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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - द्वादशोऽध्यायः


शनिकृतगणेशदर्शनतज्जातगणेशशिरःपतनविष्णुकृत-
गणेशशिरोयोजनशनिशापादिकथनम् -
शनि के देखने से गणेश का शिरःपतन तथा विष्णु के द्वारा शिरोयोजन -


नारायण उवाच
दुर्गा तद्वचनं श्रुत्वा सस्मार हरिमीश्वरम् ।
ईश्वरेच्छावशीभूतं जगदेवेत्युवाच ह ॥ १ ॥
नारायण बोले--दुर्गा ने उसकी बातें सुन कर भगवान् का स्मरण किया और कहा कि समस्त संसार ईश्वर की इच्छा के वशीभूत है ॥ १ ॥

सा च देवी दैववशात् शनिं प्रोवाच कौतुकात् ।
पश्य मां मच्छिशुमिति निषेकः केन वार्यते ॥ २ ॥
अनन्तर दैवसंयोग से कौतुकवश देवी पार्वती ने शनि से कहा--मुजे और मेरे बालक को तुम देखो । जन्मोत्सव को कौन रोकता है ॥ २ ॥

पार्वत्या वचनं श्रुत्वा शनिर्मेने हृदा स्वयम् ।
पश्यामि किं न पश्यामि पार्वतीसुतमित्यहो ॥ ३ ॥
यदि बालो मया दृष्टस्तस्य विघ्नो भवेद् ध्रुवम् ।
अन्यथा सुप्रशस्तं च पुरतः स्वात्मरक्षणम् ॥ ४ ॥
पार्वती की बात सुन कर शनि ने अपने मन में विचार किया कि--पार्वती-पुत्र का मैं दर्शन करूं या न करूं । क्योंकि यदि मैं बच्चे को देखता हूँ, तो निश्चित ही उसका विघ्न हो जायगा और नहीं तो उनके सामने अपनी आत्मरक्षा अत्यन्त प्रशस्त हो जाएगी ॥ ३-४ ॥

इत्येवमुक्त्वा धर्मिष्ठो धर्मं कृत्वा तु साक्षिणम् ।
बालं द्रष्टुं मनश्चक्रे न तु तन्मातरं शनिः ॥ ५ ॥
ऐसा सोच कर धर्मात्मा शनि ने धर्म को साक्षी बना कर बालक को देखने के लिए निश्चय किया न कि उसकी माता को ॥ ५ ॥

विषष्णमानसः पूर्वं शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः ।
सव्यलोचनकोणेन ददर्श च शिशोर्मुखम् ॥ ६ ॥
उनका मन पहले से ही खिन्न हो गया था और उनके कण्ठ, ओंठ, ताल सूखने लगे थे । अतः दाहिनी आँख के कोने से उन्होंने बच्चे का मुख देखा ॥ ६ ॥

शनेश्च दृष्टिमात्रेण चिच्छिदे मस्तकं मुने ।
चक्षुर्निमीलयामास तस्थौ नम्राननः शनिः ॥ ७ ॥
हे मुने ! शनि के देखते ही (बच्चे का) मस्तक कट गया और शनि आँखें बन्द कर नीचे मुख किये वहीं ठहर गये ॥ ७ ॥

तस्थौ च पार्वतीक्रोडे तत्सर्वाङ्‌गं सलोहितम् ।
विवेश मस्तकं कृष्णे गत्वा गोलोकमीप्सितम् ॥ ८ ॥
पार्वती की गोद में बच्चे का सर्वांग (शिर विहीन धड़) रक्त से लोहित हो गया और वह (कटा हुआ) शिर गोलोक में जा कर भगवान् कृष्ण में प्रविष्ट हो गया ॥ ८ ॥

मूर्च्छां संप्राप सा देवी विलप्य च भृशं मुहुः ।
मृतेव च पृथिव्यां तु कृत्वा वक्षसि बालकम् ॥ ९ ॥
बार-बार अत्यन्त विलाप करके बालक को गोद में लेकर वह देवी मूच्छित होकर पृथिवी पर मृतक के समान गिर पड़ी ॥ ९ ॥

विस्मितास्ते' सुराः सर्वे चित्रपुत्तलिका यथा ।
देव्यश्च शैला गन्धर्वाः सर्वे कैलासवासिनः ॥ १ ० ॥
देव लोग आश्चर्यचकित होकर चित्र की पुतली की भाँति अवाक् रह गए और वहाँ उपस्थित अन्य देवियाँ, पर्वतगण, गन्धर्व एवं समस्त कैलासनिवासी वैसे हो गये ॥ १० ॥

