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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - पञ्चमोऽध्यायः पुण्यकव्रतकथनम् -
पुण्यक व्रत का माहात्म्य-कथन - नारायण उवाच श्रुत्वा व्रतविधानं च दुर्गा संहृष्टमानसा । पुनः प्रपच्छ कान्तं सा दिव्यां व्रतकथां शुभाम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-व्रत का विधान सुन कर दुर्गा जी का मन प्रफुल्लित हो गया, फिर उन्होंने उस दिव्य एवं शुभ व्रत-कथा को अपने कान्त (शिव जी) से पूछा ॥ १ ॥ पार्वत्युवाच किमद्भुतं व्रतं नाथ विधानं फलमस्य च । अधिकां तत्कथां ब्रूहि व्रतं केन प्रकाशितम् ॥ २ ॥ पार्वती बोलीं-हे नाथ ! यह कैसा अद्भुत व्रत है । इसका विधान, फल, अधिक कथा और किसने इसे प्रकाशित किया, वह मुझे बताने की कृपा करें ॥ २ ॥ महादेव उवाच शतरूपा मनोः पत्नी पुत्रदुःखेन दुःखिता । ब्रह्मणः स्थानमागत्य सा ब्रह्माणमुवाच ह ॥ ३ ॥ महादेव बोले- एक बार मन् की पत्नी शतरूपा ने पुत्र (न होने रूप) दुःख से दुःखी हो ब्रह्मा के स्थान में आकर उनसे कहा ॥ ३ ॥ शतरूपोवाच ब्रह्मन्केन प्रकारेण वन्ध्यायाश्च सुतो भवेत् । तन्मे ब्रूहि जगद्धातः सृष्टिकारणकारण ॥ ४ ॥ शतरूपा बोलीं-हे ब्रह्मन् ! आप समस्त संसार के धाता एवं सृष्टि-कारणों के कारण हैं, अतः आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि-किस उपाय द्वारा वन्ध्या स्त्री को भी पुत्र उत्पन्न हो सकता है ॥ ४ ॥ तज्जन्म निष्फलं ब्रह्मन्नैश्वर्यं धनमेव च । किंचिन्न शोभते गेहे विना पुत्रेण पुत्रिणाम् ॥ ५ ॥ क्योंकि हे ब्रह्मन् ! जिस गृहस्थ के घर पुत्र नहीं है उसका जन्म निष्फल है, ऐश्वर्य और धन भी व्यर्थ है और उसके घर की कुछ शोभा भी नहीं होती है ॥ ५ ॥ तपोदानोद्भवं पुण्यं जन्मान्तरसुखावहम् । सुखदो मोक्षदः प्रीतिदाता पुत्रश्च पुत्रिणाम् ॥ ६ ॥ तप और दान द्वारा उत्पन्न पुण्य दूसरे जन्म में सुखप्रद होता है, और पुत्र पुत्रवानों को सुख, मोक्ष तथा प्रीति प्रदान करता है ॥ ६ ॥ पुत्री पुत्रमुखं दृष्ट्वा चाश्वमेधशतोद्भवम् । फलं पुंनामनरकत्राणहेतुं लभेद्ध्रुवम् ॥ ७ ॥ ' नामक नरक से बचाने के कारण पुत्र का मुख देखने पर पुत्रवान् व्यक्ति सौ अश्वमेध यज्ञों का फल निश्चित प्राप्त करता है ॥ ७ ॥ पुत्रोत्पत्तेरुपायं वै वद मां तापसंयुताम् । तदा भद्रं न चेद्भर्त्रा सह यास्यामि काननम् ॥ ८ ॥ इसलिए मुझ संतप्त दुःखिया को आप पुत्र-उत्पन्न होने का उपाय बतायें । अन्यथा स्वामी के साथ मैं वन चली जाऊँगी ॥ ८ ॥ गृहाण राज्यमैश्वर्यं धनं पृथ्वीं प्रजावहाम् । किमेतेनाऽवयोस्तात विना पुत्रैरपुत्रिणोः ॥ ९ ॥ आप राज्य, ऐश्वर्य, धन एवं प्रजापूर्ण पृथ्वी ले लीजिए । क्योंकि हे तात ! जब हम लोग निपूत ही रहेंगे तो यह सब लेकर क्या करेंगे ॥ ९ ॥ अपुत्रिणो मुखं द्रष्टुं विद्वान्नोत्सहतेऽशिवम् । मुखं दर्शयितुं लज्जां समवाप्नोत्यपुत्रकः ॥ १० ॥ विद्वान् लोग पुत्रहीन का मुख अमंगल होने के नाते कभी नहीं देखना चाहते और वह अपुत्री भी अपना मुख दिखाने में लज्जा का अनुभव करता है ॥ १० ॥ अथवा गरलं भुक्त्वा प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् । अपुत्रपौत्रमशिवं गृहं स्यात्स्त्रीविहीनकम् ॥ ११ ॥ अथवा मैं विष मक्षण कर अग्नि में पैठ जाऊँगी । क्योंकि पुत्र-पौत्र एवं स्त्रीहीन गह अमंगल रूप है ॥ ११ ॥ इत्येवमुक्त्वा सा साक्षाद्ब्रह्मणोऽग्रे रुरोद ह । कृपानिधिश्च तांष्ट्वा प्रवक्तुमुपचकमे ॥ १२ ॥ इतना कह कर वह ब्रह्मा के सामने रोने लगीं । अनन्तर कृपानिधान ब्रह्मा ने उसकी ओर देख कर कहना आरम्भ किया ॥ १२ ॥ ब्रह्मोवाच शृणु वत्से प्रवक्ष्यामि पुत्रोपायं सुखावहम् । सर्वैश्वर्यादिबीजं च सर्ववाञ्छाप्रदं शुभम् ॥ १३ ॥ ब्रह्मा बोले-हे वत्से ! मैं तुम्हें पुत्र उत्पन्न होने का सुखप्रद उपाय बता रहा हूँ, जो समस्त ऐश्वर्य प्राप्ति का कारण, समस्त मनोरथ सिद्ध करनेवाला एवं शुभ है ॥ १३ ॥ माघशुक्लत्रयोदश्यां व्रतमेतत्सुपुण्यकम् । कर्तव्यं शुद्धकाले च कृष्णमाराध्य सर्वदम् ॥ १४ ॥ माघ-शुक्ल-त्रयोदशी में सुपुण्यक नामक व्रत होता है । शुद्ध काल में सर्वदाता भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना पूर्वक वह व्रत सुसम्पन्न करना चाहिए ॥ १४ ॥ संवत्सरं च कर्तव्यं सर्वविघ्नविनाशनम् । द्रव्याणि वेदैरुक्तानि व्रते देयानि सुव्रते ॥ १५ ॥ हे सुव्रते ! समस्त विघ्नों का नाश करने वाला वह व्रत पूर्ण वर्ष भर करे और वेद में कही वस्तुएँ उस व्रत में दान करे ॥ १५ ॥ व्रतं च काण्वशाखोक्तं सर्ववाञ्छितसिद्धिदम् । कृत्वा पुत्रं लभ शुभे विष्णुतुल्यपराक्रमम् ॥ १६ ॥ हे शुभे ! इस प्रकार काण्व शाखा के अनुसार समस्त मनोरथ को सिद्ध करने वाले उस व्रत को सुसम्पन्न कर भगवान् विष्णु के समान पराक्रमी पुत्र प्राप्त करो ॥ १६ ॥ ब्रह्मणश्च वचः श्रुत्वा सा कृत्वा व्रतमुत्तमम् । प्रियव्रतोत्तानपादौ लेभे पुत्रौ मनोहरौ ॥ १७ ॥ ब्रह्मा की बातें सुनकर उसने उस व्रत को सुसम्पन्न किया, जिससे उसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो मनोहर पुत्र प्राप्त हुए । ॥ १७ ॥ व्रतं कृत्वा देवहूतिर्लेभे सिद्धेश्वरं सुतम् । नारायणांशं कपिलं पुण्यकं सिद्धिदं शुभम् ॥ १८ ॥ देवहूति ने सिद्धिदायक तथा पवित्र पुण्यक व्रत करके सिद्धों के ईश्वर, तथा नारायण के अंश से संभूत कपिल नामक पुत्र प्राप्त किया, ॥ १८ ॥ अरुन्धतीदं कृत्वा तु लेभे शक्तिसुतं शुभा । शक्तिकान्ता व्रतं कृत्वा सुतं लेभे पराशरम् ॥ १९ ॥ अरुन्धती ने इसे सुसम्पन्न कर शक्ति नामक पुत्र प्राप्त किया और शक्ति की कान्ता ने इसे सम्पन्न कर पराशर नामक पुत्र लाभ किया ॥ १९ ॥ अदितिश्च व्रतं कृत्वा लेभे वामनकं सुतम् । शची जयन्तं पुत्रं च लेभे कृत्वेदमीश्वरी ॥ २० ॥ अदिति ने इस व्रत के द्वारा वामनावतार पुत्र और देवों की ईश्वरी इन्द्राणी ने इसके द्वारा जयन्त नामक पुत्र को प्राप्त किया ॥ २० ॥ उत्तानपादपत्नीदं कृत्वा लेभे ध्रुवं सुतम् । कुबेरजाया कृत्वेदं लेभे च नलकूबरम् ॥ २१ ॥ सूर्यपत्नी मनुं लेभे कृत्वेदं व्रतमुत्तमम् । अत्रिपत्नी सुतं चन्द्रं लेभे कृत्वेदमुत्तमम् ॥ २२ ॥ उत्तानपाद की पत्नी ने इस व्रत को समाप्त कर ध्रुव नामक पुत्र लाभ किया, कुवेर की पत्नी ने इस व्रत को करके नल-कूवर नामक दो पुत्र लाभ किये और सूर्य की पत्नी संज्ञा ने इस व्रत को सुसम्पन्न कर मनु पुत्र प्राप्त किया एवं अत्रि की पत्नी (अनसूया) ने चन्द्रमा नामक उत्तम पुत्र प्राप्त किया ॥ २१-२२ ॥ लेभे चाङ्गिरसः पत्नी कृत्वेदं व्रतमुत्तमम् । बृहस्पतिं सुरगुरुं पुत्रमस्य प्रभावतः ॥ २३ ॥ अंगिरा की पत्नी ने इस उत्तम व्रत को सम्पन्न कर बृहस्पति नामक पुत्र प्राप्त किया, जो देवों के गुरु हैं ॥ २३ ॥ भृगोर्भार्या व्रतं कृत्वा लेभे दैत्यगुरुं सुतम् । शुक्रं नारायणांशं च सर्वतेजस्विनां वरम् ॥ २४ ॥ भृगु की पत्नी ने इसी व्रत के प्रभाव से शुक्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो दैत्यों के गुरु, नारायण के अंश एवं समस्त तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं ॥ २४ ॥ इत्येवं कथितं देवि व्रतानां व्रतमुत्तमम् । त्वमेवं कुरु कल्याणि हिमालयसुते शुभे ॥ २५ ॥ हे देवि ! समस्त व्रतों में परमोत्तम व्रत मैंने इस प्रकार तुम्हें बता दिया । अतः हे कल्याणि ! हे हिमालय-सुते ! शुभे ! तुम भी इस प्रकार सम्पन्न करो ॥ २५ ॥ साध्यं राजेन्द्रपत्नीनां देवीनां च सुखावहम् । व्रतमेतन्महासाध्वि साध्वीनां प्राणतः प्रियम् ॥ २६ ॥ हे महासाध्वि ! महारानियों के लिए यह व्रत साध्य है, देवियों के लिए सुखप्रद तथा पतिव्रताओं को प्राणों से भी अधिक प्रिय है ॥ २६ ॥ व्रतस्यास्य प्रभावेण स्वयं गोपाङ्गनेश्वरः । ईश्वरः सर्वभूतानां तव पुत्रो भविष्यति ॥ २७ ॥ इस व्रत के प्रभाव वश गोपांगनाओं के अधीश्वर भगवान् कृष्ण, जो समस्त भूतों के अधीश्वर हैं, स्वयं तुम्हारे पुत्र होंगे ॥ २७ ॥ इत्युक्त्वा शंकरस्तत्र विरराम च नारद । व्रतं चकार सा देवी प्रहृष्टा शंकराज्ञया ॥ २८ ॥ हे नारद ! इतना कहकर शिवजी चुप हो गये । अनन्तर देवी ने शंकर जी की आज्ञा शिरोधार्य कर अत्यन्त प्रसन्नता से इस व्रत को सुसम्पन्न किया ॥ २८ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि । सुखदं मोक्षदं सारं गणेशजनिकारणम् ॥ २९ ॥ इस भाँति मैंने सब कुछ सुना दिया जो सुख, मोक्षप्रद एवं गणेश जन्म का कारण है, और अब क्या सुनना चाहते हो ॥ २९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पुण्यकव्रतकथनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में पुण्यक व्रत कथन नामक पांचवां अध्याय समाप्त ॥ ५ ॥ |