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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - चतुर्थोऽध्यायः पुण्यकव्रतविधानम् -
पुण्यक नामक व्रत का विधान - नारायण उवाच श्रुत्वा व्रतविधानं च दुर्गा संहृष्टमानसा । सर्वं व्रतविधानं च संप्रष्टुमुपचक्रमे ॥ १ ॥ नारायण बोले-व्रत-विधान सुनने पर दुर्गा जी का चित्त अति प्रसन्न हो गया, उन्होंने सभी व्रतविधान पूछना आरम्भ किया ॥ १ ॥ पार्वत्युवाच सर्वं व्रतविधानं मां वद वेदविदां वर । हे नाथ करुणासिन्धो दीनबन्धो परात्पर ॥ २ ॥ कानि व्रतोपयुक्तानि द्रव्याणि च फलानि च । समयं नियमं भक्ष्यं विधानं तत्फलं प्रभो ॥ ३ ॥ देहि मह्यं विनीतायै नियुक्तं सत्पुरोहितम् । पुष्पोपहारान्विप्रांश्च द्रव्याहरणकिंकरान् ॥ ४ ॥ पार्वती बोली हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! हे नाथ ! हे करुणासिन्धो ! हे दीनबन्धो ! आप परे से भी परे हैं, अतः आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि इस व्रत के उपयुक्त कौन द्रव्य, है ? फल क्या है ? उसके समय, नियम, भक्ष्य, विधान और फल क्या है ? हे प्रभो ! मुझ विनीता को एक उत्तम पुरोहित, पुष्प लाने वाले ब्राह्मणों और द्रव्यों को जुटाने वाले सेवकों का वर्गदीजिये ॥ २-४ ॥ अन्यानि चोपयुक्तानि मयाऽज्ञातानि यानि च । संनियोजय तत्सर्वं स्त्रीणां स्वामी च सर्वदः ॥ ५ ॥ और अन्य जो कुछ इस व्रत के उपयुक्त हों, जिन्हें मैं नहीं जानती हूं, वह सब प्रबन्ध कर दें क्योंकि स्त्रियों के लिए स्वामी सब कुछ प्रदान करता है ॥ ५ ॥ पिता कौमारकाले च सदा पालनकारकः । भर्ता मध्ये सुतः शेषे त्रिधाऽवस्था सुयोषिताम् ॥ ६ ॥ कुमारावस्था में स्त्री की रक्षा पिता करता है, मध्य काल में (युवती होने पर) भर्ता और शेष वृद्धावस्था में पुत्र रक्षक होता है, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों की तीन अवस्थायें होती हैं ॥ ६ ॥ तातोऽशोकः प्राणतुल्यां दत्त्वा सत्स्वामिने सुताम् । स्वामी निवृत्तिमाप्नोति संन्यस्य स्वसुते प्रियाम् ॥ ७ ॥ पिता प्राणोपम अपनी पुत्री को उत्तम पति के हाथ सौंप कर निश्चिन्त हो जाता है और स्वामी पुत्र को अपनी पत्नी सौंप कर निवृत्त होता है ॥ ७ ॥ बन्धुत्रययुता या स्त्री सा च भाग्यवती परा । किंचिद्विहीना मध्या च सर्वहीनाऽधमा भुवि ॥ ८ ॥ इस प्रकार जो स्त्री इन तीन बन्धुओं से युक्त रहती है वह उत्तम भाग्यवती होती है, कुछ कमी वाली मध्यम प्रकार की भाग्यवती है और तीनों से हीन स्त्री पृथ्वी पर अधमा कही जाती है ॥ ८ ॥ एतेषां च समीपस्था प्रशंस्या सा जगत्त्रये । निन्दिताऽन्येषु संन्यस्ता सर्वमेतच्छ्रुतौ श्रुतम् ॥ ९ ॥ इन तीनों (बन्धुओं) के समीप रहने वाली स्त्री तीनों लोकों में प्रशंसा का पात्र होती है और इनसे अन्य को सौंपी जाने वाली निन्दित होती है, यह सब वेद में सुना गया है ॥ ९ ॥ सर्वात्मा भगवांस्त्वं च सर्वसाक्षी च सर्ववित् । देहि मह्यं पुत्रवरं स्वात्मनिर्वृतिहेतुकम् ॥ १० ॥ आप सब के आत्मा, भगवान्, सब के साक्षी और सब के वेत्ता हैं, अतः मुझे अपने सुख के लिए उत्तम पुत्र देने की कृपा करें ॥ १० ॥ स्वात्मबोधानुमानेन महात्मनि निवेदितम् । सर्वान्तराभिप्रायज्ञं भवन्तं बोधयामि किम् ॥ ११ ॥ अपने ज्ञान के अनुसार मैंने (आप) महानुभाव से निवेदन कर दिया है और सभी के आन्तरिक अभिप्राय को जानने वाले आपको मैं क्या बता सकती हूँ ॥ ११ ॥ इत्युक्त्वा पार्वती प्रीत्या पपात स्वामिनः पदे । कृपासिन्धुश्च भगवान्प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ १२ ॥ इतना कह कर पार्वती अत्यन्त प्रेम से पति के चरण पर गिर पड़ीं, अनन्तर कृपासागर भगवान् महादेव ने कहना आरम्भ किया ॥ १२ ॥ महादेव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि विधानं नियमं फलम् । फलानि चैव द्रव्याणि व्रतयोग्यानि यानि च ॥ १३ ॥ महादेव बोले-हे देवि ! मैं (उस व्रत का) विधान, नियम, फल तथा व्रत के योग्य (भक्ष्य) फल और द्रव्य बता रहा हूँ, सुनो ॥ १३ ॥ विप्राणां शतकं शुद्धं फलपुष्पोपहारकम् । किंकराणां च शतकं द्रव्याहरणकारकम् ॥ १४ ॥ सौ शुद्ध ब्राह्मण फल-पुष्प-चयन के लिए चाहिए और द्रव्य आदि लाने के लिए सौ सेवक ॥ १४ ॥ दासीनां शतकं लक्षं नियुक्तं च पुरोहितम् । सर्वव्रतविधानज्ञं वेदवेदाङ्गपारगम् ॥ १५ ॥ प्रवरं हरिभक्तानां सर्वज्ञं ज्ञानिनां वरम् । सनत्कुमारं मत्तुल्यं गृहाण व्रतहेतवे ॥ १६ ॥ एक करोड़ दासियाँ तथा ऐसा पुरोहित नियुक्त होना चाहिए, जो समस्त व्रत-विधान के ज्ञाता, वेद-वेदांग के पारगामी विद्वान्, हरिभक्तों में श्रेष्ठ, और ज्ञानियों में सर्वज्ञ हो । अतः व्रत के लिए मेरे तुल्य सनत्कुमार को पुरोहित बनाओ ॥ १५-१६ ॥ देवि शुद्धे च काले च परं नियमपूर्वकम् । माघशुक्लत्रयोदश्यां व्रतारम्भः शुभः प्रिये ॥ १७ ॥ हे देवि ! हे प्रिये ! शुद्ध समय में अति नियम पूर्वक इसका आरम्भ होना चाहिए । इस व्रत के आरम्भ के लिए माघ-शुक्ल-त्रयोदशी शुभ मुहूर्त है ॥ १७ ॥ गात्रं सुनिर्मलं कृत्वा शिरः संस्कारपूर्वकम् । उपोष्य पूर्वदिवसे वस्त्रं संशोध्य यत्नतः ॥ १८ ॥ शिर के संस्कार समेत शरीर को निर्मल और वस्त्र को शुद्ध करके पहले दिन उपवास करे ॥ १८ ॥ अरुणोदयवेलायां तल्पादुत्थाय सुव्रती । मुखप्रक्षालनं कृत्वा स्नात्वा वै निर्मले जले ॥ १९ ॥ आचम्य यत्नपूतो हि हरिस्मरणपूर्वकम् । दत्त्वाऽर्घ्यं हरये भक्त्या गृहमागत्य सत्वरम् ॥ २० ॥ धौते च वाससी धृत्वा ह्युपविश्याऽऽसने शुचौ । आचम्य तिलकं धृत्वा समाप्य स्वाह्निकं पुनः ॥ २१ ॥ घटं संस्थाप्य विधिवत्स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । पुरोहितस्य वरणं पुरः कृत्वा प्रयत्नतः ॥ २२ ॥ संकल्प वेदविहितं व्रतमेतत्समाचरेत् । व्रते द्रव्याणि नित्यानि चोपचारास्तु षोडश । देयानि नित्यं देवेशि कृष्णाय परमात्मने ॥ २३ ॥ आसनं स्वागतं पाद्यमर्घ्यमाचमनीयकम् । स्नानीयं मधुपर्कं च वस्त्राण्याभरणानि च ॥ २४ ॥ सुगन्धिपुष्पधूपं च दीपनैवेद्यचन्दनम् । यज्ञसूत्रं च ताम्बूलं कर्पूरादिसुवासितम् ॥ २५ ॥ पुनः दूसरे दिन अरुणोदयवेला में शय्या से उठकर उत्तम व्रती को चाहिए कि (दातून आदि से) मुख शुद्ध कर निर्मल जल में स्नान, आचगन, सप्रयत्न हरिस्मरण एवं भक्तिपूर्वक भगवान् को अर्घ्य दान कर के शीघ्र घर आवे और दो निर्मल वस्त्र धारण कर पवित्र आसन पर बैठे । आचमन, तिलक (चन्दन) और नित्य कर्म समाप्त करे । तत्पश्चात् पहले प्रयत्नपूर्वक पुरोहित का वरण करके स्वस्ति वाचन पूर्वक कलश स्थापन करे । फिर वेदानुसार संकल्प के साथ व्रत सुसम्पन्न करे, जिसमें नित्य सोलहो उपचार से पूजन किया जाता है । हे देवेशि ! ये सभी वस्तुएँ परमात्मा श्रीकृष्ण को नित्य समर्पित की जाती हैं । आसन, स्वागत, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान, मधुपर्क, वस्त्र, आभूषण, सुगन्धित पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, यज्ञसूत्र (जनेऊ) और कर्पूरादि से सुवासित ताम्बूल ॥ १९-२५ ॥ द्रव्याण्येतानि पूजायाश्चाङ्गरूपाणि सुन्दरि । देवि किंचिद्विहीनेन चाङ्गहानिः प्रजायते ॥ २६ ॥ हे सुन्दरि ! इतने द्रव्य पूजा के अंग हैं । हे देवि ! पूजा के अंगभूत द्रव्यों (वस्तुओं) की कुछ कमी होने पर अंग-हानि होती है ॥ २६ ॥ अङ्गहीनं च यत्कर्म चाङ्गहीनो यथा नरः । अङ्गहीने च कार्ये च फलहानिः प्रजायते ॥ २७ ॥ और अंगहीन कर्म अंगहीन पुरुष की भांति ही होता है । अंगहीन कार्य में फल की हानि होती है ॥ २७ ॥ अष्टोत्तरशतं पुष्पं पारिजातस्य विष्णवे । देयं प्रतिदिनं दुर्गे स्वात्मनो रूपहेतवे ॥ २८ ॥ हे दुर्गे ! अपने रूप के निमित्त पारिजात का एक-सौ आठ पुष्प भगवान् विष्णु को प्रतिदिन समर्पित करना चाहिए ॥ २८ ॥ श्वेतचम्पकपुष्पाणां लक्षमक्षतमीप्सितम् । प्रदेयं हरये भक्त्या वर्णसौन्दर्यहेतवे ॥ २९ ॥ और रंग-सौंदर्य के लिए श्वेत चम्पा का एक लाख अक्षत पुष्प भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु को अर्पित करना चाहिए ॥ २९ ॥ सहस्रपत्रपद्मानामक्षतं लक्षकं तथा । भक्त्या देयं च हरये मुखसौन्दर्यहेतवे ॥ ३० ॥ मुख-सौन्दर्य के निमित्त सहस्र पत्र वाले कमल का एक लाख अक्षत पुष्प भक्तिपूर्वक भगवान् को अर्पित करना चाहिए ॥ ३० ॥ अमूल्यरत्नरचितं दर्पणानां सहस्रकम् । देयं नारायणायैव नेत्रयोर्दीप्तिहेतवे ॥ ३१ ॥ नेत्र की दीप्ति के लिए अमूल्य रत्नों का बना एक सहस्र दर्पण नारायण को अर्पित करे ॥ ३१ ॥ नीलोत्पलानां लक्षं च देयं कृष्णाय भक्तितः । व्रताङ्गभूतं देवेशि चक्षुषो रूपहेतवे ॥ ३२ ॥ हे देवेशि ! नेत्र-सौन्दर्य के निमित्त भगवान् कृष्ण को एक लाख नीलकमल भक्ति समेत देना चाहिए, यह व्रत का अंगभूत है ॥ ३२ ॥ हिमालयोद्भवं लक्षं रुचिरं श्वेतचामरम् । प्रदेयं केशवायैव केशसौन्दर्यहेतवे ॥ ३३ ॥ केश के सौन्दर्य के निमित्त हिमालय में उत्पन्न एवं रुचिर श्वेत चामर एक लाख की संख्या में भगवान् केशव को अर्पित करे ॥ ३३ ॥ अमूल्यरत्नरचितं पुटकानां सहस्रकम् । प्रदेयं गोपिकेशाय नासासौन्दर्यहेतवे ॥ ३४ ॥ नासिका-सौन्दर्य के लिए अमूल्य रत्नों का सुरचित एक सहस्र पुटक (डिब्बे) गोपिकाओं के ईश भगवान् श्रीकृष्ण को समर्पित करे ॥ ३४ ॥ बन्धूकपुष्पलक्षं च देयं राधेश्वराय च । सौम्यौष्ठाधरयोश्चैव वर्णसौन्दर्यहेतवे ॥ ३५ ॥ सौम्य ओठों के वर्ण की सुन्दरता के निमित्त राधेश्वर भगवान् को एक लाख बन्धूक (दुपहरिया) पुष्प अर्पित करे ॥ ३५ ॥ मुक्ताफलानां लक्षं च दन्तसौन्दर्यहेतवे । देयं गोलोकनाथाय शैलजे भक्तिपूर्वकम् ॥ ३६ ॥ हे शैलजे ! दाँतों के सुन्दर होने के लिए एक लाख मोती गोलोकनाथ भगवान् को भक्तिपूर्वक समर्पित करना चाहिए ॥ ३६ ॥ रत्नगेन्दुकलक्षं च गण्डसौन्दर्यहेतवे । महेश्वराय दातव्यं व्रते शैलेन्द्रकन्यके ॥ ३७ ॥ हे शैलेन्द्रकन्यके ! कपोल-सौन्दर्य के निमित्त एक लाख रत्नों के गेंद इस व्रत में महेश्वर को अर्पित करना चाहिए ॥ ३७ ॥ रत्नपाशकलक्षं च देयं ब्रह्मेश्वराय च । ओष्ठाधः स्थलरूपाय व्रती प्राणेशि भक्तितः ॥ ३८ ॥ हे प्राणेशि ! ओंठ के निचले भाग के सुन्दर होने के लिए रत्नों के एक लाख पाशक भक्तिपूर्वक ब्रह्मेश्वर (भगवान् श्रीकृष्ण) को व्रती प्रदान करे ॥ ३८ ॥ कर्णभूषणलक्षं च रत्नसारविनिर्मितम् । देयं सर्वेश्वरायैव कर्णसौन्दर्यहेतवे ॥ ३९ ॥ कर्ण-सौन्दर्य के लिए रत्नों के सार भाग के बने एक लाख कान के भूषण सर्वेश्वर को अर्पित करना चाहिए ॥ ३९ ॥ माध्वीककलशानां च लक्षं रत्नविनिर्मितम् । देयं विश्वेश्वरायैव स्वरसौन्दर्यहेतवे ॥ ४० ॥ स्वर-सौन्दर्य के निमित्त माध्वीक (महुवे के आसव) से भरे रत्नों के बने एक लाख कलश विश्वेश्वर को समर्पित करना चाहिए ॥ ४० ॥ सुधापूर्णं च कुम्भानां सहस्रं रत्ननिर्मितम् । देयं कृष्णाय देवेशि वाक्यसौन्दर्यहेतवे ॥ ४१ ॥ हे देवेशि ! वाक्य की सुन्दरता के लिए रत्नों के सुनिर्मित एक सहस्र सुधापूर्ण कलश भगवान् कृष्ण को समर्पित करना चाहिए ॥ ४१ ॥ रत्नप्रदीपलक्षं च गोपवेषविधायिने । देयं किशोरवेषाय दृष्टिसौन्दर्यहेतवे ॥ ४२ ॥ आँखों की सुन्दरता के निमित्त एक लाख रत्नों के प्रदीप गोपवेशधारी बालमुकुन्द भगवान् को समर्पित करे ॥ ४२ ॥ धत्तूरकुसुमाकारं रत्नपात्रसहस्रकम् । देयं गोरक्षकायैव गलसौन्दर्यहेतवे ॥ ४३ ॥ गले के सौन्दर्य के निमित्त धतूर पुष्प के समान बने रत्नों के एक सहस्र पात्र गोरक्षक भगवान् को प्रदान करे ॥ ४३ ॥ सद्रत्नसाररचितं पद्मनालसहस्रकम् । देयं चण्डकपालाय बाहुसौन्दर्यहेतवे ॥ ४४ ॥ बाहु की सुन्दरता के लिए उत्तम रत्नों के सार भाग से रचित एक सहस्र कमलनाल चण्डकपाल को अर्पित करना चाहिए ॥ ४४ ॥ लक्षं च रक्तपद्मानां करसौन्दर्यहेतवे । देयं गोपाङ्गनेशाय नारायणि हरिव्रते ॥ ४५ ॥ हे नारायणि ! हाथ की सुन्दरता के निमित्त एक लाख रक्तकमल भगवान् के इस व्रत में गोपांगनाओं के ईश भगवान् कृष्ण को सादर समर्पित करे ॥ ४५ ॥ अङ्गलीयकलक्षं च रत्नसारविनिर्मितम् । अङ्गुलीनां च रूपार्थं देयं देवेश्वराय च ॥ ४६ ॥ अंगुलियों के सौन्दर्य के लिए रत्नों के सार भाग से सुनिर्मित एक लाख अंगूठियाँ देवेश्वर को प्रदान करना चाहिए ॥ ४६ ॥ मणीन्द्रसारलक्षं च श्वेतवर्णं मनोहरम् । देयं मुनीन्द्रनाथाय नखसौन्दर्यहेतवे ॥ ४७ ॥ नखों के सौन्दर्य के लिए उत्तम मणियां जो श्वेत वर्ण और मनोहर हों, एक लाख की संख्या में मुनीन्द्रनाथ (भगवान्) को समर्पित करे ॥ ४७ ॥ सद्रत्नसारहाराणां लक्षं चातिमनोहरम् । देयं मदनमोहाय वक्षःर्सौदर्यहेतवे ॥ ४८ ॥ वक्षःस्थल के सौन्दर्य निमित्त उत्तम रत्नों के सारभाग के बने मनोहर एक लाख हार मदनमोहन भगवान् को समर्पित करने चाहिए ॥ ४८ ॥ सुपक्वश्रीफलानां च लक्षं च सुमनोहरम् । देयं सिद्धेन्द्रनाथाय स्तनसौन्दर्यहेतवे ॥ ४९ ॥ स्तन-सौन्दर्य के लिए अत्यन्त पके और अति मनोहर एक लाख श्रीफल (बेल) सिद्धेन्द्रनाथ (भगवान्) को प्रदान करे ॥ ४९ ॥ सद्रत्नवर्तुलाकारपत्रलक्षं मनोहरम् । देयं पद्मालयेशाय देहसौन्दर्यहेतवे ॥ ५० ॥ देहसौन्दर्य के लिए उत्तम रत्नों के गोलाकार और अति मनोहर एक लाख पत्र कमलालय के अधीश्वर (भगवान्) को सादर समर्पित करे ॥ ५० ॥ सद्रत्नसाररचितं नाभीनां च सहस्रकम् । प्रदेयं पद्मनाभाय नाभिसौन्दर्यहेतवे ॥ ५१ ॥ नाभि की सुन्दरता के लिए उत्तम रत्नों के सारभाग से बनी एक सहस्र नामि पद्मनाभ (भगवान्) को समर्पित करनी चाहिए ॥ ५१ ॥ सद्रत्नसाररचितं रथचक्रसहस्रकम् । नितम्बसौन्दर्यार्थं च देयं वै चक्रपाणये ॥ ५२ ॥ नितम्ब-सौन्दर्य के लिए उत्तम रत्नों के सारभाग से बने एक सहस्र रथचक्र चक्रपाणि भगवान् को प्रदान करने चाहिए ॥ ५२ ॥ सुवर्णरम्भास्तम्भानां लक्षं च सुमनोहरम् । प्रदेयं श्रीनिवासाय श्रोणिसौन्दर्यहेतवे ॥ ५३ ॥ जघन-सौन्दर्य के लिए सुवर्ण के बने अति मनोहर एक लाख कदली-स्तम्भ श्रीनिवास (भगवान्) को प्रदान करना चाहिए ॥ ५३ ॥ शतपत्रस्थलाब्जानां लक्षमम्लानमक्षतम् । प्रदेयं पद्मनेत्राय पादसौन्दर्यहेतवे ॥ ५४ ॥ चरण-सौन्दर्य के निमित्त एक लाख निर्मल और अक्षत स्थलकमल कमलनेत्र भगवान् को समर्पित करना चाहिए ॥ ५४ ॥ सुवर्णरचितानां च खञ्जनानां सहस्रकम् । गतिसौन्दर्यहेत्वर्थं देयं लक्ष्मीश्वराय च ॥ ५५ ॥ गति (चाल) की सुन्दरता के निमित्त सुवर्णरचित एक सहस्र खंजन (पक्षी) लक्ष्मीश्वर भगवान् को सादर अर्पित करे ॥ ५५ ॥ राजहंससहस्रं च गजेन्द्राणां सहस्रकम् । सुवर्णरचितं देयं हरये गतिहेतवे ॥ ५६ ॥ गति (चाल) के लिए सुवर्ण रचित एक सहस्र राजहंस और एक सहस्र गजेन्द्र भगवान् को समर्पित करे ॥ ५६ ॥ सुवर्णच्छत्रलक्षं च देयं नारायणाय च । विचित्रं रत्नसारेण मूर्धसौन्दर्यहेतवे ॥ ५७ ॥ मूर्धा (शिर) के सौन्दर्य के निमित्त सुवर्ण के एक लाख छत्र, जो उत्तम रत्नों के सार भाग से चित्र-विचित्र बने हों, नारायण को अर्पित करने चाहिए ॥ ५७ ॥ मालतीनां च कुसुममक्षतं लक्षमीश्वरि । देयं वृन्दावनेशाय हास्यसौन्दर्यहेतवे ॥ ५८ ॥ हे ईश्वरि ! हास्य-सौन्दर्य के लिए मालती के एक लाख अक्षत पुष्प वृन्दावन के ईश को प्रदान करे ॥ ५८ ॥ अमूल्यरत्नलक्षं च देयं नारायणाय वै । सुव्रते व्रतपूर्णार्थं शीलसौन्दर्यहेतवे ॥ ५९ ॥ हे सुव्रते ! शील-सौन्दर्य के लिए और व्रत-परिपूरणार्थ एक लाख अमूल्य रत्न नारायण को समर्पित करने चाहिए ॥ ५९ ॥ स्वच्छस्फटिकसंकाशं मणीन्द्रश्रेष्ठलक्षकम् । देयं मुनीन्द्रनाथाय मनःसौन्दर्यहेतवे ॥ ६० ॥ मन के सौन्दर्य के निमित्त स्वच्छ स्फटिक के समान एक लाख श्रेष्ठ मणि मुनीन्द्रनाथ को प्रदान करने चाहिए ॥ ६० ॥ प्रवालसारसंकाशं मणिसारसहस्रकम् । देयं कृष्णाय भक्त्या च प्रियरागविवृद्धये ॥ ६ १ ॥ प्रियानुराग-वृद्धि के निमित्त प्रवाल (मूंगा) के सारभाग के समान मणियों का एक सहस्र सारभाग भगवान् कृष्ण को देना चाहिए ॥ ६१ ॥ माणिक्यसारलक्षं च देयं कृष्णाय यत्नतः । जन्मनः कोटिपर्यन्तं स्वामिसौभाग्यहेतवे ॥ ६२ ॥ करोड़ों जन्म पर्यन्त स्वामी (पति) का सौभाग्य प्राप्त रहे, इसके लिए एक लाख उत्तम माणिक्य भगवान् श्रीकृष्ण को भक्तिपूर्वक सप्रयत्न अर्पित करे ॥ ६२ ॥ कूष्माण्डं नारिकेलं च जम्बीरं श्रीफलं तथा । फलान्येतानि देयानि हरये पुत्रहेतवे ॥ ६३ ॥ पुत्र की कामना से कूष्माण्ड (कुम्हड़ा) नारियल, जम्बीर (नीबू) और श्रीफल (बेल) इतने फल भगवान् को समर्पित करे ॥ ६३ ॥ रत्नेन्द्रसारलक्षं च देयं कृष्णाय यत्नतः । असंख्यजन्मपर्यन्तं स्वामिनो धनवृद्धये ॥ ६४ ॥ असंख्य जन्म पर्यन्त स्वामी के घन-वृद्ध्यर्थ रत्नेन्द्र का एक लाख सारभाग श्रीकृष्ण को सप्रयत्न अर्पित करना चाहिए ॥ ६४ ॥ वाद्यं नानाप्रकारं च कांस्यतालादिकं परम् । व्रते संपत्तिवृद्ध्यर्थं श्रीहरिं श्रावयेद्व्रती ॥ ६५ ॥ व्रत में सम्पत्ति के वृद्ध्यर्थ व्रती को चाहिए कि अनेक भांति के मजीरा, ताल आदि वाद्य भगवान् श्री हरि को सुनाये ॥ ६५ ॥ पायसं पिष्टकं सर्पिः शर्कराक्तं मनोहरम् । प्रदेयं हरये भक्त्या स्वामिनो भोगवृद्धये ॥ ६६ ॥ स्वामी के भोग-वृद्यर्थ घृत-शक्कर मिश्रित मनोहर खीर, पिष्टक (पूआ और बड़ा) भक्तिपूर्वक भगवान् को समर्पित करे ॥ ६६ ॥ सुगन्धिपुष्पमालानां लक्षमक्षतमीप्सितम् । प्रदेयं हरये भक्त्या हरिभक्तिविवृद्धये ॥ ६७ ॥ भगवान् की भक्ति-वृद्धि के निमित्त सुगन्धित पुष्पों की अक्षत एक लाख माला भक्तिपूर्वक भगवान् को अर्पित करे ॥ ६७ ॥ नैवेद्यानि च देयानि स्वादूनि मधुराणि च । श्रीकृष्णप्रीतिप्राप्त्यर्थं दुर्गे नानाविधानि च ॥ ६८ ॥ हे दुर्गे ! भगवान् श्रीकृष्ण की प्रीति-प्राप्त्यर्थ अनेक भांति के सुस्वादु और मधुर नैवेद्य भगवान् को समर्पित करना चाहिए ॥ ६८ ॥ नानाविधानि पुष्पाणि तुलसीसंयुतानि च । श्रीकृष्णप्रीतये भक्त्या व्रते देयानि सुव्रते ॥ ६९ ॥ हे सुव्रते ! इस व्रत में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए तुलसी पत्र समेत अनेक भाँति के पुष्प, भक्तिपूर्वक भगवान् को अर्पित करे ॥ ६९ ॥ ब्राह्मणानां सहस्रं च प्रत्यहं भोजयेद्व्रती । स्वात्मनः सस्यवृद्ध्यर्थं व्रते जन्मनि जन्मनि ॥ ७० ॥ जन्म-जन्मान्तर में अपनी सस्य-वृद्धि के निमित्त एक सहस्र ब्राह्मणों को व्रती प्रतिदिन भोजन कराये ॥ ७० ॥ पुष्पाञ्जलिशतं देयं नित्यं पूर्णं च पूजने । प्रणामशतकं देवि कर्तव्यं भक्तिवृद्धये ॥ ७१ ॥ हे देवि ! इस पूजन में परिपूरणार्थ नित्य सौ पुष्पाजलि अर्पित करनी चाहिए और भक्ति-वृद्धि के निमित्त सौ बार प्रणाम करना चाहिए ॥ ७१ ॥ षण्मासांश्च हविष्यान्नं मासान्पञ्च फलादिकम् । हविः पक्षं जलं पक्षं व्रते भक्षेच्च सुव्रते ॥ ७२ ॥ इस व्रत में व्रती को छह मास तक हविष्यान्न, पाँच मास तक फल आदि, एक पक्ष हवि का भक्षण और फिर एक पक्ष तक केवल जल पी कर रहना चाहिए ॥ ७२ ॥ रत्नप्रदीपशतकं वह्निं दद्याद्दिवानिशम् । रात्रौ कुशासनं कृत्वा नित्यं जागरणं व्रते ॥ ७३ ॥ व्रत में रत्नों के सौ दीपक दिन-रात जलाना चाहिए और रात्रि में कुशासन पर समासीन होकर नित्य जागरण करना चाहिए ॥ ७३ ॥ ज्ञानवृद्धिर्जागरणे सुबुद्धिर्मूलभोजने । लोभमोहकामक्रोधभयशोकविवादकम् ॥ ७४ ॥ स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वृत्तिरित्यपि ॥ ७५ ॥ विविधं मैथुनं त्याज्यं व्रतिना व्रतशुद्धये । कलहश्च परित्याज्यो व्रते क्रीडाविवृद्धये ॥ ७६ ॥ संपूर्णे च व्रते देवि प्रतिष्ठा तदनन्तरम् । त्रिशतं वै षष्ट्यधिकं रत्न्लकं वस्त्रसंयुतम् ॥ ७७ ॥ सभोज्यं सोपवीतं च सोपहारं ददात्वयम् । त्रिशतं वै षष्ट्यधिकसहस्रं विप्रभोजनम् ॥ ७८ ॥ जागरण में ज्ञान की वृद्धि होती है और कन्द- मूल भोजन करने से सुबुद्धि होती है । लोभ, मोह, काम क्रोध, भय, शोक और विवाद का त्याग करना चाहिए । हे देवि ! व्रत-शुद्धि के निमित्त इस व्रत में व्रती को (कामविषयक) स्मरण, कीर्तन, केलि (क्रीडा), प्रेक्षण (आँखें गड़ा कर देखना), गुह्य भाषण, संकल्प (उसकी प्राप्ति के लिए दृढ़ इच्छा), अध्यवसाय (प्रयत्न) और क्रिया निर्वत्ति (संभोग) एवं विविध प्रकार के मैथुन तथा कलह का त्याग करना चाहिए । व्रत के सम्पूर्ण हो जाने पर अनन्तर प्रतिष्ठा करनी चाहिए । तीन सौ साठ कम्बल, वस्त्र, भोजन, यज्ञोपवीत एवं उपहार समेत दान करे । तीन सौ साठ सहस्र ब्राह्मणों को भोजन कराये ॥ ७४-७८ ॥ त्रिशतं वै षष्ट्यधिकं सहस्रं तिलहोमकम् । त्रिशतं वै षष्ट्यधिकं सहस्रं स्वर्णमेव च ॥ ७९ ॥ देया व्रतसमाप्तौ च दक्षिणा विधिबोधिता । अन्यां समाप्तिदिवसे कथयिष्यामि दक्षिणाम् ॥ ८० ॥ तीन सौ साठ सहस्र तिल की आहुति और तीन सौ साठ सहस्र सुवर्ण व्रत की समाप्ति में दक्षिणा प्रदान करना चाहिए, ऐसा ब्रह्मा ने बताया है । हे देवि ! समाप्ति के दिन दी जाने वाली अन्य दक्षिणा को भी बताऊँगा ॥ ७९-८० ॥ एतदव्रतफलं देवि दृढा भक्तिर्हरौ भवेत् । हरितुल्यो भवेत्पुत्रो विख्यातो भुवनत्रये ॥ ८१ ॥ सौन्दर्यं स्वामिसौभाग्यमैश्वर्यं विपुलं धनम् । सर्ववाञ्छितसिद्धीनां बीजं जन्मनि जन्मनि ॥ ८२ ॥ इत्येवं कथितं देवि व्रतं कुरु महेश्वरि । पुत्रस्ते भविता साध्वीत्युक्त्वा स विररामह ॥ ८३ ॥ इस प्रकार सुसम्पन्न करने से इस व्रत का यह फल होता है कि भगवान् में दृढ़ भक्ति उत्पन्न होती है । भगवान् के समान तीनों लोकों में विख्यात पुत्र होता है तथा सौन्दर्य, स्वामी-सौभाग्य, ऐश्वर्य एवं विपुल धन की प्राप्ति होती है । प्रत्येक जन्म में सभी अभिलषित सिद्धियों की प्राप्ति होती रहती है । हे महेश्वरि ! देवि ! इस प्रकार मैंने तुम्हें व्रत बता दिया, इसे सुसम्पन्न करो । हे साध्वि ! तुम्हारे अवश्य पुत्र होगा । इतना कह कर शिव जी चुप हो गये ॥ ८१-८३ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पुण्यकव्रतविधानं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में पुण्यक-व्रत-विधान नामक चौथा अध्याय समाप्त ॥ ४ ॥ |