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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षट्षष्टितमोऽध्यायः


दुर्गोपाख्याने दुर्गास्तोत्रम् -
दुर्गा का स्तोत्र -


नारद उवाच
श्रूतं सर्व नावशिष्टं किंचिदेव हि निश्चितम् ।
प्रकृतेः कवचं स्तोत्रं ब्रूहि मे मुनिसत्तम ॥ १ ॥
नारद बोले-हे मुनिश्रेष्ट ! मैंने सब सुन लिया, कुछ भी शेष नहीं है । अब प्रकृति का कवच और स्तोत्र मुझे बताने की कृपा कीजिये ॥ १ ॥

नारायण उवाच
पुरा स्तुता सा गोलोके कृष्णेन परमात्मना ।
संपूज्य मधुमासे च संप्रीते रासमण्डले ॥ २ ॥
मधुकैटभयोर्युद्धे द्वितीये विष्णुना पुरा ।
तत्रैव काले सा दुर्गा ब्रह्मणा प्राणसंकटे ॥ ३ ॥
चतुर्थे संस्तुता देवी भक्त्या च त्रिपुरारिणा ।
पुरा त्रिपुरयुद्धे च महाघोरतरे मुने ॥ ४ ॥
पञ्चमे संस्तुता देवी वृत्रासुरवधे तथा ।
शक्रेण सर्वदेवैश्च घोरे च प्राणसंकटे ॥ ५ ॥
तदा मुनीन्द्रैर्मनुभिर्मानवैः सुरथादिभिः ।
संस्तुता पूजिता सा च कल्पेकल्पे परात्परा ॥ ६ ॥
नारायण बोले—पूर्वकाल में गोलोक में परमात्मा श्रीकृष्ण ने प्रकृति की स्तुति की और पुन: चैत्रमास में रासमण्डल में अतिप्रेम से देवी की पूजा की । मधुकैटभ के युद्ध में विष्णु ने और उसी समय ब्रह्मा ने प्राणसंबट उपस्थित होने पर दुर्गा की आराधना की । चौथे समय हे मुने ! पूर्वकालीन त्रिपुरासुर के महाघोर युद्ध में त्रिपुरारि (शिव) ने भक्तिपूर्वक दुर्गा देवी की अर्चना की । पांचवीं बार वृत्रासुर के वध में इन्द्र ने घोर प्राणसंकट उपस्थित होने पर देवों समेत देवी की अर्चना की । तब मुनिवृन्द, मनुवृन्द और राजा सुरथ आदि मनुष्यों ने देवी की स्तुति-पूजा की । इस प्रकार प्रत्येक कल्प में वह परात्परा देवी स्तुत और पूजित हुई हैं ॥ २-६ ॥

स्तोत्रं च श्रूयतां ब्रह्मन्सर्वविघ्नविनाशकम् ।
सुखदं मोक्षदं सारं भवसंतारकारणम् ॥ ७ ॥
हे ब्रह्मन् ! अब मैं तुम्हें समस्त विधनों का नाशक स्तोत्र बता रहा हूँ, जो सुख और मोक्ष देने वाला, तत्स्वरूप और संसार से पार करने का कारण है, सुनो ॥ ७ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
त्वमेवाऽऽद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका ॥ ८ ॥
श्रीकृष्ण बोले----तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति एवं ईश्वरी हो । सृष्टि-विधान में तुम्ही आद्या शक्ति तथा स्वेच्छया त्रिगुण स्वरूप वाली हो ॥ ८ ॥

कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम् ।
परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी ॥ ९ ॥
कार्य के लिए तुम सगुण हो और वस्तुतः स्वयं निर्गुण हो । तुम परब्रह्मस्वरूप, सत्य, अनित्य एवं सनातनी हो ॥ ९ ॥

तेजः स्वरूपा परमा भक्तानुग्रहविग्रहा ।
सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा ॥ १० ॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया ।
सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्‌गलमङ्‌गला ॥ ११ ॥
तेजःस्वरूप, परमोत्तम, भक्तों के अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाली, भवका स्वरूप, सब की अधीश्वरी, सब का आधार, परात्परा, सब का बीज रूप, सब की पूज्या, निराधया, सर्वज्ञानवाली, पर्वतोभद्ररूप और समस्त मंगलों का मंगल हो ॥ १०-११ ॥

सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी ॥ १२ ॥
समस्त बुद्धि स्वरूप, समस्त शक्ति स्वरूप, समस्त जन को प्रदायिनी, देवी, सर्वज्ञा और सर्वभाविनी हो ॥ १२ ॥

त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम् ।
दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ॥ १३ ॥
तुम ही देवों के दान में स्वाहा, पितरों के दान में स्वधा, समस्त दान में दक्षिणा और सबकी शक्ति स्वरूप हो ॥ १३ ॥

निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चाऽत्मनः प्रिया ।
क्षुत्क्षान्तिः शान्तिरीशा च कान्तिस्तुष्टिश्च शाश्वती ॥ १४ ॥
श्रद्धापुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा प्रभा तथा ।
सतां संपत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह ॥ १५ ॥
निद्रा, दया, तृष्णा, आत्मप्रिया, क्षुधा की शान्ति, शान्ति, ईशा, कान्ति तथा शाश्वत शान्ति हो । श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा, प्रभा और सज्जनों की सम्पत्ति एवं असज्जनों की विपत्ति रूपा हो ॥ १४-१५ ॥