तात्सर्वान्मूर्च्छितान्दृष्ट्‍वैवाऽऽरुह्य गरुडं हरिः ।
जगाम पुष्पभद्रां स चोत्तरस्यां दिशि स्थिताम् ॥ ११ ॥
उपरांत सभी लोगों को मूच्छित देखकर विष्णु गरुड़ पर बैठ कर उत्तर दिशा में स्थित पुष्पभद्रा नदी के तट पर गये ॥ ११ ॥

पुष्पभद्रानदीतीरे ह्यपश्यत्कानने स्थितम् ।
गजेन्द्रं निद्रितं तत्र शयानं हस्तिनीयुतम् ॥ १२ ॥
तयोदक्छिरसं रम्यं मूर्च्छितं सुरतश्रमात् ।
परितः शावकान्कृत्वा परमानन्दमानसम् ॥ १३ ॥
वहाँ पुष्पभद्रा नदी के तट पर पहुँच कर उन्होंने जंगल में हथिनियों के साथ शयन किये गजेन्द्र को देखा, जो सुरत के श्रम से श्रान्त होकर उत्तर शिर किए परमानन्द से सो रहा था और अपने चारों ओर बच्चों को लेटाये था ॥ १२-१३ ॥

शीघ्रं सुदर्शनेनैव चिच्छिदे तच्छिरो मुदा ।
स्थापयामास गरुडे रुधिराक्तं मनोहरम् ॥ १४ ॥
भगवान् ने प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र द्वारा उसका शिर काट कर गरुड़ पर रख लिया, जो रुधिर से तर और मनोहर था ॥ १४ ॥

गजच्छिन्नाङ्‌गविक्षेपात्प्रबोधं प्राप्य हस्तिनी ।
शावकान्बोधयामास चाशुभं वदती तदा ॥ १५ ॥
रुरोद शावकैः सार्धं सा विलप्य शुचाऽऽतुरा ।
तुष्टाव कमलाकान्तं शान्तं सस्मितमीश्वरम् ॥ १६ ॥
शङ्‌खचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरं परम् ।
गरुडस्थं जगत्कान्तं भ्रामयन्तं सुदर्शनम् ॥ १७ ॥
गज के मस्तक कटने से हथिनी जाग्रत हो गयी और अमंगल कहती हुई बच्चों को जगाने लगी । अनन्तर शोकाकुल होकर बच्चों समेत रोदन-विलाप करने लगी और कमलाकान्त भगवान् विष्णु की स्तुति करने लगी, जो शान्त, स्मितभाव से युक्त, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये, पीताम्बर से विभूषित, गरुड पर स्थित, समस्त जगत् के कान्त एवं सुदर्शन चक्र घुमा रहे थे ॥ १५-१७ ॥

निषेकं खण्डितुं शक्तं निषेकजनकं विभुम् ।
निषेकभोगदातारं भोगनिस्तारकारणम् ॥ १८ ॥
वे जन्म को खण्डित करने में समर्थ, जन्म के जनक, विनु, जन्म-भोग देने वाले और भोगों से निस्तार करने के एकमात्र कारण हैं ॥ १८ ॥

प्रभुस्तत्स्तवनात्तुष्टस्तस्यै विप्र वरं ददौ ।
मुण्डात्तुण्डं पृथक्कृत्य युयुजेऽन्यगजस्य च ॥ १९ ॥
जीवयामास तं तत्र ब्रह्मज्ञानेन सर्ववित् ।
सर्वाङ्‌गे योजयामास गजस्य चरणाम्बुजम् ॥ २० ॥
त्वं जीवाऽकल्पपर्यन्तं परिवारैः समं गज ।
इत्युक्त्वा च मनोयायी कैलासं ह्याजगाम सः ॥ २१ ॥
हे विष ! प्रभु विष्णु ने उसकी स्तुति से संतुष्ट होकर उसे वर प्रदान किया और गज का मस्तक उमके धड़ पर रख कर ब्रह्मज्ञान द्वारा उसे जीवित कर दिया । तथा सर्ववेत्ता भगवान् ने गज के मांग में अपने चरण-कमल का स्पर्श कराया और कहा-'हे गज ! अपने परिवारों समेत एक कल्प तक तुम जीवित रहो । ' इतना कह कर मन को भांति (वेग से) चलने वाले भगवान् कैलास आ गये ॥ १९-२१ ॥

