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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - षष्ठोऽध्यायः


पुण्यकव्रतकथनम् -
पुण्यकव्रत के लिए आज्ञा-ग्रहण -


शौनक उवाच
नारायणवचः श्रुत्वा नारदो हृष्टमानसः ।
किं पप्रच्छ पुनः साधो तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ १ ॥
शौनक बोले-हे साधो ! हे तपोधन ! नारायण की बातें सुनकर प्रसन्न चित्त नारद ने पुनः क्या प्रश्न किया, वह मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥

सूत उवाच
नारायणवचः श्रुत्वा नारदो हृष्टमानसः ।
व्रतारम्भविधानं च संप्रष्टुमुपचत्रमे ॥ २ ॥
सूत बोले-नारायण की बातें सुनकर नारद जी प्रसन्नचित्त होकर व्रत का आरम्भ-विधान पूछने लगे ॥ २ ॥

नारद उवाच
कृतं केन प्रकारेण व्रतमेतच्छुभावहम् ।
तन्मे ब्रूहि मुनिश्रेष्ठ पार्वत्या भर्तुराज्ञया ॥ ३ ॥
नारद बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! पति की आज्ञा शिरोधार्य कर पार्वती ने इस शुभप्रद व्रत को किस प्रकार सुसम्पन्न किया, वह मुझे बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥

ललाभ जन्म गोपीशः कृते सुव्रतया व्रते ।
ब्रह्मन्तेन प्रकारेण तन्नः शंसितुमर्हसि ॥ ४ ॥
हे ब्रह्मन् ! उत्तम व्रत को सम्पन्न करने वाली पार्वती जी द्वारा इस व्रत के पूर्ण होने पर भूतेश भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके यहाँ किस प्रकार जन्म ग्रहण किया, यह कृपया मुझे बतायें ॥ ४ ॥

नारायण उवाच
कथयित्वा कथां दिव्यां विधानं च व्रतस्य च ।
स्वयं विधाता तपसां जगाम तपसे शिवः ॥ ५ ॥
नारायण बोले-तप के विधाता शिव ने स्वयं इस व्रत की दिव्य कथा और विधान कहकर तप के लिए प्रस्थान किया ॥ ५ ॥

हरेराराधनव्यग्रो मूर्तिभेदधरो हरिः ।
हरिभावनशीलश्च हरिध्यानपरायणः ॥ ६ ॥
क्योंकि भगवान् की आराधना के लिए वे सदैव व्यग्र रहा करते हैं, भगवान् का रूपान्तर धारण करने के नाते वे हरि हैं, हरि की सतत भावना बनाये रखना उनका शील (स्वभाव) है । इसीलिए भगवान् के ध्यान में तन्मय रहते हैं ॥ ६ ॥

परमानन्दपूर्णश्च ज्ञानानन्दः सनातनः ।
दिवानिशं न जानाति हरिमन्त्रं बहिः स्मरन् ॥ ७ ॥
वे परमानन्द से पूर्ण, ज्ञानानन्द और सनातन हैं, भगवान् के मन्त्र-जप में संलग्न रहने के कारण उन्हें बाहर दिन-रात्रि का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता है ॥ ७ ॥

प्रहृष्टमनसा देवी पार्वती भर्तुराज्ञया ।
किंकरान्प्रेरयामास विप्रांश्च व्रतहेतवे ॥ ८ ॥
प्रसन्नचित्त पार्वती ने पति की आज्ञा से इस व्रत के निमित्त सेवकों और ब्राह्मणों को प्रेरित किया ॥ ८ ॥

आनीय सर्वद्रव्याणि व्रते योग्यानि यानि च ।
व्रतं कर्तु समारेभे शुभदा सा शुभे क्षणे ॥ ९ ॥
शुभदायिनी पार्वती ने व्रत की समस्त योग्य वस्तुओं के आ जाने पर शुभ मुहूर्त में इस व्रत को आरम्भ किया ॥ ९ ॥

सनत्कुमारो भगवानाजगाम विधेः सुतः ।
मूर्तिमांस्तेजसा राशिः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ १० ॥
ब्रह्मा के पुत्र भगवान् सनत्कुमार का वहाँ आगमन हुआ, जो प्रज्वलित ब्रह्मतेज से मूर्तिमान् तेज की राशि मालूम हो रहे थे ॥ १० ॥

ब्रह्मा जगाम हृष्टश्च ब्रह्मलोकात्सभार्यकः ।
अतित्रस्तो हि भगवानाजगाम सुरेश्वरः ॥ ११ ॥
ब्रह्मा भी प्रसन्न होकर ब्रह्मलोक से पत्नी समेत वहाँ आये और अति त्रस्त देवेश्वर भगवान् भी आये ॥ ११ ॥

विष्णुः क्षीरोदशायी च सलक्ष्मीकश्चतुर्भुजः ।
भगवाञ्जगतां पाता शास्ता भर्ता सपार्षदः ॥ १२ ॥
वनमालाधरः श्यामो भूषितो रत्‍नभूषणैः ।
तथा संभृतसंभारो रत्‍नयानेन नारद ॥ १३ ॥
तथा क्षीरसागर में शयन करनेवाले चतुर्भुजधारी भगवान् विष्णु भी, जो जगत् के पालक एवं शासनकर्ता हैं, लक्ष्मी तथा पार्षदों समेत रत्नयान द्वारा वहाँ पधारे । वे वनमाला धारण किये, श्यामवर्ण, रत्नभूषणों से भूषित एवं समस्त-सामग्री-सम्पन्न थे ॥ १२-१३ ॥

