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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - चतुर्दशोऽध्यायः कार्तिकेयजन्मकथनम् -
कार्तिकेय का जन्म-कथन - नारायण उवाच देवास्तस्यां सभायां ते सर्वे संहृष्टमानसाः । गन्धर्वा मुनयः शैलाः पश्यन्तः सुऽमहोत्सवम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-सभी सभासद-देवता, गन्धर्व, मुनि और पर्वतगण जो उस महोत्सव को देख रहे थे, अत्यन्त प्रसन्नचित्त थे ॥ १ ॥ एतस्मिन्नन्तरे दुर्गा स्मेराननसरोरुहा । उवाच विष्णुं प्रणता देवेशं तत्र संसदि ॥ २ ॥ इसी बीच मन्द हास करती हुई कमल-वदना दुर्गा ने उस सभा में देवेश विष्णु से विनयविनम्र होकर कहा ॥ २ ॥ पार्वत्युवाच त्वं पाता सर्वजगतां नाथ नाहं जगद्बहिः । कथं मत्स्वामिनो वीर्यममोघं रक्षितं प्रभो ॥ ३ ॥ पार्वती बोलीं-हे नाथ ! तुम समस्त जगत् के रक्षक हो और मैं भी इस जगत् से बाहर नहीं हूँ । अतः हे प्रभो ! मेरे स्वामी का वह अमोघ वीर्य कहाँ सुरक्षित है (बताने की कृपा करें) ॥ ३ ॥ रतिभङ्गे कृते देवैर्ब्रह्मणा प्रेरितैस्त्वया । भूमौ निपतितं वीर्यं केन देवेन वै हृतम् ॥ ४ ॥ तुम्हारी प्रेरणा से देवों और ब्रह्मा द्वारा मेरे रतिभंग किये जाने पर उनका वीर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा था, पता नहीं किस देव ने उसका अपहरण कर लिया ॥ ४ ॥ सर्वे देवास्त्वत्पुरतस्तदन्विष्यन्तु सादरम् । अराजकं कथं युक्तं तिष्ठति त्वयि राजनि ॥ ५ ॥ (हमारे) सभी देवगण आपके सामने ही उसकी खोज करें-क्योंकि आप ऐसे राजा के अधिकार में ऐसी अराजकता उचित नहीं है ॥ ५ ॥ पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य जगदीश्वरः । उवाच देववर्गे च मुनिवर्गे च तिष्ठति ॥ ६ ॥ पार्वती की ऐसी बात सुन कर जगदीश्वर भगवान् ने हँस कर देवों और मुनियों के समक्ष कहा ॥ ६ ॥ विष्णुरुवाच देवाः शृणुत मद्वाक्यं पार्वतीवचनं श्रुतम् । शिवस्यामोघवीर्यं यत्तत्पुरा केन निर्हृतम् ॥ ७ ॥ विष्णु बोले-हे देवगण ! मेरी बात सुनो ! तुम लोगों ने पार्वती की बात तो, सुन ली । पूर्वकाल में शिव के अमोघ वीर्य का किसने अपहरण किया? ॥ ७ ॥ सभामानयत क्षिप्रं न चेद्दण्डमिहार्हथ । स किं राजा न शास्ता यः प्रजाबाध्यश्च पाक्षिकः ॥ ८ ॥ उसे इस सभा में शीघ्र उपस्थित करो अन्यथा दण्ड के भागी बनोगे । क्योंकि जो शासन ठीक से न करे, प्रजा पीड़ित हो या पक्षपात करे, वह निन्दनीय राजा है ॥ ८ ॥ विष्णोस्तद्वचनं श्रुत्वा समालोच्य परस्परम् । ऊचुः सर्वे शिवावाक्यैस्त्रासिताः पुरतो हरेः ॥ ९ ॥ भगवान् विष्णु की बात सुनकर सभी ने आपस में विचार-परामर्श किया और पार्वती की बात से त्रस्त होकर उन लोगों ने भगवान के सामने कहना आरम्भ किया ॥ ९ ॥ ब्रह्मोवाच तद्वीर्यं निर्हृतं येन पुण्यभूमौ च भारते । स वञ्चितो भवत्वत्र पुण्याहे पुण्यकर्मणि ॥ १० ॥ ब्रह्मा बोले-इस पुण्य क्षेत्र भारत में तुम्हारे वीर्य का जिसने अपसरण किया है, वह पुण्य दिवस के पुण्य कर्म से वंचित रह जाये ॥ १० ॥ महादेव उवाच मद्वीर्यं निहतं येन पुण्यभूमौ च भारते । स वञ्चितो भवत्वत्र सेवने पूजने तव ॥ ११ ॥ महादेव बोले-इस पुण्य भूमि भारत में मेरे वीर्य का जिसने अपहरण किया है, वह तुम्हारी सेवा-पूजा से वंचित रहे ॥ ११ ॥ यम उवाच स वञ्चितो भवत्वत्र शरणागतरक्षणे । एकादशीव्रतं चैव तद्वीर्यं येन निर्हृतम् ॥ १२ ॥ यम बोले-उस वीर्य का अपहरण जिसने किया है, वह शरणागत की रक्षा और एकादशी व्रत से वंचित रह जाये ॥ १२ ॥ इन्द्र उवाच तद्वीर्यं निर्वृतं येन पापिनां पापमोचने । भवत्वत्र यशो लुप्तं तत्पुण्यं कर्म संततम् ॥ १३ ॥ इन्द्र बोले-उस वीर्य का जिसने अपहरण किया है, वह पापियों को पाप मुक्त करने में असमर्थ रहे और उसका यश एवं पुण्य कर्म निरन्तर लुप्त होता रहे ॥ १३ ॥ वरुण उवाच भवत्वत्र कलौ जन्म वर्षे स्याद्भारते हरे । शूद्रयाजकपत्न्याश्च गर्भे तद्येन निर्हृतम् ॥ १४ ॥ वरुण बोले-हे हरे ! जिसने उसका अपहरण किया है, वह भारतवर्ष में कलि के समय शूद्र को यज्ञ कराने वाले की पत्नी के गर्भ से जन्म ग्रहण करे ॥ १४ ॥ कुबेर उवाच न्यासहारी स भवतु विश्वासघ्नश्च मित्रहा । सत्यघ्नश्च कृतघ्नश्च तद्वीर्यं येन निर्हृतम् ॥ १५ ॥ कुंवेर बोले-उस वीर्य का जिसने अपहरण किया है, वह न्यास (धरोहर)का अपहर्ता, विश्वासघाती, मित्रहन्ता, सत्यहन्ता एवं कृतघ्न हो ॥ १५ ॥ ईशान उवाच परद्रव्यापहारी च स भवत्वत्र भारते । नरघाती गुरुद्रोही तद्वीर्यं येन निर्हृतम् ॥ १६ ॥ ईशान बोले-जिसने उस वीर्य का अपहरण किया है वह इस भारत में परधन का अपहारी, नरघाती और गुरुद्रोही हो ॥ १६ ॥ रुद्रा ऊचुः ते मिथ्यावादिनः सन्तु भारते पारदारिकाः । गुरुनिन्दारताः शश्वत्तद्वीर्यं यैश्च निर्हृतम् ॥ १७ ॥ रुद्रगण बोले-उस वीर्य का जिन लोगों ने अपहरण किया है, वे भारत में झूठ बोलने वाले, परस्त्री-लम्पट और गुरु की निन्दा में रत रहें ॥ १७ ॥ कामदेव उवाच कृत्वा प्रतिज्ञां यो मूढो न संपालयते भ्रमात् । भाजनं तस्य पापस्य स भवेद्येन तद्धृतम् ॥ १८ ॥ कामदेव बोले-जिसने उस (वीर्य) का अपहरण किया है, वह जो मूढ़ भ्रमवश प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता है, उसके पाप का भागी हो ॥ १८ ॥ स्वर्वैद्यावूचतुः मातुःपितुर्गुरोश्चैव स्त्रीपुत्राणां च पोषणे । भवेतां वञ्चितौ तौ च याभ्यां वीर्यं च तद्वृतम् ॥ १९ ॥ स्वर्वेद्य (अश्विनीकुमार) बोले-जिन्होंने वीर्य का अपहरण किया है, वे माता, पिता, गुरु, स्त्री और पुत्र के पालन-पोषण से वंचित रह जायें ॥ १९ ॥ सर्वे देवा ऊचुः मिथ्यासाक्ष्यप्रदातारो भवन्त्वत्र च भारते । अपुत्रिणो दरिद्राश्च यैश्च वीर्यं हि तद्धृतम् ॥ २० ॥ देवगण बोले-जिन्होंने उस वीर्य का अपहरण किया है, वे भारत में झूठी गवाही देने वाले, निपूत और दरिद्र हों ॥ २० ॥ देवपत्न्य ऊचुः ता निन्दन्तु स्वभर्तारं गच्छन्तु परपूरुषम् । सन्तु बुद्धिविहीनाश्च याभिर्वीर्यं हि तद्धृतम् ॥ २१ ॥ देवपत्नियाँ बोलीं-जिन स्त्रियों ने उस वीर्य का हरण किया है, वे अपने पति की निन्दा करने वाली एवं परपुरुषगामिनी हों और सदैव बुद्धिहीना हों ॥ २१ ॥ देवानां वचनं श्रुत्वा देवीनां च हरिः स्वयम् । कर्मणां साक्षिणं धर्मं सूर्यं चन्द्रं हुताशनम् ॥ २२ ॥ पवनं पृथिवीं तोयं संध्ये रात्रिंदिवं मुने । उवाच जगतां कर्ता पाता शास्ता जगत्त्रये ॥ २३ ॥ हे मुने ! देवों और देवियों की ऐसी बातें सुन कर जगत् के कर्ता और तीनों लोकों के शासक एवं रक्षक भगवान् विष्णु ने स्वयं कर्मों के साक्षी धर्म, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल, दोनों संध्याओं, दिन और रात्रि से कहा ॥ २२-२३ ॥ विष्णुरुवाच देवैर्न निर्हृतं वीर्यं तदेतत्केन निर्हृतम् । तदमोघं भगवतो महेशस्य जगद्गुरोः ॥ २४ ॥ यूयं च साक्षिणो विश्वे सततं सर्वकर्मणाम् । युष्माभिनिर्हृतं किंवा किं भूतं वक्तुमर्हथ ॥ २५ ॥ विष्णु बोले-जगद्गुरु एवं भगवान् महेश्वर के अमोघ वीर्य का अपहरण यदि देवों ने नहीं किया है तो किसने उसका अपहरण किया है ? समस्त विश्व में तुम्ही लोग कर्मों के निरन्तर साक्षी हो, अतः तुम्हीं लोगों ने उसका अपहरण किया है या उसका क्या हुआ, बताओ ॥ २४-२५ ॥ ईश्वरस्य वचः श्रुत्वा सभायां कम्पिताश्च ते । परस्परं समालोच्य क्रमेणोचुः पुरो हरेः ॥ २६ ॥ उस समय सभा में ईश्वर की ऐसी बातें सुन कर वे लोग काँपने लगे और आपस में परामर्श कर के भगवान् के सामने क्रमशः कहना आरम्भ किया ॥ २६ ॥ धर्म उवाच रतेरुत्तिष्ठतो वीर्यं पपात वसुधातले । मया ज्ञातममोघं तच्छंकरस्य प्रकोपतः ॥ २७ ॥ धर्म बोले-सुरत के समय क्रुद्ध शंकर के उठते ही उनका वह अमोघ वीर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा यह मैं जानता हूँ ॥ २७ ॥ क्षितिरुवाच वीर्यं वोढुमशक्ताऽहं तद्वह्नौ न्यक्षिपं पुरा । अतीव दुर्वहं ब्रह्मन्नबलां क्षन्तुमर्हसि ॥ २८ ॥ क्षिति बोली-हे ब्रह्मन् ! उस अत्यन्त दुर्वह वीर्य का वहन करने में मैं असमर्थ थी, इस लिए उसे मैंने पहले ही अग्नि में डाल दिया । आप मुझ अबला को क्षमा करें ॥ २८ ॥ अग्निरुवाच वीर्यं वोढुमशक्तोऽहं न्यक्षिपं शरकानने । दुर्बलस्य जगन्नाथ किं यशः किं च पौरुषम् ॥ २९ ॥ अग्नि बोले-हे जगन्नाथ ! उस वीर्य को वहन करने में मैं भी असमर्थ होकर उसे शर (सरपत) के जंगल में छोड़ दिया, क्योंकि दुर्बल पुरुष का यश और पौरुष क्या है ? (अर्थात् कुछ नहीं) ॥ २९ ॥ वायुरुवाच शरेषु पतितं वीर्यं सद्यो बालो बभूव ह । अतीव सुन्दरो विष्णो स्वर्णरेखानदीतटे ॥ ३० ॥ वायु बोले-हे विष्णो ! शरों (सरपतों) में गिरा हुआ वीर्य तुरन्त बालक रूप हो गया, जो अत्यन्त सुन्दर एवं स्वर्णरेखा नदी के तट पर विराजमान हुआ ॥ ३० ॥ सूर्य उवाच रुदन्तं वालकं दृष्ट्वाऽगममस्ताचलं प्रति । प्रेरितः कालचक्रेण निशि संस्थातुमक्षमः ॥ ३१ ॥ सूर्य बोले--मैंने रोदन करते हुए उस बालक को देखा और अस्ताचल चला गया क्योंकि कालचक्र से प्रेरित होने के नाते रात्रि में मैं स्थित नहीं रह सकता ॥ ३१ ॥ चन्द्र उवाच रुदन्तं बालकं प्राप्य गृहीत्वा कृत्तिकागणः । जगाम स्वालयं विष्णो गच्छन्बदरिकाश्रमात् ॥ ३२ ॥ चन्द्र बोले- हे विष्णो ! बदरिकाश्रम से जाती हुई कृत्तिकाओं ने उस रोदन करते हुए बालक को लेकर अपने घर को प्रस्थान किया ॥ ३२ ॥ जलमवाच अमुं रुदन्तमानीय स्तनं दत्त्वा स्तनार्थिने । वर्धयामासुरीशस्य तं ताः सूर्याधिकप्रभम् ॥ ३३ ॥ जल बोले-(शिव के) उस रोदन करते बालक को, जो दुग्ध-पान के लिए मचल रहा था और सूर्य से अधिक प्रभापूर्ण था, कृत्तिकाओं ने दुग्धपान कराया और वे पालन-पोषण करने लगीं ॥ ३३ ॥ संध्ये ऊचतुः अधना कृत्तिकानां च षण्णां तत्पोष्यपुत्रकः । तन्नाम चक्रस्ताः प्रेम्णा कार्तिकेय इति स्वयम् ॥ ३४ ॥ संध्याएं बोलीं-इस समय वह पुत्र छह कृत्तिकाओं का पोष्य हुआ है और प्रेमवश उन लोगों ने उसका 'कार्तिकेय' नामकरण भी स्वयं किया है ॥ ३४ ॥ रात्रिरुवाच न चकुर्बालकं ताश्च लोचनानामगोचरम् । प्राणेभ्योऽपि प्रेमपात्रं यः पोष्टा तस्य पुत्रकः ॥ ३५ ॥ रात्रि बोली-वे कृत्तिकाएँ उस बालक को अपनी आँखों के सामने से कभी अलग नहीं करती हैं । वह प्राणों से भी अधिक प्रेमपात्र है । जो पालन करता है, उसी का पुत्र होता है ॥ ३५ ॥ दिनमुवाच यानि यानि च वस्तूनि त्रैलोक्ये दुर्लभानि च । प्रशंसितानि स्वादूनि भोजयामासरेव तम् ॥ ३६ ॥ दिन बोला-तीनों लोकों में जो अति स्वादिष्ठ एवं दुर्लभ पदार्थ हैं, वे ही उस बच्चे को उन्होंने भोजन कराये ॥ ३६ ॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा संतुष्टो मधुसूदनः । ते सर्वे हरिमित्यूचुः सभायां हृष्टमानसाः ॥ ३७ ॥ इस प्रकार सभा में सुप्रसन्न होकर उन लोगों ने भगवान् से कहा और उनकी बातें सुनकर भगवान् मधुसूदन भी अति प्रसन्न हुए ॥ ३७ ॥ पुत्रस्य वार्तां संप्राप्य पार्वती हृष्टमानसा । कोटिरत्नानि विप्रेभ्यो ददौ बहुधनानि च ॥ ३८ ॥ ददौ सर्वाणि विप्रेभ्यो वासांसि विविधानि च ॥ ३९ ॥ पुत्र की वार्ता सुनकर पार्वती अति हर्षित हुई और उन्होंने ब्राह्मणों को पुनः करोड़ों रत्न और बहुत धन प्रदान किये । सभी ब्राह्मणों को अनेक भांति के वस्त्र भी दिये ॥ ३८-३९ ॥ लक्ष्मीः सरस्वती मेना सावित्री सर्वयोषितः । विष्णुश्च सर्वदेवाश्च ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धनम् ॥ ४० ॥ अनन्तर लक्ष्मी, सरस्वती, मेना, सावित्री आदि समस्त स्त्रियों तथा समस्त देवों समेत विष्णु ने ब्राह्मणों को धन दान दिया । ॥ ४० ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कार्तिकेयजन्मकथनं नाम चतुदशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद में कार्तिकेय-जन्म-कथन नामक चौदहवां अध्याय समाप्त ॥ १४ ॥ |