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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकादशोऽध्यायः


शनिपार्वतीसंवादे शनेरधोदृष्टौ कारणकथनम् -
शनैश्चर के साथ पार्वती का कथोपकथन -


नारायण उवाच
हरिस्तमाशिषं कृत्वा रत्‍नसिंहासने वरे ।
देवैश्च मुनिभिः सार्धमवसत्तत्र संसदि ॥ १ ॥
नारायण बोले - उस बालक को शुभाशिष प्रदान करके भगवान् विष्णु देवों और मुनियों समेत सभामध्यमें उत्तम रत्न-सिंहासन पर विराजमान हुए ॥ १ ॥

दक्षिणे शंकरस्तस्य वामे ब्रह्मा प्रजापतिः ।
पुरतो जगतां साक्षी धर्मो धर्मवतां वरः ॥ २ ॥
उनके दाहिने भाग में शंकर, बायें भाग में प्रजापति ब्रह्मा, सामने जगत के साक्षी एवं धार्मिकों में सर्वश्रेष्ठ धर्म स्थित हुए ॥ २ ॥

तथा धर्मसमीपे च सूर्यः शक्रः कलानिधिः ।
देवाश्च मुनयो ब्रह्मन्नूषुः शैलाः सुखासने ॥ ३ ॥
हे ब्रह्मन् ! धर्म के समीप सूर्य, इन्द्र, कलानिधि (चन्द्र), देव, मुनि और पर्वतगण उस स्थान पर सुखासीन हुए ॥ ३ ॥

ननर्त नर्तकश्रेणी जगुर्गन्धर्वकिंनराः ।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं तुष्टुवुः श्रुतयो हरिम् ॥ ४ ॥
नृत्य करने वालों की श्रेणी (अप्सरायें) नृत्य करने लगी, गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे और थुतियाँ वेद के तत्त्व भगवान् विष्णु की स्तुति करने लगी, जो सुनने में अति मधुर लग रही थी ॥ ४ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र द्रष्टुं शंकरनन्दनम् ।
आजगाम महायोगी सूर्यपुत्रः शनैश्चरः ॥ ५ ॥
इसी बीच शंकर-नन्दन (गणेश) को देखने के लिए सूर्य के पुत्र महायोगी शनैश्चर आये ॥ ५ ॥

अत्यन्तनम्रवदन ईषन्मुद्रितलोचनः ।
अन्तर्बहिः स्मरन्कृष्णं कृष्णैकगतमानसः ॥ ६ ॥
वे अत्यन्त नीचे मुख किये, नेत्र को थोड़ा मूंदे हुए एवं भगवान् कृष्ण में दत्तचित्त होकर वाहर-भीतर सभी ओर कृष्ण का स्मरण कर रहे थे ॥ ६ ॥

तपःफलाशी तेजस्वी ज्वलदग्निशिखोपमः ।
अतीव सुन्दरः श्यामः पीताम्बरधरो वरः ॥ ७ ॥
वे तपःफल का उपभोग करने वाले तेजस्वी, प्रज्वलित अग्नि की शिखा के समान, अति सुन्दर श्याम वर्ण और पीताम्बर से भूषित थे ॥ ७ ॥

प्रणम्य विष्णुं ब्रह्माणं शिवं धर्मं रविं सुरान् ।
मुनीन्द्रान्बालकं द्रष्टुं जगाम तदनुज्ञया ॥ ८ ॥
विष्णु, ब्रह्मा, शिव, धर्म, सूर्य आदि देवों और मुनियों को प्रणाम कर शनि उनकी आज्ञा से बालक के दर्शनार्थ गये ॥ ८ ॥

प्रधानद्वारमासाद्य शिवतुल्यपराक्रमम् ।
द्वाःस्थं वै शूलहस्तं च विशालाक्षमुवाच ह ॥ ९ ॥
प्रधान दरवाजे पर पहुँचकर द्वारपाल विशालाक्ष से, जो शिव के समान पराक्रमी और हाथ में शूल लिये था, शनि ने कहा ॥ ९ ॥

शनैश्चर उवाच
शिवाज्ञया शिशुं द्रष्टुं यामि शंकरकिंकर ।
विष्णुप्रमुखदेवानां मुनीनामनुरोधतः ॥ १० ॥
शनैश्चर बोले- हे शंकर के सेवक ! शिव जी की आज्ञा और विष्णु आदि देवों और मुनियों के अनुरोध से मैं बालक के दर्शनार्थ जा रहा हूँ ॥ १० ॥

आज्ञां देहि च मां गन्तुं पार्वतीसंनिधिं बुध ।
पुनर्यामि शिशुं दृष्ट्‍वा विषयासक्तमानसः ॥ ११ ॥
अत: हे विद्वान् ! पार्वती के समीप जाने के लिए मुझे आज्ञा प्रदान करो ! मैं बच्चे को देखकर पुनः लौट आऊँगा क्योंकि मेरा चित सदैव विषयों में ही लगा रहता है ॥ ११ ॥