आहृत्य पार्वतीहस्ताद्‌बालं कृत्वा स्ववक्षसि ।
रुचिरं तच्छिरः सम्यग्योजयामास बालके ॥ २२ ॥
उन्होंने पार्वती के हाथ से बालक लेकर अपनी गोद में रख लिया तथा सुन्दर गज-मस्तक बालक के धड़ से जोड़ दिया ॥ २२ ॥

ब्रह्मस्वरूपो भगवान्ब्रह्मज्ञानेन लीलया ।
जीवयामास तं शीघ्रं हुकारोच्चारणेन च ॥ २३ ॥
ब्रह्मस्वरूप भगवान् ने ब्रह्मज्ञान द्वारा लोला को भाँति हुँकार' उच्चारण करके उसे शीघ्र जोवित कर दिया ॥ २३ ॥

पार्वतीं बोधयित्वा तु कृत्वा क्रोडे च तं शिशुम् ।
बोधयामास तां कृष्ण आध्यात्मिकविबोधनैः ॥ २४ ॥
अनन्तर कृष्ण ने पार्वती को समझा-बुझा कर उनकी गोद में बालकः रख दिया और आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा उन्हें प्रबोधित किया ॥ २० ॥

विष्णुरुवाच
ब्रह्मादिकीटपर्यन्त फलं भुङ्‍क्ते स्वकर्मणः ।
जगद्‌बुद्धिस्वरूपाऽसि त्वं न जानासि किं शिवे ॥ २५ ॥
कल्पकोटिशतं भोगी जीविना तत्स्वकर्मणा ।
उपस्थितो भवेन्नित्यं प्रतियोनौ शुभाशुभः ॥ २६ ॥
विष्णु बोले---ब्रह्मा से लेकर कोड़े पर्यन्त सभी अपने कर्मों के फल भोगते हैं और तुम तो बुद्धि स्वरूप हो । हे शिवे ! क्या तुम यह नहीं जानती हो कि-जीवों को अपने कर्म के कारण हो सौ करोड़ कल्पों का भोग प्राप्त होता है और शुभाशुभ कर्म द्वारा ही उन्हें प्रत्येक योनि में नित्य आना-जाना पड़ता है ॥ २५-२६ ॥

इन्द्रः स्वकर्मणा कीटयोनौ जन्म लभेत्सति ।
कीटश्चापि भवेदिन्द्रः पूर्वकर्मफलेन वै ॥ २७ ॥
इन्द्र अपने कर्म वश कीट योनि में उत्पन्न होते हैं और कोट भी पूर्व किए कर्म फलों द्वारा इन्द्र हो जाता है ॥ २७ ॥

सिंहोऽपि मक्षिकां हन्तुमक्षमः प्राक्तनं विना ।
मशको हस्तिनं हन्तुं क्षमः स्वप्राक्तनेन च ॥ २८ ॥
सिंह भी जन्मान्तरीय कर्म विना मक्खी को मारने में अशक्त रहता है और कर्मवश मच्छर भी हाथी को मारने में समर्थ हो जाता है ॥ २८ ॥

सुखं दुःखं भयं शोकमानन्दं कर्मणः फलम् ।
सुकर्मणः सुखं हर्षमितरे पापकर्मणः ॥ २९ ॥
इसलिए सुख, दुःख, भय, शोक और आनन्द कर्मों के फल हैं । सुकर्म का फल सुख-हर्ष है इससे अन्य पाप के फल हैं ॥ २९ ॥

इहैव कर्मणो भोगः परत्र च शुभाशुभः ।
कर्मोपार्जनयोग्यं च पुण्यक्षेत्रं च भारतम् ॥ ३० ॥
शुभाशभ कमों द्वारा हा लोक और परलोक में भोग प्राप्त होता है और कर्म करने के योग्य पुण्य क्षेत्र भारत है ॥ ३० ॥

