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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - अष्टमोऽध्यायः गणेशोत्पत्तिवर्णनम् -
गणेशजन्म का वर्णन - नारायण उवाच पार्वत्याः स्तवनं श्रुत्वा श्रीकृष्णः करुणानिधिः । स्वरूपं दर्शयामास सर्वादृश्यं सुदुर्लभम् ॥ १ ॥ नारायण बोले--पार्वती की ऐसी स्तुति सुनकर करुणानिधान भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का दर्शन दिया, जो सबके लिए अदृश्य और अति दुर्लभ है ॥ १ ॥ स्तुत्वा देवी ध्यानपरा कृष्णसंलग्नमानसा । ददर्श तेजसां मध्ये स्वरूपं सर्वमोहनम् ॥ २ ॥ सद्रत्नसाररचिते हीरकेण परिष्कृते । युक्ते माणिक्यमालाभी रत्नपूर्णं मनोरमे ॥ ३ ॥ पीतांशुकं वह्निशुद्धं वरं वंशकरं परम् । वनमालागलं श्यामं रत्नभूषणभूषितम् ॥ ४ ॥ किशोरवयसं चित्रवेषं वै चन्दनाङ्कितम् । चारुस्मितास्यमीड्यं तच्छारदेन्दुविनिन्दकम् ॥ ५ ॥ मालतीमाल्यसंयुक्तं केकिपिच्छावचूडकम् । गोपाङ्गनापरिवृतं राधावक्षःस्थलोज्ज्वलम् ॥ ६ ॥ कोटिकन्दर्पलावण्यलीलाधाम मनोहरम् । अतीव हृष्टं सर्वेष्टं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ७ ॥ श्रीकृष्ण में अपना चित्त लगाये हई ध्यानपरायण देवी (पार्वत) ने तेज के मध्य सब को मोहित करनेवाला स्वरूप देखा, जो उत्तम रत्न के सार भाग से रचित और हीरे जडे हए, रत्नपूर्ण मनोरम, माणिक्य-माला से सुशोभित, अग्नि-विशुद्ध पीताम्बर धारण किये, उत्तम, परम वंश कारक. गले में वनमाला से भूपित, श्यामल, रत्नों के भूषणों से सुशोभित, किशोरावस्था वाला, विचित्रवेष, चन्दन-चित, सुन्दर मन्द मुसुकान युक्त मुख, जिससे शारदीय चन्द्रमा तिरस्कृत हो रहा था, मालती माला पहने, (मकूट में) मोरपंख को चूडा बनाये, गोपिकाओं से घिरे, राधा को वक्षःस्थल में लगाने से उज्ज्वल, करोड़ों काम के लावण्य की शोभा का धाम, मनोहर, अतिहर्षित, सभी के अभीष्ट और भक्तों पर अनुग्रह करने वाला था ॥ २-७ ॥ दृष्ट्वा रूपं रूपवती पुत्रं तदनुरूपकम् । मनसा वरयामास वरं संप्राप्य तत्क्षणम् ॥ ८ ॥ रूपवती पार्वती ने उस रूप को देख कर उन्हीं के अनुरूप पुत्र की अभिलाषा मन से प्रकट की और उसी क्षण उन्हें वरदान भी प्राप्त हो गया ॥ ८ ॥ वरं दत्त्वा वरेशस्तु यद्यन्मनसि वाञ्छितम् । दत्त्वाऽभीष्टं सुरेभ्यश्च तत्तेजोऽन्तरधीयत ॥ ९ ॥ वरेश भगवान् श्रीकृष्ण, जो तेजःस्वरूप थे, देवताओं का भी मनोरथ परा करके वहीं अन्तहित हो गये ॥ ९ ॥ कुमारं बोधयित्वा तु देवा देव्यै दिगम्बरम् । ददुर्निरुपमं तत्र प्रहृष्टायै कृपान्विताः ॥ १० ॥ ब्राह्मणेभ्यो ददौ दुर्गा रत्नानि विविधानि च । सुवर्णानि च भिक्षुभ्यो बन्दिभ्यो विश्ववन्दिता ॥ ११ ॥ ब्राह्मणान्भोजयामास देवान्वै पर्वतांस्तथा । शंकरं पूजयामास चोपहारैरनुत्तमैः ॥ १२ ॥ सनत्कुमार को समझाकर कृपालु देवों ने अति हर्षित पार्वती को निरुपम शिव लौटा दिया । अनन्तर विश्ववन्दिता दुर्गा ने ब्राह्मणों को विविध-भांति के रत्न तथा भिक्षकों और वन्दियों को सुवर्ण प्रदान किया । ब्राह्मणों, देवों और पर्वतों को भोजन कराया तथा परमोत्तम उपहारों द्वारा शंकर जी की पूजा की ॥ १०-१२ ॥ दुन्दुभिं वादयामास कारयामास मङ्गलम् । संगीतं गाययामास हरिसंबन्धि सुन्दरम् ॥ १ ३ ॥ नगाड़ा बजवाया, मंगल कराया एवं भगवत्सम्बन्धी सुन्दर संगीत गान कराया ॥ १३ ॥ व्रतं समाप्य सा दुर्गा दत्त्वा दानानि सस्मिता । सर्वांश्च भोजयित्वा तु बुभुजे स्वामिना सह ॥ १४ ॥ इस प्रकार व्रत समाप्त करके और दान देने के उपरान्त दुर्गा ने मन्द मुसकान करती हुई सबको भोजन कराया । अनन्तर स्वयं भी स्वामी शिव के साथ भोजन किया ॥ १४ ॥ ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् । क्रमात्प्रदाय सर्वेभ्यो बुभुजे तेन कौतुकात् ॥ १५ ॥ कपूर आदि से सुवासित एवं परम रम्य ताम्बूल क्रमशः सबको देकर उसी कौतुक से स्वयं भी खाया ॥ १५ ॥ पयःफेननिभां शय्यां रम्यां सद्रत्नमञ्चके । पुष्पचन्दनसंयुक्तां कस्तूरीकुङ्कुमान्विताम् । रहसि स्वामिना सार्धं सुष्वाप परमेश्वरी ॥ १६ ॥ पश्चात् परमेश्वरी ने उत्तम रत्न के बने पलंग पर दूध के फेन के समान उज्ज्वल, रमणीक, पुष्प-चन्दन से युक्त और कस्तूरी-कुंकुम से समन्वित शय्या पर पति के साथ एकान्त में शयन किया ॥ १६ ॥ कैलासस्यैकदेशे च रम्ये चन्दनकानने । सुगन्धिकुसुमाढ्येन वायुना सुरभीकृते ॥ १७ ॥ भ्रमरध्वनिसंयुक्ते पुंस्कोकिलरुताश्रये । व्यहार्षीत्सा सुरसिका तत्र तेन सहाम्बिका ॥ १८ ॥ फिर कैलाश के एक भाग में रमणीक चन्दनवन में, जो सुगन्धित पुष्पों से सम्पन्न वायु से सुगन्धित, भौरों की ध्वनियों से गुंजित और नर कोकिल के सुन्दरवाणी बोलने का एकमात्र आश्रय था; सुरसिका अम्बिका शिव के साथ विहार करने लगीं ॥ १७-१८ ॥ रेतःपतनकाले च स विष्णुर्विष्णुमायया । विधाय विप्ररूपं तदाजगाम रतेगृहम् ॥ १९ ॥ किन्तु वीर्य स्खलित होने के समय वे विष्णु विष्णुमाया के द्वारा ब्राह्मण का वेष बना कर उनके रतिगृह के द्वार पर आ पहुँचे ॥ १९ ॥ जटावन्तं विना तैलं कुचैलं भिक्षुकं मुने । अतीव शुक्लदशनं तृष्णया परिपीडितम् ॥ २० ॥ हे मुने ! उनका रूप भिक्षुक ब्राह्मण का था, जो बिना तेल के जटा भार लिये, फटे-पुराने वस्त्र एवं अत्यन्त शुक्ल दाँत वाले तथा तृष्णा (प्यास) से अति पीड़ित थे ॥ २० ॥ अतीव कृशगात्रं च बिभ्रत्तिलकमुज्ज्वलम् । बहुकाकुस्वरं दीनं दैन्यात्कुत्सितमूर्तिमत् ॥ २१ ॥ वे क्षीणकाय, अति उज्ज्वल तिलक धारी, शोकाकुल स्वर वाले और दैन्य से कुत्सित मूर्तिमान् लग रहे थे । ॥ २१ ॥ आजुहाव महादेवमतिवृद्धोऽन्नयाचकः । दण्डावलम्बनं कृत्वा रतिद्वारेऽतिदुर्बलः ॥ २२ ॥ अन्न की याचना करने वाले एवं अति दुर्बल उस अतिवृद्ध ने डंडे के सहारे रतिगृह के दरवाजे पर पहुँच कर महादेव जी को बुलाया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण उवाच किं करोषि महादेव रक्ष मां शरणागतम् । सप्तरात्रिव्रतेऽतीते पारणाकाङक्षिणं क्षुधा ॥ २३ ॥ ब्राह्मण बोले- हे महादेव ! क्या कर रहे हो? मुझ शरणागत की रक्षा करो । मैं सात रात वाला व्रत करके क्षुधा से पीड़ित होकर भोजन करना चाहता हूँ ॥ २३ ॥ किं करोषि महादेव हे तात करुणानिधे । पश्य वृद्धं जराग्रस्तं तृषया परिपीडितम् ॥ २४ ॥ हे महादेव, हे तात ! हे करुणानिधे ! क्या कर रहे हो? वृद्धावस्था से ग्रस्त एवं प्यास से अत्यन्त पीडित मुझ वृद्ध की ओर देखो ॥ २४ ॥ मातरुत्तिष्ठ मेऽन्नं त्वं प्रयच्छाद्य शिवं जलम् । अनन्तरत्नोद्भवजे रक्ष मां शरणागतम् ॥ २५ ॥ हे मातः ! उठो ! तुम मुझे कल्याणप्रद जल और अन्न प्रदान करो । हे अनन्तरत्नों के उद्भव-स्थान हिमालय की पुत्री ! मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा करो ॥ २५ ॥ मातर्मातर्जगन्मातरेहि नाहं जगद्बहिः । सीदामि तृषया कस्मात्स्थितायामात्ममातरि ॥ २६ ॥ हे मातः ! हे मातः ! हे जगन्मातः ! आओ । मैं संसार से बाहर नहीं हूँ । अपनी माता के रहते हुए भी मैं तृष्णा से अति पीड़ित हो रहा हूँ ॥ २६ ॥ इति काकुस्वरं श्रुत्वा शिवस्योत्तिष्ठतो मुने । पपात वीर्यं शय्यायां न योनौ प्रकृतेस्तदा ॥ २७ ॥ हे मुने ! इस प्रकार के शोकाकुल शब्द सुनने पर शिव के उठते समय उनका वीर्य शय्या पर ही गिर गया प्रकृति दुर्गा के गर्भ में नहीं ॥ २७ ॥ उत्तस्थौ पार्वती त्रस्ता सूक्ष्मवस्त्रं पिधाय च । आजगाम बहिर्द्वारं पार्वत्या सह शंकरः ॥ २८ ॥ अनन्तर त्रस्त होकर पार्वती भी सूक्ष्म वस्त्र पहन कर शंकर के साथ दरवाजे पर आयीं ॥ २८ ॥ ददर्श ब्राह्मणं दीनं जरया परिपीडितम् । वृद्धं लुलितगात्रं च बिभ्रतं दण्डमानतम् ॥ २९ ॥ तपस्विनमशान्तं च शुष्ककण्ठौष्ठतालुकम् । कुर्वन्तं परया भक्त्या प्रणामं स्तवनं तयोः ॥ ३० ॥ शिव ने ब्राह्मण को देखा, जो दीन, बुढ़ापे से दुःखी, वृद्ध, हिलती-डुलती देह वाला, तपस्वी, अशान्त, सके दण्ड धारण करने वाला, सूखा कण्ठ, ओंठ एवं तालू वाला था और उन दोनों की परा भक्ति के साथ प्रणाम व स्तुति कर रहा था ॥ २९-३० ॥ श्रुत्वा तद्वचनं तत्र नीलकण्ठः सुधोपमम् । उवाच परया प्रीत्या प्रसन्नस्तं प्रहस्य च ॥ ३१ ॥ नीलकंठ (शिव) ने उसकी अमृतोपम वाणी सुनकर बड़े प्रेम से हँसकर उससे कहा ॥ ३१ ॥ शंकर उवाच गृहं ते कुत्र विप्रर्षे वद वेदविदां वर । किं नाम भवतः क्षिप्रं ज्ञातुमिच्छामि सांप्रतम् ॥ ३२ ॥ शंकर बोले- हे विप्रर्षे ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! तुम्हारा घर कहां है ? और आप का नाम क्या है, मैं शीघ्र जानना चाहता हूँ ॥ ३२ ॥ पार्वत्युवाच आगतोऽसि कुतो विप्र मम भाग्यादुपस्थितः । अद्य मे सफलं जन्म ब्राह्मणो मद्गृहेऽतिथिः ॥ ३३ ॥ पार्वती बोलीं-हे विप्र ! मेरे भाग्य से तुम यहाँ आये हो, कहाँ से आ रहे हो? आज मेरा जन्म सफल हो गया । मेरे घर ब्राह्मण, अतिथि रूप में पधारे हैं ॥ ३३ ॥ अतिथिः पूजितो येन त्रिजगत्तेन पूजितम् । तत्रैवाधिष्ठिता देवा ब्राह्मणा गुरवो द्विज ॥ ३४ ॥ हे द्विज ! क्योंकि जिसने अतिथि की पूजा की, उसने तीनों लोकों की पूजा की । देव, ब्राह्मण और गुरु लोग वहीं निवास करते हैं ॥ ३४ ॥ तीर्थान्यतिथिपादेषु शश्वत्तिष्ठन्ति निश्चितम् । तत्पादधौततोयेन मिश्रितानि लभेद्गृही ॥ ३५ ॥ अतिथि के चरणों में तीर्थगण निश्चित निवास करते हैं । गृहस्थ उनके चरण-प्रक्षालित जल मिश्रित तीर्थों कोप्राप्त करता है ॥ ३५ ॥ स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । अतिथिः पूजितो येन स्वात्मशक्त्या यथोचितम् ॥ ३६ ॥ अतः जिसने अपनी शक्ति के अनुसार अतिथि की यथोचित अर्चना की है वह समस्त तीर्थों में स्नान और समस्त यज्ञों में दीक्षित हो चुका ॥ ३६ ॥ महादानानि सर्वाणि कृतानि तेन भूतले । अतिथिः पूजितो येन भारते भक्तिपूर्वकम् ॥ ३७ ॥ वह पृथिवी पर सभी महादान कर चुका जिसने भारत में भक्तिपूर्वक अतिथि की पूजा की ॥ ३७ ॥ नानाप्रकारपुण्यानि वेदोक्तानि च यानि वै । तानि वैऽतिथिसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३८ ॥ वेद में कहे हुए अनेक भाँति के जितने पुण्य हैं, वे और अन्य भी अतिथि-सेवा के सोलहवें भाग के समान भी नहीं हैं ॥ ३८ ॥ अपूजितोऽतिथिर्यस्य भवनाद्विनिवर्तते । पितृदेवाग्नयः पश्चाद्गुरवो यान्त्यपूजिताः ॥ ३९ ॥ इसलिए अतिथि जिसके घर से बिना पूजित हुए चला जाता है, उसके पितर, देव, अग्नि और पश्चात् गुरु भी अपूजित ही रहकर चले जाते हैं ॥ ३९ ॥ यानिकानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । तानि सर्वाणि लभते नाभ्यर्च्यातिथिमीप्सितम् ॥ ४० ॥ अभीष्ट अतिथि का पूजन न करने पर ब्रह्महत्या आदि सभी पापों का भागी होना पड़ता है ॥ ४० ॥ ब्राह्मण उवाच जानासि वेदान्वेदज्ञे वेदोक्तं कुरु पूजनम् । क्षुत्तृड्भ्यां पीडितो मातर्वचनं च श्रुतौ श्रुतम् ॥ ४१ ॥ व्याधियुक्तो निराहारो यदा वाऽनशनव्रती । मनोरथेनोपहारं भोक्तुमिच्छति मानवः ॥ ४२ ॥ ब्राह्मण बोला-हे वेदज्ञे ! तुम वेदों को जानती हो, अतः वेदानुसार पूजन करो । हे मातः ! मैं क्षुधा और तृषा (प्यास) से अतिपीड़ित हो रहा है । मैंने वेदों में यह सुना है कि--रोगी, भूखा और अनशन का व्रती मनुष्य मनचाहा भोजन करना चाहता है ॥ ४१-४२ ॥ पार्वत्युवाच भोक्तुमिच्छसि किं विप्र त्रैलोक्ये यत्सुदुर्लभम् । दास्यामि भोक्तुं त्वामद्य मज्जन्म सफलं कुरु ॥ ४३ ॥ पार्वती बोलीं-हे विप्र ! तुम क्या खाना चाहते हो ? तीनों लोकों में जो अति दुर्लभ हो, वही भोजन तुम्हें कराऊंगी, मेरा जन्म सुफल करो ॥ ४३ ॥ ब्राह्मण उवाच व्रते सुव्रतया सर्वमुपहारं समाहृतम् । नानाविधं मिष्टमिष्टं भोक्तुं श्रुत्वा समागतः ॥ ४४ ॥ ब्राह्मण बोला-हे सुव्रते ! मैंने सुना है कि इस व्रत में उत्तम व्रत वाली आपने सभी प्रकार का भोजन एकत्रित किया है, अत. अनेक भाँति के मिष्टान्न भोजन करने आया हूँ ॥ ४४ ॥ सुव्रते तव पुत्रोऽहमग्रे मां पूजयिष्यसि । दत्त्वा मिष्टानि वस्तूनि त्रैलोक्ये दुर्लभानि च ॥ ४५ ॥ हे सुवते ! मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, तीनों लोकों में अतिदुर्लभ मिष्ठान्न देकर सर्वप्रथम मेरा पूजन करो ॥ ४५ ॥ ताताः पञ्चविधाः प्रोक्तामातरो विविधाः स्मृताः । पुत्रः पञ्चविधः साध्वि कथितो वेदवादिभिः ॥ ४६ ॥ हे साध्वि ! पिता पाँच प्रकार के बताये गये हैं, मातायें अनेक होती हैं और पुत्र पाँच प्रकार के होते हैं, वेदवादियों ने ऐसा कहा है ॥ ४६ ॥ विद्यादाताऽन्नदाता च भयत्राता च जन्मदः । कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितरः स्मृताः ॥ ४७ ॥ विद्या देने वाला, अन्न-दाता, भय-रक्षक, जन्मदाता, और कन्यादाता, वेदानुसार मनुष्यों के ये पाँच प्रकार के पिता होते हैं ॥ ४७ ॥ गुरुपत्नी गर्भधात्री स्तनदात्री पितुःस्वसा । स्वसा मातुः सपत्नी च पुत्रभार्याऽन्नदायिका ॥ ४८ ॥ गुरुपत्नी, गर्भ में धारण करने वाली, स्तन पिलाने वाली, पिता की भगिनी, माता की भगिनी सपत्नी (सौतेली मां) पुत्र की स्त्री, और भोजन देने वाली मनुष्यों की मातायें होती हैं ॥ ४८ ॥ भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्यजः शरणागतः । धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्यजो धनभागिति ॥ ४९ ॥ सेवक, शिष्य, पोष्य अपने वीर्य से उत्पन्न और शरणागत ये पाँच पुत्र कहलाते हैं, जिनमें चार धर्मपुत्र कहलाते हैं और अपने वीर्य से उत्पन्न होने वाला पुत्र धन का भागी होता है ॥ ४९ ॥ क्षुत्तृड्भ्यां पीडितो मातर्वृद्धोऽहं शरणागतः । सांप्रतं तव वन्ध्याया अनाथः पुत्र एव च ॥ ५० ॥ हे मातः ! मैं क्षुधा-तृषा से पीड़ित, वृद्ध और तुम्हारा शरणागत हूँ, इस समय तुम वन्ध्या का अनाथ पुत्र हूँ ॥ ५० ॥ पिष्टकं परमान्नं च सुपक्वानि फलानि च । नानाविधानि पिष्टानि कालदेशोद्भवानि च ॥ ५१ ॥ पक्वान्नं स्वस्तिकं क्षीरमिक्षुमिक्षुविकारजम् । घृतं दधि च शाल्यन्नं घृतपक्वं च व्यञ्जनम् ॥ ५२ ॥ लड्डुकानि तिलानां च मिष्टान्नैः सगुडानि च । ममाज्ञातानि वस्तूनि सुधया तुल्यकानि च ॥ ५३ ॥ ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् । जलं सुनिर्मलं स्वादु द्रव्याण्येतानि वासितम् ॥ ५४ ॥ द्रव्याणि यानि भुक्त्वा मे चारु लम्बोदरं भवेत् । अनन्तरत्नोद्भवजे तानि मह्यं प्रदास्यसि ॥ ५५ ॥ पूड़ी, खीर, पके फल, आटे के बने हुए नाना प्रकार के पदार्थ, कालदेशानुसार उत्पन्न हुई वस्तुएं, पक्वान्न, स्वस्तिक, दूध, ऊख के रस और उससे बने पदार्थ, घृत, दही, साठी चावल का भात, घृतपका व्यञ्जन, तिलों के लड्डू, गुड़ों के मिष्टान्न, और जिन्हें मैं नहीं जानता, वे अमृतोपम वस्तुएँ भी तथा कर्पूरादि से सुवासित उत्तम रम्य ताम्बूल, निर्मल एवं सुस्वादु जल तथा हे शैलेजे !, मुझे ये सभी वस्तुएँ और अन्य वस्तुएँ भी प्रदान करो, जिन्हें खाकर मैं सुन्दर लम्बोदर हो जाऊँ ॥ ५१-५५ ॥ स्वामी ते त्रिजगत्कर्ता प्रदाता सर्वसंपदाम् । महालक्ष्मीस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यप्रदायिनी ॥ ५६ ॥ तुम्हारा स्वामी तीनों लोकों का कर्ता और समस्त सम्पत्ति का प्रदाता है और तुम समस्त ऐश्वर्य प्रदान करने वाली महालक्ष्मी हो ॥ ५६ ॥ रत्नसिंहासनं रम्यममूल्यं रत्नभूषणम् । वह्निशुद्धांशुकं चारु प्रदास्यसि सुदुर्लभम् ॥ ५७ ॥ सुदुर्लभं हरेर्मन्त्रं हरौ भक्तिं दृढां सति । हरिप्रिया हरेः शक्तिस्त्वमेव सर्वदा स्थिता ॥ ५८ ॥ रमणीय रत्नसिंहासन, अमूल्य रत्नों के भूषण, अतिदुर्लभ अग्निविशुद्ध वस्त्र, अति दुर्लभ भगवान् का मंत्र और हरि की दृढभक्ति देने की कृपा करो, क्योंकि तुम भगवान् की प्रिया और उनकी शक्ति होकर सदा स्थित रहती हो ॥ ५७-५८ ॥ ज्ञानं मृत्युंजयं नाम दातृशक्तिं सुखप्रदाम् । सर्वसिद्धिं च किं मातरदेयं स्वसुताय च ॥ ५९ ॥ मनः सुनिर्मलं कृत्वा धर्मे तपसि संततम् । श्रेष्ठे सर्वं करिष्यामि न कामे जन्महेतुके ॥ ६० ॥ मृत्युञ्जयज्ञान, सुख देने वाली दातृशक्ति तथा सब सिद्धियाँ दो और, हे माता !, अपने पुत्र के लिए क्या अदेय है ? हे श्रेष्ठे ! धर्म एवं तप में अपने मन को अतिस्वच्छ करके मैं सब कुछ करूँगा, परन्तु जन्म देनेवाली कामनाओं के वश में नहीं होऊँगा ॥ ५९-६० ॥ स्वकामात्कुरुते कर्म कर्मणो भोग एव च । भोगौ शुभाशुभौ ज्ञेयौ तौ हेतू सुखदुःखयोः ॥ ६१ ॥ अपनी कामना के अनुसार कर्म किया जाता है और कर्मफल भोग किया जाता है और भोग शुभ अशुभ (भला-बुरा) दो प्रकार के होते हैं, जो सुख और दुःख के हेतु हैं ॥ ६१ ॥ दुःखं न कस्माद्भवति सुखं वा जगदम्बिके । सर्वं स्वकर्मणो भोगस्तेन तद्विरतो बुधः ॥ ६२ ॥ हे जगदम्बिके ! न किसी से दुःख होता है और न किसी से सुख, अपने कर्मों का सब भोग है । इसीलिए पण्डित उससे (कामना से) विरत (उदासीन) रहते हैं ॥ ६२ ॥ कर्म निर्मूलयन्त्येव सन्तो हि सततं मुदा । हरिभावनबुद्ध्या तत्तपसा भक्तसङ्गतः ॥ ६३ ॥ भगवान् में प्रेम करने वाली बुद्धि, तप और भक्तों के संसर्ग से सन्त महात्मा निरन्तर प्रसन्नचित्त होकर कर्म का निर्मुलन हो करते रहते हैं ॥ ६३ ॥ इन्द्रियद्रव्यसंयोगसुखं विध्वंसनावधि । हरिसंलापरूपं च सुखं तत्सार्वकालिकम् ॥ ६४ ॥ क्योंकि इन्द्रियों और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न सुख नश्वर होता है और भगवान् के कीर्तन रूप' सुख सभी कालों में विद्यमान रहता है ॥ ६४ ॥ हरिस्मरणशीलानां नाऽऽयुर्याति सतां सति । न तेषामीश्वरः कालो न च मृत्युंजयो ध्रुवम् ॥ ६५ ॥ हे सती ! भगवान् का भजन करने वाले सज्जनों की आयु नष्ट नहीं होती है । काल उन पर अधिकार नहीं कर सकता है और न मृत्युञ्जय ही कर सकते हैं ॥ ६५ ॥ चिरं जीवन्ति ते भक्ता भारते चिरजीविनः । सर्वसिद्धिं च विज्ञाय स्वच्छन्दं सर्वगामिनः ॥ ६६ ॥ भारत में वे भक्तलोग चिरजीवी होते हैं और समस्त सिद्धि प्राप्त कर वे स्वतंत्रतापूर्वक सब स्थानों में आते-जाते हैं ॥ ६६ ॥ जातिस्मरा हरेर्भक्ता जानते कोटिजन्मनः । कथयन्ति कथां जन्म लभन्ते स्वेच्छया मुदा ॥ ६७ ॥ भगवान् के भक्तों को पिछले जन्मों का स्मरण बना रहता है, इसीलिए वे करोड़ों जन्मों की बातें जानते हैं, उनकी कथा कहते रहते हैं और प्रसन्नतापूर्वक स्वेच्छया जन्म ग्रहण करते हैं ॥ ६७ ॥ परं पुनन्ति ते पूतास्तीर्थानि स्वीयलीलया । पुण्यक्षेत्रेऽत्र सेवायै परार्थं च भ्रमन्ति ते ॥ ६८ ॥ वे अति पुनीत होते हैं और अपनी लीला से तीर्थों को पवित्र करते हैं । इस पुण्य क्षेत्र में वे दूसरे की सेवा के लिए भ्रमण किया करते हैं ॥ ६८ ॥ वैष्णवानां पदस्पर्शात्सद्यः पूता वसुंधरा । कालं गोदोहमात्रं तु तीर्थे यत्र वसन्ति ते ॥ ६९ ॥ जिस तीर्थ में वैष्णवगण गोदोहन काल तक ठहर जाते हैं उनके चरण-स्पर्श होने से यह पृथ्वी तुरन्त पवित्र हो जाती है ॥ ६९ ॥ गुरोरास्याद्विष्णुमन्त्रः श्रुतौ यस्य प्रविश्यति । तं वैष्णवं तीर्थपूतं प्रवदन्ति पुराविदः ॥ ७० ॥ क्योंकि गुरु के मख से भगवान् विष्णु का मन्त्र जिसके कर्ण-विवर में प्रविष्ट होता है, उसे पुरावेत्ताओं ने तीर्थ के समान पवित्र वैष्णव कहा है ॥ ७० ॥ पुरुषाणां शतं पूर्वमुद्धरन्ति शतं परम् । लीलया भारते भक्त्या सोदरान्मातरं तथा ॥ ७१ ॥ मातामहानां पुरुषान्दश पूर्वान्दशापरान् । मातुः प्रसूमुद्धरन्ति दारुणाद्यमताडनात् ॥ ७२ ॥ भारत में भक्त लोग अपने पूर्वजों की सौ पीढ़ियों और भावी सौ पीढ़ियों का उद्धार अनायास करते हैं, उसी भांति सोदर भ्राता, माता तथा मातामह (नाना) कुल की पूर्व और पर की दश-दश पीढ़ियों समेत नानी का भीषण यमताड़न से उद्धार करते हैं ॥ ७१-७२ ॥ भक्तदर्शनमाश्लेषं मानवाः प्राप्नुवन्ति ये । ते स्नाताः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षिताः ॥ ७३ ॥ जो मानव भक्त का दर्शन और आलिंगन करते हैं वे मानो समस्त तीर्थों की यात्रा और सभी यज्ञों में दीक्षित हो चुके ॥ ७३ ॥ न लिप्ताः पातकैर्भक्ताः संततं हरिमानसाः । यथाऽग्नयः सर्वभक्ष्या यथा द्रव्येषु वायवः ॥ ७४ ॥ हरि का निरन्तर ध्यान करने वाले भक्त कभी पातकों से लिप्त नहीं होते हैं जैसे सर्वभक्षी अग्नि और द्रव्यों (पृथिवी, जल, तेज आदि) में वायु किसी से लिप्त नहीं होते ॥ ७४ ॥ त्रिकोटिजन्मनामन्ते प्राप्नोति जन्म मानवम् । प्राप्नोति भक्तसङ्गः स मानुषे कोटिजन्मतः ॥ ७५ ॥ तीन करोड़ जन्मों के पश्चात् मानव-जन्म प्राप्त होता है और करोड़ों जन्मों में मानव को भक्तों का सत्संग मिलता है ॥ ७५ ॥ भक्तसङ्गाद्भवेद्भक्तेरङ्कुरो जीविनः सति । अभक्तदर्शनोदेव स च प्राप्नोति शुष्कताम् ॥ ७६ ॥ हे सती ! भक्तों के सत्संग से भक्ति का अंकुर उत्पन्न होता है, जो अभक्तों के दर्शन से सूख जाता है ॥ ७६ ॥ पुनः प्रफुल्लतां याति वैष्णवालापमात्रतः । अङकुरश्चाविनाशी च वर्धते प्रतिजन्मनि ॥ ७७ ॥ पर पुनः वह वैष्णवों के साथ वार्तालाप होने पर प्रफुल्लित हो जाता है क्योंकि वह अंकुर अनश्वर होता है और प्रत्येक जन्म में वृद्धि प्राप्त करता है ॥ ७७ ॥ तत्तरोर्वर्धमानस्य हरिदास्यं फलं सति । परिणामे भक्तिपाके पार्षदश्च भवेद्धरेः ॥ ७८ ॥ हे सती ! उस वृक्ष के बड़े होने पर उसमें भगवान् का दास्य रूप फल लगता है और परिणाम में भक्ति के पकने (दृढ़ होने) पर वह भगवान् का पार्षद हो जाता है ॥ ७८ ॥ महति प्रलये नाशो न भवेत्तस्य निश्चितम् । सर्वसृष्टेश्च संहारे ब्रह्मलोकस्य वेधसः ॥ ७९ ॥ फिर महान् प्रलय में भी जबकि ब्रह्मा समेत ब्रह्मलोक आदि समस्त सृष्टि का संहार हो जाता है, उसका नाश नहीं होता है, यह सुनिश्चित है ॥ ७९ ॥ तस्मान्नारायणे भक्तिं देहि मामम्बिके सदा । न भवेद्विष्णुभक्तिश्च विष्णुमाये त्वया विना ॥ ८० ॥ हे अम्बिके ! इसलिए हमें भगवान् की भक्ति सदा देने की कृपा करो । हे विष्णुमाये ! बिना तुम्हारी कृपा के भगवान् की भक्ति नहीं होती है ॥ ८० ॥ तद्व्रतं लोकशिक्षार्थं तत्तपस्तव पूजनम् । सर्वेषां फलदात्री त्वं नित्यरूपा सनातनी ॥ ८१ ॥ तुम्हारा अपना व्रत, अपना तप और पूजन करना लोक शिक्षार्थ होता है, क्योंकि तुम सभी लोगों को फल प्रदान करने वाली, नित्यरूपा और सनातनी हो ॥ ८१ ॥ गणेशरूपः श्रीकृष्णः कल्पे कल्पे तवाऽऽमजः । त्वत्क्रोडमागतः क्षिप्रमित्युक्त्वाऽन्तरधीयत ॥ ८२ ॥ प्रत्येक कल्प में भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे गणेश रूप पुत्र होते हैं और वे शीघ्र ही (पुत्र बनकर) तुम्हारी गोद में आ रहे हैं, यह कह कर ब्राह्मण अन्तहित हो गया ॥ ८२ ॥ कृत्वान्तर्धानमीशश्च बालरूपं विधाय सः । जगाम पार्वतीतल्पं मन्दिराभ्यन्तरस्थितम् ॥ ८३ ॥ तल्पस्थे शिववीर्ये च मिश्रितः स बभूव ह । ददर्श गेहशिखरं प्रसूते बालके यथा ॥ ८४ ॥ भगवान् ने अन्तर्धान होकर अपना बाल रूप बनाया और मन्दिर के भीतर स्थित पार्वती की शय्या पर शिव के वीर्य में मिश्रित हो गये और प्रसूत वाला की भांति ऊपर मन्दिरकलश की ओर देखने लगे ॥ ८३-८४ ॥ शुद्धचम्पकवर्णाभः कोटिचन्द्रसमप्रभः । सुखदृश्यः सर्वजनैश्चक्षूरश्मिविवर्धकः ॥ ८५ ॥ अतीव सुन्दरतनुः कामदेवविमोहनः । मुखं निरुपमं बिभच्छारदेन्दुविनिन्दकम् ॥ ८६ ॥ सुन्दरे लोचने बिमभ्रच्चारुपद्मविनिन्तके । ओष्ठाधरपुटं बिभ्रत्पक्वबिम्बविनिन्दकम् ॥ ८७ ॥ कपालं च कपोलं च परमं सुमनोहरम् । नासाग्रं रुचिरं बिभ्रद्वीन्द्रचञ्चुविनिन्दकम् ॥ ८८ ॥ त्रैलोक्ये वै निरुपमं सर्वाङ्गं बिभ्रदुत्तमम् । शयानः शयने रम्ये प्रेरयन्हस्तपादकम् ॥ ८९ ॥ वे शुद्ध चम्पा के समान वर्ण वाले, करोड़ों चन्द्रमा की भाँति कान्ति वाले, सभी लोगों के देखने में सुखप्रद और नेत्र-ज्योति के वर्द्धक, अत्यन्त सुन्दर शरीर वाले, काम को भी मोहित करने वाले तथा शारदीय चन्द्रमा से भी श्रेष्ठ मुख वाले थे । उनके, रम्य कमल को निन्दित करने वाले युगलनयन, पके बिम्बाफल को तिरस्कृत करने वाला अधरबिम्ब, परम मनोहर कपोल और कपाल तथा तोते की चोंच को तिरस्कृत करने वाली नाक थी । इस भांति निरुपम समस्त अंगों को धारण किये वे सुन्दर शय्या पर पड़े-पड़े अपने हाथों और पैरों को चला रहे थे ॥ ८५-८९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशोत्पत्तिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में गणेशोत्पत्ति-वर्णन नामक आठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ८ ॥ |