विशालाक्ष उवाच
आज्ञावहो न देवानां नाहं शंकरकिंकरः ।
मार्गं दातुं न शक्तोऽह विना मन्मातुराज्ञया ॥ १२ ॥
विशालाक्ष बोले--में देवताओं का आज्ञाकारी नहीं हूँ और न शंकर का भृत्य हूँ । बिना अपनी माता की आज्ञा लिये मार्ग देने में असमर्थ हैं ॥ १२ ॥

इत्युक्त्वाऽभ्यन्तरभ्येत्य प्रेरितः स शिवाज्ञया ।
ददौ मार्गं ग्रहेशाय विशालाक्षे मुदा ततः ॥ १३ ॥
इतना कहकर वह भीतर चला गया और पार्वती जी की आज्ञा लेकर विशालाक्ष ने हर्ष से शनि को आगे जाने दिया ॥ १३ ॥

शनिरभ्यन्तरं गत्वा चानयन्नम्रकधरः ।
रत्‍नसिहासनस्थां च पार्वतीं नमतां मुदा ॥ १४ ॥
भीतर जाकर शनि ने कन्धा झुकाये, मुसकराती हुई पार्वती को, जो रत्न महासन पर सुशोभित थीं, नमस्कार किया ॥ १४ ॥

सखिभिः पञ्चभिः शश्वत्सेविता श्वेतचामरैः ।
सखिदत्त च ताम्बूलमुपलंबं सुवासितम् ॥ १५ ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
पश्यन्तीं नर्तकीनृत्यं पुत्रं धृत्ता च वक्षसि ॥ १६ ॥
पाँच सखियाँ श्वेत चामर डुलाती हई, पार्वती को निरन्तर सेवा कर रही थीं । और पार्वती जी सखी के दिये हुए सुवापित पान चबा रही थीं तथा जो अग्निशुद्ध वस्त्र से सुसज्जित और रत्नों के भूषणों से भूषित होकर गोद में बालक लिए अप्सराओं का नृत्य देख रही थीं ॥ १५-१६ ॥

नतं सूर्यसुतं दृष्ट्‍वा दुर्गा संभाष्य सत्वरम् ।
शुभाशिषं ददौ तस्मै पृष्ट्‍वा तन्मङ्‌गलं शुभम् ॥ १७ ॥
मूर्य-पुत्र शनि को नीचे मब पिये देखकर दुर्गा ने बड़ी शीघ्रता से कहा-और शुभाशीर्वाद देकर उससे कुशल-मंगल पूछा ॥ १७ ॥

पार्वत्युवाच
कथमानम्रवक्त्रस्त्वं श्रोतुमिच्छामि सांप्रतम् ।
किं न पश्यसि मां साधो बालकं वा ग्रहेश्वर ॥ १८ ॥
पार्वती बोलीं--हे साधा ! हे ग्रहेश्वर ! तुम नीचे मुख क्यों किये हो, मैं सुनना चाहती हैं । मेरे पुत्र की ओर तुम क्यों नहीं देखते हो? ॥ १८ ॥

शनिरुवाच
सर्वे स्वकर्मणा साध्वि भुञ्जते तपसः फलम् ।
शुभाशुभं च यत्कर्म कोटिकल्पैर्न लुप्यते ॥ १९ ॥
शनि बोले --हे साध्वि ! सभी लोग अपने-अपने कर्मों के फल भोगते हैं । जो शुभ-अशुभ कर्म किया हुआ रहता है, करोड़ों कल्प व्यतीत होने पर भी लुप्त नहीं होता है ॥ १९ ॥

कर्मणा जायते जन्तुर्बह्मेन्द्रार्यममन्दिरे ।
कर्मणा नरगेहेषु पश्वादिषु च कर्मणा ॥ २० ॥
कर्मवश जीव ब्रह्मा, इन्द्र और सूर्य के भवन में जन्म ग्रहण करता है, कर्म द्वारा मनुष्यों के घर और कर्म के ही कारण पश्वादि योनियों में जाता है ॥ २० ॥

कर्मणा नरकं याति वैकुण्ठं याति कर्मणा ।
स्वकर्मणा च राजेन्द्रो भृत्यश्चापि स्वकर्मणा ॥ २१ ॥
कर्म से नरकगार्म होता है और धर्म से ही वैकुण्ठ जाता है । अपने ही कर्म से महाराज और अपने ही कर्म के कारण मृत्य (सेवक) होता है । ॥ २१ ॥

कर्मणा सुन्दरः शश्वद्‍व्याधियुक्तः स्वकर्मणा ।
कर्मणा विषयी मातर्निर्लिप्तश्च स्वकर्मणा ॥ २२ ॥
कर्म से नुन्दर और अपने ही कर्मवश रोगी तथा हे मातः ! कर्म से ही विषयी और अपने ही कर्म से निलिप्त होता है ॥ २२ ॥

कर्मणा धनवाँल्लोको दैन्ययुक्तः स्वकर्मणा ।
कर्मणा सत्कुटुम्बी च कर्मणा बन्धुकण्टकः ॥ २३ ॥
कर्म से लोग धनवान् होते हैं और अपने कर्म के कारण ही दीन होते हैं । कर्म से उत्तम परिवार और कर्म से ही कांटे के समान बन्धु वाला होता है । ॥ २३ ॥

