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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - त्रयोदशोऽध्यायः गणेशपूजास्तवकवचकथनम् -
गणेश की पूजा, स्तुति और कवच - नारायण उवाच अथ विष्णुः शुभे काले देवैश्च मुनिभिः सह । पूजयामास तं बालमुपहारैरनुत्तमैः ॥ १ ॥ सर्वाग्रे तव पूजा च मया दत्ता सुरोत्तम । सर्वपूज्यश्च योगीन्द्रो भव वत्सेत्युवाच तम् ॥ २ ॥ नारायण बोले-विष्णु ने शुभ मुहूर्त में देवों और मुनियों को साथ लेकर परमोत्तम उपहारों द्वारा उस बालक की अर्चना की और कहा--हे सुरोत्तम ! सब से पहले मैंने तुम्हारी पूजा की है अतः हे वत्स ! तुम सब के पूज्य एवं योगिराज होगे ॥ १-२ ॥ वनमालां ददौ तस्मै ब्रह्मज्ञानं च मुक्तिदम् । सर्वसिद्धिं प्रदायैव चकाराऽऽत्मसमं हरिः ॥ ३ ॥ भगवान् ने वनमाला, मुक्तिप्रद ब्रह्मज्ञान और समस्त सिद्धियाँ देकर उसे अपने समान बना दिया ॥ ३ ॥ ददौ द्रव्याणि चारूणि चोपचारांश्च षोडश । नामभिः स्तवनं चक्रे मुनिभिश्च समं सुरैः ॥ ४ ॥ विध्नेशश्च गणेशश्च हेरम्बश्च गजाननः । लम्बोदरश्चैकदन्तः शूर्पकर्णो विनायकः ॥ ५ ॥ एतान्यष्टौ च नामानि सर्वसिद्धिप्रदानि च । आशिषं दापयामास चाऽऽनयामास तान्मुनीन् ॥ ६ ॥ सुन्दर द्रव्य और सोलहों उपचार अर्पित कर पश्चात् देवों और मुनियों समेत उनकी नाम-स्तुति करना आरम्भ किया-विघ्नेश, गणेश, हेरम्ब, गजानन, लम्बोदर, एकदन्त, शूर्पकर्ण और विनायक, ये तुम्हारे आठ नाम समस्त सिद्धिप्रदायक हैं । फिर मुनियों को वहाँ बुलवा कर उनसे आशीर्वाद दिलवाया ॥ ४-६ ॥ सिद्धासनं ददौ धर्मस्तस्मै ब्रह्मा कमण्डलुम् । शंकरो योगपट्टं च तत्त्वज्ञानं सुदुर्लभम् ॥ ७ ॥ धर्म ने उस बालक को सिद्धासन दिया, ब्रह्मा ने कमण्डलु, शंकर ने योग वस्त्र समेत अति दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्रदान किया ॥ ७ ॥ रत्नसिंहासनं शक्रः सूर्यश्च मणिकुण्डले । माणिक्यमालां चन्द्रश्च कुबेरश्च किरीटकम् ॥ ८ ॥ वह्निशुद्धं च वसनं ददौ तस्मै हुताशनः । रत्नच्छत्रं च वरुणो वायू रत्नाङ्गुलीयकम् ॥ ९ ॥ क्षीरोदोद्भवसद्रत्नरचितं वलयं वरम् । मञ्जीरं चापि केयूरं ददौ पद्मालया मुने ॥ १० ॥ इन्द्र ने रत्नसिंहासन, सूर्य ने मणि के युगल कुण्डल, चन्द्र ने माणिक्य-माला, कुबेर ने किरीट, अग्नि ने अग्नि की भांति विशुद्ध वस्त्र, वरुण ने रत्न का छत्र और वायु ने रत्नों की अंगूठी अर्पित की । हे मुने ! लक्ष्मी ने क्षीर-सागर से उत्पन्न रत्नों का बना कड़ा, उत्तम नूपुर और केयूर (बहूँटा) प्रदान किया ॥ ८-१० ॥ कण्ठभूषां च सावित्री भारती हारमुज्ज्वलम् । क्रमेण सर्वदेवाश्च देव्यश्च यौतुकं ददुः ॥ ११ ॥ सावित्री ने कण्ठा, भारती ने उज्ज्वल हार तथा समस्त देवता एवं देवियों ने क्रमशः उपहार प्रदान किया ॥ ११ ॥ मुनयः पर्वताश्चैव रत्नानि विविधानि च । वसुंधरा ददौ तस्मै वाहनाय च मूषकम् ॥ १२ ॥ मुनियों और पर्वतों ने अनेक भांति के रत्न और वसुन्धरा ने उन्हें सवारी के लिए मूषक (चूहा) प्रदान किया ॥ १२ ॥ क्रमेण देवा देव्यश्च मुनयः पर्वतादयः । गन्धर्वाः किन्नरा यक्षा मनवो मानवास्तथा ॥ १३ ॥ नानाविधानि द्रव्याणि स्वादूनि मधुराणि च । पूजां चक्रुश्च ते सर्वे क्रमाद्वै भक्तिपूर्वकम् ॥ १४ ॥ क्रमशः सभी देवों, देवियों, मुनियों, पर्वतों, गन्धर्वो, किन्नरों, यक्षों, मनुओं और मानवों ने अनेक प्रकार के स्वादिष्ठ और मधुर उपहार देकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ १३-१४ ॥ पार्वती जगतां माता स्मेराननसरोरुहा । रत्नसिंहासने पुत्रं वासयामास नारद ॥ १५ ॥ हे नारद ! मन्दहास युक्त मुख-कमल वाली जगत्-माता पार्वती ने रत्नसिंहासन पर अपने पुत्र को सुखासीन कर दिया ॥ १५ ॥ सर्वतीर्थोदकै रत्नकलशावर्जितैस्तु तैः । स्नापयामास वेदोक्तमन्त्रेण मुनिभिः सह ॥ १६ ॥ अग्निशुद्धे च वसने ददौ तस्मै सती मुदा । गोदावर्युदकैः पाद्यमर्घ्यं गङ्गोदकेन च ॥ १७ ॥ दूर्वाभिरक्षतापुष्पैश्चन्दनेन समन्वितम् । पुष्करोदकमानीय पुनराचमनीयकम् ॥ १८ ॥ मधुपर्कं रत्नपात्रैरासवं शर्करान्वितम् । स्नानीयं विष्णुतैलं च स्वर्वैद्याभ्यां विनिर्मितम् ॥ १९ ॥ अनन्तर मुनियों ने रत्न-कलशों में भरे हुए समस्त तीर्थों के जल से वेद-मंत्र उच्चारण करते हए उन्हें स्नान कराया । सती ने प्रसन्न होकर अग्नि-विशुद्ध दो वस्त्र प्रदान किये-पुन: गोदावरी के जल का पाद्य एवं गंगोदक का अर्घ्य जो दूर्वा, अक्षत पुष्प एवं चन्दन युक्त था, अर्पित किया । पुष्कर का जल मंगाकर पुन: आचमन और रत्न के पात्र में मधुपर्क और शक्कर मिश्रित आसव प्रदान किया । अश्विनीकुमारों ने उनके स्नानार्थ विष्णु-तैल का निर्माण किया । ॥ १६-१९ ॥ अमूल्यरत्नरचितचारुभूषाकदम्बकम् । पारिजातप्रसूनानामन्येषां शतकानि च ॥ २० ॥ मालतीचम्पकादीनां पुष्पाणि विविधानि च । पूजार्हाणि च पत्राणि तुलसीसहितानि च ॥ २१ ॥ चन्दनागुरुकस्तूरीउङ्कुमानि च सादरम् । रत्नप्रदीपनिकरं धूपं च परितो ददौ ॥ २२ ॥ नैवेद्यं तत्प्रियं चव तिललड्डुकपर्वतान् । यवगोधूमचूर्णानां लड्डुकानां च पर्वतान् ॥ २३ ॥ पक्वान्नानां पर्वतांश्च सुस्वादुसुमनोहरान् । पर्वतान्स्वस्तिकानां च सुस्वादुशर्करान्वितान् ॥ २४ ॥ गुडाक्तानां च लाजानां पृथुकानां च पर्वतान् । शाल्यन्नानां पिष्टकानां पर्वतान्व्यञ्जनैः सह । २५ ॥ पयोभृत्कलशानां च लक्षाणि प्रददौ मुदा । लक्षाणि दधिपूर्णानां कलशानां च पूजने ॥ २६ ॥ मधुभृत्कलशानां च त्रिलक्षाणि च सुन्दरी । सर्पिःसुवर्णकुम्भानां पञ्च लक्षाणि सादरम् ॥ २७ ॥ पश्चात् अमूल्य रत्नों के सुरचित अनेक उत्तम भूषण, सौ पारिजात पुष्प, मालती और चम्पा आदि अनेक भाँति के पुष्प समेत पूजा के योग्य पत्र, तुलसीदल तथा चन्दन, अगुरु, कस्तूरी एवं कुंकुम अनेक लोगों ने उन्हें सादर अर्पित किये । अनेक रत्न-प्रदीप समेत चारों ओर धूप, उनका प्रिय नैवेद्य-तिल-लड्डू के पर्वत, यव तथा गेहूँ के आटे के लड्डुओं के पर्वत, सुस्वादु एवं मनोहर पक्वान्न के पर्वत, अति स्वादिष्ठ शक्कर समेत स्वस्तिक के पर्वत, गुड़ मिश्रित धान के लावा के पर्वत, चिउरा के पर्वत, व्यंजनों समेत शालि-अन्न तथा पिष्टकों के पर्वतों समेत दूध भरे एक लाख कलश प्रदान किये उनके पूजन में एक लाख दही भरे कलश और तीन लाख मधु भरे कलश सुन्दरी ने अर्पित किये । एवं घी के पाँच लाख सुवर्ण-कलश भी सादर प्रदान किये ॥ २०-२७ ॥ दाडिमानां श्रीफलानामसंख्यानि फलानि च । खर्जूराणां कपित्थानां जम्बूनां विविधानि च ॥ २८ ॥ आम्राणां पनसानां च कदलीनां च नारद । फलानि नारिकेलानामसंख्यानि ददौ मुदा ॥ २९ ॥ अन्यानि परिपक्वानि कालदेशोद्भवानि च । ददौ तानि महाभाग स्वादूनि मधुराणि च ॥ ३० ॥ अनार, श्रीफल समेत असंख्य अन्य फल, खजूर, कैथा, जामुन, आम, कटहल, केला और नारियल के असंख्य फल तथा हे नारद ! देश काल के अनुसार अन्य असंख्य पके फल, जो अति मधुर एवं सुस्वादु थे, उन्हें हर्ष से अर्पित किये ॥ २८-३० ॥ स्वच्छं सुनिर्मलं चैव कर्पूरादिसुवासितम् । गङ्गाजलं च पानार्थं पुनराचमनीयकम् ॥ ३१ ॥ स्वच्छ निर्मल तथा कर्पूरादि से सुवासित गंगाजल का आचमन उन्हें प्रदान किया ॥ ३१ ॥ ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् । सुवर्णपात्रशतकं भक्ष्यपूर्णं च नारद ॥ ३२ ॥ शैलेश्वरी शैलराजः शैलजः शैलराजजः । शैलराजप्रियामात्याः पुपूजुः शैलजात्मजम् ॥ ३३ ॥ हे नारद ! कर्पूरादि से सुवासित, उत्तम एवं रम्य ताम्बूल और भोजन भरे सौ सुवर्ण-पात्र से हिमालय, उनकी पत्नी, पुत्र तथा प्रिय मंत्रियों ने पार्वती-पुत्र की पूजा की ॥ ३२-३३ ॥ ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं गणेशाय ब्रह्मरूपाय चारवे । सर्वसिद्धिप्रदेशाय विश्वेशाय नमो नमः ॥ ३४ ॥ इत्यनेनैव मन्त्रेण दत्त्वा द्रव्याणि भक्तितः । सर्वे प्रमुदितास्तत्र ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ३५ ॥ द्वात्रिंशदक्षरो मालामन्त्रोऽयं सर्वकामदः । धर्मार्थकाममोक्षाणां फलदः सर्वसिद्धिदः ॥ ३६ ॥ 'ओं श्रीं ह्रीं क्लीं गणेशाय ब्रह्मरूपाय चारवे सर्वसिद्धिप्रदेशाय विघ्नेशाय नमो नमः । ' इसी मंत्र द्वारा हर्षमग्न ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवों ने भक्तिपूर्वक उन्हें सभी वस्तुएँ समर्पित की । बत्तीस अक्षर का यह माला-मंत्र समस्त कामनाओं समेत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप फलप्रद एवं समस्तसिद्धिदायक है ॥ ३४-३६ ॥ पञ्चलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिस्तु मन्त्रिणः । मन्त्रसिद्धिर्भवेद्यस्य स च विष्णुश्च भारते ॥ ३७ ॥ पाँच लाख जप करने से यह मंत्र सिद्ध हो जाता है और जिसको यह मंत्र सिद्ध हो जाता है वह भारत में विष्णु के समान होता है ॥ ३७ ॥ विघ्नानि च पलायन्ते तन्नामस्मरणेन च । महावाग्मी महासिद्धिः सर्वसिद्धिसमन्वितः ॥ ३८ ॥ उसके नामस्मरण मात्र से विघ्न भाग जाते हैं तथा वह स्वयं महावाग्मी, महासिद्ध तथा समस्त सिद्धियों से युक्त होता है ॥ ३८ ॥ वाक्पतिर्गुरुतां याति तस्य साक्षात्सुनिश्चितम् । महाकवीन्द्रो गुणवान्विदुषां च गुरोर्गुरुः ॥ ३९ ॥ वह निश्चित ही बृहस्पति के तुल्य हो जाता है तथा कविसम्राट, गुणी और विद्वानों के गुरु का गुरु होता है ॥ ३९ ॥ संपूज्यानेन मन्त्रेण देवा आनन्दसंप्लुताः । नानाविधानि वाद्यानि वादयामासुरुत्सवे ॥ ४० ॥ देवगण उस उत्सव में इसी मंत्र द्वारा उनकी पूजा करके आनन्दमग्न हो कर अनेक भांति के बाजे बजाने लगे ॥ ४० ॥ ब्राह्मणान्भोजयामासुः कारयामासुरुत्सवम् । ददुर्दानानि तेभ्यश्च वन्दिभ्यश्च विशेषतः ॥ ४१ ॥ ब्राह्मणों को भोजन कराया, उत्सव किया तथा ब्राह्मणों और वन्दियों को विशेषतया दान समर्पित किया ॥ ४१ ॥ नारायण उवाच अथ विष्णुः सभामध्ये तं संपूज्य गणेश्वरम् । तुष्टाव परया भक्त्या सर्वविघ्नविनाशकम् ॥ ४२ ॥ नारायण बोले-अनन्तर विष्णु ने सभामध्य समस्त विघ्नों के नाशक गणेश्वर की अर्चना करके पराभक्ति से उनकी स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ४२ ॥ विष्णुरुवाच ईश त्वां स्तोतुमिच्छामि ब्रह्मज्योतिः सनातनम् । नैव वर्णयितुं शक्तोऽस्म्यनुरूपमनीहकम् ॥ ४३ ॥ विष्णु बोले- हे ईश ! मैं तुम्हारी स्तुति करना चाहता है, तुम ब्रह्मज्योति और सनातन हो, अतः मैं तुम्हारा वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि तुम इच्छारहित हो ॥ ४३ ॥ प्रवरं सर्वदेवानां सिद्धानां योगिनां गुरुम् । सर्वस्वरूपं सर्वेशं ज्ञानंराशिस्वरूपिणम् ॥ ४४ ॥ अव्यक्तमक्षरं नित्यं सत्यमात्मस्वरूपिणम् । वायुतुल्यं च निर्लिप्तं चाक्षतं सर्वसाक्षिणम् ॥ ४५ ॥ संसारार्णवपारे च मायापोते सुदुर्लभे । कर्णधारस्वरूपं च भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ४६ ॥ समस्त देवों में श्रेष्ठ, सिद्धों और योगियों के गुरु, समस्त के स्वरूप, सब के अधीश्वर, ज्ञानराशि के स्वरूप, अव्यक्त, अविनाशी, नित्य, सत्य, आत्मस्वरूप, वायु के समान निर्लिप्त, सब के साक्षी एवं संसार-सागर को पार करने के लिए मायारूपी जहाज में तुम अति दुर्लभ कर्णधार स्वरूप होकर भक्तों पर कृपा करने वाले हो ॥ ४४-४६ ॥ वरं वरेण्यं वरदं वरदानामपीश्वरम् । सिद्धं सिद्धिस्वरूपं च सिद्धिदं सिद्धिसाधनम् ॥ ४७ ॥ ध्यानातिरिक्तं ध्येयं च ध्यानासाध्यं च धार्मिकम् । धर्मस्वरूपं धर्मज्ञं धर्माधर्मफलप्रदम् ॥ ४८ ॥ बीजं संसारवृक्षाणामङ्कुरं च तदाश्रयम् । स्त्रीपुंनपुंसकानां च रूपमेतदतीन्द्रियम् ॥ ४९ ॥ सर्वाद्यमग्रपूज्यं च सर्वपूज्यं गुणार्णवम् । स्वेच्छया सगुणं ब्रह्म निर्गुणं स्वेच्छया पुनः ॥ ५० ॥ स्वयं प्रकृतिरूपं च प्राकृतं प्रकृतेः परम् । त्वां स्तोतुमक्षमोऽनन्तः सहस्रवदनैरपि ॥ ५१ ॥ उत्तम, वरेण्य, वरप्रद, वरदों के भी अधीश्वर, सिद्ध, सिद्धिस्वरूप, सिद्धिप्रद, सिद्धि के साधन, ध्यान से परे, ध्येय, ध्यान से असाध्य, धार्मिक, धर्मस्वरूप, धर्मज्ञाता, धर्म-अधर्म के फलदायक, संसार रूपी वृक्ष के बीज और उसके आश्रय अंकुर, स्त्री, पुरुष एवं नपुंसकों के रूप, अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से दिखायी न देने वाले), सभी के आद्य, सब से पहले पूज्य, सब के पूज्य, गुणसागर, स्वेच्छया सगुण ब्रह्म, पुनः स्वेच्छया निर्गुण ब्रह्म, स्वयं प्रकृति रूप, प्राकृत तथा प्रकृति से परे हो । इसीलिए अनन्त भी अपने सहस्र मुखों द्वारा तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं ॥ ४७-५१ ॥ न क्षमः पञ्चवक्त्रश्च न क्षमश्चतुराननः । सरस्वती न शक्ता च न शक्तोऽहं तव स्तुतौ ॥ ५२ ॥ न शक्ताश्च चतुर्वेदाः के वा ते वेदवादिनः ॥ ५३ ॥ उसी प्रकार पांच मुख वाले (शिव), चार मुख वाले ब्रह्मा, सरस्वती और मैं तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं हूँ । चारों वेद भी समर्थ नहीं हैं तो वेदवादियों की बात ही क्या ॥ ५२-५३ ॥ इत्येवं स्तवनं कृत्वा मुनीशसरसंसदि । सरेशश्च सुरैः साधं विरराम रमापतिः ॥ ५४ ॥ इस प्रकार देवों के अधीश्वर रमापति विष्णु मुनीन्द्रों और देवों की सभा में देवों के साथ उनकी स्तुति कर के चुप हो गये ॥ ५४ ॥ इदं विष्णुकृतं स्तोत्रं गणेशस्य च यः पठेत् । सायं प्रातश्च मध्याह्ने भक्तियुक्तः समाहितः ॥ ५५ ॥ तद्विघ्ननाशं कुरुते विघ्नेशः सततं मुने । वर्धते सर्वकल्याणं कल्याणजनकः सदा ॥ ५६ ॥ हे मुने ! भगवान् विष्णु कृत गणेश के इस स्तोत्र का जो प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल भक्तिपूर्वक एवं संयत होकर पाठ करता है, उसके विघ्नों का नाश स्वयं विघ्नेश निरन्तर करते हैं । उसके समस्त कल्याणों की वृद्धि होती है तथा वहस दैव कल्याण उत्पन्न करता है ॥ ५५-५६ ॥ यात्राकाले पठित्वा यो याति तद्भक्तिपूर्वकम् । तस्य सर्वाभीष्टसिद्धिर्भवत्येव न संशयः ॥ ५७ ॥ यात्राकाल में जो इसका भक्तिपूर्वक पाठ करके जाता है उसके सम्पूर्ण अभीष्ट (मनोरथ) सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ५७ ॥ तेन दृष्टं च दुःस्वप्नं सुस्वप्नमपजायते । कदाऽपि न भवेत्तस्य ग्रहपीडा च दारुणा ॥ ५८ ॥ उसका देखा अशुभ स्वप्न शुभ स्वप्न हो जाता है और दारुण ग्रहपीड़ा उसे कभी नहीं होती है ॥ ५८ ॥ भवेद्विनाशः शत्रूणां बन्धूनां च विवर्धनम् । शश्वद्विघ्नविनाशश्च शश्वत्सम्पद्विवर्धनम् ॥ ५९ ॥ शत्रु-नाश, बान्धव-वृद्धि निरन्तर विघ्न-विनाश और निरन्तर सम्पत्ति की वृद्धि होती है ॥ ५९ ॥ स्थिरा भवेद्गृहे लक्ष्मीः पुत्रपौत्रविवर्धनम् । सर्वैश्वर्यमिह प्राप्य ह्यन्ते विष्णुपदं लभेत् ॥ ६० ॥ गृह में लक्ष्मी का अविचल निवास होता है, पुत्र-पौत्र की वृद्धि होती है और वह इस लोक में समस्त ऐश्वर्य की प्राप्ति करके अन्त में विष्णुलोक प्राप्त करता है ॥ ६० ॥ फलं चापि च तीर्थानां यज्ञानां यद्भवेद्ध्रुवम् । महता सर्वदानानां तद्गणेशप्रसादतः ॥ ६१ ॥ तीर्थों, यज्ञों और बड़े-बड़े समस्त दानों के जो फल होते हैं, वे सभी फल गणेश की कृपा से उसे सुनिश्चित प्राप्त होते हैं ॥ ६१ ॥ नारद उवाच श्रुतं स्तोत्रं गणेशस्य पूजनं च मनोहरम् । कवचं श्रोतुमिच्छामि सांप्रतं भवतारणम् ॥ ६२ ॥ नारद बोले-गणेश जी का स्तोत्र और मनोहर पूजन हमने सुन लिया है, अब इस समय उनका संसार से तारने वाला कवच सुनना चाहता हूँ ॥ ६२ ॥ नारायण उवाच पूजायां सुनिवृत्तायां सभामध्ये शनैश्चरः । उवाच विष्णुं सर्वेषां तारकं जगतां गुरुम् ॥ ६३ ॥ नारायण बोले-पूजन सुसम्पन्न होने के उपरांत सभामध्य में शनि ने सभी को तारने वाले और जगत् के गुरु विष्णु से कहा ॥ ६३ ॥ शनैश्चर उवाच सर्वदुःखविनाशाय पापप्रशमनाय च । कवचं विघ्ननिघ्नस्य वद वेदविदां वर ॥ ६४ ॥ शनैश्चर बोले-हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! विघ्न-विनाशन (गणेश) का कवच बताने की कृपा करें, जो समस्त दुःखों का नाशक और पाप को निर्मूल करने वाला है ॥ ६४ ॥ बभूव नो विवादश्च शक्त्या वै मायया सह । तद्विघ्नप्रशमार्थं च कवचं धारयाम्यहम् ॥ ६५ ॥ शक्ति माया के साथ हमारा बहुत बड़ा विवाद हो चुका है, इसलिए उस विघ्न के विनाशार्थ मैं कवच धारण करना चाहता हूँ ॥ ६५ ॥ विष्णु उवाच विनायकस्य कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् । सुगोप्यं च पुराणेषु दुर्लभं चाऽऽगमेषु च ॥ ६६ ॥ श्री विष्णु बोले-विनायक का कवच तीनों लोकों में अति दुर्लभ है, वह पुराणों में अति गोप्य और शास्त्रों में भी दुर्लभ है ॥ ६६ ॥ उक्तं कौथुमशाखायां सामवेदे मनोहरम् । कवचं विघ्ननाथस्य सर्वविघ्नहरं परम् ॥ ६७ ॥ विघ्नेश्वर (गणेश) का कवच, जो समस्त विघ्नों का नाशक एवं परमोत्तम है, सामवेद की कौथुमीशाखा में मनोहर ढंग से कहा गया है ॥ ६७ ॥ राज्यं देयं शिरो देयं प्राणा देयाश्च सूर्यज । एवंभूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे ॥ ६८ ॥ हे (सूर्य-पुत्र) ! राज्य दिया जा सकता है, शिर दिया जा सकता है और प्राण भी दिये जा सकते हैं किन्तु प्राण संकट उपस्थित होने पर भी ऐसा कवच नहीं दिया जा सकता है ॥ ६८ ॥ आविर्भावस्तिरोभावः स्वेच्छया यस्य मायया । नित्योऽयमेकदन्तश्च कवचं चास्य वत्सक ॥ ६९ ॥ हे वत्स ! जिनकी माया से अविर्भाव और तिरोभाव हुआ करते हैं, वे एकदन्त (गणेश) नित्य हैं, उन्हीं का यह कवच है ॥ ६९ ॥ पूजाऽस्य नित्या स्तोत्रं च कल्पे कल्पेऽस्ति संततम् । अस्य वै जन्मनः पूर्वं मुनयश्चसिषेविरे ॥ ७० ॥ इनकी नित्य पूजा और स्तोत्र प्रत्येक कल्प में निरन्तर होते रहते हैं, इनके जन्म होने से पूर्व भी मुनिगण इनकी सेवा करते रहते हैं ॥ ७० ॥ यथा मदवतारेषु जन्म विग्रहधारणम् । तथा गणेश्वरस्यापि जन्म शैलसतोदरे ॥ ७१ ॥ जिस प्रकार मैं अपने अवतार में जन्म और शरीर धारण करता हूँ, उसी भाँति पार्वती के उदर से गणेश ने भी जन्म ग्रहण किया है ॥ ७१ ॥ यद्धृत्वा मुनयः सर्वे जीवन्मुक्ताश्च भारते । निःशङ्काश्च सुराः सर्वे शत्रुपक्षविमर्दकाः ॥ ७२ ॥ भारत में मुनिगण उनका कवच धारण कर जीवन्मुक्त हो जाते हैं और देवगण निःशंक होकर शत्रुओं का दलन करते हैं ॥ ७२ ॥ कवचं बिभ्रतां मृत्युर्न भिया याति संनिधिम् । नाऽऽयर्व्ययो नाशुभं च ब्रह्माण्डे न पराजयः ॥ ७३ ॥ कवच धारण करने वालों के समीप मृत्यु भयवश नहीं जाती है तथा उसकी आयु का व्यय, अशुभ और ब्रह्माण्ड में पराजय नहीं होता है ॥ ७३ ॥ दशलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् । यो भवेत्सिद्धकवचो मृत्युं जेतुं स च क्षमः ॥ ७४ ॥ दश लाख जप करने से यह कवच सिद्ध हो जाता है और जिसे कवच सिद्ध हो जाता है, वह मृत्यु को भी जीतने में समर्थ होता है ॥ ७४ ॥ सुसिद्धकवचो वाग्ग्मी चिरंजीवी महीतले । सर्वत्र विजयी पूज्यो भवेद्ग्रहणमात्रतः ॥ ७५ ॥ कवच के सिद्ध होने पर वह पुरुष महासत्यवक्ता, चिरकालजीवी एवं पृथ्वीमण्डल में सर्वत्र विजयी होता है तथा केवल कवच के ग्रहण मात्र से पूज्य होता है ॥ ७५ ॥ मालामन्त्रमिमं पुण्यं कवचं मङ्गलं शुभम् । बिभ्रतां सर्वपापानि प्रणश्यन्ति सुनिश्चितम् ॥ ७६ ॥ इस मालामन्त्र और पुण्य, मंगल एवं शुभ कवच के धारण करने वाले के समस्त पाप निश्चित नष्ट हो जाते हैं ॥ ७६ ॥ भूतप्रेतपिशाचाश्च कूश्माण्डा ब्रह्मराक्षसाः । डाकिनीयोगिनीयक्षवेताला भैरवादयः ॥ ७७ ॥ बालग्रहा ग्रहाश्चैव क्षेत्रपालादयस्तथा । वर्मणः शब्दमात्रेण पलायन्ते च भीरवः ॥ ७८ ॥ भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, योगिनी, यक्ष, वेताल , भैरव आदि, बालग्रह, ग्रह, क्षेत्रपाल आदि तथा भीरु आदि जैसे उसके शब्दमात्र से पलायन कर जाते हैं ॥ ७७-७८ ॥ आधयो व्याधयश्चैव शोकाश्चैव भयावहाः । न यान्ति संनिधिं तेषां गरुडस्य यथोरगाः ॥ ७९ ॥ जैसे गरुड की सन्निधि में सर्प नहीं जाते वैसे आधि, व्याधि और भयावह शोक उसके समीप नहीं जाते हैं ॥ ७९ ॥ ऋजवे गुरुभक्ताय स्वशिष्याय प्रकाशयेत् । खलाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ ८० ॥ इसलिए सरल एवं गुरुभक्त शिष्य को यह कवच देना चाहिए किन्तु दुष्ट और पर-शिष्य को देने से मृत्यु प्राप्त होती है ॥ ८० ॥ संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥ ८१ ॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने ॥ ८२ ॥ संसारमोहन इस कवच के प्रजापति ऋषि, बृहती छन्द, स्वयं लम्बोदर देवता हैं तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए इसका विनियोग कहा गया है ॥ ८१-८२ ॥ ओं गं हुं श्री गणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् । द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदाऽवतु ॥ ८३ ॥ हे मुने ! यह कवच सभी कवचों का सार भाग है । 'ओं गहुं श्रीगणेशाय स्वाहा' यह मेरे मस्तक की रक्षा करे, बत्तीस अक्षर वाला मंत्र मेरे ललाट की सदा रक्षा करे ॥ ८३ ॥ ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति वै सततं पातु लोचनम् । तारकां पातु विघ्नेशः सततं धरणीतले ॥ ८४ ॥ 'ओं ह्रीं क्लीं श्रीं गं' मेरे नेत्र की सतत रक्षा करे । इस भूतल पर विघ्नेश मेरी पुतली की सतत रक्षा करें ॥ ८४ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति परं संततं पातु नासिकाम् । ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम ॥ ८५ ॥ 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं' यह निरन्तर नासिका की रक्षा करे । 'ओं गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा' यह मेरे अघर की रक्षा करे । सोलह अक्षर वाला मंत्र मेरे दाँत, तालु और जिह्वा की रक्षा करे ॥ ८५ ॥ दन्तांश्च तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः । ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदाऽवतु ॥ ८६ ॥ 'ओं लं श्रीं लम्बोदराय स्वाहा' यह सदा कपोल की रक्षा करे ॥ ८६ ॥ ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा कर्णंसदाऽवतु । ओं श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदाऽवतु ॥ ८७ ॥ 'ओं क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा' यह कान की रक्षा करे 'ओं श्रीं गं गजाननाय स्वाहा' सदा कंधे की रक्षा करे 'ओं ह्रीं विनायकाय स्वाहा' यह सदा पीठ की रक्षा करे ॥ ८७ ॥ ओं ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु । ओं क्लीं ह्नीमिति कङकालं पातु वक्षःस्थलं परम् ॥ ८८ ॥ 'ओं क्लीं ह्रीं' यह ठठरी और वक्षःस्थल की सदा रक्षा करे । ॥ ८८॥ करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघ्ननाशकृत् । प्राच्यां लम्बोदरः पातु चाऽऽग्नेय्यां विघ्ननायकः ॥ ८९ ॥ दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः । पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः ॥ ९० ॥ कृष्णस्याशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च । ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्बः पातु चोर्ध्वतः ॥ ९१ ॥ अधो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः । स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरुः ॥ ९२ ॥ विघ्ननाश करने वाला (मंत्र) हाथ, पैर और सर्वांग सदा की रक्षा करे । पूर्व दिशा में लम्बोदर रक्षा करें, अग्नि दिशा में विघ्ननायक, दक्षिण में विघ्नेश, नैर्ऋत्य में गजानन, पश्चिम में पार्वतीपुत्र, वायव्य में शंकरात्मज, उत्तर में परिपूर्णतम श्रीकृष्ण के अंश, ईशान में एकदन्त, ऊपर हेरम्ब, नीचे गणाधिप, चारों ओर सर्वपूज्य तथा स्वप्न और जागरण में योगियों के गुरु मेरी रक्षा करें । ८९-९२ ॥ इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ ९३ ॥ हे वत्स ! इस संसारमोहन नामक परम अद्भुत कवच को मैंने तुम्हें बता दिया है, जो समस्त मन्त्रसमुदाय रूप शरीर धारण किए हुए है ॥ ९३ ॥ श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले । वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज ॥ ९४ ॥ मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि । परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसंकटतारणम् ॥ ९५ ॥ हे दिनकरात्मज ! पूर्व काल में भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक में वृन्दावन के रासमण्डल में मुझ विनीत को यह कवच प्रदान किया था और आज मैंने तुम्हें प्रदान किया है, अतः इसे जिस किसी को न दे देना । यह परमोत्तम, श्रेष्ठ, सब का पूज्य और समस्त संकट से बचाने वाला है ॥ ९४-९५ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ ९६ ॥ गुरु की सविधि अर्चना करके जो यह कवच कण्ठ में या दाहिनी भुजा में धारण करता है वह विष्णु है, इसमें संशय नहीं ॥ ९६ ॥ अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च । ग्रहेन्द्र कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ९७ ॥ हे ग्रहेन्द्र ! सहस्र अश्वमेघ और सौ वाजपेय यज्ञ इस कवच की सोलहवीं कला के भी समान नहीं हैं ॥ ९७ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम् । शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ९८ ॥ पुनः इस कवच को बिना जाने जो शंकर-पुत्र गणेश की आराधना करता है, उसके सौ लाख जप करने पर भी मंत्र सिद्धिदायक नहीं होता है ॥ ९८ ॥ दत्त्वेदं सूर्यपुत्राय विरराम सुरेश्वरः । परमानन्दसंयुक्ता देवास्तस्थुः समीपतः ॥ ९९ ॥ देवाधीश्वर भगवान् सूर्य-पुत्र शनि को यह संसारमोहन नामक कवच देकर चुप हो गए और देवगण भी परमानन्दमग्न होकर वहीं स्थित हो गए ॥ ९९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशपूजास्तवकवचकथनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायणसंवाद में गणेश की पूजा, स्तुति और कवच वर्णन नामक तेरहवां अध्याय समाप्त ॥ १३ ॥ |