कर्मणः फलदाता च विधाता च विधेरपि ।
मृत्योर्मृत्युः कालकालो निषेकस्य निषेककृत् ॥ ३१ ॥
संहर्तुरपि संहर्ता पातुः पाता परात्परः ।
गोलोकनाथः श्रीकृष्णः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ ३२ ॥
कमों के फल देने वाले, ब्रह्मा के भी ब्रह्मा, मृत्यु के भी मृत्यु, काल के भी काल और निषेक का भी निषेक करने वाले तथा संहर्ता के संहाक और रक्षा करने वाले के भी रक्षक स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जो परिपूर्णतम, गोलोकनाथ एवं परे से भी परे हैं ॥ ३१-३२ ॥

वयं यस्य कलाः पुंसो ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
महाविराड्यदंशश्च यल्लोमविवरे जगत् ॥ ३३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और हम लोग उनकी कला हैं, महाविराट् उनके अंश हैं और उनके लोम-विवरों में विश्व मिश्रा है ॥ ३३ ॥

कलांशाः केऽपि तद्‌दुर्गे कलांशांशाश्च केचन ।
चराचरं जगत्सर्वं तत्र तस्थौ विनायकः ॥ ३४ ॥
है दुर्ग ! कुछ लोग उनको कला के अंश हैं, कुछ लोग कलांश के अंश हैं । इस प्रकार चराचर समस्त जगत् और विनायक उनमें स्थित हैं ॥ ३४ ॥

श्रीविष्णोर्वचनं श्रुत्वा परितुष्टा च पार्वती ।
स्तनं ददौ च शिशवे तं प्रणम्य गदाधरम् ॥ ३५ ॥
श्री विष्णु भगवान् को ऐसी बातें सुन कर पार्वती अति प्रसन्न हुई और गदावर भगवान् को प्रणाम कर बच्चे को दूध पिलाने लगीं ॥ ३५ ॥

तुष्टाव पार्वती तुष्टा प्रेरिता शंकरेण च ।
कृताञ्जलिपुटा भक्त्या विष्णुं तं कमलापतिम् ॥ ३६ ॥
आशिषं यब्जे विष्णुः शिशुं च शिशुमातरम् ।
ददौ गले बालकस्य कौस्तुभं च सभूषणम् ॥ ३७ ॥
शंकर को प्रेरणा वश पार्वती ने अति प्रसन्न होकर भक्तिपूर्वक हाथ जोड़े, कमलापति भगवान विष्णु की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर विष्णु ने बालक और उसको माता, दोनों को शभाशीर्वाद प्रदान किया तथा अपना कौस्तुभ आभूषण बालक के गले में पहना दिया ॥ ३६-३७ ॥

ब्रह्मा ददौ स्वमुकुटं धर्मो वै रत्‍नभूषणम् ।
क्रमेण देव्यो रत्‍नानि ददुः सर्वे यथोचितम् ॥ ३८ ॥
उसी प्रकार ब्रह्मा ने अपना मकूट, धर्म ने रत्नाभूषण और देवियों ने क्रशः यथोचित रत्न प्रदान किये ॥ ३८ ॥

तुष्टाव तं महादेवश्चात्यन्तं हृष्टमानसः ।
देवाश्च मुनयः शैला गन्धर्वाः सर्वयोषितः ॥ ३९ ॥
अनन्तर महादेव ने अति हर्षित होकर भगवान को स्तुति की । उसो भौति देव ण, मुनि, पर्वत, गन्धर्व और सभी स्त्रियों ने स्तवन किया ॥ ३९ ॥

दृष्ट्‍वा शिवः शिवा चैव बालकं मृतजीवितम् ।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ तत्र कोटिरत्‍नानि नारद ॥ ४० ॥
हे नारद ! शिव और शिवा ने बालक को जीवित देख कर ब्राह्मणों को करोड़ों रत्न प्रदान किये ॥ ४० ॥

अश्वानां च गजानां च सहस्राणि शतानि च ।
बन्दिभ्यः प्रददौ तत्र बालके मृतजीविते ॥ ४१ ॥
वालक के जीवित होने पर बन्दियों को एक सहस्र अश्व और सो गजेन्द्र प्रदान किये ॥ ४१ ॥

हिमालयश्च संतुष्टो हृष्टा देवाश्च तत्र वै ।
ददुर्दानानि विप्रेभ्यो बन्दिभ्यः सर्वयोषितः ॥ ४२ ॥
संतुष्ट होकर हिमालय तथा प्रसन्नचित्त देशों और स्त्रियों ने बन्दियों एवं ब्रह्मणों को अनेक दान प्रदान किये ॥ ४२ ॥