सनकश्च सनन्दश्च कपिलश्च सनातनः ।
आसुरिश्च क्रतुर्हंसो वोढुः पञ्चशिखोऽरुणिः ॥ १४ ॥
यतिश्च सुमतिश्चैव वसिष्ठश्च सहानुगः ।
पुलहश्च पुलस्त्यश्चाप्यत्रिश्च भृगुरङ्‌गिराः ॥ १५ ॥
अगस्त्यश्च प्रचेताश्च दुर्वासाश्च्यवनस्तथा ।
मरीचिः कश्यपः कण्वो जरत्कारुश्च गौतमः ॥ १६ ॥
बृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्तः सौभरिस्तथा ।
जाबालिर्जमदग्निश्च जैगीषव्यश्च देवलः ॥ १७ ॥
गोकामुखो वक्ररथः पारिभद्रः पराशरः ।
विश्वामित्रो वामदेव ऋष्यशृङ्‌गो विभाण्डकः ॥ १८ ॥
मार्कण्डेयो मृकण्डुश्च पुष्करो लोमशस्तथा ।
कौत्सो वत्सश्च दक्षश्च बालाग्निरघमर्षणः ॥ १९ ॥
कात्यायनः कणादश्च पाणिनिः शाकटायनः ।
शङ्‌कुरापिशलिश्चैव शाकल्यः शङ्‌ख एव च ॥ २० ॥
हे नारद ! अनन्तर सनक, सनन्द, कपिल, सनातन, आसुरि, ऋतु, हंस, वोढु, पञ्चशिख, अरुणि, यति, सुमति, शिष्य समेत वशिष्ठ, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, भृगु, अंगिरा, अगस्त्य, प्रचेता, दुर्वासा, च्यवन, मरीचि, कश्यप, कण्व, जरत्कारु, गौतम, बृहस्पति, उतथ्य, संवर्त, सौभरि, जाबालि, जमदग्नि, रोषव्य, देवल, गोकामुख, वक्ररथ, पारिभद्र, पराशर, विश्वामित्र, वामदेव, ऋष्यशृंग, विभाण्डक, मार्कण्डेय, मकुण्ड, पुष्कर, लोमश, कोत्स, वत्स, दक्ष, बालाग्नि, अघमर्षण, कात्यायन, कणाद, पाणिनि, शाकटायन, शंकु, आपिशलि, साकल्य और शंख आये ॥ १४-२० ॥

एते चान्ये च बहवः सशिष्यामुनयो मुने ।
आवां च धर्मपुत्रौ च नरनारायणौ समौ ॥ २१ ॥
हे मुने ! इनके अतिरिक्त और भी अनेक मुनिगण अपने-अपने शिष्यों समेत वहाँ आये । धर्मपुत्र और हम दोनों-नरनारायण भी गये ॥ २१ ॥

दिक्पालाश्च तथा देवा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ।
आजग्मुः पर्वताः सर्वे सगणाः पार्वतीव्रते ॥ २२ ॥
तथा दिक्पाल, देवगण, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और गण समेत समस्त पर्वत भी पार्वती के उस व्रत में आये ॥ २२ ॥

हिमालयः शैलराजः सापत्यश्च सभार्यकः ।
सगणः सानुगश्चैव रत्‍नभूषणभूषितः ॥ २३ ॥
तथा संभृतसंभारो नानाद्रव्यसमन्वितः ।
मणिमाणिक्यरत्‍नानि व्रते योग्यानि यानि च ॥ २४ ॥
नानाप्रकारवस्तूनि जगत्यां दुर्लभानि च ।
लक्षं च गजरत्‍नानामश्वरत्‍नं त्रिलक्षकम् ॥ २५ ॥
दशलक्षं गवां रत्‍नं शतलक्षं सुवर्णकम् ।
रुचकानां हीरकाणां स्पर्शानां च तथैव च ॥ २६ ॥
मुक्तानां च चतुर्लक्षं कौस्तुभानां सहस्रकम् ।
सुस्वादुनानाद्रव्याणां लक्षभाराणि कौतुकी ॥
अनन्तरत्‍नप्रभव आजगाम सुताव्रते ॥ २७ ॥
पर्वतराज हिमालय ने स्त्री-बच्चे, गणों और सेवकों समेत रत्नों के भूषणों से भूषित होकर वहाँ आगमन किया, जो विपुल सामग्री-अनेक भाँति के द्रव्य, मणि, माणिक्य, रत्न, व्रत के योग्य अनेक माँति की जगत्-दुर्लभ वस्तुएँ, एक लाख गजेन्द्र, तीन लाख उत्तम घोडे, दश लाख गौएँ, सो लाख रत्न, उतना ही सुवर्ण, रुचक (सोने के सिक्के), हीरा, स्पर्श मणि, चार लाख मोती, सहस्र कौस्तुभमणि और सुस्वादु अनेक भांति के द्रव्यों का एक लाख भार लाये थे । इस प्रकार अपनी पुत्रीके व्रत में अनन्त रत्नों के उद्गम स्थान हिमालय कुतूहल से पधारे थे ॥ २३-२७ ॥

ब्राह्मणा मनवः सिद्धा नागा विद्याधरास्तथा ।
संन्यासिनो भिक्षुकाश्च बन्दिनः पार्वतीव्रते ॥ २८ ॥
पार्वती के उस व्रत में ब्राह्मण-वृन्द, मनुगण, सिद्ध, नाग, विद्याधर, संन्यासी, भिक्षुक एवं बन्दीगण आये ॥ २८ ॥

