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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - प्रथमोऽध्यायः स्कन्दजन्मप्रसङ्गः -
पार्वती की उत्पत्ति और उनसे कार्तिकेय का जन्म - नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥ नृश्रेष्सेठ नारायण, वाग्देवी सरस्वती एवं व्यास जी को नमस्कार कर के जय शब्दोच्चारण पूर्वक पुराणादि का कथन (कथन-श्रवण) करना चाहिए ॥ १ ॥ नारद उवाच श्रुतं प्रकृतिखण्डं तदमृतार्णवमुत्तमम् । सर्वोत्कृष्टमभीष्टं च मूढानां ज्ञानवर्धनम् ॥ २ ॥ अधूना श्रीगणेशस्य खण्डं श्रोतुमिहाऽऽगतः । तज्जन्मचरितं नृणां सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ ३ ॥ कथं जज्ञे सुरश्रेष्ठः पार्वत्या उदरे शुभे । देवी केन प्रकारेण चालभत्तादृशं सुतम् ॥ ४ ॥ स चांशः कस्य देवस्य कथं जन्म ललाभ सः । अयोनिसंभवः किंवा किंवाऽसौ योनिसंभवः ॥ ५ ॥ नारद बोले-अमत-सागर के समान उत्तम प्रकृतिखण्ड मैंने सुन लिया, जो सबसे उत्कृष्ट, अभीष्ट और मूढ़ों का ज्ञानवर्द्धक है । इस समय मैं श्री गणेशखण्ड सुनना चाहता हूँ, क्योंकि उनका जन्म मनुष्यों के समस्त मंगलों का मंगल रूप है । वह सुरश्रेष्ठ पार्वती जी के शुभ उदर से कैसे उत्पन्न हुए ? देवी ने किस उपाय से उस प्रकार का पत्र प्राप्त किया? वह किस देव का अंश है, कैसे उन्होंने जन्म ग्रहण किया । वे अयोनिज (योनि से न उत्पन्न होने वाले) हैं या योनि से उत्पन्न हुए हैं ॥ २-५ ॥ किंवा तद्ब्रह्मतेजो वा किं तस्य च पराक्रमः । का तपस्या च किं ज्ञानं किंवा तन्निर्मलं यशः ॥ ६ ॥ कथं तस्य पुरः पूजा विश्वेषु निखिलेषु च । स्थिते नारायणे शंभौ जगदीशे च धातरि ॥ ७ ॥ पुराणेषु निगूढं च तज्जन्म परिकीर्तितम् । कथं वा गजवक्त्रोऽयमेकदन्तो महोदरः ॥ ८ ॥ एतत्सर्वं समाचक्ष्व श्रोतुं कौतूहलं मम । सुविस्तीर्णं महाभाग तदतीव मनोहरम् ॥ ९ ॥ उनका ब्रह्मतेज, उनका पराक्रम, तपस्या, ज्ञान और निर्मल यश कैसा है ? समस्त विश्व में जगदीश नारायण, शम्भु और ब्रह्मा के रहते सव से पहले उन्हीं की पूजा क्यों होती है ? पुराणों में उनका जन्म अति निगूड़ बताया गया है । उनके, हाथी का मुख, एक दाँत और महान् उदर कैसे हुए? हे महाभाग ! यह अतिविस्तार से बताने की कृपा कीजिये, क्योंकि यह अत्यन्त मनोहर है और इसे सुनने के लिए मुझे महान् कौतूहल हो रहा है ॥ ६-९ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् । पापसंतापहरणं सर्वविघ्नविनाशनम् ॥ १० ॥ सर्वमङ्गलदं सारं सर्वश्रुतिमनोहरम् । सुखदं मोक्षबीजं च पापमूलनिकृन्तनम् ॥ ११ ॥ नारायण बोले-हे नारद ! सुनो, इस परम अद्भुत रहस्य को मैं बता रहा हूं, जो पापरूपी सन्ताप का अपहरण करने वाला, समस्त विघ्नों का नाशक, समस्तमंगलप्रद, सबका सारभाग, सबको सुनने में मनोहर, सुखदायक, मोक्ष का कारण तथा पापमूल का नाशक है ॥ १०-११ ॥ दैत्यार्दितानां देवानां तेजोराशिसमुद्भवा । देवी संहत्य दैत्यौघान्दक्षकन्या बभूव ह ॥ १२ ॥ दैत्यों द्वारा संतप्त देवों की तेजोराशि से प्रकट होकर देवी ने दैत्यों का संहार करने के उपरान्त दक्ष के यहाँ कन्या होकर जन्म ग्रहण किया ॥ १२ ॥ सा च नाम्ना सती देवी स्वामिनो निन्दया पुरा । देहं संत्यज्य योगेन जाता शैलप्रियोदरे ॥ १३ ॥ वहां उनका नाम सती हुआ । फिर पूर्वकाल में स्वामी (शिव) की निन्दा के कारण उन्होंने योगद्वारा शरीर त्याग कर हिमालय की पत्नी मेना के उदर से जन्म ग्रहण किया ॥ १३ ॥ शंकराय ददौ तां च पार्वतीं पर्वतो मुदा । तां गृहीत्वा महादेवो जगाम विजनं वनम् ॥ १४ ॥ पर्वतराज हिमवान् ने प्रसन्नतापूर्वक पार्वती शिव को समर्पित कर दी और महादेव उन्हें लेकर निर्जन वन में चले गये ॥ १४ ॥ शय्यां रतिकरीं कृत्वा पुष्पचन्दनचर्चिताम् । स रेमे नर्मदातीरे पुष्पोद्याने तया सह ॥ १५ ॥ नर्मदा के तट पर पुष्पवाटिका में रति के उपयुक्त पुष्प-चन्दन-चचित शय्या का निर्माण कर शिव पार्वती के साथ रमण करने लगे ॥ १५ ॥ सहस्रवर्षपर्यन्तं दैवमानेन नारद । तयोर्बभूव शृङ्गारो विपरीतादिको महान् ॥ १६ ॥ हे नारद ! देवों के दिव्य वर्ष से एक सहस्र वर्ष तक वे वहाँ विपरीत आदि महान् श्रृंगार (रति) करने में जुटे रहे । ॥ १६ ॥ दुर्गाङ्गस्पर्शमात्रेण मदनान्मूर्छितः शिवः । मूर्च्छिता सा शिवस्पर्शाद्बुबुधे न दिवानिशम् ॥ १७ ॥ दुर्गा (पार्वती) के अंगों के स्पर्श मात्र से ही शिव काम-मूच्छित हो गए और पार्वती भी शिव के अंगस्पर्श से मूच्छित हो गयीं । उस समय उन्हें दिनरात का ज्ञान नहीं रहा ॥ १७ ॥ हंसकारण्डवाकीर्णे पुंस्कोकिलरुताकुले । नानापुष्पविकासाढ्ये भ्रमरध्वनिगुञ्जिते ॥ १८ ॥ सुगन्धिकुसुमाश्लेषिवायूना सुरभीकृते । अतीव सुखदे रम्ये सर्वजन्तुविवर्जिते ॥ १९ ॥ दृष्ट्वातयोस्तच्छ्रुङ्गारं चिन्तां प्रापुः सुराः पराम् । ब्रह्माणं च पुरस्कृत्य ययुर्नारायणान्तिकम् ॥ २० ॥ हंस और कारण्डव (बत्तख) पक्षियों से व्याप्त नर कोकिल की ध्वनि से निनादित, अनेक भांति के विकसित पुष्पों से सुशोभित, भौंरों के गुंजार से गुंजित एवं सुगन्धित पुष्पों से सम्पृक्त वायु द्वारा सुगन्धित, अति सुखदायक, रमणीय और समस्त जीव-जन्तुओं से शून्य स्थान में उन दोनों का श्रृंगार-विहार देखकर देवों को बड़ी चिन्ता हुई । वे लोग ब्रह्मा को आगे करके नारायण (विष्णु) के यहाँ गये ॥ १८-२० ॥ तं नत्वा कथयामास ब्रह्मा वृत्तान्तमीप्सितम् । संतस्थुर्देवताः सर्वाश्चित्रपुत्तलिका यथा ॥ २१ ॥ ब्रह्मा ने उन्हें नमस्कार कर अभीष्ट समाचार कह सुनाया और देवता लोग कठपुतली की भांति खड़े रहे ॥ २१ ॥ ब्रह्मोवाच सहस्रवर्षपर्यन्तं दैवमानेन शंकरः । रतौ रतश्च निश्चेष्टो न योगी विररामह ॥ २२ ॥ ब्रह्मा बोले-सहस्र दिव्य वर्ष पर्यन्त शंकर रति-क्रीड़ा में लगकर निश्चेष्ट हो गये हैं । वे योगी (मैथुन से) विराम नहीं कर रहे हैं ॥ २२ ॥ मैथुनस्य विरामे च दम्पत्योर्जगदीश्वर । किंभूतं भविताऽपत्यं तन्नः कथितुमर्हसि ॥ २३ ॥ हे जगदीश्वर ! उन दोनों दम्पति के मैथुन का अवसान होने पर कैसी सन्तान उत्पन्न होगी, मुझे बताने की कृपा करें ॥ २३ ॥ श्रीभगवानुवाच चिन्ता नास्ति जगद्धातः सर्वं भद्रं भविष्यति । मयि ये शरणापन्नास्तेषां दुःखं कुतो विधे ॥ २४ ॥ श्री भगवान् बोले-हे जगत् के धाता ! हे विधे ! इस बात की चिन्ता न करो, सब कुछ अच्छा ही होगा । क्योंकि जो मेरी शरण में आते हैं, उन्हें दुःख कैसे हो सकता है ? ॥ २४ ॥ येनोपायेन तद्वीर्यं भूमौ पतति निश्चितम् । तत्कुरुष्व प्रयत्नेन सार्धं देवगणेन च ॥ २५ ॥ जिस किसी उपाय से शिव का वीर्य पृथ्वी पर गिर जाये, वही प्रयत्नपूर्वक देवों को साथ लेकर करो ॥ २५ ॥ यदा च शंभोर्वीर्यं तत्पार्वत्या उदरे पतेत् । ततोऽपत्यं च भविता सुरासुरविमर्दकम् ॥ २६ ॥ क्योंकि शिव का वीर्य यदि पार्वती के उदर में पड़ेगा, तो देवों, और राक्षसों का नाश करने वाला पुत्र उत्पन्न होगा ॥ २६ ॥ ततः शक्रादयः सर्वे सुरा नारायणाज्ञया । प्रययुर्नर्मदातीरं ययौ ब्रह्मा निजालयम् ॥ २७ ॥ अनन्तर इन्द्र आदि देवगण नारायण की आज्ञा से नर्मदा के तट पर पहुंचे और ब्रह्मा अपने निवास को गये ॥ २७ ॥ तत्रैव पर्वतद्रोणीबहिर्देशे सुराः पराः । विषण्णवदनाः सर्वे बभूवुर्भयकातराः ॥ २८ ॥ वहां पर्वतों की घाटी के बाहर ही देवगण अति खिन्न मन और भय से कातर होकर अवस्थित हुए ॥ २८ ॥ शक्रः कुबेरमवदत्कुबेरो वरुणं तथा । समीरणं च वरुणो यमं चैव समीरणः ॥ २९ ॥ हुताशनं यमश्चैव भास्करं च हुताशनः । चन्द्रं तथा भास्करश्च त्वीशानं चन्द्र एव च ॥ ३० ॥ पश्चात् इन्द्र ने कुबेर से कहा और कुबेर ने वरुण से, वरुण ने वायु से, वायु ने यम से, यम ने अग्नि से, अग्नि ने सूर्य से, सूर्य ने चन्द्रमा से और चन्द्र ने ईशान से कहा ॥ २९-३० ॥ एवं देवाः प्रेरयन्ति देवांश्च रतिभञ्जने । हरशृङ्गारभङ्गं च कुर्वित्युक्त्वा परस्परम् ॥ ३१ ॥ इस मांति देवों ने शंकर की रति भंग करने के लिए आपस में एक-दूसरे से कह रहे थे कि 'तुम शिव की रति-क्रीड़ा भंग करो । ' ॥ ३१ ॥ द्वारि स्थितो वक्रशिराः शक्रः प्राह महेश्वरम् ॥ ३२ ॥ इन्द्र ने द्वार पर खड़े होकर शिर दूसरी ओर घुमाये, महेश्वर से कहा ॥ ३२ ॥ इन्द्र उवाच किं करोषि महादेव योगीश्वर नमोऽस्तु ते । जगदीश जगद्बीज भक्तानां भयभञ्जन ॥ ३३ ॥ हरिर्जगामेत्युक्त्वा तमाजगाम च भास्करः । उवाच भीतो द्वारस्थो भयार्तो वक्रचक्षुषा ॥ ३४ ॥ सूर्य उवाच किं करोषि महादेव जगतां परिपालक । सुरश्रेष्ठ महाभाग पार्वतीश नमोऽस्तु ते ॥ ३५ ॥ इत्येवमुक्त्वा श्रीसूर्यः स जगाम भयात्ततः । आजगाम तथा चन्द्र अवोचद्वक्रकंधरः ॥ ३६ ॥ इन्द्र बोले-हे महादेव ! हे योगीश्वर ! आपको नमस्कार है । हे जगदीश ! हे जगत् के कारण ! हे भक्तों का भय दूर करने वाले ! आप यह क्या कर रहे हैं । इन्द्र इतना कह कर चले गये । पश्चात् भास्कर (सूर्य) ने द्वार पर खड़े होकर भय से पीडित हो नेत्र दूसरी ओर किए कहा सर्य बोले हे महादेव ! हे जगत का पालन करने वाले ! हे सुरश्रेष्ठ ! हे महाभाग ! हे पार्वतीपते ! आपको नमस्कार है । आप यह क्या कर रहे हैं ? इतना कह कर सूर्य भय वश वहाँ से चले गये । अनन्तर चन्द्रमा आये और कन्धे को दूसरी ओर मोड़कर कहने लगे ॥ ३३-३६ ॥ चन्द्र उवाच किं करोषि त्रिलोकेश त्रिलोचन नमोऽस्तु ते । स्वात्माराम स्वयंपूर्ण पुण्यश्रवणकीर्तन ॥ ३७ ॥ चन्द्र बोले-हे तीनों लोकों के अधीश्वर ! हे त्रिलोचन ! तुम्हें नमस्कार है । हे आत्मा में रमण करने वाले ! हे अपने आप में पूर्ण ! हे कानों के लिए पवित्रकारक कीर्तन वाले ! आप यह क्या कर रहे हैं ॥ ३७ ॥ इत्येवमुक्त्वा भीतश्च विरराम निशापतिः । समीरणोऽपि द्वारस्थः संवीक्ष्योवाच सादरम् ॥ ३८ ॥ इतना कह कर रात्रिपति (चन्द्रमा) भय के मारे चुप हो गए । उपरान्त वायु द्वार पर स्थित होकर सादर कहने लगे ॥ ३८ ॥ पवन उवाच किं करोषि जगन्नाथ जगद्बन्धो नमोऽस्तु ते । धर्मार्थकाममोक्षाणां बीजरूप सनातन ॥ ३९ ॥ पवन बोले-हे जगन्नाथ ! हे जगत के बन्धो ! आपको नमस्कार है आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के बीज एवं सनातन हैं । यह क्या कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ इत्येवं स्तवनं भूत्वा योगज्ञानविशारदः । त्यक्तुकामो न तत्याज शृङ्गारं पार्वतीभयात् ॥ ४० ॥ योग-ज्ञान में निपुण शिव जी इन स्तुतियों को सुन कर श्रृंगार का त्याग करना चाहते हुए भी पार्वती जी के भय से त्याग न कर सके ॥ ४० ॥ दृष्टा सुरान्भयार्तांश्च पुनः स्तोतुं समुद्यतान् । विजहौ सुखसंभोगं कण्ठलग्नां च पार्वतीम् ॥ ४१ ॥ भय से आर्त होते हुए शिव जी ने भी देखा कि देवता लोग पुनः स्तुति करने के लिए उद्यत हो रहे हैं--इसलिए सुख सम्भोग का त्याग कर गले लगी हुई पार्वती का भी त्याग कर दिया ॥ ४१ ॥ उत्तिष्ठतो महेशस्य त्रासलज्जायुतस्य च । भूमौ पपात तद्वीर्यं ततः स्कन्दो बभूव ह ॥ ४२ ॥ भय और लज्जा से युक्त महेश्वर के उठते समय उनका वीर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा जिससे कार्तिकेय का जन्म हुआ ॥ ४२ ॥ पश्चात्तां कथयिष्यामि कथामतिमनोहराम् । स्कन्दजन्मप्रसङ्गे च सांप्रतं वाञ्छितं शृणु ॥ ४३ ॥ पश्चात् उस मनोहर कथा को सुनायेंगे, सम्प्रति कार्तिकेय के जन्म के.प्रसंग में वांछनीय बातें सुनो ॥ ४३ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण के संवाद में पहला अध्याय समाप्त ॥ १ ॥ |