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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चषष्टितमोऽध्यायः


दुर्गोपाख्याने दुर्गासुरथसंवादे ज्ञानकथनम् -
ज्ञानकथन -


नारद उवाच
श्रुतं सर्व महाभाग सुधारसपरं वरम् ।
स्तोत्रं च कवचं पूजाफलं कालं वद प्रभो ॥ १ ॥
नारद बोले-हे महाभाग ! हे प्रभो ! सुधारस से भी मधुर एवं श्रेष्ठ स्नोत्र, कवन आदि सभी कुछ मुन लिया, अब पूजा का फल और समय जानना चाहता हूँ ॥ १ ॥

नारायण उवाच
आर्द्रायां बोधयेद्‌देवीं मूलेनैव प्रवेशयेत् ।
उत्तरेणार्चयित्वा तां श्रवणायां विसर्जयेत् ॥ २ ॥
नारायण बोले-आर्द्रा नक्षत्र में देवी का जागरण, मूल में प्रवेश, उत्तरा में अर्चना और श्रवण नक्षत्र में विसर्जन करना चाहिए । ॥ २ ॥

आर्द्रायुक्तनवम्यां तु कृत्वा देव्याश्च बोधनम् ।
पूजायाः शतवार्षिक्याः फलमाप्नोति मानवः ॥ ३ ॥
आर्द्रा नक्षत्र युक्त नवमी तिथि में देवी का उद्बोधन करने से सौ वर्ष की पूजा का फल मनुष्य को प्राप्त होता है ॥ ३ ॥

मूलायां तु प्रवेशे च नरमेधफलं लभेत् ।
उत्तरे पूजनं कृत्वा वाजपेयफलं लभेत् ॥ ४ ॥
मूल नक्षत्र में प्रवेश करने से नरमेध का फल प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

कृत्वा विसर्जनं देव्याः श्रवणायां च मानवः ।
लक्ष्मीं च पुत्रपौत्रांश्च लभते नात्र संशयः ॥ ५ ॥
श्रवण नक्षत्र में देवी का विसर्जन करने से मनुष्य को लक्ष्मी और पुत्र-पौत्र की प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं ॥ ५ ॥

भुवः प्रदक्षिणापुण्यं पूजायां लभते नरः ।
नक्षत्रयोगाभावे तु पार्वत्याश्चैव नारद ॥ ६ ॥
नवम्यां बोधनं कृत्वा पक्षं संपूज्य मानवः ।
अश्वमेधफलावाप्त्यै दशम्यां च विसर्जयेत् ॥ ७ ॥
उनकी पूजा में पृथ्वी को प्रदक्षिणा का पुण्य फल प्राप्त होता है । हे नारद ! नक्षत्र-योग के अभाव में नवमी के दिन पार्वती का बोधन करके एक पक्ष पूजन करे और दशमी में विसर्जन करे तो अश्वमेघ का फल प्राप्त होता है ॥ ६-७ ॥

सप्तम्यां पूजनं कृत्वा बलिं दद्याद्विचक्षणः ।
अष्टम्यां पूजनं शस्तं बलिदानविवर्जितम् ॥ ८ ॥
अष्टम्यां बलिदानेन विपत्तिर्जायते नृणाम् ।
दद्याद्विचक्षणो भक्त्या नवम्यां विधिवदबलिम् ॥ ९ ॥
बुद्धिमान् को चाहिए कि सप्तमी में पूजनोपरान्त बलि प्रदान करे, क्योंकि अष्टमी में केवल पूजन करना ही प्रशस्त बताया गया है बलिदान नहीं । अष्टमी में बलि प्रदान करने से मनुष्यों को विपत्ति प्राप्त होती है अतः विद्वान् को नवमी में भक्तिपूर्वक सविधि बलि प्रदान करना चाहिए ॥ ८-९ ॥

बलिदानेन विप्रेन्द्र दुर्गाप्रीतिर्भवेन्नृणाम् ।
हिंसाजन्यं न पापं च लभते यज्ञकर्मणि ॥ १० ॥
हे विप्रेन्द्र ! बलि प्रदान करने से दुर्गा जी प्रसन्न होती हैं और यज्ञ-कर्म में बलि करने से हिंसाजनित पाप का भागी भी मनुष्य नहीं होता है ॥ १० ॥

