज्य भैरवान्मध्यदेशतः ॥ ८३ ॥
उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, अतिचण्डा, चामुण्डा, चण्डा और चण्डवती ये ही आठों नायिकायें हैं । अष्टदल वाले कमल में पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से पञ्चोपचार द्वारा इनकी और मध्य स्थित भैरवों को अर्चा सुसम्पन्न करे ॥ ८२-८३ ॥

आदौ महाभैरवं च तथा संहारभैरवम् ।
असिताङ्‌गं भैरवं च रुरुभैरवमेव च ॥ ८४ ॥
कालभैरवमप्येवं क्रोधभैरवमेव च ।
ताम्रचूडं चन्द्रचूडमन्ते अन्ते वै भैरवद्वयम् ॥ ८५ ॥
एतान्संपूज्य मध्ये वै नवशक्तीश्च पूजयेत् ।
तत्र पद्मे चाष्टदले मध्ये वै भक्तिपूर्वकम् ॥ ८६ ॥
सर्वप्रथम महाभैरव, संहारभैरव, असित (काले) अंग वाले भैरव, रुरुभैरव, कालभैरव, क्रोधभैरव, ताम्रचूड भैरव और चन्द्रचूडभैरव की अर्चना करने के उपरान्त उसी अष्टदल कमल के मध्यस्थल में नव शक्तियों को भी भक्तिपूर्वक पूजा करे ॥ ८४-८६ ॥

ब्रह्माणीं वैष्णवीं चैव रौद्रीं माहेश्वरीं तथा ।
नारसिंहीं च वाराहीमिन्द्राणीं कार्तिकीं तथा ॥ ८७ ॥
सर्वशक्तिस्वरूपां च प्रधानां सर्वमङ्‌गलाम् ।
नवशक्तीश्च संपूज्य घटे देवांश्च पूजयेत् ॥ ८८ ॥
ब्रह्माणी, वैष्णवी, रौद्री, माहेश्वरी, नारसिंही, वाराही, इन्द्राणी, कार्तिकी और सर्वशक्तिस्वरूपा प्रधान सर्वमंगला इन नव शक्तियों की अर्चना करके कलश में देवों की पूजा करे ॥ ८७-८८ ॥

शंकरं कार्तिकेयं च सूर्यं सोमं हुताशनम् ।
वायुं च वरुणं चैव देव्याश्चेटीं बटुं तथा ॥ ८९ ॥
चतुःषष्टि योगिनीनां संपूज्य विधिपूर्वकम् ।
यथाशक्ति बलिं दत्त्वा करोति स्तवनं बुधः ॥ ९० ॥
शंकर, कार्तिकेय, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, वरुण, देवी की चेटी (दासी) बटुक और चौंसठ योगिनियों की सविधान अर्चना करके यथाशक्ति बलिप्रदान करने के उपरान्त विद्वान् को उनकी स्तुति करनी चाहिये । ॥ ८९-९० ॥

कवचं च गले बध्वा पठित्वा भक्तिपूर्वकम् ।
ततः कृत्वा परीहारं नमस्कुर्याद्विचक्षणः ॥ ९१ ॥
कवच को गले में बांधकर भक्तिपूर्वक उसका पाठ करके परीहार करने के उपरान्त नमस्कार करे ॥ ९१ ॥

बलिदानविधानं च श्रूयतां मुनिसत्तम ।
मायातिं महिषं छागं दद्यान्मेषादिकं शुभम् ॥ ९२ ॥
सहस्रवर्षं सुप्रीता दुर्गा मायातिदानतः ।
महिषाच्छतवर्षं च दशवर्षं च च्छागलात् ॥ ९३ ॥
वर्षं मेषेण कूष्माण्डैः पक्षिभिर्हरिणैस्तथा ।
दशवर्षं कृष्णसारैः सहस्राब्दं च गण्डकैः ॥ ९४ ॥
कृत्रिमः पिष्टनिर्माणैः षण्मासं पशुभिस्तथा ।
मासं सुपक्वादिफलैरक्षतैरिति नारद ॥ ९५ ॥
युवकं व्याधिहीनं च सशृङ्‌गं लक्षणान्वितम् ।
विशुद्धमविकाराङ्‌गं सुवर्णं पुष्टमेव च ॥ ९६ ॥
सत्तम ! बलिदान का विधान में बता रहा हूँ, सुनो । मायाति (कीत मनुष्य), महिष (भैसे), छाग (बकरे) और भेंड़ आदि को शुभ बलि उन्हें समर्पित करे । क्योंकि मायाति के दान से एक सहस्र वर्ष, महिष के दान से सौ वर्ष, बकरे के दान से दश वर्ष, भेंड़ से एक वर्ष और कूष्माण्ड, पक्षी, तथा हरिण से एक वर्ष, कृष्णसार (मृग) से दश वर्ष, गण्डक (गड़े) से सहस्रवर्ष, आटे के कृत्रिम पशु से छह मास, सुन्दर पके फल आदि से एक मास तक दुर्गा देवी अति प्रसन्न रहती हैं । हे नारद ! रोगरहित, युवा, शंग सहित, लक्षणों से भूषित, विशुद्ध, निर्दोष अंगवाला, सुन्दर वर्ण वाला और हृष्ट-पुष्ट पशु बलिदान के लिए होना चाहिए ॥ ९२-९६ ॥

