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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - नवमोऽध्यायः बालगणेशदर्शनम् -
बाल गणेश का दर्शन - नारायण उवाच हरौ तिरोहिते शर्वाणी दुर्गा शंकरस्तदा । ब्राह्मणान्वेषणं कृत्वा बभ्राम परितो मुने ॥ १ ॥ नारायण बोले--हे मुने ! भगवान के अन्तहित होने पर पार्वती दुर्गा और शंकर ने ब्राह्मण की खोज में चारों ओर भ्रमण करना आरम्भ किया ॥ १ ॥ पार्वत्युवाच अये विप्रेन्द्रातिवृद्ध क्व गतोऽसि क्षुधातुरः । हे तात दर्शनं देहि प्राणान्वै रक्ष मे विभो ॥ २ ॥ पार्वती बोलीं--हे अतिवृद्ध विप्रेन्द्र ! तुम बहुत भूखे थे, कहाँ चले गये हो? हे तात ! हे विभो ! मुझे दर्शन देकर मेरे प्राणों की रक्षा करो ॥ २ ॥ शिव शीघ्र समुत्तिष्ठ ब्राह्मणान्वेषणं कुरु । क्षणमुन्मनसोरेष गतः प्रत्यक्षमावयोः ॥ ३ ॥ हे शिव ! शीघ्र उठो और ब्राह्मण की खोज करो । क्षण मात्र ही उन्मन रहते हम दोनों के वे प्रत्यक्ष हुए थे ॥ ३ ॥ अगृहीत्वा गृहात्पूजां गृहिणोऽतिथिरीश्वरः । यदि याति क्षुधार्तश्च तस्य किं जीवनं वृथा ॥ ४ ॥ हे ईश्वर ! किसी गृहस्थ के घर से बिना पूजा (सम्मान) ग्रहण किये अतिथि यदि भूखा और प्यासा चला जाता है, तो उस (गृहस्थ) का व्यर्थ जीवन किस काम का होता है ॥ ४ ॥ पितरस्तन्न गृह्णन्ति पिण्डदानं च तर्पणम् । तस्याऽहूतिं न गृह्णाति वह्निः पुष्पं जलं सुराः ॥ ५ ॥ क्योंकि पितर लोग उसके हाथ का पिण्डदान और तर्पण, अग्नि उसकी दी हुई आहुति और देवगण उसके हाथ का पुष्प एवं जल नहीं ग्रहण करते हैं ॥ ५ ॥ हव्यं पुष्पं जलं द्रव्यमशुचेश्च सुरासमम् । अमेध्यसदृशः पिण्डः स्पर्शनं पुण्यनाशनम् ॥ ६ ॥ उसका हव्य, पुष्प, जल और द्रव्य मद्य की भांति अशुद्ध हो जाता है, पिण्ड अपवित्र की भाँति रहता है, और उसका स्पर्श करने से पुण्य-नाश होता है ॥ ६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी । कैवल्ययुक्ता सा दुर्गा तां शुश्राव शुचाऽऽतुरा ॥ ७ ॥ इसी बीच आकाश वाणी हुई, जिसे कैवल्य (पद) युक्ता दुर्गा ने, जो शोकाकुल हो रही थीं, सुना ॥ ७ ॥ शान्ता भव जगन्मातः स्वसुतं पश्य मन्दिरे । कृष्णं गोलोकनाथं तं परिपूर्णतमं परम् ॥ ८ ॥ हे जगन्मातः ! शान्त हो जाओ, भवन में जाकर अपने पुत्र का दर्शन करो, जो गोलोकनाथ, परिपूर्णतम परमोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का स्वरूप है ॥ ८ ॥ सुपुण्यकव्रततरोः फलरूपं सनातनम् । यत्तेजो योगिनः शश्वद्ध्यायन्ति संततं मुदा ॥ ९ ॥ वह सुपुण्यक नामक व्रत वृक्ष का सनातन फल रूप है, जिस के तेज का योगी लोग प्रसन्न चित्त से निरन्तर ध्यान करते रहते हैं ॥ ९ ॥ ध्यायन्ति वैष्णवा देवा ब्रह्मविष्णुशिवादयः । यस्य पूज्यस्य सर्वाग्रे कल्पे कल्पे च पूजनम् ॥ १० ॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि वैष्णव देवगण प्रत्येक कल्प में सभी देवों के पहले जिसकी पूजा करते हैं ॥ १० ॥ यस्य स्मरणमात्रेण सर्वविघ्नो विनश्यति । पुण्यराशिस्वरूपं च स्वसुतं पश्य मन्दिरे ॥ १ १ ॥ जिसके स्मरण मात्र से समस्त विघ्नों का नाश हो जाता है, पुण्य राशि स्वरूप उस अपने पुत्र को मन्दिर में जाकर देखो ॥ ११ ॥ कल्पे कल्पे ध्यायसि यं ज्योतीरूपं सनातनम् । पश्य त्वं मुक्तिदं पुत्रं भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ १२ ॥ प्रत्येक कल्प में तुम जिस सनातन ज्योतिरूप का ध्यान करती हो, उसी मुक्ति देने वाले पुत्र को देखो, जो भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण किये हुए हैं ॥ १२ ॥ तव वाञ्छापूर्णबीजं तपःकल्पतरोः फलम् । सुन्दरं स्वसुतं पश्य कोटिकदर्पनिन्दकम् ॥ १३ ॥ वह तुम्हारी अभिलाषा-पूर्ति का बीज एवं तपरूपी कल्पवृक्ष का फल है । अपने उस सुन्दर पुत्र को देखो, जो करोड़ों काम को विनिन्दित कर रहा है ॥ १३ ॥ नायं विप्रः क्षुधार्तश्च विप्ररूपी जनार्दनः । किंवा विलापं कुरुषे क्व वो वृद्धः क्व चातिथिः । सरस्वती त्वेवमुक्त्वा विरराम च नारद ॥ १४ ॥ वह भूखा-प्यासा ब्राह्मण नहीं था, ब्राह्मण वेष में भगवान् जनार्दन थे । अतः क्यों विलाप कर रही हो ? कहाँ वह वृद्ध रहा और कहाँ वह अतिथि है । हे नारद ! इतना कहकर वह वाणी सरस्वती चुप हो गयीं ॥ १४ ॥ त्रस्ता श्रुत्वाऽऽकाशवाणीं जगाम स्वालयं सती । ददर्श बालं पर्यङ्के शयानं सस्मितं मुदा ॥ १५ ॥ भयभीत दुर्गा ने आकाशवाणी सुनकर अपने भवन में जाकर पलंग पर लेटे और मनकराते हुए बादक को देखा ॥ १५ ॥ पश्यन्तं गेहशिखरं शतचन्द्रसमप्रभम् । स्वप्रभापटलेनैव द्योतयन्तं महीतलम् ॥ १६ ॥ यह गृह-कलश की ओर ताक रहा था, सैकड़ों चन्द्रमा के समान उसको कान्ति थो और अपने कान्ति-समूह से पृथ्वीतल को प्रकाशित कर रहा था ॥ १६ ॥ कुर्वन्तं भ्रमणं तल्पे पश्यन्तं स्वेच्छया मुदा । उमेति शब्दं कुर्वन्तं रुदन्तं तं स्तनार्थिनम् ॥ १७ ॥ उस शय्या पर इधर-उधर लोट-पोट कर प्रसन्नचित्त से स्वेच्छया देख रहा था तथा दुग्ध-पान के लिए रोदन करते हुए उमा शब्द कह रहा था ॥ १७ ॥ दृष्ट्वा तदद्भुतं रूपं त्रस्ता शंकरसंनिधिम् । गत्वा सोवाच गिरिशं सर्वमङ्गलमङ्गला ॥ १८ ॥ समस्त मंगलों का मंगल करने वालो गौरी बालक का ऐसा अद्भुत रूप देखकर तुरन्त शंकर के पास गयीं और कहने लगीं ॥ १८ ॥ पार्वत्युवाच गृहमागच्छ सर्वेश तपसां फलदायकम् । कल्पे कल्पे ध्यायसि यं तं पश्याऽऽगत्य मन्दिरे ॥ १९ ॥ पार्वती बोलीं--हे सर्वेश ! घर चलो और प्रत्येक कल्प में जिस तप-फल-दाता का नित्य ध्यान करते हो उसको मन्दिर में चल कर देखो ॥ १९ ॥ शीघ्रं पुत्रमुखं पश्य पुण्यबीजं महोत्सवम् । पुंनामनरकत्राणं कारणं भवतारणम् ॥ २० ॥ शीघ्र पुत्र का मुख देखो, जो पुण्य का कारण, महान् उत्सव रूप, पुनाम नरक से बचाने का एकमात्र कारण और संसार से तारने वाला है ॥ २० ॥ स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षणम् । पुत्रसंदर्शनस्यास्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥ २१ ॥ समस्त तीर्थों का स्नान, समस्त यज्ञों की दीक्षा ग्रहण करना इस पुत्रदर्शन की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है ॥ २१ ॥ सर्वदानेन यत्पुण्यं क्ष्माप्रदक्षिणतश्च यत् । पुत्रदर्शनपुण्यस्य कला नार्हति षोडशीम् ॥ २२ ॥ समस्त दान तथा समस्त पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जिस पुण्य को प्राप्ति होती है, वह पुत्र-दर्शन-पुण्य की सोलहवीं कला के भी समान नहीं है ॥ २२ ॥ सर्वस्तपोभिर्यत्पुण्यं यदेवानशनैर्व्रतैः । सत्पुत्रोद्भवपुण्यस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥ २३ ॥ समस्त तप और व्रतोपवास द्वारा जितने पुण्य की प्राप्ति होती है, वह उत्तम पुत्र के जन्म-पुण्य की सोलहवीं कला के भी समान नहीं होती है ॥ २३ ॥ यद्विप्रभोजनैः पुण्यं यदेव सुरसेवनैः । सत्पुत्रप्राप्तिपुण्यस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥ २४ ॥ ब्राह्मण-भोजन और देवों की सेवा द्वारा जो पुण्य प्राप्त होता है वह उत्तम पुत्र को प्राप्तिरूप पुण्य की सोलहवीं कला के समान नहीं होता है ॥ २४ ॥ पार्वत्या वचनं श्रुत्वा शिवः संहृष्टमानसः । अजगाम स्वभवनं क्षिप्रं वै कान्तया सह ॥ २५ ॥ ददर्श तल्पे स्वसुतं तप्तकाञ्चनसंनिभम् । हृदयस्थं च यद्रूपं तदेवातिमनोहरम् ॥ २६ ॥ पार्वती की बातें सुनकर शंकर का चित्त अति प्रसन्न हो गया, अनन्तर अपनी कान्ता के साथ शीघ्र वे अपने भवन में आये और शय्या परतपाये सुवर्ण की भांति गौरवर्ण अपने पुत्र को देखा, जो हृदयस्थित रूप से भी अति मनोहर था । ॥ २५-२६ ॥ दुर्गा तल्पात्समादाय कृत्वा वक्षसि तं सुतम् । चुचुम्बानन्दजलधौ निमग्ना सेत्युवाचतम् ॥ २७ ॥ संप्राप्यामूल्यरत्नं त्वां पूर्णमेव सनातनम् । यथा मनो दरिद्रस्य सहसा प्राप्य सद्धनम् ॥ २८ ॥ दुर्गा ने शय्या से पुत्र को उठाकर अपनी गोद में ले लिया और आनन्द-सागर में निमग्न होकर उसका चुम्बन किया, अनन्तर उससे कहाजिस प्रकार दरिद्र का मन सहसा उत्तम धन प्राप्त करके प्रफुल्लित होता है, उसी भाँति मैंने अमूल्य रत्न के रूप में तुम्हें प्राप्त किया है, तुम्ही पूर्ण सनातन हो ॥ २७-२८ ॥ कान्ते सुचिरमायाते प्रोषिते योषितो यथा । मानसं परिपूर्णं च बभूव च तथा मम ॥ २९ ॥ जिस प्रकार चिरकाल तक परदेश में रहकर आये हुए पति को पाकर स्त्री का मन आनन्द से भर जाता है, उसी प्रकार मेरा मन भी आनन्द से परिपूर्ण हो रहा है ॥ २९ ॥ सुचिरं गतमायान्तमेकपुत्रा यथा सुतम् । दृष्ट्वा तुष्टा यथा वत्स तथाऽहमपि सांप्रतम् ॥ ३० ॥ जिस प्रकार एक पुत्र वाली स्त्री चिरकाल से गये हुए अपने पुत्र के आने पर उसे देखकर सन्तुष्ट हो जाती है उसी प्रकार इस समय मैं भी सन्तुष्ट हो रही हूँ ॥ ३० ॥ सद्रत्नं सुचिरं भ्रष्टं प्राप्य हृष्टो यथा जनः । अनावृष्टौ सुवृष्टिं च संप्राप्याहं तथा सुतम् ॥ ३१ ॥ चिरकाल का खोया हुआ उत्तमरत्न पाकर और अनावृष्टि के बाद सुवृष्टि होने पर मनुष्य जैसे हर्षित होता है, वैसे ही पुत्र पाकर मैं हर्षित हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ यथा सुचिरमन्धानां स्थितानां च निराश्रये । चक्षुः सुनिर्मलं प्राप्य मनः पूर्णं तथैव मे ॥ ३२ ॥ चिरकाल के आश्रयहीन अन्धे को निर्मल नेत्र प्राप्त होने की भाँति मेरा मन पूर्ण प्रसन्न हो गया है ॥ ३२ ॥ दुस्तरे सागरे घोरे पतितस्य च संकटे । अनौकस्य प्राप्य नौकां मनः पूर्णं तथा मम ॥ ३३ ॥ घोर दुस्तर सागर में गिरे हुए नौकाहीन पुरुष को संकटकाल में तुरन्त नौका मिल जाने की भाँति मेरा मन पूर्ण प्रसन्न हो गया है ॥ ३३ ॥ तृष्णया शुष्ककण्ठानां सुचिराच्च सुशीतलम् । सुवासितं जलं प्राप्य मनः पूर्णं तथा मम ॥ ३४ ॥ प्यास से चिरकाल से सूखे हुए कण्ठ वाले मनुप्य को अतिशीतल और सुवास्ति जल प्राप्त होने पर जिस प्रकार उसका मन पूर्ण प्रसन्न हो जाता है उसी प्रकार मेरा मन प्रसन्न हो रहा है ॥ ३४ ॥ दावाग्निपतितानां च स्थितानां च निराश्रये । निरग्निमाश्रयं प्राप्य मनः पूर्णं तथा मम ॥ ३५ ॥ दावाग्नि में पड़े हुए आश्रयहीन पुरुष को अग्निरहित उत्तम स्थान प्राप्त होने पर जैसे उसका मन पूर्ण आनन्दमग्न हो जाता है वैसे ही मेरा मन आनन्दमग्न हो रहा है ॥ ३५ ॥ चिरं बुभुक्षितानां च व्रतोपोषणकारिणाम् । सदन्नं पुरतो दृष्ट्वा मनः पूर्णं तथा मम ॥ ३६ ॥ व्रत में उपवास करने वाले पुरुष को, जो चिरकाल से अति क्षुधापीड़ित हो रहा हो, सामने उत्तम भोजन देखकर जिस प्रकार आनन्द होता है उसी भांति मेरा मन आनन्द से पूर्ण है ॥ ३६ ॥ इत्युक्त्वा पार्वती तत्र क्रोडे कृत्वा स्वबालकम् । प्रीत्या स्तनं ददौ तस्मै परमानन्दमानसा ॥ ३७ ॥ क्रोडे चकार भगवान्बालक हृष्टमानसः । चुचुम्ब गण्डे वेदोक्तं युयुजे चाऽऽशिषं मुदा ॥ ३८ ॥ इतना कहकर पार्वती ने अपने बच्चे को गोदी में रखकर परमानन्दमग्न चित्त से उसे स्तनपान कराया । अनन्तर शिव ने भी उसे गोद में रखकर अतिप्रसन्नता से उसका कपोल चुम्बन किया और वेदोक्त आशीर्वाद प्रदान किया ॥ ३७-३८ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे बालगणेशदर्शन नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण के संवाद में बाल-गणेश दर्शन नामक नयाँ अध्याय समाप्त ॥ ९ ॥ |