उत्सर्गकर्ता दाता च च्छेत्ता पोष्टा च रक्षकः ।
अग्रे पश्चान्निबद्धा च सप्तैतेऽवधकारिणः ॥ ११ ॥
(बलि प्रदान करने में) बलिपशु का उत्सर्ग (त्याग) करने वाला, उसका दाता, उसका वध करने वाला, उसका पालक, उसका रक्षक, आगे-पोछे से उसे बांधने वाला, ये सातों वध के भागी नहीं होते हैं ॥ ११ ॥

यो यं हन्ति स तं हन्ति नेति वेदोक्तमेव च ।
कुर्वन्ति वैष्णवीं पूजां वैष्णवास्तेन हेतुना ॥ १२ ॥
जो जिसका वध करता है, वह उसका वध करने वाला होता है, ऐसा वेद का कथन वहाँ लागू नहीं होता है । इसीलिए वैष्णव लोग वैष्णवी की पूजा करते हैं ॥ १२ ॥

एवं संपूज्य सुरथः पूर्णं वर्षं च भक्तितः ।
कवचं च गले बध्वा तुष्टाव परमेश्वरीम् ॥ १३ ॥
इस प्रकार राजा सुरथ ने पूरे वर्ष तक भक्तिपूर्वक देवी की अर्चना करके गले में कवच धारण किया और परमेश्वरी की स्तुति (आराधना) करना आरम्भ किया ॥ १३ ॥

स्तोत्रेण परितुष्टा सा तस्य साक्षाद्‌बभूव ह ।
स ददर्श पुरो देवीं ग्रीष्मसूर्यसमप्रभाम् ॥ १४ ॥
अनन्तर उस स्तोत्र से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया और उन्होंने अपने सामने स्थित देवी को ग्रीष्मकालीन सूर्य की भांति प्रभापूर्ण देखा ॥ १४ ॥

तेजस्वरूपां परमां सगुणां निर्गुणां वराम् ।
दृष्ट्‍वा तां कमनीयां च तेजोमण्डलमध्यतः ॥ १५ ॥
स्वेच्छामयीं कृपारूपां भक्तानुग्रहकारिणीम् ।
पुनस्तुष्टाव राजेन्द्रो भक्तिनम्रात्मकंधरः ॥ १६ ॥
तेजोमण्डल के मध्य में तेजस्स्वरूप, परम सगुणरूप, निर्गुण, श्रेष्ठ, कमनीय, स्वेच्छामयी, कृपारूप और भक्तों पर अनुग्रह करने वाली देवी की राजेन्द्र ने भक्ति से कन्धे झुकाकर पुनः स्तुति की ॥ १५-१६ ॥

स्तवेन परितुष्टा सा सस्मिता स्नेहपूर्वकम् ।
उवाच सत्यं राजेन्द्रं कृपया जगदम्बिका ॥ १७ ॥
उनको स्तुति से अति प्रसन्न होकर मन्द मुसुकान करती हुई जगदम्बिका ने राजेन्द्र सुरथ से स्नेह और कृपापूर्वक सत्य वचन कहा ॥ १७ ॥

प्रकृतिरुवाच
साक्षात्संप्राप्य मां राजन्वृणोषि विभवं वरम् ।
ददामि तुभ्यं विभवं सांप्रतं वाञ्छितं तव ॥ १८ ॥
दुर्गा बोलीं-हे राजन् ! मेग साक्षात् दर्शन प्राप्त कर यदि तुम ऐश्वर्य के अभिलाषी हो तो इसी समय मैं तुम्हें अभीष्ट ऐश्वर्य प्रदान करती हूँ ॥ १८ ॥

निर्जित्य सर्वाञ्छत्रूंश्च लब्ध्वा राज्यमकण्टकम् ।
भविष्यसि महाराज सावर्णिर्मनुरष्टमः ॥ १९ ॥
हे महाराज ! समस्त शत्रुओं पर विजय और निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति पूर्वक तुम अष्टम सावणि मनु भी होगे ॥ १९ ॥

दास्यामि तुभ्यं ज्ञानं च परिणामे नराधिप ।
भक्ति दास्यं च परमे श्रीकृष्णे परमात्मनि ॥ २० ॥
हे नराधिप ! मैं तुम्हें ज्ञान भी प्रदान कर रही हूँ, जिसके परिणामस्वरूप परमात्मा श्रीकृष्ण को दास्यभक्ति प्राप्त होगी ॥ २० ॥

वृणोति विभवं यो हि साक्षान्मां प्राप्य मन्दधीः ।
मायया वञ्चितः सोऽपि विषमत्त्यमृतं त्यजन् ॥ २१ ॥
क्योंकि जो मन्दबुद्धि प्राणी मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त कर ऐश्वर्य का अभिलापी होता है, वह माया द्वारा वञ्चित होकर अमृत को छोड़कर विष भक्षण करता है । ॥ २१ ॥