विद्याधरी नर्तकी च नर्तकाप्सरसां गणाः ।
नानाविधा वाद्यभाण्डा आजग्मुः शिवमन्दिरम् ॥ २९ ॥
नर्तकी विद्याधरी, नर्तक गण, अप्सराओं के गण और अनेक भांति के बाजे बजाने वाले शिव के घर आये ॥ २९ ॥

कैलासराजमार्गं च चन्दनेन सुसंस्कृतम् ।
आम्रपल्लवसूत्राढ्यं कदलीस्तम्भशोभितम् ॥ ३० ॥
दूर्वाधान्यफलैः पर्णलाजषुष्पैर्विभूषितम् ।
निर्मितं पद्मरागेण ददृशुस्ते गणा मुदा ॥ ३१ ॥
उस समय कैलास का राजमार्ग चन्दन से सुसंस्कृत, सूत्र में बंधे आम के पल्लव और कदली स्तम्भ से सुशोभित तथा दूर्वा, धान्यफलों, पत्तों, लावे तथा पुष्पों से विभूषित था, जो पद्यरागमणि से बनाया गया था । अभ्यागत वर्ग उसे बड़ी प्रसन्नता से देख रहे थे ॥ ३०-३१ ॥

उच्चैः सिंहासनेष्वेते पूजिताः शंकरेण च ।
कैलासवासिनः सर्वे परमानन्दसंयुताः ॥ ३२ ॥
शंकर जी ने उचित पूजन कर सबको ऊँचे सिंहासनों पर बैठाया, उस समय समस्त कैलासवासी परमानन्द-मग्न थे ॥ ३२ ॥

दानाध्यक्षः शुनाशीरः कुबेरः कोशरक्षकः ।
आदेष्टा च स्वयं सूर्यः परिवेष्टा जलाधिपः ॥ ३३ ॥
दध्नां नद्यः सहस्राणि दुग्धानां च तथैव च ।
सहस्राणि घृतानां च गुडानां च शतानि च ॥ ३४ ॥
माध्वीकानां सहस्राणि तैलानां च शतानि च ।
लक्षाणि चैव तक्राणां बभूवुः पार्वतीव्रते ॥ ३५ ॥
उस व्रत में इन्द्र दानाध्यक्ष, कुबेर कोषाध्यक्ष, सूर्य आदेश देने वाले, वरुण परोसने वाले, दही की सहस्र नदियाँ, दुग्ध की सहस्र नदियाँ, घृत की सहस्र नदियाँ, गुड की सौ, आसवों की सहस्र, तेलों की सौ और मट्ठे की एक लाख नदियां थीं ॥ ३३-३५ ॥

पीयूषाणां च कुम्भानि शतलक्षाणि नारद ।
मिष्टान्नानां शर्कराणां बभूवुर्लक्षराशयः ।
यवगोधूमचूर्णानां घृताक्तानां च नारद ॥ ३६ ॥
स्वस्तिकानां च पूपानां बभूवुर्लक्षराशयः ।
गुडसंस्कृतलाजानां बभूवुः कोटिराशयः ॥ ३७ ॥
हे नारद ! सौ लाख अमृत के कलश तथा मिष्टान्न और शक्करों की एक लाख राशियां थीं । हे नारद ! जवा और गेहूँ के आटे की भी उतनी ही राशियाँ थीं । घी में तर पूओं और मलपूओं की एक लाख राशि, गुड़ पाक लावे की करोड़ राशियाँ थीं ॥ ३६-३७ ॥

शालीनां पृथुकानां च राशीनां दशकोटयः ।
वरतण्डुलराशीनां मुने संख्या न विद्यते ॥ ३८ ॥
चिउड़े और जड़हन चावलों की दश करोड़ राशियाँ थीं । हे मुने? उत्तम चावलों की राशियों की तो संख्या ही नहीं थी ॥ ३८ ॥

स्वर्णरौप्यप्रवालानां मणीनां च महामुने ।
बभूवुः पर्वतास्तत्र कैलासे पार्वतीव्रते ॥ ३९ ॥
हे महामुने ! पार्वती के व्रत में कैलास पर सोने, चाँदी, प्रवाल (मुंगे) और मणियों के पर्वत ही थे ॥ ३९ ॥

पायसं पिष्टकं चैव शाल्यन्नं सुमनोहरम् ।
चकार लक्ष्मीः पाकं च व्यञ्जनं घृतसंस्कृतम् ॥ ४० ॥
खीर, पीठी, मनोहर चावल के भात और घी में बघारी गई तरकारियों का पाक स्वयं लक्ष्मी ने किया ॥ ४० ॥

बुभुजे देवर्षिगणैः शिवो नारायणेन च ।
बभूवुर्लक्षविप्राश्च परिवेषणकारकाः ॥ ४१ ॥
भगवान् नारायण और देवर्षिगणों समेत शिव भोजन कर रहे थे । एक लाख ब्राह्मण उसमें परोसने का कार्य कर रहे थे ॥ ४१ ॥

ताम्बूलं च ददौ तेभ्यः कर्पूरादिसुवासितम् ।
रत्‍नसिंहासनस्थेभ्यो विप्रलक्षाः सुदक्षकाः ॥ ४२ ॥
एक लाख अति चतुर ब्राह्मणगण रत्नसिंहासनों पर सुखासीन अतिथियों को कपूर आदि से सुवामित ताम्बूल प्रदान से सम्मानित कर रहे थे ॥ ४२ ॥

