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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तषष्टितमोऽध्यायः


दुर्गोपाख्याने ब्रह्माण्डमोहनकवचम् -
ब्रह्माण्डमोहनकवच -


नारद उवाच
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वज्ञानविशारद ।
ब्रह्माण्डमोहनं नाम प्रकृतेः कवचं वद ॥ १ ॥
नारद बोले- हे भगवन् ! समस्त धर्मों के ज्ञाता ! और समस्त ज्ञान में निपुण ! प्रकृति का ब्रह्माण्डमोहन नामक कवच बतायें ॥ १ ॥

नारायण उवाच
शृणु वक्ष्यामि हे वत्स कवचं च सुदुर्लभम् ।
श्रीकृष्णेनैव कथितं कृपया ब्रह्मणे पुरा ॥ २ ॥
नारायण बोले- हे वत्स ! सुनो, अति दुर्लभ कवच मैं कह रहा हूँ, जिसे पूर्वकाल में भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा को कृपया बताया था ॥ २ ॥

ब्रह्मणा कथितं पूर्वं धर्माय जाह्नवीतटे ।
धर्मेण दत्तं मह्यं च कृपया पुष्करे पुरा ॥ ३ ॥
पूर्वकाल में ब्रह्मा ने गंगा-तट पर धर्म से कहा और धर्म ने कृपापूर्वक पुष्कर में मुझसे कहा ॥ ३ ॥

त्रिपुरारिश्च यद्धृत्वा जघान त्रिपुरं पुरा ।
मुमोच धाता यद्धृत्वा मधुकैटभयोर्भयम् ॥ ४ ॥
जिसे पूर्व समय त्रिपुरारि (शिव) ने धारण कर त्रिपुरासुर का वध किया, जिसे धारण कर ब्रह्मा मधुकैटभ-जनित भय से मुक्त हुए, जिसे धारण कर भद्रकाली ने रक्तबीज का हनन किया ॥ ४ ॥

जघान रक्तबीजं तं यद्धृत्वा भद्रकालिका ।
यद्धृत्वा तु महेन्द्रश्च संप्राप कमलालयाम् ॥ ५ ॥
यद्धृत्वा च महाकालश्चिरजीवी च धार्मिकः ।
यद्धृत्वा च महाज्ञानी नन्दी सानन्दपूर्वकम् ॥ ६ ॥
जिसे धारण कर महेन्द्र ने कमला (लक्ष्मी) की प्राप्ति की । जिसे धारण कर महाकाल धार्मिक एवं चिरजीवी हुए । जिसे धारण कर नन्दी आनन्दपूर्वक महाज्ञानी हो गया ॥ ५-६ ॥

यद्धृत्वा च महायोद्धा रामः शत्रुभयंकरः ।
यद्धृत्वा शिवतुल्यश्च दुर्वासा ज्ञानिनां वरः ॥ ७ ॥
जिसे धारण कर राम (परशुराम) शत्रु के लिए भयंकर महायोद्धा हुए और जिसे धारण कर दुर्वासा ज्ञानियों में श्रेष्ठ एवं शिव के तुल्य हुए ॥ ७ ॥

ॐ दुर्गेति चतुर्थ्यन्तः स्वाहान्तो मे शिरोऽवतु ।
मन्त्रः षडक्षरोऽयं च भक्तानां कल्पपादपः ॥ ८ ॥
विचारो नास्ति वेदेषु ग्रहणेऽस्य मनोर्मुने ।
मन्त्रग्रहणमात्रेण विष्णुतुल्यो भवेन्नरः ॥ ९ ॥
'ओं दुर्गायै स्वाहा' भक्तों के लिए कल्पवृक्ष रूप यह षडक्षर मंत्र मेरे शिर की रक्षा करे । हे मुने ! इम मन्त्र ग्रहण के विषय में वेदों में कोई विचार नहीं किया गया है । मन्त्र ग्रहण-मात्र से ही मनुष्य विष्णु के तुल्य हो जाता है ॥ ८-९ ॥