सुभार्यश्च सुपुत्रश्च सुखी शश्वत्स्वकर्मणा ।
अपुत्रकश्च कुस्त्रीको निस्त्रीकश्च स्वकर्मणा ॥ २४ ॥
अपने ही कर्म से निरन्तर उत्तम स्त्री और उत्तम पुत्र को प्राप्ति होती है तथा स्वयं सुखी रहता है । अपने ही कर्म से निपूत, दुष्टा स्त्री वाला अथवा स्त्रीरहित होता है ॥ २४ ॥

इतिहासं चातिगोप्यं शृणु शंकरवल्लभे ।
अकथ्यं जननीपार्श्वे लज्जाजनमकारणम् ॥ २५ ॥
हे शंकरवल्लभे ! एक अति गप्त इतिहास सुनो, जो लज्जाजनक होने के कारण माता के सामने कहने योग्य नहीं है ॥ २५ ॥

आ बाल्यात्कृष्णभक्तोऽहं कृष्णध्यानैकमानसः ।
तपस्यासु रतः शश्वद्विषयेऽपि रतः सदा ॥ २६ ॥
पिता ददौ विवाहे तु कन्यां चित्ररथस्य च ।
अतितेजस्विनी शश्वत्तपस्यासु रता सती ॥ २७ ॥
मैं बाल्यावस्था से ही भगवान् कृष्ण का भक्त हूँ, उन्हीं के एकमात्र ध्यान में चित्त को लगाये रहता है, उन्हीं के जप में निरन्तर लगा रहता हूँ और विषयों में भी सदा रत रहता हूँ । पिता ने चित्ररथ को कन्या के साथ विवाह कर दिया जो अति तेजपूर्ण और तपस्या में सदैव लगी रहती है ॥ २६-२७ ॥

एकदा सा त्वृतुस्नाता सुवेषं स्वं विधाय च ।
रत्‍नालंकारसंयुक्ता मुमानसमोहिनी ॥ २८ ॥
एक बार तुस्नान करके उसने आना उत्तम वेप बनाया । रत्नों के आभूषणों से विभूषित होकर वह मुनियों के चित्त को मोहित करने वालो बन गयी ॥ २८ ॥

हरेः पादं ध्यायमानं मांमां पश्येत्युवाच ह ।
मत्समीपं समागत्य सस्मिता लोललोचना ॥ २९ ॥
शशाप मामपश्यन्तमृतुनाशाच्च कोपतः ।
बाह्यज्ञानविहीनं च ध्यानसंलापमानसम् ॥ ३० ॥
न दृष्टाऽहं त्वया येन न कृतं ह्यृतुरक्षणम् ।
त्वया दृष्टं च यद्वस्तु मूढ सर्वं विनश्यति ॥ ३१ ॥
मन्द-मन्द हँसती हुई वह चञ्चलनयना मेरे समीप आई और मुझसे बोली कि मुझे देखो । उस समय मेरा मन ध्यान में संलग्न था और मैं बाह्य ज्ञान से विहीन था । इस लिए उसकी ओर न देखते हुए मुझे उसने ऋतु-स्नान व्यर्थ हो जाने के कारण क्रोध से शाप दे दिया--हे मूढ़ ! तुमने इस समय मुझे देखा तक नहीं और मेरे ऋतुकाल को रक्षा नहीं को (अर्थात् उपभोग नहीं किया), इसलिए जो वस्तु तुम देखोगे वह सब नष्ट हो जायगी ॥ २९-३१ ॥

अहं च विरतो ध्यानात्तोषयंस्तां तदा सतीम् ।
शापं मोक्तुं न शक्ता सा पश्चात्तापमवाप ह ॥ ३२ ॥
पश्चात् ध्यान से विरत होकर मैंने उस पतिव्रता को सन्तुष्ट किया किन्तु वह शापमुक्त करने में असमर्थ थी, इसीलिए केवल पश्चात्ताप का अनुभव किया ॥ ३२ ॥

तेन मातर्न पश्यामि किंचिद्वस्तु स्वचक्षुषा ।
ततः' प्रकृतिनम्रास्यः प्राणिहिंसाभयादहम् ॥ ३३ ॥
हे मातः ! इसी कारण मैं कोई वस्तु अपनी आँखों से नहीं देखता हूँ । और कहीं प्राणियों की हिंसा न हो जाये इस भय से मैंने सदैव नीचे मुख करने का स्वभाव हो बना लिया है ॥ ३३ ॥

शनैश्चरवचः श्रुत्वा चाहसत्पार्वती मुने ।
उच्चैः प्रजहसुः सर्वा नर्तकीकिंनरीगणाः ॥ ३४ ॥
हे मुने ! शनैश्चर की ऐसी बातें सुनकर पार्वती हँस पड़ी और वहाँ नृत्य करने वाली किन्नरियाँ भी ठहाका मारकर हँसने लगीं ॥ ३४ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे शनिपार्वतीसंवादे शनेरधोदृष्टौ
कारणकथनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद के प्रकरण में शनि-पार्वती-संवाद में शनि की अबोदृष्टि का कारण वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ ११ ॥

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