रत्‍नसिंहासनस्थं च विष्णुं क्षीरोदशायिनम् ।
सेव्यमानं पार्षदैश्च सस्मितैः श्वेतचामरैः ॥ ४३ ॥
ऋषिभिः स्तूयमानं च सिद्धैर्देवगणैस्तथा ।
विद्याधरीणां नृत्यानि पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ ४४ ॥
गन्धर्वाणां च संगीतं श्रुतवन्तं मनोहरम् ।
पप्रच्छ शंकरो ब्रह्मन्ब्रह्मेशं प्रीतिपूर्वकम् ॥ ४५ ॥
ब्रह्मणा प्रेरितो युक्तं व्रतं कर्तव्यमीप्सितम् ।
देवर्षिगणपूर्णायां सभायां संपुटाञ्जलिः ॥ ४६ ॥
हे ब्रह्मन् ! क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु रत्न-सिंहासन पर सुशोभित हो रहे थे । मन्द मुसुकान करते हुए पार्षदगण श्वेत चामर द्वारा उनकी सेवा कर रहे थे । ऋषिगण, सिद्ध वर्ग और देवगण स्तुति कर रहे थे । प्रसन्नचित्त भगवान् मन्द-मन्द मुसुकाते हुए विद्यारियों का नृत्य और गन्धों के मनोहर संगीत सुन रहे थे । उसी समय शिव ने, जो ब्रह्मा से प्रेरित, अभीष्ट व्रत को पूर्ण कराने में तत्पर और देवों ऋषियों आदि गणों से भरी सभा में हाथ जोड़े खड़े थे, ब्रह्मेश विष्णु से सप्रेम पूछा, ॥ ४३-४६ ॥

महादेव उवाच
मदीयं वचनं नाथ श्रीनिवास शृणु प्रभो ।
तपःस्वरूप तपसां कर्मणां च फलप्रद ॥ ४७ ॥
महादेव बोले-हे नाथ ! हे श्रीनिवास ! हे प्रभो ! तपःस्वरूप, तथा तप और कर्मों के फल प्रदान करने वाले ! मेरी प्रार्थना सुनने की कृपा करें ॥ ४७ ॥

व्रतानां जपयज्ञानां पूजानां सर्वपूजित ।
सर्वेषां बीजरूपेण वाञ्छाकल्पतरो हरे ॥ ४८ ॥
सुपुण्यकव्रतं कर्तुं ब्रह्मन्निच्छति पार्वती ।
पुत्रार्थिनी सा शोकार्ता हृदयेन विदूयता ॥ ४९ ॥
व्रतों, जप-यज्ञों और पूजनों में सबसे पूजित ! हे हरे ! सभी के बीजरूप और अभीष्ट सिद्धि के कल्पतरु ! हे ब्रह्मन् ! पार्वती जी को पुत्र की कामना है, इसी कारण हार्दिक दुःख से वे शोकग्रस्त होकर पुण्यक व्रत करना चाहती हैं ॥ ४८-४९ ॥

रतिभङ्‌गे कृते देवैर्व्यर्थवीर्यशुचाऽर्दिता ।
प्रबोधिता मया साध्वी विविधैर्वचनामृतैः ॥ ५० ॥
देवों द्वारा रति भंग होने पर वीर्य व्यर्थ हो गया था, जिससे वे अधिक चिन्तित हुई । अनन्तर मैंने उस पतिव्रता को अनेक भाँति के अमृत-मय वचनों द्वारा समझा कर शान्त किया ॥ ५० ॥

सत्पुत्रं स्वामिसौभाग्यं सुव्रता याचते व्रते ।
ताभ्यां विना न संतुष्टा स्वप्राणांस्त्यक्तुमिच्छति ॥ ५१ ॥
इस व्रत में वह सुव्रता स्वामिसौभाग्य रूप सत्पुत्र की याचना कर रही है, इन दोनों के बिना वह सन्तुष्ट नहीं हो सकती, वह अपना प्राण त्याग करने पर तैयार है ॥ ५१ ॥

पुरा त्यक्त्वा स्वदेहं च पितृयज्ञे च मानिनी ।
मन्निन्दया हिमवति पुनर्जन्म ललाभ सा ॥ ५२ ॥
पूर्व काल में उस मानिनी ने मेरी निन्दा के कारण अपने पिता के यज्ञ में अपनी देह त्यागकर हिमालय के यहाँ पुनः जन्म धारण किया था ॥ ५२ ॥

सर्व जानासि वृत्तान्तं सर्वज्ञं त्वां वदामि किम् ।
काऽऽज्ञा तां वद तत्त्वज्ञ परिणामशुभप्रदाम् ॥ ५३ ॥
हे तत्वज्ञ ! आप सर्वज्ञ हैं । अतः समस्त वृत्तान्त जानते हैं, मैं आपसे क्या कहूँ । क्या आज्ञा है ? परिणाम में शुभप्रद उस आज्ञा को कहने की कृपा कीजिये ॥ ५३ ॥

दुर्निवार्यश्च सर्वेश स्त्रीस्वभावश्च चापलः ।
दुस्त्याज्यं योगिभिः सिद्धैरस्माभिश्च तपस्विभिः ॥ ५४ ॥
जितेन्द्रियैर्जितक्रोधैः स्त्रीरूपं मोहकारणम् ।
सर्वमायाकरण्डं च कामवर्धनकारणम् ॥ ५५ ॥
क्योंकि हे सर्वेश ! स्त्रियों का स्वभाव दुनिवार और चपल होता है । और स्त्रियों का रूप हम योगियों, सिद्धों, तपस्वियों, जितेन्द्रियों और क्रोधजयी लोगों के लिए भी दुस्त्यज है । स्त्री-रूप मोह का कारण, समस्त माया का करण्ड (सन्दूक), और काम-वृद्धि का कारण है ॥ ५४-५५ ॥