शिशुना बलिना दातुर्हन्ति पुत्रं च चण्डिका ।
वृद्धेन वै गुरुजनं कृशेनापीष्टबान्धवान् ॥ ९७ ॥
धनं चैवाधिकाङ्‌गेन हीनाङ्‌गेन प्रजास्तथा ।
कामिनीं शृङ्‌गभङ्‌गेन काणेन भ्रातरं तथा ॥ ९८ ॥
शिशु के बलिदान से चण्डिका यजमान के पुत्र का नाश करती है, उसी भाँति वृद्ध से गुरु जन का, दुर्बल से इप्टबन्धुवर्ग का, अधिक अंग वाले से धन का, हीनांग से प्रजा का, टूटी सींग वाले से स्त्री का और काने से भाई का नाश करती है ॥ ९७-९८ ॥

घुटिकेन भवेन्मृत्युर्विघ्नं स्याच्चित्रमस्तकैः ।
हन्ति मित्रं तामपृष्ठैर्भ्रष्टश्रीः पुच्छहीनतः ॥ ९९ ॥
घुटिक (एड़ी के ऊपर की गांठ) भंग रहने से यजमान की मृत्यु होती है, चित्रमस्तक से कार्य में बाधा, तांबे की भांति पीठ वाले से मित्र का नाम और पुच्छहीन से थी नष्ट होती है ॥ ९९ ॥

मायातीनां स्वरूपं च श्रूयतां मुनिसत्तम ।
वक्ष्याम्यथर्ववेदोक्तं फलहानिर्व्यतिक्रमे ॥ १०० ॥
हे मुनिसत्तम ! अब अथर्ववेदोक्त मायाति का स्वरूप बता रहा हूँ, सुनो ! उसके व्यतिक्रम (उलटफेर) में फल की हानि होती है ॥ १०० ॥

पितृमातृविहीनं च युवकं व्याधिवर्जितम् ।
विवाहितं दीक्षितं च परदारविहीनकम् ॥ १०१ ॥
अजारजं विशुद्धं च सच्छूद्रपरिपोषितम् ।
तद्‌बन्धुभ्यो धनं दत्त्वा क्रीतं मूल्यातिरेकतः ॥ १०२ ॥
पिता-माता से रहित, नीरोग, विवाहित, दीक्षित, परस्त्रीरहित, जारज सन्तान नहीं, विशुद्ध तथा किसी सच्छूद्र द्वारा परिपालित युवक को, उसके बन्धु-वर्गों को धन देकर अत्यधिक मूल्य से क्रय करके ॥ १०१-१०२ ॥

स्नापयित्वा च तं कर्ता पूजयेद्वस्त्रचन्दनैः ।
माल्यैर्धूपैश्च सिन्दूरैर्दधिगोरोचनादिभिः ॥ १०३ ॥
तं च वर्षं भ्रामयित्वा भृत्यद्वारेण यत्‍नतः ।
वर्षान्ते च समुत्सृज्य दुर्गायै तं निवेदयेत् ॥ १०४ ॥
उसे नहलाकर कर्ता वस्त्र-चन्दन, माला-धूप, सिंदूर और दधि-गोरोचन आदि से उसकी पूजा करे और सेवकों के साथ वर्ष भर उसे भ्रमण कराने के उपरान्त वर्ष के अन्त में उसे देवी को बलि चढ़ा दे ॥ १०३-१०४ ॥

अष्टमीनवमीसंधौ दद्यान्मायातिमेव च ।
इत्येवं कथितं सर्वं बलिदानं प्रसङ्‌गतः ॥ १०५ ॥
अष्टमी-नवमी को सन्धि में मायाति का बलि प्रदान करना चाहिए । इस प्रकार मैंने प्रसंगानसार मभी बलिदान बता दिये ॥ १०५ ॥

बलिं दत्त्वा च स्तुत्वा च धृत्वा च कवचं बुधः ।
प्रणम्य दण्डवद्‌भूमौ दद्याद्विप्राय दक्षिणाम् ॥ १०६ ॥
बलि प्रदान के अनन्तर देवी की स्तुति, कवचधारण, भूमि में दण्डवत् प्रणाम करके ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए ॥ १०६ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
दुर्गोपाख्याने पूजाविधिबलिपशुलक्षणविशेषो
नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण के संवादान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में पूजा विधि तथा बलिपशु का लक्षण विशेष कथन नामक चौंसठवा अध्याय समाप्त ॥ ६४ ॥

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