ब्राह्यणान्भोजयामास कारयामास मङ्‌गलम् ।
वेदांश्च पाठयामास पुराणानि रमापतिः ॥ ४३ ॥
रमापति विष्णु ने वन्ने के जीवित होने पर ब्राह्मणों को भोजन, मंगल और वेदों और पुराणों के पाठ कराये ॥ ४३ ॥

शनिं संलज्जितं दृष्ट्‍वा पार्वती कोपशालिनी ।
शशाप च सभामध्येऽप्यङ्‌गहीनो भवेति च ॥ ४४ ॥
उस समय शनि को अति लज्जित देख कर पार्वती क्रुद्ध हो गयीं और उस सभामध्य में ही शाप दिया---तुम अंगहीन हो जाओ । ॥ ४४ ॥

दृष्ट्‍वा शप्तं शनिं सूर्यः कश्यपश्च यमस्तथा ।
तेऽतिरुष्टाः समुत्तस्थुर्गामुकाः शंकरालयात् ॥ ४५ ॥
शनि को शाप देते देखकर मूर्य, कश्यप और यम ने अत्यन्त रुष्ट होकर शंकर के गृह से यात्रा की तैयारी कर दी ॥ ४५ ॥

रक्ताक्षास्ते रक्तमखाः कोपप्रस्फुरिताधराः ।
तां धर्मसाक्षिणं कृत्वा विष्णुं संशप्तुमुद्यताः ॥ ४६ ॥
क्रोध से उनके नेत्र और मुख रक्तवर्ण हो गए, होंठ फड़कने लगे धर्म को साक्षी बना कर इन लोगों ने पार्वती और विष्णु को शाप देना चाहा ॥ ४६ ॥

ब्रह्मा तान्बोधयामास विष्णुना प्रेरितः सुरैः ।
रक्तास्यां पार्वतीं चैव कोपप्रस्फुरिताधराम् ॥ ४७ ॥
अनन्तर विष्णु और देवों द्वारा प्रेरित होने पर ब्रह्मा ने सूर्य आदि देवों और पार्वती को समझाया जिनका मुख रक्तवर्ण हो गया था और कोप से अधर फड़क रहा था ॥ ४७ ॥

ब्रह्माणमूचुस्ते तत्र क्रमेण समयोचितम् ।
भीरवो देवताः सर्वे मुनयः पर्वतास्तथा ॥ ४८ ॥
उन लोगों ने क्रमशः ब्रह्मा से सामयिक बातें कहीं कि-देवता, सभी मुनिगण और पर्वत भीरु होते हैं ॥ ४८ ॥

कश्यप उवाच
दुर्द्‌दृष्टोऽयं प्राक्तनेन पत्‍नीशापेन सर्वदा ।
बालं ददर्श यत्‍नेन तस्य वै मातुराज्ञया ॥ ४९ ॥
कश्यप बोले--यह पत्नी-शाप द्वारा पहले से ही अशभ दृष्टि पाला हो गया है किन्तु बालक को इसने उसकी माता की आज्ञा होने पर ही यत्त से देख ॥ ४९ ॥

सूर्य उवाच
तं धर्मं साक्षिणं कृत्वा सूनोर्वै मातुराज्ञया ।
मत्पुत्रोऽतिप्रयत्‍नेन ह्यपश्यत्पार्वतीसुतम् ॥ ५० ॥
श्री सूर्य बोले--उसने धर्म को साक्षी बना कर और बालक की माता की आज्ञा होने पर अति प्रयल से बच्चे को देखा है ॥ ५० ॥

यथा निरपराधेन मत्पुत्र सा शशाप ह ।
तत्पुत्रस्याङ्‌गभङ्‌गश्च भविष्यति न संशयः ॥ ५१ ॥
किन्तु फिर भी इन्होंने निरपराध मेरे पुत्र को शाप दे दिया है, अतः उनके पुत्र का भी अंग भंग हो जायगा, इसमें संशय नहीं ॥ ५१ ॥

यम उवाच
प्रदाय स्वयनत्यारन्तं च शशापेयं स्वयं कथम् ।
वयं शपामः को ऽधर्मो जिघांसोश्च विहिंसने ॥ ५२ ॥
यम बोले---इन्होंने स्वयं आज्ञा प्रदान कर के स्वयं क्यों शाप दिया? इस पर हम लोग यदि शाप देते हैं तो अधर्म क्या है ? क्योंकि हनन करने वाले को हिंसा करना अधर्म नहीं है ? ॥ ५२ ॥