ब्रह्मास्त्रं कामदेवस्य दुर्भेद्यं जयकारणम् ।
सुनिर्मितं च विधिना सर्वाद्यं विधिपूर्वकम् ॥ ५६ ॥
ब्रह्मा ने सर्वप्रथम कामदेव के विजयार्थ इस दुर्भद्य ब्रह्मास्त्र का विधिपूर्वक निर्माण किया ॥ ५६ ॥

मोक्षद्वारकपाटं च हरिभक्तिनिरोधनम् ।
संसारबन्धनस्तम्भरज्जुरूपमकृन्तनम् ॥ ५७ ॥
वैराग्यनाशबीजं च शश्वद्‍रागविवर्धनम् ।
पत्तनं साहसानां च दोषाणामालयं सदा ॥ ५८ ॥
अप्रत्ययानां क्षेत्रं च स्वयं कपटमूर्तिमत् ।
अहंकाराश्रयं शश्वद्‌विषकुम्भं सुधामुखम् ॥ ५९ ॥
सर्वैरसाध्यमानं च दुराराध्यं च सर्वदा ।
स्वकार्यसाध्याचाराढ्य कलहाङ्‌करकारणम् ॥ ६० ॥
वह मोक्ष-द्वार का कपाट (किवाड़), भगवान की भक्ति का निरोधक, संसारबन्धन के स्तम्भ की अकाट्य रस्सी रूप, वैराग्य के नाश का कारण, निरन्तर राग-(मोह) वर्द्धक, साहसों का नगर, दोषों का घर, अविश्वास का क्षेत्र, स्वयं मूर्तिमान् कपट, अहंकार का आश्रय, निरन्तर अमृतमुख विष का कलश, सभी लोगों से असाध्य, सदा दुराराध्य, अपने कार्य साधने में निपुण एवं कलह रूप अंकुर का बीज है ॥ ५७-६० ॥

सर्वं निवेदितं नाथ कर्तव्यं वक्तुमर्हसि ।
कार्यं सर्वं परामर्शे परिणामसुखावहम् ॥ ६१ ॥
हे ब्रह्मन् ! मैंने सब कुछ कह दिया । अब आप मेरा कर्तव्य कहने की कृपा करें, जो परामर्श में करणीय और परिणाम में सुखप्रद हो ॥ ६१ ॥

नारायण उवाच
इत्येवमुक्त्वा भगवान्निरीक्ष्य ब्रह्मणो मुखम् ।
विरराम सभामध्ये स्तुत्वा च कमलापतिम् ॥ ६२ ॥
शंकरस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य जगदीश्वरः ।
हितं च नीतिवचनं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ६३ ॥
बोल-सभा मध्य में भगवान् शंकर ने इतना कह कर ब्रह्मा के मुख की ओर देखा और कमलापति भगवान् की स्तुति करके मौन धारण कर लिया । शंकर जी की बातें सुनकर भगवान् जगदीश्वर ने हंसकर कहना आरम्भ किया, जो हितकर और नीति-सम्मत था ॥ ६२-६३ ॥

विष्णुरुवाच
सुपुण्यकव्रतं सारं सतीसंतानहेतवे ।
स्वामिसौभाग्यबीजं च पत्‍नी ते कर्तुमिच्छति ॥ ६४ ॥
विष्णु बोले-तुम्हारी पत्नी सती संतान की कामना से सुपुण्यक नामक व्रत करना चाहती है, जो सार रूप और स्वामी के सौभाग्य का बीज रूप है ॥ ६४ ॥

सर्वासाध्यं दुराराध्यं सर्वकामफलप्रदम् ।
सुखदं सुखसारं च मोक्षदं पार्वतीश्वर ॥ ६५ ॥
हे पार्वतीश्वर ! वह व्रत सब के लिए असाध्य, दुःख से माराधना करने योग्य, समस्त कामनाओं के फलों का प्रदाता, सुखप्रद, सुख का सार रूप और मोक्षप्रद है ॥ ६५ ॥

सर्वेश्वरो व्रतपरो व्रताराध्यो गुणात्परः ।
गोलोकनाथो भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः ॥ ६६ ॥
आत्मा साक्षिस्वरूपश्च ज्योतीरूपः सनातनः ।
निराश्रयश्च निर्लिप्तो निरुपाधिर्निरामयः ॥ ६७ ॥
भक्तप्राणश्च भस्तेशो भक्तानुग्रहकारकः ।
दुराराध्यो हि योऽन्येषां भक्तानामतिसाधकः ॥ ६८ ॥
भगवान् कृष्ण सबके ईश्वर, व्रतपरायण, व्रत के द्वारा आराधनीय, गुणसे परे, गोलोकनाथ, पूर्ण ब्रह्म, सनातन, आत्मा, साक्षिस्वरूप, ज्योतिरूप, सनातन, निराश्रय, निलिप्त, उपाधि रहित, निरामय, भक्तों के प्राण, भक्तों के अधीश्वर और भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं । जो अन्य के लिए दुराराध्य है, वह भक्तों के लिए अति साध्य हैं ॥ ६६-६८ ॥