मम वक्त्रं सदा पातु चों दुर्गायै नमोन्ततः ।
ॐदुर्गे रक्षयति च कण्ठं पातु सदा मम ॥ १० ॥
'ओं दुर्गायै नमः' यह मंत्र मेरे मुख की सदा रक्षा करे । ओं दुर्गे मेरे कण्ठ की सदा रक्षा करे ॥ १० ॥

ॐ ह्रीं श्रीमिति मन्त्रोऽयं स्कन्धं पातु निरन्तरम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति पृष्ठं पातु मे सर्वतः सदा ॥ ११ ॥
'ओं ह्रीं श्रीं' यह मंत्र मेरे कन्धे की निरन्तर रक्षा करे । 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं' यह मंत्र मेरे पृष्ठ भाग की सदा रक्षा करे ॥ ११ ॥

ह्रीं मे वक्षःस्थलं पातु हस्तं श्रीमिति संततम् ।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सर्वाङ्‌गं स्वप्ने जागरणे तथा ॥ १२ ॥
ह्रीं मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे, 'श्री' निरन्तर हाथ की रक्षा करे । 'ओं श्रीं ह्रीं क्लीं' यह मंत्र स्वप्न और जागरण अवस्था में सर्वांग की रक्षा करे ॥ १२ ॥

प्राच्यां मां प्रकृतिः पातुः पातु वह्नौ च चण्डिका ।
दक्षिणे भद्रकाली च नैर्ऋत्यां च महेश्वरी ॥ १३ ॥
वारुण्यां पातु वाराही वायव्यां सर्वमङ्‌गला ।
उत्तरे वैष्णवी पातु तथैशान्यां शिवप्रिया ॥ १४ ॥
पूर्व की ओर मुझे प्रकृति रक्षित रखे, अग्निकोण की ओर चण्डिका रक्षा करे । दक्षिण की ओर भद्रकाली, नैत्य में महेश्वरी, पश्चिम की ओर वाराही रक्षा करे, वायव्य की ओर सर्वमंगला, उत्तर की ओर वैष्णवी रक्षा करे, ईशान की ओर शिवप्रिया रक्षा करे ॥ १३-१४ ॥

जले स्थले चान्तरिक्षे पातु मां जगदम्बिका ।
इति ते कथितं वत्स कवचं च सुदुर्लभम् ॥ १५ ॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः ॥ १६ ॥
कवचं धारयेद्यस्तु सोऽपि विष्णुर्न संशयः ।
तथा जल, स्थल और अन्तरिक्ष (आकाश) में जगदम्बिका मेरी रक्षा करे । हे वत्स ! इस प्रकार मैंने अति दुर्लभ कवच तुम्हें बता दिया, इसे जिस किसी को नहीं देना चाहिए और न किसी से कहना ही चाहिए । वस्त्रअलंकार द्वारा गुरु की सविधान अर्चना करके जो इस कवच को धारण करता है, वह भी विष्णु हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ १५-१६.५ ॥

स्नाने च सर्वतीर्थानां पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे ॥ १७ ॥
यत्फलं लभते लोकस्तदेतद्धारणान्मुने ।
हे मुने ! समस्त तीर्थों की यात्रा और पृथिवी की प्रदक्षिणा करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह इसके धारण मात्र से प्राप्त होता है ॥ १७.५ ॥

पञ्जलक्षजपेनैव सिद्धमेतद्‌भवेद्ध्रुवम् ॥ १८ ॥
लोके च सिद्धकवचं नास्त्रं विध्यति संकटे ।
न तस्य मृत्युर्भवति जले वह्नौ विषे ज्वरे ॥ १९ ॥
पाँच लाख जप करने से यह निश्चित सिद्ध हो जाता है । लोक में कवच सिद्ध हो जाने पर संकट के समय अस्त्र वेध नहीं करता है । जल में अग्नि में, विष से या ज्वर से उसकी मृत्यु नहीं होती है ॥ १८-१९ ॥