प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा ।
शश्वत्कर्ममयो शक्तिः सर्वदा सर्वजीविनाम् ॥ १६ ॥
देवेभ्यः स्वपदं दात्री धातुर्धात्री कृपामयी ।
हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी ॥ १७ ॥
पुण्यवानों की प्रीति, पापियों का कलहवीज तथा समस्त जीवों की निरन्तर कर्ममयी शक्ति हो । देवों को उनके पद देने वाली, ब्रह्मा की कृपामयी धात्री तथा समस्त देवों के हितार्थ नमस्त दैत्यों की विनाशिनी हो ॥ १६-१७ ॥

योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम् ।
सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धयोगिनी ॥ १८ ॥
योगियों की योगनिद्रा, योगरूप, योगियों को योग देने वाली, सिद्धिस्वरूप, सिद्धों को सिद्धि देने वाली तथा सिद्धयोगिनी हो ॥ १८ ॥

माहेश्वरी च ब्रह्माणी विष्णुमाया च वैष्णवी ।
भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी ॥ १९ ॥
तुम ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णु की माया, वैष्णवी, भद्र (कल्याण) प्रदा, भद्रकाली तथा समस्त लोकों के लिए भयंकरी हो ॥ १९ ॥

ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे ।
सतां कीर्तिः प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा ॥ २० ॥
गाँवों की ग्रामदेवी, घरों की गृहदेवी, सज्जनों की कीर्ति, प्रतिष्ठा और असज्जनों की निन्दा रूप हो ॥ २० ॥

महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी ।
रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी ॥ २१ ॥
महायुद्ध में महामारी रूप, दुष्टों का संहार करने वाली, शिष्टों (सज्जनों) की रक्षा रूप और माता की भाँति हितैषिणी हो ॥ २१ ॥

वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा ।
ब्रह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम् ॥ २२ ॥
विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम् ।
मेधा स्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम् ॥ २३ ॥
और सदा ब्रह्मा आदि देवों की वन्द्या, पूज्या एवं स्तुत्य हो, ब्राह्मणों का ब्राह्मण्यरूप और तपस्वियों की तपस्या हो । विद्यावानों की विद्या, बद्धिमानों की बुद्धि, सज्जनों की मेधा और प्रतिभाशालियों की स्मृति तथा प्रतिभा हो ॥ २२-२३ ॥

राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी ।
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने ॥ २४ ॥
तथाऽन्ते त्वं महामारी विश्वे विश्वैश्च पूजिते ।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी ॥ २५ ॥
राजाओं का प्रताप, व्यापारियों का व्यापार, सृष्टि में सृष्टिरूप, पालन में रक्षा रूप तथा अन्त में महामारी हो । विश्व में समस्त लोगों से पूजित हो । कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि और मोहिनी हो ॥ २४-२५ ॥

दुरत्यया मे माया त्वं यया संमोहितं जगत् ।
यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्गं न पश्यति ॥ २६ ॥
तुम हमारी दुस्तर माया हो, जिससे सारा जगत् मोहित है और जिससे मुग्ध होकर विद्वान् लोग भी मोक्ष नहीं देखते हैं ॥ २६ ॥

इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम् ।
पूजाकाले पठेद्यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्छिता ॥ २७ ॥
यह अपना बनाया हुआ दुर्गा जी का दुर्गनाशक स्तोत्र पूजा के समय जो पढ़ेगा, उसे अभिलषित सिद्धि मिलेगी ॥ २७ ॥

वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा ।
श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते ध्रुवम् ॥ २८ ॥
वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा एवं दुर्भगा स्त्री एक वर्ष तक इसके सुनने से उत्तम पुत्र को निश्चित प्राप्त करती है ॥ २८ ॥

कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने ।
श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम् ॥ २९ ॥
महाघोर कारागृह (जेल) में जो दृढ़ बन्धनों (हथकड़ी-बेड़ी) से जकड़ा हुआ पड़ा हो, वह एक मास तक इस स्तोत्र के सुनने से निश्चित बन्धन-मुक्त हो जाता है । ॥ २९ ॥

यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठो महाशूली महाज्वरी ।
श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात्प्रमुच्यते ॥ ३० ॥
यक्ष्मा का रोगी, गलत्कुष्ठ का रोगी, महाशूली तथा महाज्वरग्रस्त व्यक्ति एक वर्ष तक इसे सुनने से तुरन्त रोगमुक्त हो जाता है ॥ ३० ॥

पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्‍नीभेदे च दुर्गतः ।
श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशयः ॥ ३१ ॥
पुत्र, प्रजा और पत्नी से भेद (द्वेष) होने पर एक मास तक इस स्तोत्र के सुनने से वह द्वेष निश्चित नष्ट हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ ३१ ॥

राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले ।
हिंस्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते ॥ ३२ ॥
राजदरबार, श्मशान, घोर वन, युद्धस्थल और हिंसक जन्तुओं के समीप इसे सुनने से मनुष्य भयमक्त हो जाता है । ॥ ३२ ॥

गृहदाहे च दावाग्नौ दस्युसैन्यसमन्विते ।
स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशयः ॥ ३३ ॥
गृह के जलते समय, दावाग्नि में और चोरों-डाकुओं की सेनाओं से घिर जाने पर इस स्तोत्र के सुनने मात्र से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ ३३ ॥

महादरिद्रो मूर्खश्च वर्षं स्तोत्रं पठेत्तु यः ।
विद्यावान्धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशयः ॥ ३४ ॥
महादरिद्र एवं महामूर्ख एक वर्ष तक पाठ करने पर विद्या और धन से सुसम्पन्न हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ ३४ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने
दुर्गास्तोत्रं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यान में दुर्गास्तोत्र कथन नामक छाछठवां अध्याय समाप्त ॥ ६६ ॥

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