भक्त्यधीनो हि भगवान्सर्वसिद्धो हि निष्कलः ।
ते यस्य च कलाः पुंसो ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ६९ ॥
महान्विराड्यदंशश्च निर्लिप्तः प्रकृतेः परः ।
अव्ययो निग्रहश्चोग्रो भक्तानुग्रहविग्रहः ॥ ७० ॥
उग्रग्रहो ग्रहाणां च ग्रहनिग्रहकारकः ।
त्रिकोटिजन्ममध्ये च न साध्यो भवता विना ॥ ७१ ॥
भगवान् भक्ति के अधीन रहते हैं, वे सर्वसिद्ध एवं निष्कल हैं । ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर जिस पुरुष की कला रूप हैं, महाविराट् जिस का अंश है, वह निलिप्त, प्रकृति से परे, अव्यय (एक समान रहने वाला), निग्रह, उग्र, भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीरधारी, ग्रहों में उग्र ग्रह और ग्रहों का निग्रह करनेवाला है वह आपके बिना तीन करोड़ जन्मों में भी सिद्ध होने वाला नहीं है ॥ ६९-७१ ॥

लब्ध्वा हि भारते जन्म हरिभक्तिं लभेन्नरः ।
सेवनं क्षुद्रदेवानां कृत्वा सप्तसु जन्मसु ॥
सूर्यमन्त्रमवाप्नोति केवलं स तदाशिषा ॥ ७२ ॥
भारत देश में जन्म धारण करने से मनुष्य भगवान् की भक्ति प्राप्त करता है । सात जन्मों तक छोटे-छोटे देवों की सेवा करने से उनके आशीर्वाद द्वारा वह केवल सूर्य का मन्त्र प्राप्त करता है ॥ ७२ ॥

सूर्यमन्त्रं समाराध्य त्रिषु जन्मसु भारते ।
प्राप्नोति शैवं मन्त्रं च सर्वदं मानवो मुदा ॥ ७३ ॥
भारत में तीन जन्मों तक सूर्य मन्त्र की आराधना करने पर मनुष्य भगवान शिव का सर्वप्रद मंत्र सहर्ष प्राप्त करता है । ॥ ७३ ॥

संसेव्य परया भक्त्या त्वामेव सप्तजन्मसु ।
प्राप्नोति मायामन्त्रं च त्वत्पादाब्जप्रसादतः ॥ ७४ ॥
शतजन्मसु चाऽऽराध्य मायां नारायणीं पराम् ।
नारायणकलां सेव्यां समवाप्नोति मानवः ॥ ७५ ॥
सात जन्मों तक परा भक्ति द्वारा तुम्हारी सेवा करने पर उसे तुम्हारे चरण कमल की कृपा से माया-मन्त्र प्राप्त होता है । सो जन्मों तक परा नारायणी माया की आराधना करने पर मानव सेवनीया नारायण-कला प्राप्त करता है ॥ ७४-७५ ॥

कलां निषेव्य वर्षेऽत्र पुण्यक्षेत्रे सुदुर्लभे ।
कृष्णभक्तिमवाप्नोति भक्तसंसर्गहैतुकीम् ॥ ७६ ॥
इस अति दुर्लभ एवं पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में कला की सेवा करने पर उसे भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त होती है, जो भक्तों के संसर्ग से ही उत्पन्न होती है ॥ ७६ ॥

संप्राप्य भक्तिं निष्पक्वां भ्रामंभ्रामं च भारते ।
प्राप्नोति परिपक्वां च भक्तिं भक्तनिषेवया ॥ ७७ ॥
अपरिपक्व भक्ति प्राप्त कर भारत में घूम-घूम कर भक्त भक्तों की सेवा द्वारा परिपक्व भक्ति प्राप्त करता है ॥ ७७ ॥

तदा भक्तप्रसादेन देवानामाशिषा शिव ।
श्रीकृष्णमंत्रं प्राप्नोति निर्वाणफलदं परम् ॥ ७८ ॥
हे शिव ! उस समय भक्त की कृपा और देवों के आशीर्वाद से उसे भगवान् श्रीकृष्ण का निर्वाण फल प्रदान करने वाला मन्त्र प्राप्त होता है ॥ ७८ ॥

कृष्णव्रतं कृष्णमन्त्रं सर्वकामफलप्रदम् ।
कृष्णतुल्यो भवेद्‌भक्तश्चिरं कृष्णनिषेवया ॥ ७९ ॥
कृष्ण का व्रत और कृष्ण का मंत्र सकलकामनादायक है । चिरकाल तक श्रीकृष्ण की सेवा कर के भक्त भगवान कृष्ण के तुल्य हो जाता है ॥ ७९ ॥

महति प्रलये पातः सर्वेषां वै सुनिश्चितम् ।
न पातः कृष्णभक्तानां साधूनामविनाशिनाम् ॥ ८० ॥
महा-प्रलय में सभी लोगों का निपात होना निश्चित रहता है किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त साधुओं का पात नहीं होता है, वे अविनाशी होते हैं ॥ ८० ॥

अविनाशिनि गोलोके मोदन्ते कृष्णकिंकराः ।
हसन्ति ते सुनिश्चिन्ता देवान्ब्रह्मादिकाञ्छिव ॥ ८ १ ॥
हे शिव ! उस अनश्वर गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण के सेवक (पार्षद) वर्ग आनन्द विभोर रहते हैं और सुनिश्चिन्त रहने के कारण वे ब्रह्मा आदि देवों का उपहास करते हैं ॥ ८१ ॥