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं सर्वं नश्वरमेव च ।
नित्यं सत्यं परं ब्रह्म कृष्णं निर्गुणमेव च ॥ २२ ॥
ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी वस्तु नश्वर है, भगवान् श्रीकृष्ण ही केवल नित्य सत्य, परब्रह्म और निर्गुण हैं ॥ २२ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवादीनामहमाद्या परात्परा ।
सगुणा निर्गुणा चापि वरा स्वेच्छामयी सदा ॥ २३ ॥
इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवों की मैं आद्या, परात्परा, सगुणा, निर्गुणा, उत्तमा और सदा स्वेच्छामयी शक्ति हूँ ॥ २३ ॥

नित्यानित्या सर्वरूपा सर्वकारणकारणम् ।
बीजरूपा च सर्वेषां मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ २४ ॥
ईश्वरी, मूलप्रकृति, नित्य-अनित्य, समस्त रूप, सम्पूर्ण कारणों का कारण और सभी लोगों का बीजरूप हूँ ॥ २४ ॥

पुण्ये वृन्दावने रम्ये गोलोके रासमण्डले ।
राधा प्राणाधिकाऽहं च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ २५ ॥
पवित्र वृन्दावन में, गोलोक में तथा रासमण्डल में परमात्मा श्रीकृष्ण की प्राणों से अधिक प्रिया राधिका हूँ ॥ २५ ॥

अहं दुर्गा विष्णुमाया बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
अहं लक्ष्मीश्च वैकुण्ठे स्वयं देवो सरस्वती ॥ २६ ॥
सावित्री वेदमाताऽहं ब्रह्माणी ब्रह्मलोकतः ।
अहं गङ्‌गा च तुलसी सर्वाधारा वसुंधरा ॥ २७ ॥
मैं ही दुर्गा, विष्णमाया, वद्धि की अधिष्ठात्री देवो, वैकुण्ठ को लक्ष्मी, साक्षात् देवी, सरस्वती वेदमाता सावित्री, ब्रह्मलोक की ब्रह्माणी, गंगा, तुलसी और सबका आधार बसुन्धरा (पृथिवी) हूँ ॥ २६-२७ ॥

नानाविधाऽहं कलया मायया सर्वयोषितः ।
साहं कृष्णेन संसृष्टा नृप भ्रूभङ्‌गलीलया ॥ २८ ॥
भ्रूभङ्‌गलीलया सृष्टो येन पुंसा महान्विराट् ।
लोम्नां कूपेषु विश्वानि यस्य सन्ति हि नित्यशः ॥ २९ ॥
असंख्यानि च तान्येवकृत्रिमाणि च मायया ।
अनित्ये नित्यबुद्धिं च सर्वे कुर्वन्ति संततम् ॥ ३० ॥
मैं ही अनेक भाँति को कला और माया द्वारा समस्त स्त्रियों का स्वरूप है । है नप ! कृष्ण ने अपनी भूभंगलीला मात्र से ही मेरी रचना की है । क्योंकि जिस पुरुष ने भ्रूभगलोला मात्र से महाविराट को उत्पन्न किया, जिसके लोमकूपों में नित्य समस्त विश्व स्थित रहते हैं, वे वी कृत्रिम और असंख्य हैं और उसी अनित्य को सब लोग निरन्तर नित्य मानते हैं ॥ २८-३० ॥

सप्तसागरसंयुक्ता सप्तद्वीपा वसुंधरा ।
तदधः सप्तपातालाः स्वर्लोकाश्चैव सप्त च ॥ ३१ ॥
एवं विश्वं बहुविधं ब्रह्माण्डं ब्रह्मणा कृतम् ।
प्रत्येकं सर्वविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ३२ ॥
सातों सागरों और सातों द्वीपों समेत यह पृथिवी, उसके नीचे के पाताल आदि सात लोक और ऊपर वाले स्वर्ग आदि सात लोक, इस भौति अनेक प्रकार के विश्व (ब्रह्माण्ड) का निर्माण ब्रह्मा ने किया है । और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देव रहते हैं ॥ ३१-३२ ॥

