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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - सप्तमोऽध्यायः पार्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रकथनम् -
पार्वतीकृत व्रत का विधान तथा श्रीकृष्णस्तोत्र - नारायण उवाच हरेराज्ञां समादाय हरः संहृष्टमानसः । उवाच पार्वतीं प्रीत्या हरिसंलापमङ्गलम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-भगवान् की आज्ञा शिरोधार्य कर महादेव ने अतिहर्षित होकर भगवान् की सभी मांगलिक बातें सप्रेम पार्वती से बता दीं ॥ १ ॥ शिवाज्ञां च समादाय शिवा संहृष्टमानसा । वाद्यं च वादयामास मङ्गलं मङ्गलव्रते ॥ २ ॥ पार्वती ने शिवकी आज्ञा से हर्षमग्न होकर उस मंगलव्रत में मांगलिक वाद्य बजवाना आरम्भ किया ॥ २ ॥ सुस्नाता सुदती शुद्धा बिभ्रती धौतवाससी । संस्थाप्य रत्नकलशं शुक्लधान्योपरि स्थिरम् ॥ ३ ॥ आम्रपल्लवसंयुक्तं फलाक्षतसुशोभितम् । चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमेन विराजितम् ॥ ४ ॥ सुन्दर दाँतों वाली पार्वती ने उत्तम स्नान से शुद्ध होकर दो उत्तम वस्त्र धारण किये और शुक्ल धान्य पर रत्न का दृढ़ कलश स्थापित किया, जो आम के पल्लव से युक्त, फल, अक्षत से सुशोभित, चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से विराजमान था ॥ ३-४ ॥ रत्नासनस्था रत्नाढ्या रत्नोद्भवसुता सती । रत्नसिंहासनस्थांश्च संपूज्य मुनिपुंगवान् ॥ ५ ॥ रत्नसिंहासनस्थं च संपूज्य सुपुरोहितम् । चन्दनागुरुकस्तूरीरत्नभूषणभूषितम् ॥ ६ ॥ संस्थाप्य पुरतो भक्त्या दिक्पालान् रत्नभूषितान् । देवान्नरांश्च नागांश्च समर्च्य विधिबोधितम् ॥ ७ ॥ रत्नों के उद्भवस्थान हिमालय की पुत्री सती पार्वती ने रत्नों से भूषित होकर रत्नसिंहासन को भूषित किया । अनन्तर रत्नसिंहासनों पर सुखासीन मुनिपुंगवों की अर्चना करके रत्नसिंहासनासीन पुरोहित का चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और रनों के आभूषणों से पूजन किया, फिर दिक्पालों को रत्नभूषित कर भक्तिपूर्वक सामने स्थापित किया तथा देवों, मनुष्यों और नागों की सविधि पूजा की ॥ ५-७ ॥ समर्च्य परया भक्त्या ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् । चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमेन विराजितान् ॥ ८ ॥ पश्चात् पराभक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की चन्दन, अगरु, कस्तूरी और बूकुम द्वारा अर्चना को ॥ ८ ॥ वह्निशुद्धैः सुवस्त्रैश्च सद्रत्नैर्भूषणैस्तथा । पूजाद्रव्यैश्च विविधैः पूजितान्पुण्यके मुने ॥ ९ ॥ समारेभे व्रतं देवी स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । आवाह्याभीष्टदेव तं श्रीकृष्णं मङ्गले घटे ॥ १० ॥ भक्त्या ददौ क्रमेणैव चोपचारांस्तु षोडश । यानि व्रते विधेयानि देयानि विविधानि च ॥ ११ ॥ प्रददौ तानि सर्वाणि प्रत्येकं फलदानि च । हे मुने ! इस प्रकार अग्नि की भांति शुद्ध उत्तम बस्त्रों, उत्तम रत्नों के भूषणों तथा अनेक मांति की पूजन-सामग्रियों से सभी की पूजा करने के उपरान्त देवी ने स्वस्तिवाचनपूर्वक व्रतानुष्ठान आरम्भ किया उस मंगल-कलश में अभीष्ट देव भगवान् श्रीकृष्ण का आवाहन करके भक्तिपूर्वक क्रमशः सोलहों उपचार से उनकी अर्चना की । उस व्रत में विविध भाँति की जितनी वस्तुएँ दी जानी चाहिये थीं, उन्होंने प्रत्येक को वे समस्त वस्तुएँ प्रदान की ॥ ९-११.५ ॥ व्रतोक्तमुपहारं च दुर्लभं भुवनत्रये ॥ १२ ॥ तच्च सर्वं ददौ भक्त्या सुव्रते सुव्रता सती । दत्त्वा द्रव्याणि सर्वाणि वेदमन्त्रेण सा सती ॥ १३ ॥ होमं च कारयामास त्रिलक्षं तिलसर्पिषाः । ब्राह्मणान्भोजयामास पूजयित्वाऽतिथींस्तथा ॥ १४ ॥ भोजयामास सा देवी सुव्रते सुव्रता सती । प्रत्यहं सविधानं च चक्रे सा पूर्णवत्सरम् ॥ १५ ॥ एवं पतिव्रता पार्वती ने व्रतोपयुक्त, तीनों लोकों के जितने दुर्लभ उपहार थे वे उस व्रत में भक्तिपूर्वक सभी को पूर्णरूपेण समर्पित किये सभी द्रव्यों के दान के अनन्तर सती पार्वती ने वेदमन्त्रों द्वारा तिल, घी की तीन लाख आहुतियां अग्नि को समर्पित की । उस सुव्रत में सुव्रता पार्वती ने ब्राह्मण भोजन के अनन्तर अतिथियों का पूजन करके उन्हें भोजन कराया । इस प्रकार उन्होंने पूरे वर्ष तक प्रतिदिन सविधान व्रत किया ॥ १२-१५ ॥ समाप्तिदिवसे विप्रस्तामुवाच पुरोहितः । सुव्रते सुव्रते मह्यं देहि त्वं पतिदक्षिणाम् ॥ १६ ॥ समाप्ति के दिन ब्राह्मण पुरोहित ने उनसे कहाहे सुव्रते ! इस सुन्दर वत में मुझे दक्षिणारूप में अपना पति प्रदान करो ॥ १६ ॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा विलप्य सुरसंसदि । मूर्च्छां प्राप महामाया मायामोहितचेतसा ॥ १७ ॥ उनकी ऐसी बातें सुनकर पार्वती विलाप करने लगीं, अनन्तर महामाया पार्वती माया-मोहित चित्त होने से मूच्छित हो गयीं ॥ १७ ॥ तां च ते मूर्च्छितां दृष्ट्वा प्रहस्य मुनिपुंगवाः । शंकरं प्रेषयामासुर्ब्रह्मा विष्णुश्च नारद ॥ १८ ॥ हे नारद ! उन्हें मूच्छित देखकर मुनिपुगवों ने हंसकर एवं ब्रह्मा विष्णु ने भी शंकर को उनके पास भेजा ॥ १८ ॥ संप्रार्थितः सभासद्भिः शिवां बोधयितुं तदा । शिवःसमुद्यमं चक्रे प्रवक्तुं वदतां वरः ॥ १९ ॥ उस समय सभी सभासद लोग पार्वती को उबुद्ध करने के लिए शंकर की प्रार्थना करने लगे । तब वक्ताओं में श्रेष्ठ शिव ने समझाने का प्रयत्न किया ॥ १९ ॥ महादेव उवाच उत्तिष्ठ भद्रे भद्रं ते भविष्यति न संशयः । सांप्रतं चेतनं कृत्वा मदीयं वचनं शृणु ॥ २० ॥ महादेव बोले-हे भद्रे ! उठो ! तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा । इस समय चैतन्य होकर हमारी बातें सुनो ॥ २० ॥ शिवः शिवां तामित्युक्त्वा शुष्ककंठौष्ठतालुकाम् । वक्षसि स्थापयामास कारयामास चेतनाम् ॥ २१ ॥ शिव ने पार्वती से, जिनके कण्ठ, होंठ और ताल सूख गये थे, इतना कहकर उन्हें अपने वक्षःस्थल से लगा लिया और सचेत करने लगे ॥ २१ ॥ हितं सत्यं मितं सर्वं परिणामसुखावहम् । यशस्करं च फलदं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ २२ ॥ हितकर, सत्य, अल्प, परिणाम में सुखप्रद, यशस्कर एवं फलदायक वचन उन्होंने कहना प्रारम्भ किया ॥ २२ ॥ शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यद्वेदेन निरूपितम् । सर्वसंमतमिष्टं च धर्मार्थं धर्मसंसदि ॥ २३ ॥ हे देवि ! इस विषय में वेद ने धर्म भा में जो कुछ कहा है, वह सर्व-सम्मत, इष्ट (प्रिय) एवं धर्मार्थ है, उसे बता रहा हूँ, सुनो ॥ २३ ॥ सर्वेषां कर्मणां देवि सारभूता च दक्षिणा । यशोदा फलदा नित्यं धर्मिष्ठे धर्मकर्मणि ॥ २४ ॥ हे देवि ! दक्षिणा सभी कर्मों का सार भाग है, वह धर्म-कर्म में नित्य यश एवं फल देने वाली है ॥ २४ ॥ दैवं वा पैतृकं वाऽपि नित्यं नैमित्तिकं प्रिये । यत्कर्म दक्षिणाहीनं तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ॥ २५ ॥ दाता च कर्मणा तेन कालसूत्रं व्रजेद्ध्रुवम् । देहान्ते दैन्यमाप्नोति शत्रुणा परिपीडितः ॥ २६ ॥ दक्षिणा विप्रमुद्दिश्य तत्कालं तु न दीयते । तन्मुहूर्ते व्यतीते तु दक्षिणा द्विगुणा भवेत् ॥ २७ ॥ चतुर्गुणा दिनातीते पक्षे शतगुणा भवेत् । मासे पञ्चशतघ्ना स्यात्षण्मासे तच्चतुर्गुणा ॥ २८ ॥ संवत्सरे व्यतीते तु कर्म तन्निष्फलं भवेत् । दाता च नरकं याति यावद्वर्षसहस्रकम् ॥ २९ ॥ पुत्रपौत्रधनैश्वर्यं क्षयमाप्नोति पातकात् । धर्मो नष्टो भवेत्तस्य धर्महीने च कर्मणि ॥ ३० ॥ हे प्रिये ! देवों और पितरों के सभी नित्य-नैमित्तिक कर्मों में जो कर्म दक्षिणाहीन होता है वह निष्फल होता है और उस कर्म के कारण दाता कालसूत्र नामक नरक में निश्चित पड़ता है तथा अन्त में दीनहीन होकर शत्रु द्वारा पीड़ित होता है । इसलिए उस समय यदि ब्राह्मण को दक्षिणा न दी गयी, तो उस मुहर्त के बीत जाने पर दक्षिणा दुगुनी हो जाती है । दिन व्यतीत होने पर चौगुनो, पक्ष बीतने पर सौगुनी, मास में पांच सौ गुनी, छह मास में उसकी चौगुनी और वर्ष बीतने पर वह कर्म निष्फल हो जाता है औरसहस्र वर्ष पर्यन्त दाता नरक में निवास करता है तथा उस पातक द्वारा पुत्र-पौत्र, धन और ऐश्वर्य हो जाता है धर्मविहीन कर्म में उसका धर्म नष्ट हो जाता है ॥ २५-३० ॥ विष्णुरुवाच रक्षस्व धर्मं धर्मिष्ठे धर्मज्ञे धर्मकर्मणि । सर्वेषां च भवेद्रक्षा स्वधर्मपरिपालने ॥ ३१ ॥ विष्णु बोले- हे मिष्ठे ! इस धर्म-कर्म में अपने धर्म की रक्षा करो, क्योंकि अपने धर्म का पालन करने से सब की रक्षा होती है॥ ३१ ॥ ब्रह्मोवाच यश्च केन निमित्तेन न धर्मं परिरक्षति । धर्मे नष्टे च धर्मज्ञे तस्य कर्ता विनश्यति ॥ ३२ ॥ ब्रह्मा बोले -हे धर्मज्ञे! किसी कारणवश जो अपने धर्म की रक्षा नहीं करता है, वह कर्ताधर्म के नष्ट होने पर स्वयं भी नष्ट हो जाता है॥ ३२ ॥ धर्म उवाच मां रक्ष यत्नतः साध्वि प्रदाय पतिदक्षिणाम् । मयि स्थिते महासाध्वि सर्वं भद्रं भविष्यति ॥ ३३ ॥ धर्म बोले -हे साध्वि ! पति को दक्षिणा में प्रदान कर मेरी रक्षा सप्रयत्न करो। हे महासाध्वि ! मेरे रहने पर सब कल्याण ही होगा ॥ ३३ ॥ देवा ऊचुः धर्मं रक्ष महासाध्वि कुरु पूर्णं व्रतं सति । वयं तव व्रते पूर्णे कुर्मस्त्वां पूर्णमानसाम् ॥ ३४ ॥ देवगण बोले -हे महासाध्वि ! धर्म की रक्षा करो के अपना और व्रत पूरा करी । तुम्हारे व्रत के पूर्ण हो जाने पर हम लोग तुम्हें सफलमनोरथ करेंगे ॥ ३४ ॥ मुनय ऊचुः कृत्वा साध्वि पूर्णहोमं देहि विप्रायदक्षिणाम् । स्थितेष्वस्मासु भुवि ते किमभद्रं भविष्यति ॥ ३५ ॥ मुनिवृन्द बोले हे साध्वि ! हवन पूरा कर ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान करो हे । धर्मज्ञे ! भूतल पर हम लोगों के रहते तुम्हारा क्या अमंगल होगा? ॥ ३५ ॥ सनत्कुमार उवाच शिवे शिवं देहि मह्यं न चेद्व्रतफलं त्यज । सुचिरं संचितस्यापि स्वात्मनस्तपसः फलम् ॥ ३६ ॥ सनत्कुमार बोले-हे शिवे ! शिव को मुझे सौंप दो, अन्यथा व्रत का फल और अपने चिर काल से संचित किये हुए तप का फल परित्याग करो ॥ ३६ ॥ कर्मण्यदक्षिणे साध्वि यागस्याहं तु तत्फलम् । प्राप्स्यामि यजमानस्य संपूर्णं कर्मणः फलम् ॥ ३७ ॥ हे साध्वि ! कर्म के दक्षिणाहीन होने पर इस याग का फल और यजमान के सम्पूर्ण कर्म का फल मुझे प्राप्त होगा ॥ ३७ ॥ पार्वत्युवाच किं कर्मणा मे देवेशाः किं मे दक्षिणया मुने । किं पुत्रेण च धर्मेण यत्र भर्ता च दक्षिणा ॥ ३८ ॥ पार्वती बोलीं-हे देवेश ! एवं हे मुने ! मुझे कर्म और धर्म से क्या प्रयोजन है तथा पुत्र और धर्म लेकर क्या करूंगी जहाँ पति ही दक्षिणा में जा रहा है ॥ ३८ ॥ वृक्षार्चने फलं किं वै यदि भूमिर्न चार्च्यते । गते च कारणे कार्यं कुतः सस्यं कुतः फलम् ॥ ३९ ॥ क्योंकि यदि भूमि की अर्चना न हो तो वृक्ष की अर्चना से क्या फल हो सकता है-कारण ही नहीं है तो कार्य सस्य और फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? ॥ ३९ ॥ प्राणास्त्यक्ताः स्वेच्छया चेद्देहैः स्यात्किं प्रयोजनम् । दृष्टिशक्तिविहीनेन चक्षुषा किं प्रयोजनम् ॥ ४० ॥ यदि प्राण स्वेच्छा से चले गये तो देह से क्या प्रयोजन । देखने की शक्ति से हीन नेत्र किस काम आ सकता है ? ॥ ४० ॥ शतपुत्रसमः स्वामी साध्वीनां च सुरेश्वराः । यदि भर्ता व्रते देयं किं व्रतेन सुतेन वा ॥ ४१ ॥ हे सुरेश्वरो ! पतिव्रता स्त्रियों के लिए स्वामी सौ पुत्रों के समान होता है । यदि व्रत में पति ही देय है तो व्रत और पुत्र से क्या प्रयोजन है? ॥ ४१ ॥ भर्तुरंशश्च तनयः केवलं भर्तृ मूलकः । यत्र मूलं भवेद्भ्रष्टं तद्वाणिज्यं च निष्फलम् ॥ ४२ ॥ पुत्र भर्ता का अंश होता है और उसका कारण स्वामी ही होता है । जहाँ मूलधन नष्ट हो जाता है वहाँ उसका व्यापार भी निष्फल हो जाता है ॥ ४२ ॥ विष्णुरुवाच पुत्रादपि परः स्वामी धर्मश्च स्वामिनः परः । नष्टे धर्मे च धर्मिष्ठे स्वामिना किं सुतेन वा ॥ ४३ ॥ विष्णु बोले-स्वामी पुत्र से बढ़कर अवश्य होता है किन्तु धर्म स्वामी से भी उत्तम है, अतः धर्म के नष्ट हो जाने पर स्वामी या पुत्र दोनों से क्या प्रयोजन ? ॥ ४३ ॥ ब्रह्मोवाच स्वामिनश्च परो धर्मो धर्मात्सत्यं च सुव्रते । सत्यं संकल्पितं कर्म न तु भ्रष्ट कुरु व्रतम् ॥ ४४ ॥ ब्रह्मा बोले-हे सुव्रते ! स्वामी से बढ़ कर धर्म और धर्म से बढ़कर सत्य होता है । तुम्हारा यह व्रत सत्य संकल्पित कर्म है, अतः इसे भ्रष्ट न करो ॥ ४४ ॥ पार्वत्युवाच निरूपितश्च वेदेषु स्वशब्दो धनवाचकः । तद्यस्यास्तीति स स्वामी वेदज्ञ शृणु मद्वचः ॥ ४५ ॥ पार्वती बोलीं-हे वेदज्ञ ! मेरी बातें सुनो । वेदों में स्वशब्द धन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अतः वह जिसका है वह स्वामी है ॥ ४५ ॥ तस्य दाता सदा स्वामी न च स्वं स्वामितां लभेत् । अहोऽव्यवस्था भवतां वेदज्ञानामबोधतः ॥ ४६ ॥ उस (धन) का दाता सदा स्वामी होता है, किन्तु धन स्वामित्व को प्राप्त नहीं करता । अतः आप वेदज्ञानियों की अव्यवस्था पर, जो अज्ञान द्वारा की गयी है, आश्चर्य हो रहा है ॥ ४६ ॥ धर्म उवाच पत्नी विनाऽन्यं स्वं साध्वि स्वामिनं दातुमक्षमा । दम्पती ध्रुवमेकाङ्गौ द्वयोर्दाने द्वकौ समौ ॥ ४७ ॥ धर्म बोले-हे साध्वि ! पत्नी अन्य धन को छोड़ कर स्वामी देने में असमर्थ रहती है, क्योंकि दम्पति (स्त्री पुरुष मिलकर) निश्चित एक अंग होते हैं अतः दोनों के दान में दोनों समान हैं ॥ ४७ ॥ पार्वत्युवाच पिता ददाति जामात्रे स च गृह्णाति तत्सुताम् । न श्रुतं विपरीतं च श्रुतौ श्रुतिपरायणाः ॥ ४८ ॥ पार्वती बोली-हे श्रतिपरायणवृन्द ! पिता जामाता (दामाद) को दान देता है और वह उसकी पुत्री को ग्रहण करता है, वेद में इसके विपरीत कुछ नहीं सुना गया है ॥ ४८ ॥ देवा ऊचुः बुद्धिस्वरूपा त्वं दुर्गे बुद्धिमन्तो वयं त्वया । वेदज्ञे वेदवादेषु के वा त्वां जेतुमीश्वराः ॥ ४९ ॥ देववृन्द बोले-हे दुर्गे ! हे वेदज्ञे ! तुम बुद्धिस्वरूप हो और हम लोग तुम्हारे द्वारा बुद्धिमान् हैं, अतः वेद के वाद-विवाद में तुम्हें जीतने में कौन समर्थ हो सकता है ॥ ४९ ॥ निरूपिता पुण्यके तु व्रते स्वामी च दक्षिणा । श्रुतौ श्रुतो यः स धर्मो विपरीतो ह्यधर्मकः ॥ ५० ॥ इस पुण्यकव्रत में स्वामी ही दक्षिणा रूप में देने को कहा गया है इसलिए वेद में जो सुना गया है वह धर्म है और उससे विपरीत अधर्म ॥ ५० ॥ पार्वत्युवाच केवलं वेदमाश्रित्य कः करोति विनिर्णयम् । बलवाँल्लौकिको वेदाल्लोकाचारं च कस्त्यजेत् ॥ ५१ ॥ पार्वती बोलीं-केवल वेद के ही आधार पर कौन निर्णय कर सकता है, क्योंकि वेद से लोकाचार बलवान् होता है, इसलिए उनका त्याग कौन कर सकता है । ॥ ५१ ॥ वेदे प्रकृतिपुंसोश्च गरीयान्पुरुषो ध्रुवम् । निबोधत सुराः प्राज्ञा बालाऽहं कथयामि किम् ॥ ५२ ॥ वेद में प्रकृति-पुरुप में पुरुष को ही श्रेष्ठ बताया गया है । हे प्राज्ञ सुरगण ! सुनिए, मैं वाला क्या कह सकती हूँ ॥ ५२ ॥ बृहस्पतिरुवाच न पुमांसं विना सृष्टिर्न साध्वि प्रकृतिं विना । श्रीकृष्णश्च द्वयोः स्रष्टा समौ प्रकृतिपूरुषौ ॥ ५३ ॥ बृहस्पति बोले-हे साध्वि ! न पुरुष के बिना सृष्टि हो सकती है और न प्रकृति (स्त्री) के बिना सृष्टि हो सकती है । भगवान् श्रीकृष्ण ही दोनों के स्रष्टा हैं और प्रकृति-पुरुष दोनों समान हैं ॥ ५३ ॥ पार्वत्युवाच सर्वस्रष्टा च यः कृष्णः सोंऽशेन सगुणः पुमान् । पुमान्गरीयान्प्रकृतेस्तथैव न ततश्च सा ॥ ५४ ॥ पार्वती बोली--सबका सर्जन करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने अंश से सगुण पुरुष होते हैं, इसलिए प्रकृति से पुरुष श्रेष्ठ होता है और उसी प्रकार पुरुष से प्रकृति श्रेष्ठ नहीं होती ॥ ५४ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवा मुनयस्तत्र संसदि । रत्नेन्द्रसाररचितमाकाशे ददृशू रथम् ॥ ५५ ॥ पार्षदैः संपरिवृतं सर्वैः श्यामैश्चतुर्भुजैः । वनमालापरिवृतै रत्नभूषणभूषितैः ॥ ५६ ॥ इसी बीच देवों और मुनियों ने उसी सभा में आकाश में रत्नेन्द्रों के सारभाग से सुरचित एक उत्तम रथ देखा, जो श्याम वर्ण, वनमाला एवं रत्नों के भूषणों से भूषित और चार भुजाओं वाले पार्षदों से आच्छन्न था । अनन्तर उस रथ से उतर कर प्रसन्नमुख नारायण सभा में आये ॥ ५५-५६॥ अवरुह्य ततो यानादाजगाम सभातलम् । तुष्टुवुस्तं सुरेन्द्रास्ते देवं वैकुण्ठवासिनम् ॥ ५७ ॥ शङ्गचक्रगदापद्मधरमीशं चतुर्भुजम् । लक्ष्मीसरस्वतीकान्तं शान्तं तं सुमनोहरम् ॥ ५८ ॥ सुखदृश्यमभक्तानामदृश्यं कोटिजन्मभिः । कोटिकन्दर्पलावण्यं कोटिचन्द्रसमप्रभम् ॥ ५९ ॥ अमूल्यरत्नरचितचारुभूषणभूषितम् । सेव्यं ब्रह्मादिदेवैश्च सेवकैः सततं स्तुतम् ॥ ६० ॥ उन सुरवरों ने उस वैकुण्ठवासी भगवान् की स्तुति करना आरम्भ किया, जो शंख, चक्र, गदा और पम धारण किये, सबके ईश, चार भुजाओं से सुशोभित, लक्ष्मी-सरस्वती के पति, शान्तस्वरूप, अति मनोहर, देखनेमात्र से सुख देने वाले, अभक्तों को करोड़ों जन्मों में भी न दिखायी देने वाले, करोड़ों काम के ममान सुन्दर, करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रभा से पूर्ण, अमूल्य रत्नों के सुन्दर आभूषणों से भूषित, ब्रह्मा आदि देवों से सुसेव्य और सेवकों द्वारा निरन्तर स्तुत हो रहे थे ॥ ५७-६० ॥ तद्भासा संपरिच्छन्नैर्वेष्टितं च सुरर्षिभिः । वासयामास तं ते च रत्नसिंहासने वरे ॥ ६१ ॥ तं प्रणेमुश्च शिरसा ब्रह्मशक्तिशिवादयः । संपुटाञ्जलयः सर्वे पुलकाङ्गाश्रुलोचनाः ॥ ६२ ॥ सस्मितस्तांश्च पप्रच्छ सर्वं मधुरया गिरा । प्रबोधितः सुबोधज्ञः प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ६३ ॥ उनकी कान्ति से चारों ओर आच्छन्न देवगण उन्हें घेरे हुए थे । अनन्तर ब्रह्मा, शक्ति और शिव आदि देवों ने उन्हें उत्तम रत्न सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया और शिर से प्रणाम करने लगे । उस समय, सब हाथ जोड़े सजल नयन होकर पुलकायमान हो रहे थे । मन्द मुसुकान करते हुए भगवान् ने मधुर वाणी द्वारा उन देवों से सब पूछ लिया । वृत्तान्त जानने पर उत्तम बोध के ज्ञाता भगवान् ने कहना आरम्भ किया ॥ ६१-६३ ॥ नारायण उवाच सह बुद्ध्या बुद्धिमन्तो न वक्तुमुचितं सुराः । सर्वे शक्त्या यया विश्वे शक्तिमन्तो हि जीविनः ॥ ६४ ॥ ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं प्राकृतिकं जगत् । सत्यं सत्यं विना मां च मया शक्तिः प्रकाशिता ॥ ६५ ॥ नारायण बोले-बुद्धि (स्वरूपिणी पार्वती) के साथ बुद्धिमान् देवों का वाद-विवाद करना उचित नहीं है, क्योंकि समस्त विश्व में उसी शक्ति द्वारा सभी लोग सशक्त और जीवित हैं । इसीलिए ब्रह्मा आदि से लेकर तृणपर्यन्त समस्त जगत प्राकृतिक कहा जाता है । यह बात सत्य एवं दृढ़ सत्य है कि-मैंने पुरुष के बिना शक्ति को प्रकाशित किया है ॥ ६४-६५ ॥ आविर्भूता च सा मत्तः सृष्टौ देवी मदिच्छया । तिरोहिता च साऽशेषे सृष्टिसंहरणे मयि ॥ ६६ ॥ सृष्टि में वह देवी मेरी इच्छा से मेरे द्वारा प्रकट होती है और सम्पूर्ण सृष्टि का संहार होने पर मुझ में अन्तहित हो जाती है ॥ ६६ ॥ प्रकृतिः सृष्टिकर्त्री च सर्वेषां जननी परा । मम तुल्या च मन्माया तेन नारायणी स्मृता ॥ ६७ ॥ प्रकृति सृष्टि करने के नाते सभी लोगों की श्रेष्ठ जननी है । यह मेरी माया मेरे समान है, अतः इसे 'नारायणी' कहते हैं ॥ ६७ ॥ सुचिरं तपसा तप्तं शंभुना ध्यायता च माम् । तेन तस्मै मया दत्ता तपसां फलरूपिणी ॥ ६८ ॥ मेरा ध्यान करते हुए शम्भु ने चिरकाल तक तप किया था,इसी लिए मैंने उनके तप के फलस्वरूप यह उन्हें सौंप दी थी ॥ ६८ ॥ व्रतं च लोकशिक्षार्थमस्या न स्वार्थमेव च । स्वयं व्रतानां तपसां फलदात्री जगत्त्रये ॥ ६९ ॥ यह (सुपुण्यक) व्रत इन्होंने कोकशिक्षार्थ सम्पन्न किया है, इसमें इनका कुछ स्वार्थ नहीं है, क्योंकि तीनों लोकों में व्रतों और तपस्याओं के फल यह स्वयंप्रदान करती है ॥ ६९ ॥ मायया मोहिताः सर्वे किमस्या वास्तवं व्रतम् । साध्यमस्या व्रतफलं कल्पे कल्पे पुनः पुनः ॥ ७० ॥ तुम सभी लोग माया से मोहित हो गये हो, नहीं तो इनका यह वास्तविक व्रत है क्या? प्रत्येक कल्प में इस व्रत का फल इन्हें बार-बार प्राप्त होता रहता है ॥ ७० ॥ सुरेश्वरा मदंशाश्च ब्रह्मशक्तिमहेश्वराः । कलाः कलांशरूपाश्च जीविनश्च सुरादयः ॥ ७१ ॥ देवेश्वर ब्रह्मा, शक्ति और महेश्वर मेरे अंश हैं और जीव देवादिगण कला एवं कलांशरूप हैं ॥ ७१ ॥ मृदा विना घटं कर्तुं कुलालश्च यथाऽक्षमः । विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ॥ ७२ ॥ विना शक्त्या तथाऽहं च स्वसृष्टिं कर्तुमक्षमः । शक्तिप्रधाना सृष्टिश्च सर्वदर्शनसंमता ॥ ७३ ॥ जिस प्रकार बिना मिट्टी के घड़ा बनाने में कुम्हार असमर्थ होता है, बिना सुवर्ण के सुनार कुण्डल बनाने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार बिना शक्ति के मैं सृष्टि करने में असमर्थ रहता हूँ । सृष्टि में शक्ति प्रधान है, ऐसा समस्त दर्शन शास्त्रों का मत है ॥ ७२-७३ ॥ अहमात्मा हि निर्लिप्तोऽदृश्यः साक्षी च देहिनाम् । देहाः प्राकृतिकाः सर्वे नश्वराःपाञ्चभौतिकाः ॥ ७४ ॥ मैं निलिप्त, अदृश्य और समस्त देहधारी जीवों का साक्षी आत्मा हूँ । सभी देह प्राकृतिक, नश्वर एवं पांच भूतों से निर्मित हैं ॥ ७४ ॥ अहं नित्यः शरीरी च भानुविग्रहविग्रहः । सर्वाधारा सा प्रकृतिः सर्वात्माऽहं जगत्सु च ॥ ७५ ॥ सूर्य के समान प्रकाशमान शरीर वाला मैं नित्य हूँ । जगत में प्रकृति सबकी आधारस्वरूपा है और मैं सबका आत्मा हूँ ॥ ७५ ॥ अहमात्मा मनो ब्रह्मा ज्ञानरूपो महेश्वरः । पञ्चप्राणाः स्वयं विष्णुर्बुद्धिः प्रकृतिरीश्वरी ॥ ७६ ॥ मेधानिद्रादयश्चैताः सर्वाश्च प्रकृतेः कलाः । सा च शैलेन्द्रकन्यैषा त्विति वेदे निरूपितम् ॥ ७७ ॥ मैं आत्मा हूँ, ब्रह्मा मन हैं, महेश्वर ज्ञानरूप हैं, स्वयं विष्णु पाँचों प्राण स्वरूप हैं, ईश्वरी प्रकृति बुद्धिरूप और मेधा तथा निद्रा आदि ये सब प्रकृति की कला में हैं । यह प्रकृति हिमालय की कन्या है, ऐसा वेद में बताया गया है ॥ ७६-७७ ॥ अहं गोलोकनाथश्च वैकुण्ठेशः सनातनः । गोपीगोपैः परिवृतस्तत्रैव द्विभुजः स्वयम् ॥ चतुर्भुजोऽत्र देवेशो लक्ष्मीशः पार्षदैर्वृतः ॥ ७८ ॥ मैं गोलोक का अधीश्वर, वैकुण्ठ का स्वामी, सनातन और गोप-गोपियों से आवृत रहकर वहाँ स्वयं दो भुजाएँ धारण करता हूँ तथा यहाँ चार भुजाएँ धारण करके देवों का अधीश्वर, लक्ष्मी का स्वामी एवं पार्षदों से घिरा हुआ हूँ ॥ ७८ ॥ ऊर्ध्वं परश्च वैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनात् । ममाऽऽश्रयश्च गोलोको यत्राहं गोपिकापतिः ॥ ७९ ॥ व्रतारोध्यः स द्विभुजः स च तत्फलदायकः । यद्रूपं चिन्तयेद्यो हि तच्च तत्फलदायकः ॥ ८० ॥ वैवुःण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊपर गोलोक में मेरा स्थान है जहाँ मैं गोपिकाओं का पति, व्रत का आराध्य देव एवं दो भुजाओं से भूषित रहकर व्रतों का फल देता हूँ । जो जिस रूप का चिन्तन करता है, उसे वह फल प्रदान करता हूँ ॥ ७९-८० ॥ व्रतं पूर्णं कुरु शिवे शिवं दत्त्वा च दक्षिणाम् । पुनः समुचितं मूल्यं दत्त्वा नाथ ग्रहीष्यसि ॥ ८१ ॥ अतः हे शिवे ! शिव को दक्षिणा में देकर तुम अपना व्रत पूरा करो और फिर उचित मूल्य देकर अपना स्वामी ग्रहण करो ॥ ८१ ॥ विष्णुदेहा यथा गावो विष्णुदेहस्तथा शिवः । द्विजाय दत्त्वा गोमूल्यं गृहाण स्वामिनं शुभे ॥ ८२ ॥ क्योंकि हे शुभे ! विष्णु की देह जैसे गौएँ हैं वैसे ही विष्णु की देह शिव भी हैं, इसलिए ब्राह्मण को गो मूल्य देकर अपना पति लौटा लो ॥ ८२ ॥ यज्ञपत्नीं यथा दातुं क्षमः स्वामी सदैव तु । तथा सा स्वामिनं दातुमीश्वरोति श्रुतेर्मतम् ॥ ८३ ॥ जिस प्रकार स्वामी यज्ञपत्नी (दक्षिणा) देने में समर्थ होता है उसी भांति वह भी स्वामी का दान करने में समर्थ है, ऐसा वेद का मत है ॥ ८३ ॥ इत्युक्त्वा स सभामध्ये तत्रैवान्तरधीयत । हृष्टास्ते सा च संहृष्टा दक्षिणां दातुमुद्यता ॥ ८४ ॥ इतना कह कर नारायण भगवान् सभा के मध्य में वहीं अन्तहित हो गये । देवों आदि सभासदों को बड़ा हर्ष हुआ और पार्वती अत्यन्त सन्तुष्ट होकर दक्षिणा देने के लिए तैयार हो गयीं ॥ ८४ ॥ कृत्वा शिवा पूर्णहोमं सा शिवं दक्षिणां ददौ । स्वस्तीत्युक्त्वा च जग्राह कुमारो देवसंसदि ॥ ८५ ॥ देवों की सभा में शिवा ने पूर्णाहुति करके शिव को दक्षिणा में दे दिया और 'स्वस्ति' कह कर कुमार ने ग्रहण कर लिया ॥ ८५ ॥ उवाच दुर्गा संत्रस्ता शुष्कण्ठौष्ठतालुका । कृताञ्जलिपुटा विप्रं हृदयेन विदूयता ॥ ८६ ॥ उस समय दुर्गा के कण्ठ, ओंठ और तालू सूख गये; संत्रस्त होकर हाथ जोड़े एवं हादिक दुःख प्रकट करती हुई उन्होंने कहा ॥ ८६ ॥ पार्वत्युवाच गोमूल्यं मत्पतिसममिति वेदे निरूपितम् । गवां लक्षं प्रयच्छामि देहि मत्स्वामिनं द्विज ॥ ८७ ॥ पार्वती बोलीं-हे द्विज ! गो रूप मूल्य हमारे पति के समान है, ऐसा वेद में कहा गया है । इसलिए मैं आपको एक लाख गौएँ दे रही हूँ, मेरे स्वामी को लौटा दीजिए ॥ ८७ ॥ तदा दास्यामि विप्रेभ्यो दानानि विविधानि च । आत्महीनो हि देहश्च कर्म किं कर्तुमीश्वरः ॥ ८८ ॥ तब मैं ब्राह्मणों को अनेक भाँति के दान प्रदान करूँगी । अन्यथा आत्मरहित देह क्या कर्म करने में कभी समर्थ हो सकती है? ॥ ८८ ॥ सनत्कुमार उवाच गवां लक्षेण मे देवि विप्रस्य किं प्रयोजनम् । दत्तस्यामूल्यरत्नस्य गवां प्रत्यर्पणेन च ॥ ८९ ॥ सनत्कुमार बोले-हे देवि ! मुझ ब्राह्मण को लाख गौओं की आवश्यकता नहीं है-दिये हुए अमूल्य रत्न को गौओं से बदलना नहीं चाहता ॥ ८९ ॥ स्वस्य स्वस्य स्वयं दाता लोकः सर्वो जगत्त्रये । कर्तुरेवेप्सितं कर्म भवेत्किं वा परेच्छया ॥ ९० ॥ तीनों लोकों में सभी लोग अपने-अपने धन के दाता स्वयं होते हैं (अन्य नहीं) और करने वाले का अभिलषित कर्म क्या कहीं दूसरे की इच्छा से सम्पन्न होता है ? ॥ १० ॥ दिगम्बरं पुरः कृत्वा भ्रमिष्यामि जगत्त्रयम् । बालकानां बालिकानां समूहस्मितकारणम् ॥ ९१ ॥ मैं दिगम्बर (शिव) को आगे किये तीनों लोकों में भ्रमण करूँगा, जो बालक-बालिकाओं के हास्य का एक कारण होगा ॥ ९१ ॥ इत्युक्त्वा ब्रह्मणः पुत्रो गृहीत्वा शंकरं मुने । संनिधौ वासयामास तेजस्वी देवसंसदि ॥ ९२ ॥ हे मुने ! तेजस्वी ब्रह्मपुत्र (सनत्कुमार) ने उस देवसभा में इतना कहकर शिव को अपने समीप बैठा लिया ॥ ९२ ॥ दृष्ट्वा शिवं गृह्यमाणं कुमारेण च पार्वती । समुद्यता तनुं त्यक्तुं शुष्ककण्ठौष्ठतालुका ॥ ९३ ॥ पार्वती ने शिव को पकड़ते हुए वुमार को देखकर अपना शरीर त्यागना निश्चित कर लिया । उनके कण्ठ, होंठ और ताल सूख गये ॥ ९३ ॥ विचिन्त्य मनसा साध्वीत्येवमेव दुरत्ययम् । न दृष्टोऽभीष्टदेवश्च न च प्राप्तं फलं व्रते ॥ ९४ ॥ उस पतिव्रता ने मन से सोचा कि यह कैसी कठिन बात हुई कि--इस व्रत में न अभीष्ट देव (भगवान् श्रीकृष्ण) ही दिखाई पड़े और न फल ही प्राप्त हुआ ॥ ९४ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवाः पार्वतीसहितास्तदा । सद्यो ददृशुराकाशे तेजसां निकरं परम् ॥ ९५ ॥ कोटिसूर्यप्रभोर्ध्वं च प्रज्वलन्तं दिशो दश । कैलासशैलं पुरतः सर्वदेवादिभिर्युतम् ॥ ९६ ॥ सर्वाश्रयं गणाच्छन्नं विस्तीर्णं मण्डलाकृतिम् । तच्च दृष्ट्वा भगवतस्तुष्टुवुस्ते क्रमेण च ॥ ९७ ॥ इसी बीच देवों के साथ उन्होंने आकाश में तेजों का समूह देखा, जो करोड़ों सूर्य की प्रभा से उत्कृष्ट तथा दनों दिशाओं को प्रज्वलित कर रहा था । वह कैलाशपर्वत के सामने समस्त देवों से युक्त, सबके आश्रय रूप, गणों से आच्छन्न, विस्तीर्ण और मण्डलाकार था । भगवान् के उस रूप को देखकर देता क्रमशः स्तुति करने लगे ॥ ९५-९७ ॥ विष्णुरुवाच ब्रह्माण्डानि च सर्वाणि यल्लोमविवरेषु च । सोऽयं ते षोडशांशश्च के वयं यो महाविराट् ॥ ९८ ॥ विष्णु बोले-जिसके लोम-छिद्रों में समस्त ब्रह्माण्ड सुस्थित हैं, वह महाविराट् तुम्हारा सोलहवां अंश है, तो हम लोगों की क्या गणना है ? ॥ ९८ ॥ ब्रह्मोवाच वेदोपयुक्तं दृश्यं यत्प्रत्यक्षं द्रष्टुमीश्वर । स्तोतुं तद्वर्णितुमहं शक्तः किं स्तौमि तत्परः ॥ ९९ ॥ ब्रह्मा बोले-हे ईश्वर ! वेद में कहे हए दृश्य पदार्थ को, जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, उसी की स्तुति और वर्णन करने में मैं समर्थ हूँ । और जो उससे परे है उसकी क्या स्तुति करूँ ? ॥ ९९ ॥ महादेव उवाच ज्ञानाधिष्ठातृदेवोऽहं स्तौमि ज्ञानपरं च किम् । सर्वानिर्वचनीयं तं त्वां च स्वेच्छामयं विभुम् ॥ १०० ॥ महादेव बोले.-मैं ज्ञान का अधिष्ठातृ देव हूँ, किन्तु जो ज्ञान से परे, सबसे अनिर्वचनीय, स्वेच्छामय एवं विभु (व्यापक) हैं उनकी क्या स्तुति करूं? ॥ १०० ॥ धर्म उवाच अदृश्यमवतारेषु यद्दृश्य सर्वजन्तुभिः । किं स्तौमि तेजोरूपं तद्भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ १०१ ॥ धर्म बोले---जिस अदृश्य को अवतार होने पर ही समस्त जीव जन्तु देख सकते हैं, उस तेजःस्वरूप और भक्तों के अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले (देव) की क्या स्तुति करूँ ? ॥ १०१ ॥ देवा ऊचुः के वयंत्वत्कलांशाश्च किं वा त्वां स्तोतुमीश्वराः । स्तोतुं न शक्ता वेदायं न च शक्ता सरस्वती ॥ १०२ ॥ देवगण बोले--जिनकी स्तुति करने में वेद समर्थ नहीं हैं, सरस्वती भी असमर्थ हैं, उनकी स्तुति करने में आप के कलांश रूप हम लोग समर्थ कैसे हो सकते हैं ? ॥ १०२ ॥ मुनय ऊचुः वेदान्पठित्वा विद्वांसो वयं किं वेदकारणम् । स्तोतुमीशा न वाणी च त्वां वाङ्मनसयोःपरम् ॥ १०३ ॥ मुनिगण बोले-जो वेद के मूल कारण हैं, वाणी-मन से परे हैं और जिनकी स्तुति करने में सरस्वती भी असमर्थ हैं, उनकी स्तुति केवल वेद पढ़ने के नाते हम लोग कैसे कर सकते हैं ? ॥ १०३ ॥ सरस्वत्युवाच वागधिष्ठातृदेवीं मां वदन्ते वेदवादिनः । किंचिन्न शक्ता त्वां स्तोतुमहो वाङ्मनसोः परम् ॥ १०४ ॥ सरस्वती बोलीं-यद्यपि वेदवादी लोग मुझे वागधिष्ठात्री देवी कहते हैं, किन्तु मैं किञ्चिन्मात्र भी आपकी स्तुति करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि आप वाणी और मन से परे हैं ॥ १०४ ॥ सावित्र्युवाच वेदप्रसूरहं नाथ सृष्टा त्वत्कलया पुरा । किं स्तौमि स्त्रीस्वभावेन सर्वकारणकारणम् ॥ १०५ ॥ सावित्री बोलीं--हे नाथ ! मैं वेद-जननी अवश्य हूँ, पूर्वकाल में आपकी कला द्वारा मेरी सप्टि हुई है, किन्तु स्त्रीस्वभाव वश मैं समस्त कारणों के भी कारण आपकी स्तुति कैसे कर सकती हूँ ? ॥ १०५ ॥ लक्ष्मीरुवाच त्वदंशविष्णुकान्ताऽहं जगत्पोषणकारिणी । किं स्तौमि त्वत्कलासृष्टा जगतां बीजकारणम् ॥ १०६ ॥ लक्ष्मी बोलीं-मैं आपके अंश से उत्पन्न विष्णु की प्रिया हूँ, सारे जगत् का पालन-पोषण करती हूँ, किन्तु आपकी कला द्वारा मेरा जन्म हुआ है अतः मैं आप की क्या स्तुति कर सकती हूँ जो जगत् के बीज कारण हैं ? ॥ १०६ ॥ हिमालय उवाच हसन्ति सन्तो मां नाथ कर्मणास्थावरं परम् । स्तोतुं समुद्यतं क्षुद्रः किं स्तौमि स्तोतुमक्षमः ॥ १०७ ॥ हिमालय बोले-हे नाथ ! परम स्थावर होने के नाते मेरा सन्त लोग उपहास करते हैं । मैं क्षुद्र हूँ, स्तुति करने के लिए तैयार हूँ किन्तु असमर्थतावश क्या स्तुति करूं? ॥ १०७ ॥ क्रमेण सर्वे तं स्तुत्वा देवा विररमुर्मुने । देव्यश्च मुनयः सर्वे पार्वती स्तोतुमुद्यतः ॥ १०८ ॥ धौतवस्त्रा जटाभारं बिभ्रती सुव्रता व्रते । प्रेरिता परमात्मानं व्रताराध्यं शिवेन च ॥ १०९ ॥ ज्वलदग्निशिखारूपा तेजोमूर्तिमती सती । तपसां फलदा माता जगतां सर्वकर्मणाम् ॥ ११० ॥ हे मुम ! इस प्रकार देवगण, देवियों और मुनियों के क्रमशः स्तुति करके चुप हो जाने पर पार्वती स्तुति करने के लिए तैयार हो गयीं, जो उस व्रत में धौत वस्त्र धारण किये, जटाभार से भूषित, सुवता, शिव जी द्वारा व्रत के आराध्य देव परमात्मा श्रीकृष्ण की स्तुति के लिए प्रेरित, प्रज्वलित अग्नि की शिखा स्वरूप, मूर्तिमान् तेजोरूप, सती, तप और समस्त कर्मों के फल देने वाली तथा जगज्जननी थी ॥ १०८-११० ॥ पार्वत्युवाच कृष्ण जानासि मां भद्र नाहं त्वां ज्ञातुमीश्वरी । के वा जानन्ति वेदज्ञा वेदा वा वेदकारकाः ॥ १११ ॥ पार्वती बोलीं-हे कृष्ण ! आप मुझे जानते हैं किन्तु मैं आपको जानने में असमर्थ हूँ । वेद जानने वाले, समस्त वेद या वेदकर्ता क्या आपको जानते हैं (अर्थात् कभी नहीं जान सकते) ॥ १११ ॥ त्वदंशास्त्वां न जानन्ति कथं ज्ञास्यन्ति ते कलाः । त्वं चापि तत्त्वं जानासि किमन्ये ज्ञातुमीश्वराः ॥ ११२ ॥ जब तुम्हारे अंश तुम्हें नहीं जानते हैं तो कलाएँ कैसे जान सकती हैं ? तत्त्व तो तुम्हीं जानते हो क्या अन्य लोग भी जानने में समर्थ हो सकते हैं ? (अर्थात् कभी नहीं) ॥ ११२ ॥ सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमोऽव्यक्तः स्थूलात्स्थूलतमो महान् । विश्वस्त्वं विश्वरूपश्च विश्वबीजंसनातनः ॥ ११३ ॥ क्योंकि तुम सूक्ष्म से सूक्ष्म, अव्यक्त (अस्पष्ट), स्थूल से महान् स्थूलतम हो, तुम विश्व हो, विश्व रूप हो, विश्वबीज और सनातन हो ॥ ११३ ॥ कार्यं त्वं कारणं त्वं च कारणानां च कारणम् । तेजःस्वरूपो भगवान्निर्विकारो निराश्रयः ॥ ११४ ॥ निर्लिप्तो निर्गुणः साक्षी स्वात्मारामः परात्परः । प्रकृतीशो विराड्बीजं विराड्रूपस्त्वमेव च ॥ ११५ ॥ सगुणस्त्वं प्राकृतिकः कलया सृष्टिहेतवे । प्रकृतिस्त्वं पुमांस्त्वं च त्वदन्यो न क्वचिद्भवेत् ॥ ११६ ॥ जीवस्त्वं साक्षिणो भोगी स्वात्मनः प्रतिबिम्बकम् । कर्म त्वं कर्मबीजं त्वं कर्मणां फलदायकः ॥ ११७ ॥ ध्यायन्ति योगिनस्तेजस्त्वदीयमशरीरि यत् । केचिच्चतुर्भुजं शान्तं लक्ष्मीकान्तं मनोहरम् ॥ ११८ ॥ वैष्णवाश्चैव साकारं कमनीयं मनोहरम् । शङ्खचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरं परम् ॥ ११९ ॥ तुम्हीं कार्य रूप हो, तुम्हीं कारण रूप हो, कारणों के कारण हो, तेजःस्वरूप, भगवान्, निर्विकार, निराश्रय, निलिप्त, निर्गुण, साक्षी, अपने आत्मा में रमण करने वाले, परात्पर, प्रकृति के अधीश्वर, विराट-कारण और तुम्हीं विराट्रूप हो, तुम कला द्वारा सृष्टि रचना के लिए प्राकृतिक एवं सगुण हो । तुम्हीं प्रकृति हो, तुम्हीं पुरुष हो, क्योंकि तुम से अन्य कहीं कुछ है ही नहीं । तुम्ही जीव, साक्षी के भोगी, अपने आत्मा के प्रतिबिम्ब, कर्म और कर्म के बीज तथा कर्मों के फल प्रदान करने वाले हो । योगी गण तुम्हारे अशरीरी तेज का ध्यान करते हैं । कुछ लोग चतुर्भुजधारी भगवान् विष्णु का ध्यान करते हैं, जो शान्त, लक्ष्मी के कान्त और मनोहर हैं । वैष्णव लोग उसी साकार, कमनीय (सुन्दर), मनोहर तथा शंख, चक्र, गदा, पद्म और पीताम्बर धारी परमदेव की उपासना करते हैं ॥ ११४-११९ ॥ द्विभुजं कमनीयं च किशोरं श्यामसुन्दरम् । शान्तं गोपाङ्गनाकान्तं रत्नभूषणभूषितम् ॥ १२० ॥ एवं तेजस्विनं भक्ताः सेवन्ते संततं मुदा । ध्यायन्ति योगिनो यत्तत्कुतस्तेजस्विनं विना ॥ १२१ ॥ दो भुजाओं से सुशोभित, कमनीय, किशोर, श्यामसुन्दर, शान्त, गोपिकाओं के कान्त, रत्नों के भूषणों से विभूषित एवं तेजस्वी की भक्तगण हर्ष से निरन्तर सेवा करते हैं । और योगी लोग जिसका ध्यान करते हैं वह तेजस्वी आपके अतिरिक्त दूसरा कौन हो सकता है ? ॥ १२०-१२१ ॥ तत्तेजो बिभ्रतां देव देवानां तेजसा पुरा । आविर्भूता सुराणां च वधाय ब्रह्मणा स्तुता ॥ १२२ ॥ नित्यातेजः स्वरूपाऽहं धृत्वा वै विग्रहं विभो । स्त्रीरूपं कमनीयं च विधाय समुपस्थिता ॥ १२३ ॥ हे देव ! उसी (आपके) तेज को धारण करने वाले देवोंके तेज द्वारा मैं पूर्वकाल में असुरों के वधार्थ ब्रह्मा के स्तुति करने पर आविर्भूत हुई थी । हे विभो ! मैं नित्य एवं तेजःस्वरूप हूँ, उस समय मैं शरीर धारण करके रमणीय रमणी रूप बनाकर वहाँ उपस्थित हुई ॥ १२२-१२३ ॥ मायया तव मायाऽहं मोहयित्वाऽसुरान्पुरा । निहत्य सर्वाञ्छैलेन्द्रमगमं तं हिमालयम् ॥ १२४ ॥ अनन्तर तुम्हारी माया स्वरूपा मैंने उन असुरों को माया द्वारा मोहित करके मार डाला और फिर हिमालय पर चली गई ॥ १२४ ॥ ततोऽहं संस्तुता देवैस्तारकाक्षेण पीडितैः । अभवं दक्षजायायां शिवस्त्री पूर्वजन्मनि ॥ १२५ ॥ पश्चात् तारकासुर से पीड़ित होने पर देवों ने स्तुति की जिससे मैं पूर्व जन्म में दक्ष की पत्नी में जन्म ग्रहण कर शिव की पत्नी हुई ॥ १२५ ॥ त्यक्त्वा देहं दक्षयज्ञे शिवाऽहं शिवनिन्दया । अभवं शैलजायाया शैलाधीशस्य कर्मणा ॥ १२६ ॥ मैं शिवा हूँ अतः दक्ष के यज्ञ में शिव-निन्दा के कारण देह त्यागकर पर्वतराज हिमालय के कर्मवश उनकी पत्नी मेना से प्रकट हुई ॥ १२६ ॥ अनेकतपसा प्राप्तः शिवश्चात्रापि जन्मनि । पाणिं जग्राह मे योगी प्रार्थितो ब्रह्मणा विभुः ॥ १२७ ॥ इस जन्म में भी विप्र एवं योगी शिव ने, अनेक तपस्याएँ करने तथा ब्रह्मा के प्रार्थना करने पर मेरा पाणिग्रहण किया ॥ १२७ ॥ शृङ्गारजं च तत्तेजो नालभं देवमायया । स्तौमि त्वामेव तेनेष्ट्वा पुत्रदुःखेन दुःखिता ॥ १२८ ॥ किन्तु हे ईश ! (शिव के साथ विहार करते समय) देव माया से वञ्चित होने के नाते उनके श्रृंगार जन्य तेज (वीर्य) को प्राप्त न कर सकी । इसी कारण पुत्र-दुःख से दुःखी होकर मैं आप की स्तुति कर रही हूँ ॥ १२८ ॥ व्रते भवद्विधं पुत्रं लब्धुमिच्छामि सांप्रतम् । देवेन विहिता वेदे साङ्गे स्वस्वामिदक्षिणा ॥ १२९ ॥ इस व्रत में मैं सम्प्रति आप के समान पुत्र प्राप्त करना चाहती हूँ और देवों ने सांग वेद में अपने स्वामी की ही दक्षिणा निरूपित की ॥ १२९ ॥ श्रुत्वा सर्वं कृपासिन्धो कृपां मे कर्तुमर्हसि । इत्युक्त्वा पार्वती तत्र विरराम च नारद ॥ १३० ॥ अतः हे कृपासिन्धो ! आप सब कुछ सुनकर मेरे ऊपर कृपा करें । हे नारद ! इतना कह कर पार्वती चुप हो गयीं ॥ १३० ॥ भारते पार्वतीस्तोत्रं यः शृणोति सुसंयतः । सत्पुत्रं लभते नूनं विष्णुतुल्यपराक्रमम् ॥ १३१ ॥ भारत में पार्वती द्वारा किये गये इस स्तोत्र को जो सुसंयत होकर श्रवण करेगा, उसे विष्णु के समान पराक्रमी सत्पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी ॥ १३१ ॥ संवत्सरं हविष्याशी हरिमभ्यर्च्य भक्तितः । सुपुण्यकव्रतफलं लभते नात्र संशयः ॥ १३२ ॥ पूरे वर्ष भर हविष्य का भोजन और भक्तिपूर्वक भगवान् की अर्चना करने पर वह मनुष्य इस सुपुण्यक व्रत का फल अवश्य प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं ॥ १३२ ॥ कृष्णस्तोत्रमिदं ब्रह्मन्सर्वसंपत्तिवर्धनम् । सुखदं मोक्षदं सारं स्वामिसौभाग्यवर्धनम् ॥ १३३ ॥ सर्वसौन्दर्यबीजं च यशोराशिविवर्धनम् । हरिभक्तिप्रदं तत्त्वज्ञानबुद्धिसुखप्रदम् ॥ ॥ १३४ ॥ हे ब्रह्मन् ! कृष्ण का यह स्तोत्र ; समस्त सम्पत्तियों का वर्द्धक, सुख और मोक्ष का दायक, सार रूप, स्वामी का सौभाग्यवर्द्धक, समस्त सौन्दर्य का कारण, कीर्तिराशि की वृद्धि करने वाला, हरिभक्ति तत्त्वज्ञान बुद्धि एवं सुख देने वाला भी है ॥ १३३-१३४ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पुण्यकव्रते पतिदाने पार्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रकथनं नामसप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के तीसरे गणपति खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत पुण्यक व्रत के प्रसङ्ग में पतिदान के अवसर पर पार्वती कृत श्रीकृष्ण-स्तोत्र कथन नामक सातवाँ अध्याय समाप्त ॥ ७ ॥ |