त्वं संहर्ता च सर्वेषां न भक्तानां महेश्वर ।
माया मोहयते सर्वान् भक्तान्न कृपया मम ॥ ८२ ॥
हे महेश्वर ! तुम सब का संहार करते हो किन्तु भक्तों का कभी नहीं करते । माया सभी को मोहित करती है किन्तु मेरी कृपा से भक्तों को मोहित नहीं करती है ॥ ८२ ॥

माया नारायणी माता सर्वेषां कृष्णभक्तिदा ।
न कृष्णभक्तिं प्राप्नोति विना मायानिषेवणम् ॥ ८३ ॥
नारायणी माया सभी की माता है, वह कृष्ण की भक्ति प्रदान करती है, क्योंकि विना माया की सेवा किये भगवान् कृष्ण की भक्ति प्राप्त नहीं होती है ॥ ८३ ॥

सा च नारायणी माया मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
कृष्णप्रिया कृष्णभक्ता कृष्णतुल्याऽविनाशिनी ॥ ८४ ॥
वही नारायणी माया मूल प्रकृति एवं ईश्वरी कही जाती है, जो भगवान कृष्ण की प्रिया, उनकी भक्ता और उनके समान अविनाशिनी है ॥ ८४ ॥

सा च तेजः स्वरूपा च स्वेच्छाविग्रहधारिणी ।
आविर्भूता च देवानां तेजसाऽसुरनिग्रहे ॥ ८५ ॥
वह तेजःस्वरूप और अपनी इच्छा से शरीर धारण करती है । असुरों के युद्ध में वह देवों के तेज द्वारा उत्पन्न हुई थी ॥ ८५ ॥

निहत्य दैत्यसंघांश्च दक्षपन्त्यां च भारते ।
ललाभ दक्षतपसा जन्म चानेकजन्मनः ॥ ८६ ॥
दैत्यवृन्दों के संहार करने के अनन्तर देवी ने भारत में दक्ष के अनेक जन्म के तप के कारण उनकी पत्ली में जन्म ग्रहण किया था ॥ ८६ ॥

त्यक्त्वा देहं पितुर्यज्ञे सा सती तव निन्दया ।
जगाम देवी गोलोकं कृष्णशक्तिः सनातनी ॥ ८७ ॥
अनन्तर उस सती ने अपने पिता के यज्ञ में तुम्हारी निन्दा होने के कारण अपनी देह का त्याग कर दिया और वह कृष्ण की शक्ति सनातनी देवी गोलोक चली गयी ॥ ८७ ॥

गृहीत्वा विग्रहं तस्या गुणरूपाश्रयं परम् ।
भ्रामंभ्रमं भारते त्वं विषण्णोऽभूः पुरा हर ॥ ८८ ॥
हे हर ! पहले तुम गुण और रूप का परम आश्रय भूत सती का शरीर लेकर खिन्न मन से भारत में चारों ओर भ्रमण करते रहे ॥ ८८ ॥

प्रबोधितो मया त्वं च श्रीशैलेषु सरित्तटे ।
ललाभ जन्म सा शैलकान्तायामचिरेण च ॥ ८९ ॥
पश्चात् श्री शैल पर नदी के किनारे मैंने तुम्हें (समझा-बुझाकर) प्रबुद्ध किया । पुनः अल्पकाल में ही उस देवी ने हिमालय-पत्नी मेना में जन्म ग्रहण किया ॥ ८९ ॥

करोतु पुण्यकं साध्वी सुव्रता सुव्रतं शिवा ।
राजसूयसहस्राणां पुण्यं शंकर पुण्यके ॥ ९० ॥
अतः हे शंकर ! वह साध्वी एवं सुव्रता शिवा (पार्वती) पुण्यक नामक सुव्रत अवश्य सुसम्पन्न करे, क्योंकि पुण्यक सम्पन्न करने में सहस्रों राजसूय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है ॥ ९० ॥

राजसूयसहस्राणां व्रते यत्र धनव्ययः ।
न साध्यं सर्वसाध्वीनां व्रतमेतत्‌त्रिलोचन ॥ ९१ ॥
हे त्रिलोचन ! जिस व्रत के सुसम्पन्न करने में सहस्रों राजसूय के समान धन का व्यय हो, वह व्रत सभी पतिव्रताओं के लिए साध्य नहीं है ॥ ९१ ॥

स्वयं गोलोकनाथश्च पुष्पकस्य प्रभावतः ।
पार्वतीगर्भजातश्च तव पुत्रो भविष्यति ॥ ९२ ॥
इस पुण्यक व्रत के प्रभाववश, पार्वती के गर्भ से स्वयं श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्र होंगे ॥ ९२ ॥

स्वयं देवगणानां स यस्यादीशः कृपानिधिः ।
गणेश इतिविख्यातो भविष्यति जगत्‌त्रये ॥ ९३ ॥
वह कृपानिधान स्वयं देवगणों का ईश होने के नाते तीनों लोकों में 'गणेश' नाम से विख्यात होगा ॥ ९३ ॥

यस्य स्मरणमात्रेण विघ्ननाशो भवेद्ध्रुवम् ।
जगतां हेतुनाऽनेन विघ्ननिघ्नाभिधो विभुः ॥ ९४ ॥
जिसके स्मरण मात्र से विघ्नों का निश्चित नाश होगा, उस कारण समस्त जगत् में उस विभु का 'विघ्नेश्वर' नाम होगा ॥ ९४ ॥

नानाविधानि द्रव्याणि यस्माद्‌देयानि पुण्यके ।
भुक्त्वा लम्बोदरत्वं च तेन लम्बोदरः स्मृतः ॥ ९५ ॥
इस पुण्यक व्रत में अनेक भाँति की वस्तुओं का दान होगा और उसके भक्षण से उसका पेट बढ़ जायगा, इसलिए वह 'लम्बोदर' भी कहलायेगा ॥ ९५ ॥