सर्वेषामीश्वरः कृष्ण इति ज्ञानं परात्परम् ।
वेदानां च व्रतानां च तीर्थानां तपसां तथा ॥ ३३ ॥
देवानां चैव पुण्यानां सारः कृष्ण इति स्मृतः ।
तद्‌भक्तिहीनो यो मूढः स च जीवन्मृतो ध्रुवम् ॥ ३४ ॥
किन्तु सभी के ईश्वर भगवान् श्री कृष्ण हैं, यह परात्पर (अत्यन्त श्रेष्ठ) ज्ञान है । सभी वेद, व्रत, तीर्थ, तप, देव और पुण्य का सारभाग श्री कृष्ण माने गये हैं । इसीलिए जो उनकी भक्ति से बिहीन है, वह मूढ़ निश्चित जीवन्मृत है ॥ ३३-३४ ॥

पवित्राणि च तीर्थानि तद्‌भक्तस्पर्शवायुना ।
तन्मन्त्रोपासकश्चैव जीवन्मुक्त इति स्मृतः ॥ ३५ ॥
उनके भक्त के स्पर्श-वायु द्वारा तीर्थ पवित्र होते हैं और उनके मंत्र की उपासना करने वाला जीवन्मुक्त होता है ॥ ३५ ॥

मन्त्रग्रहणमात्रेण नरो नारायणो भवेत् ।
विना जपेन तपसा विना तीर्थेन पूजया ॥ ३६ ॥
क्योंकि उनके मंत्रग्रहण मात्र से मनुष्य जप, तप, तीर्थ और पूजा के बिना ही नारायण हो जाता है ॥ ३६ ॥

मातामहानां शतकं पितृणां च सहस्रकम् ।
पुंसामेव समुद्धृत्य गोलोकं च स गच्छति ॥ ३७ ॥
वह मातामह (नाना) की सौ पीढ़ियों और पिता की सहस्र पीढ़ियों का उद्धार कर स्वयं गोलोक चला जाता है ॥ ३७ ॥

इदं ज्ञानं सारभूतं कथितं ते नराधिप ।
मन्वन्तरान्ते भोगान्ते भक्तिं दास्यामि ते हरौ ॥ ३८ ॥
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ ३९ ॥
हे नराधिप ! समस्त का सारभूत यह ज्ञान मैंने तुम्हें बता दिया और एक मन्वन्तर तक भोग कर चुकने के अन्त में तुम्हें भगवान् की भक्ति प्रदान करूँगी । क्योंकि करोड़ों कल्प के बीत जाने पर भी कर्म बिना उपभोग किये नष्ट नहीं होता है, इसलिए शुभ-अशुभ कर्म का उपभोग अवश्य करना पड़ता है ॥ ३८-३९ ॥

अहं यमनुगृह्णामि तस्मै दास्यामि निर्मलाम् ।
निश्चलां सुदृढां भक्तिं श्रीकृष्णे परमात्मनि ॥ ४० ॥
करोमिवञ्चनां यं यं तेभ्यो दास्यामि संपदम् ।
प्रातः स्वप्नस्वरूपां च मिथ्येति भ्रमरूपिणीम् ॥ ४१ ॥
मैं जिस पर अनुग्रह करती हूँ, उसे परमात्मा श्रीकृष्ण की निर्मल, निश्चल और अतिदृढ़ भक्ति प्रदान करती हूँ । और जिसकी वञ्चना करती है, उसे सम्पत्ति प्रदान करती हूँ, जो प्रातःकालीन स्वप्न की भांति मिथ्या और भयावह होती है ॥ ४०-४१ ॥

इति ते कथितं ज्ञानं गच्छ वत्स यथासुखम् ।
इत्युक्त्वा च महादेवी तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४२ ॥
हे वत्स ! इस प्रकार तुम्हें ज्ञान बता दिया, अब यथासुख चले जाओ । इतना कहकर महादेवी उसी स्थान पर अन्तहित हो गयी ॥ ४२ ॥

राजा संप्राप्य राज्यं च नत्वा तां प्रययौ गृहम् ।
इति ते कथितं वत्स दुर्गोपाख्यानमुत्तमम् ॥ ४३ ॥
राजा भी राज्य प्राप्त कर देवी को नमस्कार करके अपने घर चला गया । हे वत्स ! इस प्रकार मैंने दुर्गा जी का परमोत्तम उपाख्यान तुम्हें सुना दिया ॥ ४३ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
दुर्गोपाख्याने दुर्गासुरथसंवादे ज्ञानकथनं
नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यान में प्रकृति-सुरथ-संवाद में ज्ञानकथन नामक पैसठवां अध्याय समाप्त ॥ ६५ ॥

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