ब्रह्मोवाच
शशाप पार्वती रुष्टा स्त्रीस्वभावाच्च चापलात् ।
सर्वेषां वचनेनैव क्षन्तुमर्हन्तु साधवः ॥ ५३ ॥
ब्रह्मा बोले--पार्वती ने रुष्ट होकर और स्त्री-स्वभाव-चपलता के कारण शाप दिया है, किन्तु साधु लोग क्षमाशीग्य होते हैं, अतः आप लोग सभी लोगों के कहने से क्षमा कर दें ॥ ५३ ॥

दुर्गे दत्त्वा त्वमाज्ञां च पुत्रदर्शनहेतवे ।
कथं शपसि निर्दोषमतिथिं त्वद्‌गृहागतम् ॥ ५४ ॥
(पुनः दुर्गा से कहा-)हे दुर्गे ! पुत्र का दर्शन करने के लिए तुम्हीं ने आज्ञा प्रदान की थी, तो घर में आये हुए निर्दोष अतिथि को क्यों शाप दे रही हो ॥ ५४ ॥

इत्युक्त्वा शनिमादाय बोधयित्वा च पार्वतीम् ।
तां तं समर्पणं चक्रे शापमोचनहेतवे ॥ ५५ ॥
इतना कहकर ब्रह्मा ने पार्वती को समझाने के अनन्तर शापमुक्त होने के लिए शनि को उन्हें सौंप दिया ॥ ५५ ॥

बभूव पार्वती तुष्टा ब्रह्मणो वचनान्मुने ।
शान्ता बभूवुस्ते तत्र दिनेशयमकश्यपाः ॥ ५६ ॥
हे मुने ! ब्रह्मा की बात सुन कर पार्वती प्रसन्न हो गयीं और सूर्य, यम, कश्यप भी शान्त हो गए ॥ ५६ ॥

उवाच पार्वती तत्र संतुष्टा तं शनैश्चरम् ।
प्रसादिता शिवेनैव ब्रह्मणा परिसेविता ॥ ५७ ॥
अनन्तर सुप्रसन्न होकर शिव द्वारा प्रसन्न और ब्रह्मा द्वारा सुसेवित पार्वती ने शनैश्चर से कहा ॥ ५७ ॥

पार्वत्युवाच
ग्रहराजो भव शने मद्वरेण हरिप्रियः ।
चिरजीवी च योगीन्द्रो हरिभक्तस्य का विपत् ॥ ५८ ॥
अद्यप्रभृति निर्विघ्ना हरौ भक्तिर्दृढाऽस्तुते ।
शापोऽमोघस्ततो मेऽद्यकिंचित्खञ्जो भविष्यसि ॥ ५९ ॥
पार्वती बोलीं-हे शनि ! मेरे वरदान द्वारा तुम ग्रहों का राजा, भगवान् का प्रिय, चिरजीवी और योगीन्द्र होगे । हरिभक्तों को कोई संकट नहीं होता है । आज से भगवान् में तुम्हारी निर्विघ्न और दृढ़ भक्ति होगी । मेरा शाप व्यर्थ नहीं होता है, अतः कुछ खजपाद (लंगड़े) रहोगे ॥ ५८-५९ ॥

इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा बालं धृत्वा च वक्षसि ।
उवास योषितां मध्ये तस्मै दत्त्वा शुभाशिषः ॥ ६० ॥
सुप्रसन्ना पार्वती ने इतना कह कर उसे शुभाशीर्वाद प्रदान कर बालक को अपनी गोद में रख लिया और स्त्रियों के बीच बैठ गयीं ॥ ६० ॥

शनिर्जगाम देवानां समीपं हृष्टमानसः ।
प्रणम्य भक्त्या तां ब्रह्मन्नम्बिकां जगदम्बिकाम् ॥ ६१ ॥
हे ब्रह्मन् ! शनि ने भी हर्षित होकर जगज्जननी पार्वती को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और देवों के पास चले आये ॥ ६१ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
शनिकृतगणेशदर्शनतज्जातगणेशशिरःपतनविष्णुकृत-
गणेशशिरोयोजनशनिशापादिकथनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में शनिकृत गणेश-दर्शन, उससे गणेश-शिर का पतन, पुनः विष्णू द्वारा गणेश के शिर जोड़ने और शनि के शाप आदि का कथन नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ १२ ॥

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