शनिदृष्ट्या शिरश्छेदाद्‌गजवक्त्रेण योजितः ।
गजाननः शिशुस्तेन सर्वेषां सर्वसिद्धिदः ॥ ९६ ॥
शनि के देखने मात्र से उसका शिर कट जायगा और गज (हाथी) का मुख उसके धड़ पर जोड़ दिया जायेगा । इसलिए उस बच्चे को 'गजानन' कहेंगे जो सभी को सिद्धि प्रदान करेगा ॥ ९६ ॥

दन्तभङ्‌गः परशुना पर्शुरामस्य वै यतः ।
हेतुना तेन विख्यातश्चैकदन्ताभिधः शिशुः ॥ ९७ ॥
परशुराम के फरसा द्वारा उसका एक दांत टूट जायेगा इस कारण वह शिशु ‘एकदन्त' नाम से प्रख्यात होगा ॥ ९७ ॥

पूज्यश्च सर्वदेवानामस्माकं जगतां विभुः ।
सर्वाग्रे पूजनं तस्य भविता मद्वरेण वै ॥ ९८ ॥
यह हम सभी देवों और सारे जगत् का पूज्य होगा और मेरे वरदान द्वारा उस विभु का सब से पहले पूजन होगा ॥ ९८ ॥

पूजासु सर्वदेवानामग्रे संपूज्य तं जनः ।
पूजाफलमवाप्नोति निर्विघ्नेन वृथाऽन्यथा ॥ ९९ ॥
मनुष्य सभी देवों के पूजन में सबसे पहले उसकी पूजा कर के, पूजा का फल प्राप्त निविघ्न करेंगे अन्यथा व्यर्थ हो जायेगा ॥ ९९ ॥

गणेशं च दिनेशं च विष्णुं शंभुं हुताशनम् ।
दुर्गामेतान्संनिषेव्य पूजयेद्‌देवतान्तरम् ॥ १०० ॥
इसीलिए गणेश, दिनेश, विष्णु, शम्भु, अग्नि और दुर्गा, इन देवों की अर्चना के उपरान्त ही अन्य देवों की अर्चना करनी चाहिए ॥ १०० ॥

गणेशपूजने विघ्नं निर्मूलं जगतां भवेत् ।
निर्व्याधिः सूर्यपूजायां शुचिः श्रीविष्णुपूजने ॥ १०१ ॥
मोक्षश्च पापनाशश्च यशश्चैश्वर्यमुत्तमम् ।
तत्त्वज्ञानं सुतत्त्वानां बीजं शंकरपूजनात् ॥ १०२ ॥
गणेश के पूजन से जगत् का सारा विघ्न नष्ट हो जाता है, सूर्य की पूजा से नीरोग, श्री विष्णु के पूजन से पवित्रता और शंकर के पूजन से मोक्ष, पाप-नाश, कीति, परमोत्तम ऐश्वर्य, तत्वज्ञान और सुन्दर तत्त्वों का बीज प्राप्त होता है ॥ १०१-१०२ ॥

स्वबुद्धिशुद्धिजननं कीर्तितं वह्निपूजनम् ।
विधिसंस्कृतवह्नेस्तु पूजातो ज्ञानतो मृतिः ॥ १०३ ॥
अग्नि पूजन से अपनी बुद्धि शुद्ध होती है ऐसा कहा गया है । विधिपूर्वक संस्कृत अग्नि के पूजन से ज्ञान-मृत्यु प्राप्त होती है ॥ १०३ ॥

दाता भोक्ता च भवति शंकराग्निनिषेवणात् ।
हरिभक्तिपदं चैव परं दुर्गार्चनं शिवम् ॥ १०४ ॥
शिव और अग्नि की सेवा करने से मनुष्य दाता एवं भोगी होता है और मंगलमय दुर्गार्चन भगवान की भक्ति प्रदान करता है ॥ १०४ ॥

विपरीतं त्रिजगतामेतेषां पूजनं विना ।
एवं क्रमो महादेव कल्पे कल्पेऽस्ति निश्चितम् ॥ १०५ ॥
तीनों लोकों में इन देवों के पूजन बिना अन्य का पूजन करना विपरीत होगा । हे महादेव ! प्रत्येक कल्प में इसी प्रकार का क्रम निश्चित है ॥ १०५ ॥

एते शश्वद्विद्यमाना नित्याः सृष्टिपरायणाः ।
आविर्भावतिरोभावौ चैतेषामीश्वरेच्छया ॥ १०६ ॥
ये सृष्टिपरायण देव हैं, अतः निरन्तर विद्यमान रहते हैं, भगवान् की इच्छा से इनका आविर्भाव (प्रकट होना) और तिरोभाव (अन्तहित होना) हुआ करता है ॥ १०६ ॥

इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तत्र विरराम सभातले ।
प्रहृष्टा देवता विप्राः पार्वत्या सह शंकरः ॥ १०७ ॥
उस सभा में इतना कह कर भगवान् श्री हरि चुप हो गए और इसे सुन कर देवगण, ब्राह्मणवृन्द और पार्वती समेत शंकर जी अति प्रसन्न हुए ॥ १० ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे पुण्यकव्रताज्ञाग्रहणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में पुण्यव व्रत के लिये आज्ञा-ग्रहण नामक छठा अध्याय समाप्त ॥ ६ ॥

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