जीवन्मुक्तो भवेत्सोऽपि सर्वसिद्धेश्वरेश्वरः ।
यदि स्यासिद्धकवचो विष्णुतुल्यो भवेद्ध्रुवम् ॥ २० ॥
वह सर्वसिद्धेश्वर होकर जीवन्मुक्त हो जाता है मनुष्य यदि सिद्धकवच हो जाता है, तो वह निश्चित भगवान् विष्णु के तुल्य होता है ॥ २० ॥

कथितं प्रकृतेः खण्डं सुधाखण्डात्परं मुने ।
या चैव मूलप्रकृतिर्यस्याः पुत्रो गणेश्वरः ॥ २१ ॥
कृत्वा कृष्णव्रतं सा च लेभे गणपतिं सृतम् ।
स्वांशेन कृष्णो भगवान्बभूव च गणेश्वरः ॥ २२ ॥
हे मुने ! इस प्रकार मैंने सुधाखण्ड से भी उत्तम यह प्रकृतिखण्ड कह कर तुम्हें सुना दिया । जो मूल प्रकृति है एवं जिसके पुत्र गणेश्वर हुए हैं, उसी प्रकृति ने भगवान् श्रीकृष्ण का व्रत सुसम्पन्न कर गणपति को पुत्र रूप में प्राप्त किया है और भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने अंश द्वारा गणेश्वर हुए हैं ॥ २१-२२ ॥

श्रुत्वा च प्रकृतेः खण्डं सुश्राव्यं च सुधोपमम् ।
भोजयित्वा च दध्यन्नं तस्मै दद्याच्च काञ्चनम् ॥ २३ ॥
इस प्रकार अच्छी तरह सुनाने योग्य और अमृत के समान मधुर प्रकृतिखण्ड का श्रवण कर, ब्राह्मण को दही अन्न भोजन कराये और सुवर्ण की दक्षिणा प्रदान करे ॥ २३ ॥

सवत्सां सुरभिं रम्यां दद्याद्वै भक्तिपूर्वकम् ।
वासोऽलंकाररत्‍नैश्च तोषयेद्वाचकं मुने ॥ २४ ॥
पुष्पालंकारवसनैरुपहारगणैस्तथा ।
पुस्तकं पूजयेदेवं भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥ २५ ॥
तथा भक्तिपूर्वक सवत्सा गौ भी प्रदान करे । हे मुने ! वस्त्र, अलंकार और रत्नों आदि से वाचक' को प्रसन्न करे, पुष्प, अलंकार, वस्त्र रूप उपहार भी समर्पित करे । इसी भांति भक्ति-श्रद्धा समेत पुस्तक की भी पूजा करे ॥ २४-२५ ॥

एवं कृत्वा यः शृणोति तस्य विष्णुः प्रसीदति ।
वर्धते पुत्रपौत्रादिर्यशस्वी तत्प्रसादतः ॥ २६ ॥
लक्ष्मीर्वसति तद्‌गेहे ह्यन्ते गोलोकमाप्नुयात् ।
लभेत्कृष्णस्य दास्यं स भक्तिं कृष्णेसुनिश्चलाम् ॥ २७ ॥
इस प्रकार जो इसका श्रवण करता है, उस पर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । उनके प्रसाद से पुत्र-पौत्र समेत उस यशस्वी की वृद्धि होती है, उसके घर लक्ष्मी निवास करती है और और अन्त में वह गोलोक जाकर भगवान् श्रीकृष्ण की अति निश्चल दास्य भक्ति प्राप्त करता है ॥ २६-२७ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने
ब्रह्माण्डमोहनकवचं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥
समाप्तमिदं श्रीमद्‌ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गोपाख्यान में ब्रह्माण्डमोहनकवचवर्णननामक सरसठवां अध्याय समाप्त ॥ ६७ ॥

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