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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - दशमोऽध्यायः गणेशोद्भवमङ्गल -
गणेश-जन्मोत्सव - तौ दम्पती बहिर्गत्वा पुत्रमङ्गलहेतवे । विविधानि च रत्नानि द्विजेभ्यो ददतुर्मुदा ॥ १ ॥ नारायण बोले-उन दोनों दम्पति ने बाहर दरवाजे पर पुत्र के मंगलार्थ ब्रह्मणों को अनेक भाँति के रत्न प्रदान किये ॥ १ ॥ बन्दिम्यो भिक्षुकेभ्यश्च दानानि विविधानि च । नानाविधानि वाद्यानि वादयामास शंकरः ॥ २ ॥ बन्दीगण और भिक्षुकों को भी अनेक भाँति के दान दिये और शंकर ने अनेक प्रकार के बाजे बजवाये ॥ २ ॥ हिमालयश्च रत्नानां ददौ लक्षं द्विजातये । सहस्रं च गजेन्द्राणामश्वानां च त्रिलक्षकम् ॥ ३ ॥ दशलक्षं गवां चैव पञ्चलक्षं सुवर्णकम् । मुक्तामाणिक्यरत्नानि मणिश्रेष्ठानि यानि च ॥ ४ ॥ अन्यान्यपि च दानानि वस्त्राण्याभरणानि च । सर्वाण्यमूल्यरत्नानि क्षीरोदोत्पत्तिकानि च ॥ ५ ॥ ब्राह्मणेभ्यो ददौ विष्णुः कौस्तुभं कौतुकान्वितः । ब्रह्मा विशिष्टदानानि विप्राणां वाञ्छितानि च । सुदुर्लभानि सृष्टौ च ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥ ६ ॥ हिमालय ने एक लाख रत्न ब्राह्मणों को दान दिये तथा एक सहस्र गजेन्द्र, तीन लाख घोड़े, दस लाख गौएँ, पाँच लाख सुवर्ण, मोती, माणिक्य, रत्न, अन्य श्रेष्ठ मणियाँ, सुन्दर वस्त्र, आभूषण, क्षीरसागर से उत्पन्न अमूल्य रत्न तथा अन्य प्रकार के दान प्रदान किये । विष्ण ने कौतुकवश कौस्तुभ का दान ब्राह्मणों को अर्पित किया । ब्रह्मा ने सुप्रसन्न होकर ब्राह्मणों को उनके अभिलषित विशिष्ट दान से सन्तुष्ट किया, जो उनकी सृष्टि में अति दुर्लभ था ॥ ३-६ ॥ धर्मः सूर्यश्च शक्रश्च देवाश्च मुनयस्तथा । गन्धर्वाः पर्वता देव्यो ददुर्दानं क्रमेण च ॥ ७ ॥ इसी प्रकार धर्म, सूर्य और इन्द्र आदि देव, मुनिवृन्द, गन्धर्वगण, पर्वत एवं देवियों ने क्रमशः ब्राह्मणों को दान प्रदान किया ॥ ७ ॥ तापसानां सहस्राणि रुचकानां शतानि च । शतानि गन्धसाराणां मणीन्द्राणां च नारद ॥ ८ ॥ माणिक्यानां सहस्राणि रत्नानां च शतानि च । शतानि कौस्तुभानां च हीरकाणां शतानि च । हरिद्वर्णमणीन्द्राणां सहस्राणि मुदाऽविताः ॥ ९ ॥ गवां रत्नानि लक्षाणि गजरत्नसहस्रकम् । अमूल्यान्यश्वरत्नानि श्वेतवर्णानि कौतुकात् ॥ १० ॥ शतलक्षं सुवर्णानां वह्निशुद्धांशुकानि च । ब्राह्मणेभ्यो ददौ ब्रह्मा तत्र क्षीरोदधिर्मुदा ॥ ११ ॥ हारं चामूल्यरत्नानां त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् । अतीव निर्मलं सारं सूर्यभानुविनिन्दकम् ॥ १२ ॥ परिष्कृतं च माणिक्यैर्हीरकैश्च विराजितम् । रम्यं कौस्तुभमध्यस्थं ददौ देवी सरस्वती ॥ १३ ॥ त्रैलोक्यसारं हारं च सद्रत्नगणनिर्मितम् । भूषणानि च सर्वाणि सावित्री च ददौ मुदा ॥ १४ ॥ एक सहस्र माणिक्य, सौ रत्न, सौ कौस्तुभ मणि, सौ हीरे, एक सहस्र नीलमणि, एक लाख गौएँ, एक लाख रत्न, एक सहस्र उत्तम गज, श्वेत वर्ण के अमूल्य घोड़े, सौ लाख सुवर्ण, अग्निविशुद्ध वस्त्र ब्राह्मणों को ब्रह्मा ने प्रदान किये । क्षीरसागर ने अमूल्य रत्नों का हार, जो तीनों लोकों में दुर्लभ, अतिनिर्मल, ठोस सूर्य-किरण को तिरस्कृत करनेवाला, परिष्कत, माणिक्य और हीरों से सुशोभित, रम्य एवं मध्य भाग में कौस्तुभ मणि से विभूषित था सरस्वती देवी ने ऐसा हार प्रदान किया, जो तीनों लोकों का सारभाग तथा, उत्तम रत्नों से सुरचित था । सावित्री ने प्रेम से समस्त आभूषण अर्पित किये ॥ ८-१४ ॥ लक्षं सुवर्णलोष्टानां धनानि विविधानि च । शतान्यमूल्यरत्नानां कुबेरश्च ददौ मुदा ॥ १५ ॥ कुबेर ने प्रसन्न होकर एक लाख मुवर्ण की ईंटें, अनेक भांति के धन और सौ अमूल्य रत्न दान किये ॥ १५ ॥ दानानि दत्त्वा विप्रेभ्यस्ते सर्वे ददृशुः शिशुम् । परमानन्दसंयुक्ताः शिवपुत्रोत्सवे मुने ॥ १६ ॥ हे मुने ! शिव के पुत्रोत्सव में इस प्रकार ब्राह्मणों को दान देने के उपरान्त उन सब ने परमानन्द मग्न होकर बच्चे का दर्शन किया ॥ १६ ॥ भारं वोढुमशक्ताश्च ब्राह्मणा बन्दिस्तथा । स्थायंस्थायं च गच्छन्तो धनानि पथि कातराः ॥ १७ ॥ उस समय ब्राह्मणगण और बन्दी वन्द दान के धन से बोझिल होने के नाते मार्ग में कातर होकर धीरे-धीरे चल रहे थे ॥ १७ ॥ कथयन्ति कथाः सर्वे विश्रान्ताः पूर्वदायिनाम् । वृद्धाः शृण्वन्ति मुदिता युवानो भिक्षुका मुने ॥ १८ ॥ हे मुने ! वे लोग विश्राम करते हुए पूर्वदाताओं की कथा भी कर रहे थे, जिसे वृद्ध, युवा सभी भिक्षुक आदि सप्रेम सुन रहे थे ॥ १८ ॥ विष्णुः प्रमुदितस्तत्र वादयामास दुन्दुभिम् । संगीतं गापयामास कारयामास नर्तनम् ॥ १९ ॥ वेदांश्च पाठयामास पुराणानि च नारद । मुनीन्द्रानानयामास पूजयामास तान्मुदा ॥ २० ॥ आशिषं दापयामास कारयामास मङ्गलम् । सार्धं देवैश्च देवीभिर्ददौ तस्मै शुभाशिषः ॥ २१ ॥ हे नारद ! विष्णु ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजवाय, संगीत और नाच कराया, वेदों और पुराणों का पाठ कराया, मुनीन्द्रों को बुलाकर प्रसन्नतापूर्वक उनकी अर्चना की और उनके द्वारा बच्चे को मंगल आशीर्वाद दिलवाया । उनके साथ देवों और देवियों ने भी शुभाशीर्वाद प्रदान किया ॥ १९-२१ ॥ विष्णुरुवाच शिवेन तुल्यं ज्ञानं ते परमायुश्च बालक । पराक्रमे मया तुल्यः सर्वसिद्धीश्वरो भव ॥ २२ ॥ विष्णु बोले---हे बालक ! शिव के समान तुम्हारा ज्ञान और परमायु हो, मेरे समान पराक्रम हो और समस्त सिद्धियों के अधीश्वर हो जाओ ॥ २२ ॥ ब्रह्मोवाच यशसा ते जगत्पूर्णं सर्वपूज्यो भवाचिरम् । सर्वेषां पुरतः पूजा भवत्वतिसुदुर्लभा ॥ २३ ॥ ब्रह्मा बोले-तुम्हारे यश से समस्त जगत् आच्छन्न हो, शीघ्र ही सबके पूज्य बनो और सभी लोगों के पहले तुम्हारी अति दुर्लभ पूजा हो ॥ २३ ॥ धर्म उवाच मया तुल्यः सुधर्मिष्ठो भवान्भवतु दुर्लभः । सर्वज्ञश्च दयायुक्तो हरिभस्तो हरेः समः ॥ २४ ॥ धर्म बोले-मेरे समान आप दुर्लभ धर्मात्मा हों, सर्वज्ञ, दयाल, हरिभक्त और भगवान् के समान हो ॥ २४ ॥ महादेव उवाच दाता भव मया तुल्यो हरिभक्तश्च बुद्धिमान् । विद्यावान्पुण्यवाञ्छान्तो दान्तश्च प्राणवल्लभ ॥ २५ ॥ महादेव बोले- हे प्राणप्रिय ! मेरे समान दाता, हरिभक्त, बुद्धिमान्, विद्यावान्, पुण्यवान्, शान्त और दमनशील हो ॥ २५ ॥ लक्ष्मीरुवाच मम स्थितिश्च गेहे ते देहे भवतु शाश्वती । पतिव्रता मया तुल्या शान्ता कान्ता मनोहरा ॥ २६ ॥ लक्ष्मी बोली-तुम्हारे देह-गेह में मेरी निरन्तर स्थिति रहेगी, मेरे ही समान पतिव्रता, मनोहर और शान्ता स्त्री तुम्हें मिलेगी ॥ २६ ॥ सरस्वत्युवाच मया तुल्या सुकविता धारणाशक्तिरेवे च । स्मृतिर्विवेचनाशक्तिर्भवत्वतितरां सुत ॥ २७ ॥ सरस्वती बोलीं-हे मुत ! मेरे समान उत्तम कविता, अत्यन्त धारणा-शक्ति, स्मरण-शक्ति और विवेचन-शक्ति हो ॥ २७ ॥ सावित्र्युवाच वत्साहं वेदजननी वेदज्ञानी भवाचिरम् । मन्मन्त्रजपशीलश्च प्रवरो वेदवादिनाम् ॥ २८ ॥ सावित्री बोलीं-हे वत्स ! मैं वेदमाता हूँ, तुम शीघ्र वेदज्ञानी हो, मेरा मंत्र जप करने का स्वभाव और वेदवेताओं में श्रेष्ठ हो ॥ २८ ॥ हिमालय उवाच श्रीकृष्णे ते मतिः शश्वद्भक्तिर्भवतु शाश्वती । श्रीकृष्णतुल्यो गुणवान्भव कृष्णपरायणः ॥ २९ ॥ हिमालय बोले-भगवान् श्रीकृष्ण में तुम्हारी मति अतिशय निरन्तर लगी रहे, उनकी शाश्वती भक्ति तुम्हें प्राप्त हो, उनके समान गुणवान् हो और कृष्णपरायण हो ॥ २९ ॥ मेनकोवाच समुद्रतुल्यो गाम्भीर्ये कामतुल्यश्च रूपवान् । श्रीयुक्तः श्रीपतिसमो धर्मे धर्मसमो भव ॥ ३० ॥ मेनका बोली-समुद्र के तुल्य गम्भीर, काम के समान रूपवान्, विष्णु के समान श्रीयुक्त और धर्म के समान धार्मिक हो ॥ ३० ॥ वसूधरोवाच क्षमाशीलो मया तुल्यः शरण्यः सर्वरत्नवान् । निर्विघ्नो विघ्ननिघ्नश्च भव वत्स शुभाश्रयः ॥ ३१ ॥ वसुन्धरा बोली-हे वत्स ! मेरे समान क्षमाशील, शरणप्रद, समस्तरत्नयुक्त, विघ्नरहित, विघ्नविनाशक और शुभसदन हो ॥ ३१ ॥ पार्वत्युवाच ताततुल्यो महायोगी सिद्धः सिद्धिप्रदः शुभः । मृत्युंजयश्च भगवान्भवत्वतिविशारदः ॥ ३२ ॥ ऋषयो मुनयः सिद्धा सर्वे युयुजुराशिषः । ब्राह्मणा बन्दिनश्चैव युयुजुः सर्वमङ्गलम् ॥ ३३ ॥ पार्वती बोलीं-पिता के समान महायोगी, सिद्ध, सिद्धिदायक, शुभ, ऐश्वर्य सम्पन्न मृत्युञ्जय तथा अतिविशारद हो । अनन्तर ऋषियों, मुनियों और सिद्धों ने शुभाशिव प्रदान किया । ब्राह्मणों और बन्दियों ने समस्त मंगल प्रदान किया ॥ ३२-३३ ॥ सर्वं ते कथितं वत्स सर्वमङ्गलमङ्गलम् । गणेशजन्मकथनं सर्वविघ्नविनाशनम् ॥ ३४ ॥ हे वत्स ! इस प्रकार मैंने गणेश-जन्म तुम्हें सुना दिया, जो समस्त मंगलों का मंगल और समस्त विघ्नों का विनाशक है ॥ ३४ ॥ इमं सुमङ्गलाध्यायं यः शृणोति सुसंयतः । सर्वमङ्गलसंयुक्तः स भवेन्मङ्गलालयः ॥ ३५ ॥ इस मंगलाध्याय का जो संयमपूर्वक श्रवण करता है, वह समस्त मंगलों से युक्त एवं मंगलों का आश्रय होता है ॥ ३५ ॥ अपुत्रो लभते पुत्रमधनो लभते धनम् । कृपणो लभते सत्त्वं शश्वत्संपत्प्रदायि च ॥ ३६ ॥ भार्यार्थी लभते भार्यां प्रजार्थी लभते प्रजाम् । आरोग्यं लभते रोगी सौभाग्यं दुर्भगा लभेत् ॥ ३७ ॥ पुत्रहीन को पुत्र, निर्धन को धन तथा कृपण को सत्त्व की प्राप्ति होती है और निरन्तर सम्पत्ति भी । स्त्री चाहने वाले को स्त्री, प्रजार्थी को प्रजा, रोगी को आरोग्य, अभागे को सौभाग्य प्राप्त होता है ॥ ३६-३७ ॥ भ्रष्टपुत्रं नष्टधनं प्रोषितं च प्रियं लभेत् । शोकाविष्टः सदाऽऽनन्दं लभते नात्र संशयः ॥ ३८ ॥ उसी प्रकार खोये हुए पुत्र को प्राप्ति, नष्ट धन को प्राप्ति और प्रवासी प्रिय की प्राप्ति होती है । शोकाकुल को सदा आनन्द प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ३८ ॥ यत्पुण्यं लभते मर्त्यो गणेशाख्यानकश्रुतौ । तत्फलं लभते नूनमध्यायश्रवणान्मुने ॥ ३९ ॥ हे मुने ! गणेश जी के आख्यान के सुनने से मनुष्य को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है वह पुण्य इस अध्याय के सुनने से भी निश्चय प्राप्त होता है ॥ ३९ ॥ अयं च मङ्गलाध्यायो यस्य गेहे च तिष्ठति । सदा मङ्गलसंयुक्तः स भवेन्नात्र संशयः ॥ ४० ॥ और यह मंगलाध्याय जिसके घर में विराजमान रहता है वह सदा मंगलयुक्त होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ४० ॥ यात्राकाले च पुण्याहे यः शृणोति समाहितः । सर्वाभीष्टं स लभते श्रोगणेशप्रसादतः ॥ ४१ ॥ यात्रा के समय और पुण्य दिवस में सावधान होकर जो इसे मुनता है, वह श्रीगणेश की कृपा से सब अभीष्ट प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशोद्भवमङ्गल नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में गणेशोद्भवमंगल नामक दसवाँ अध्याय समाप्त ॥ १० ॥ |