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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - द्वितीयोऽध्यायः पार्वती देवान्प्रति शशाप -
देवताओं को पार्वती का शाप - नारायण उवाच त्यक्त्वा रतिं महादेवो ददर्श पुरतः सुरान् । पलायध्वमिति प्राह कृपया पार्वतीभयात् ॥ १ ॥ नारायण बोले-महादेव ने सुख त्याग कर सामने देवों को देखते ही पार्वती के भय से कृपापूर्वक कहा--'तुम लोग शोघ्र भाग जाओ' ॥ १ ॥ देवाः पलायिता भीताः पार्वतीशापहेतुना । सर्वब्रह्माण्डसंहर्ता चकम्पे पार्वतीभयात् ॥ २ ॥ पार्वती के शाप के कारण डरे हुए देवगण भाग निकले और ममस्त ब्रह्माण्ड के संहर्ता शिव भी पार्वती के भय से कांपने लगे ॥ २ ॥ तल्पादुत्थाय सा दुर्गा न च दृष्ट्वा पुरः सुरान् । समुत्थितं कोपवह्निं स्तम्भयामास देहतः ॥ ३ ॥ दुर्गा ने शय्या से उठकर सामने देवों को नहीं देखा इसलिए भड़के हुए क्रोधाग्नि को देह में रोक लिया ॥ ३ ॥ अद्यप्रभृति ते देवा व्यर्थवीर्या भवन्त्विति । शशाप देवी तान्देवानतिरुष्टा बभूव ह ॥ ४ ॥ किन्तु अति रुष्ट होकर देवी ने देवों को शाप दे ही दिया कि वे देवता आज से निष्फलवीर्य हो जायें (अर्थात् उनके वीर्य से कोई सन्तान न हो) ॥ ४ ॥ ततः शिवः शिवां दृष्ट्वा क्रोधसंरक्तलोचनाम् । रुदतीं नम्रवदनां लिखन्तीं धरणीतलम् ॥ ५ ॥ शिवस्तां दुःखितां दृष्ट्वा क्रोधसंरक्तलोचनाम् । हस्ते गृहीत्वा देवेशो वासयामास वक्षसि ॥ ६ ॥ अनन्तर शिव ने रक्तनेत्र शिवा (पार्वती) को देखा जो क्रोध से नीचे मुख करके रोदन कर रही थीं एवं पृथ्वी पर लिख रही थीं । देवेश्वर शिव ने पार्वती को क्रोध से लाल नेत्र और दुःखी देख कर उनका हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींच कर उन्हें हृदय से लगा लिया ॥ ५-६ ॥ अतीव भीतः संत्रस्त उवाच मधुरं वचः ॥ ७ ॥ उन्होंने अत्यन्त भयभीत होकर मधुर वचन कहा । शंकर बोले-हे उत्तम पर्वत की कन्ये ! तुम धन्य हो और मन हरण करने वाली हो । तुम मेरा सौभाग्य रूप और मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री हो । हे जगदम्बिके ! तुम्हारी क्या इच्छा है ? कहो, मैं करने के लिए तैयार है ॥ ७-८ ॥ शंकर उवाच कथं रुष्टा गिरिश्रेष्ठकन्ये धन्ये मनोहरे । मम सौभाग्यरूपे च प्राणाधिष्ठातृदेवते ॥ ८ ॥ किं तेऽभीष्टं करिष्यामि वद मां जगदम्बिके । ब्रह्माण्डसंघे निखिले किमसाध्यमिहाऽऽवयोः ॥ ९ ॥ इस समस्त ब्रह्माण्ड-समूह में हम दोनों के लिए असाध्य ही क्या है ॥ ९ ॥ अहो निरपराधं मां प्रसन्ना भवसुन्दरि । दैवादज्ञातदोषस्य शान्तिं मे कर्तुमर्हसि ॥ १० ॥ अतः हे सुन्दरि ! मुझ निरपराध पर प्रसन्न हो जाओ । दैवात् मुझसे अनजाने में अपराध हो गया । उसे क्षमा करो । अहो ! तुम से युक्त होने पर ही मैं शिव हूं और सबके लिए कल्याणदायक हूँ ॥ १० ॥ त्वया युक्तः शिवोऽहं च सर्वेषां शिवदायकः । त्वया विना हीश्वरश्च शवतुल्योऽशिवः सदा ॥ ११ ॥ प्रकृतिस्त्वं च बुद्धिस्त्वं शक्तिस्त्वं च क्षमा दया । तुष्टिस्त्वं च तथा पुष्टिः शान्तिस्त्वं क्षान्तिरेव च ॥ १२ ॥ तुम्हारे बिना मैं सदा शव के समान और अकल्याणकर्ता हूँ । हे सुरेश्वरि ! तुम प्रकृति हो, बुद्धि हो एवं शक्ति, क्षमा, दया, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, शान्ति, क्षुधा, छाया, निद्रा, तन्द्रा और श्रद्धा रूप हो ॥ ११-१२ ॥ क्षुत्त्वं छाया तथा निद्रा तन्द्रा श्रद्धा सुरेश्वरि । सर्वाधारस्वरूपा त्वं सर्वबीजस्वरूपिणी ॥ १३ ॥ हे शिवे ! सब की आधार और सबकी बीजस्वरूप हो । अतः इस समय मन्द मुसुकान समेत सरस वाणी बोलो ॥ १३ ॥ स्मितपूर्वं वद वचः सांप्रतं सरसं शिवे । त्वत्कोपविषसंदग्धं द्रुतं जीवय मां मृतम् ॥ १ ४ ॥ तुम्हारे कोप रूपी विष से जल कर मैं मृतक हो गया हूँ, मुझे शीघ्र जीवित करो ॥ १४ ॥ शंकरस्य वचः श्रुत्वा क्षमायुक्ता च पार्वती । उवाच मधुरं देवी हृदयेन विदूयता ॥ १५ ॥ शङ्कर की ऐसी बातें सुन कर क्षमाशील पार्वती ने व्यथित हृदय से मधुर वचन कहा ॥ १५ ॥ पार्वत्युवाच किं त्वाहं कथयिष्यामि सर्वज्ञं सर्वरूपिणम् । स्वात्मारामं पूर्णकामं सर्वदेहेष्ववस्थितम् ॥ १६ ॥ पार्वती बोलीं- मैं तुमसे क्या कहूँ, तुम सर्वज्ञ, सर्वरूप, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्ण काम और सबकी देह में अवस्थित रहते हो ॥ १६ ॥ कामिनी मानसं काममप्रज्ञं स्वामिनं वदेत् । सर्वेषां हृदयज्ञं च हृदीष्टं कथयामि किम् ॥ १७ ॥ कामिनी अपना मनोभाव अल्पज्ञ पति से कहती है और तुम तो सब के हृदय के जानने वाले हो अतः तुमसे मनोऽभिलाषित क्या कहूँ ॥ १७ ॥ सुगोप्यं सर्वनारीणां लज्जाजननकारणम् । अकथ्यमपि सर्वासां महेश कथयामि ते ॥ १८ ॥ हे महेश ! समस्त स्त्रियों के लिए अतिगोप्य, लज्जा का जनक तथा अकथनीय होने पर भी मैं तुमसे कह रही हूँ ॥ १८ ॥ सुखेषु मध्ये स्त्रीणां च विभवेषु सुरेश्वर । सत्पुंसा सह संभोगो निर्जनेषु परं सुखम् ॥ १९ ॥ हे सुरेश्वर ! सब प्रकार के सुख और समस्त ऐश्वयों के बीच निर्जन स्थानों में सत्पुरुष के साथ सम्भोग करना ही स्त्रियों का परम सुख है ॥ १९ ॥ तद्भङ्गेन च यद्दुःखं तत्समं नास्ति च स्त्रिया । कान्तानां कान्तविच्छेदशोकः परमदारुणः ॥ २० ॥ और उसके भंग होने के समान अन्य दुःख स्त्रियों को नहीं है क्योंकि स्त्रियों को स्वामी का वियोग-शोक परम दारुण होता है ॥ २० ॥ कृष्णपक्षे यथा चन्द्रः क्षीयमाणो दिने दिने । तथा कान्तं विना कान्ता क्षीणा कान्त क्षणे क्षणे ॥ २१ ॥ हे कान्त ! जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा दिन-दिन क्षीण होता है उसी भाँति कान्त के बिना कान्ता भी क्षण-क्षण में क्षीण होती रहती है ॥ २१ ॥ चिन्ता ज्वरश्च सर्वेषामुपतापश्च वाससाम् । साध्वीनां कान्तविच्छेदस्तुरगानां च मैथुनम् ॥ २२ ॥ चिन्ता सभी के लिए ज्वररूप दुःख है, वस्त्रों के लिए उपताप (गर्मी) दुःख है, पतिव्रताओं के लिए कान्त-वियोग दुःख है और घोड़ों के लिए मैथुन दुःख है ॥ २२ ॥ रतिभङ्गो दुःखमेकं द्वितीयं वीर्यपातनम् । दुःखातिरेकि दुःखं च तृतीयमनपत्यता ॥ २३ ॥ रति भंग होमा मेरा पहला दुःख है, दूसरा दुःख आपका (भूमि पर) वीर्यपात होना और यह तीसरा महान् दुःख है कि कोई सन्तान नहीं है ॥ २३ ॥ त्रैलोक्यकान्तं कान्तं त्वां लब्ध्वाऽपि न च मे सुतः । या स्त्री पुत्रविहीना च जीवनं तन्निरर्थकम् ॥ २४ ॥ तीनों लोकों के स्वामी आपको पतिरूप में प्राप्त कर के भी मेरे कोई पुत्र नहीं है । जो स्त्री पुत्रहीन होती है, उसका जीवन निरर्थक होता है ॥ २४ ॥ जन्मान्तरसुखं पुष्यं तपोदानसमुद्भवम् । सद्वंशजातपुत्रश्च परत्रेह सुखप्रदः ॥ २५ ॥ तप और दान करने से उत्पन्न पुण्य जम्मान्तर में सुख देता है और सत्कुल में उत्पन्न हुआ पुत्र लोक-परलोक दोनों में सुख प्रदान करता है । ॥ २५ ॥ सुपुत्रः स्मामिनोंऽशश्च स्वामितुल्यसुखप्रदः । कुपुत्रश्च कुलाङ्गारो मनस्तापाय केवलम् ॥ २६ ॥ स्वामी के अंश से उत्पन्न सत्पुत्र स्वामी के समान ही सुख प्रदान करता है और कुपुत्र तो कुल का अंगार रूप है । वह केवल मन को संतप्त ही करता है ॥ २६ ॥ स्वामी स्वांशेन स्वस्त्रीणां गर्भे जन्म लभेद्ध्रुवम् । साध्वी स्त्री मातृतुल्या च सततं हितकारिणी ॥ २७ ॥ उत्तम स्त्रियों के गर्भ में उनके स्वामी अपने अंश से जन्म ग्रहण करते हैं और पतिव्रता स्त्री माता के समान निरन्तर हित करने वाली होती है ॥ २७ ॥ असाध्वी वैरितुल्या च शश्वत्संतापदायिनी । मुखदुष्टा योनिदुष्टा चासाध्वीति त्रिधा स्मृता ॥ २८ ॥ और असाध्वी (व्यभिचारिणी) स्त्री शत्रु के समान निरन्तर सन्ताप प्रदान करने वाली होती है । मुख की दुष्टा, योनि-दुष्टा और असाध्वी भेद से कुलटा तीन प्रकार की होती है ॥ २८ ॥ कमुपायं करिष्यामि वद योगीश्वरेश्वर । उपायसिन्धो तपसां सर्वेषां च फलप्रद ॥ २९ ॥ हे योगीश्वरेश्वर ! आप उपाय के सागर हैं और सभी तप का फल प्रदान करने वाले हैं, अतः मुझे बताइए ! मैं क्या उपाय करूँ ॥ २९ ॥ इत्युक्त्वा पार्वतीदेवी नम्रवक्त्रा बभूव ह । प्रहस्य शंकरो देवो बोधयामास पार्वतीम् ॥ ३० ॥ इतना कह कर देवी पार्वती ने अपना मुख नीचे कर लिया । अनन्तर शिव हँस कर पार्वती को समझाने लगे ॥ ३० ॥ सत्पुत्रबीजं सुखदं तापनाशनकारणम् । मितं स्निग्धं सुरुचिरं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ३१ ॥ सत्पुत्र होने का कारण, सुखप्रद, तापनाशक, अल्प, स्नेहमय और अत्यन्त रोचक बातें कहना प्रारम्भ किया ॥ ३१ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में दूसरा अध्याय समाप्त ॥ २ ॥ |