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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - पञ्चदशोऽध्यायः नन्दिकार्तिकेयसंवादः -
नन्दकेश्वर और कार्तिकेय का संवाद - नारायण उवाच पुत्रस्य वार्तां संप्राप्य पार्वत्या सह शंकरः । प्रेरितो विष्णुना देवैर्मुनिभिः पर्वतैर्मुने ॥ १ ॥ दूतान्प्रस्थापयामास महाबलपराक्रमान् । वीरभद्रं विशालाक्षं शङ्कुकर्णं कबन्धकम् ॥ २ ॥ नन्दीश्वरं महाकालं वज्रदन्तं भगन्दरम् । गोधामुखं दधिमुखं ज्वलदग्निशिखोपमम् ॥ ३ ॥ लक्षं च क्षेत्रपालानां भूतानां च त्रिलक्षकम् । वेतालानां चतुर्लक्षं यक्षाणां पञ्चलक्षकम् ॥ ४ ॥ कूष्माण्डानां चतुर्लक्षं त्रिलक्षं ब्रह्मरक्षसाम् । डाकिनीनां चतुर्लक्षं योगिनीनां त्रिलक्षकम् ॥ ५ ॥ नारायण बोले-हे मुने ! पार्वती समेत शिव ने पुत्र का समाचार जानने के उपरान्त भगवान् विष्णु, देयों, मुनियों और पर्वतों द्वारा प्रेरित होकर महाबली एवं पराक्रमी दूतों को (उसे लाने के लिए) भेजा । जिनमें वीरभद्र, विशालाक्ष, शंकुकर्ण, कबन्धक, नंदीश्वर, महाकाल, ववदन्त, भगन्दर, गोषामुख, प्रज्वलित अग्नि-शिखा के समान दधिमुख, एक लाख क्षेत्रपाल, तीन लाख भूतगण, चार लाख वेताल, पांच लाख यक्ष, चार लाख कूष्माण्ड, तीन लाख ब्रह्मराक्षस, तीन लाख डाकिनियां और तीन लाख योगिनियाँ थीं ॥ १-५ ॥ रुद्रांश्च भैरवांश्चैव शिवतुल्यपराक्रमान् । अन्यांश्च विकृताकारानसंख्यानपि नारद ॥ ६ ॥ हे नारद ! शिव के समान पराक्रमी रुद्रगण, भैरवगण और अन्य विकृत आकार वाले असंख्य गण ये ॥ ६ ॥ ते सर्वे शिवदूताश्च नानाशस्त्रास्त्रपाणयः । कृत्तिकानां च भवनं वेष्टयामासुरुज्ज्वलम् ॥ ७ ॥ शिव के इन दूतों ने हाथों में अस्त्र-शस्त्र लेकर कृत्तिकाओं के उज्ज्वल भवन को चारों ओर से घेर लिया ॥ ७ ॥ दृष्ट्वा तान्कृत्तिकाः सर्वाः भयविह्वलमानसाः । कार्तिकं कथयामासुर्ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ८ ॥ अनन्तर सभी कृत्तिकाओं के चित्त इन दूतों को देखकर आकुल हो गये । वे ब्रह्मतेज से देदीप्यमान कार्तिकेय से कहने लगीं ॥ ८ ॥ कृत्तिका ऊचुः वत्स सैन्यान्यसंख्यानि वेष्टयामासुरालयम् । न जानीमो वयं कस्य करालानि च बालक ॥ ९ ॥ कृत्तिकाएँ बोलीं-हे वत्स ! हे बालक ! असंख्य सेनाओं ने आकर गह को चारों ओर से घेर लिया है, हम लोग नहीं जानतीं कि-ये भयंकर सेनायें किसकी हैं ॥ ९ ॥ कार्तिकेय उवाच भयं त्यजत कल्याण्यो भयं किं वो मयि स्थिते । दुनिवार्यः कर्मपाको मातरः केन वार्यते ॥ १० ॥ कार्तिकेय बोले हे मंगलमयी ! भय मत करो, मेरे रहते तुम्हें भय क्या है? हे माताओ ! इस दुनिवार कर्मफल को कौन रोक सकता है ? ॥ १० ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र सेनानीर्नन्दिकेश्वरः । पुरतः कार्तिकेयस्य तिष्ठंस्तासामुवाच ह ॥ ११ ॥ इसी बीच सेनानायक नन्दिकेश्वर ने उनके समक्ष कार्तिकेय से कहा ॥ ११ ॥ नन्दिकेश्वर उवाच भ्रातः प्रवृत्तिं शृणु मे मातुश्चपि शुभावहम् । प्रेषितस्य सुरेन्द्रस्य संहर्तुः शंकरस्य च ॥ १२ ॥ कैलासे सर्वदेवाश्च ब्रह्मविष्णुशिवादयः । सभायां ते वसन्तश्च गणेशोत्सवमङ्गले ॥ १३ ॥ शैलेप्रन्द्रकन्या तं विष्णुं जगतां परिपालकम् । संबोध्य कथयामास तवान्वेषणकारणम् ॥ १४ ॥ नन्दिकेश्वर बोले- हे भ्रातः ! माता जी का शुभ सन्देश मुझसे सुनो तथा प्रेषित सुरेन्द्र एवं संहर्ता शिव का भी (संदेश सुनो) । कैलाश पर्वत पर ब्रह्मा, विष्णु शिव आदि देवगण सभा में स्थित होकर गणेश जी का मंगलोत्सव मना रहे थे । इसी बीच शैलराज की पुत्री पार्वती ने समस्त जगत् के पालन करने वाले भगवान् विष्णु को सम्बोधित कर तुम्हारे खोजने के विषय में कहा ॥ १२-१४ ॥ पप्रच्छ देवान्विष्णुस्तान्क्रमेणाऽऽवाप्तिहेतवे । प्रत्युत्तरं ददुस्ते तु प्रत्येकं च यथोचितम् ॥ १५ ॥ अनन्तर विष्णु ने तुम्हारी प्राप्ति के लिए क्रमशः सभी देवों से पूछा और उन लोगों ने एक-एक करके यथोचित उत्तर भी प्रदान किया ॥ १५ ॥ त्वमत्र कृत्तिकास्थाने कथयामासुरीश्वरम् । सर्वे धर्मादयो देवा धर्माधर्मस्य साक्षिणः ॥ १६ ॥ या बभूव रहः क्रीडा पार्वतीशिवयोः पुरा । दृष्टस्य च सुरैः शंभोर्वीर्यं भूमौ पपात ह ॥ १७ ॥ भूमिस्तदक्षिपद्वह्नौ वह्निश्च शरकानने । ततो लब्धः कृत्तिकाभिरमूभिर्गच्छ सांप्रतम् ॥ १८ ॥ तवाभिषेकं विष्णुश्च करिष्यति सुरैः सह । शस्त्रं लब्ध्वाऽखिलं देव तारकं संहनिष्यसि ॥ १९ ॥ पुत्रस्त्वं विश्वसंहर्तुस्त्वां गोप्तुं न क्षमा इमाः । नाग्निं गोप्तुं यथा शक्तः शुष्कवृक्षः स्वकोटरे ॥ २० ॥ धर्माधर्म के साक्षी सभी धर्म आदि देवों ने ईश्वर से बताया कि तुम इसी कृत्तिकाओं के स्थान में रह रहे हो । पूर्वकाल में शिव-पार्वती का जो एकान्तवास हुआ था, उसमें शिव जी का वीर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा था, जिसे सभी देवों ने देखा था । पृथ्वी ने उसे अग्नि में डाल दिया और अग्नि ने सरपत के जंगल में । उसी स्थान से कृत्तिकाओं ने तुम्हें प्राप्त किया, अतः तुम अभी चलो । हे देव ! समस्त देवों समेत भगवान् विष्णु तुम्हारा अभिषेक करेंगे और समस्त शस्त्र प्राप्त होने पर आप तारकासुर का वध करेंगे । तुम समस्त विश्व के संहर्ता भगवान् शिव के पुत्र हो । ये सब तुम्हें छिपाने में उसी भांति असमर्थ हैं जैसे सूखा वृक्ष अपने कोटर में स्थित अग्नि को ॥ १६-२० ॥ दीप्तिमांस्त्वं च विश्वेषु तासां गेहे न शोभसे । यथा पतन्महाकूपे द्विजराजो न राजते ॥ २ १ ॥ समस्त विश्व में तुम देदीप्यमान हो, जिस प्रकार महाकूप में गिरे हुए चन्द्रमा की शोभा नहीं होती है, उसी भांति इन (कृत्तिकाओं) के घर में रहने से तुम्हारी शोभा नहीं हो रही है ॥ २१ ॥ करोषि जगदालोकं नाच्छन्नोऽस्यङ्गतेजसा । यथा सूर्यः कराच्छन्नो न भवेत्पूरुषस्य च ॥ २२ ॥ तुम अपने अंगतेज से सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित कर रहे हो, किन्तु इन लोगों के तेज से उसी प्रकार आच्छन्न नहीं हो, जैसे पुरुष के हाथ से सूर्य नहीं ढके जा सकते । ॥ २२ ॥ विष्णस्त्वं च जगद्व्यापी नाऽऽसां व्याप्योऽसि शांभव । यथा न केषां व्याप्यं च तत्सर्वं व्यापकं नभः ॥ २३ ॥ हे शम्भुपुत्र ! तुम समस्त जगत् में व्याप्त रहने वाले विष्णु हो, जिस प्रकार आकाश किसी (एक का) व्याप्त न होकर समस्त का व्यापक है, उसी भांति तुम इन लोगों के व्याप्य नहीं हो ॥ २३ ॥ योगीन्द्रो नानलिप्तस्त्वं भोगी च परिपोषणं । नैव लिप्तो यथाऽऽत्मा च कर्मभोगेषु जीविनाम् ॥ २४ ॥ तुम योगिराज हो और भलीभांति पोषण करने में भोगी हो, किन्तु इसमें लिप्त नहीं हो, जैसे जीवों के कर्मनोगों में आत्मा नहीं लिप्त होता है ॥ २४ ॥ विश्वाधारस्त्वमीशश्च नामृते संभवेत्स्थितिः । सागरस्य यथा नद्यां सरितामाश्रयस्य च ॥ २५ ॥ तुम समस्त विश्व के आधार और अधीश्वर हो । जिस प्रकार सरिताओं के आश्रयभूत सागर की स्थिति नदी में नहीं हो सकती है, उसी प्रकार तुम्हारी स्थिति अमृत में सम्भव नहीं है ॥ २५ ॥ नहि सर्वेश्वरावासः संभवेत्कृत्तिकालये । गरुडस्य यथा वासः क्षुद्रे च चटकोदरे ॥ २६ ॥ जिस प्रकार गरुड़ का निवास क्षुद्र चटक (गौरइया) पक्षी के उदर में नहीं हो सकता है, उसी भांति सर्वाधीश्वर का आवास कृत्तिकाओं के घर में असम्भव है ॥ २६ ॥ त्वां च देवा न जानन्ति भक्तानुग्रहविग्रहम् । गुणानां तेजसां राशिं यथाऽऽत्मानमयोगिनः ॥ २७ ॥ तुम भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण करते हो, गुणों और तेजों की राशि हो, तुम्हें देवगण उसी भांति नहीं जानते हैं, जैसे योग न साधने वाले आत्मा को ॥ २७ ॥ त्वामनिर्वचनीयं च कथं जानन्ति कृत्तिकाः । यथा परां हरेर्भक्तिमभक्ता मूढचेतसः ॥ २८ ॥ तुम अनिर्वचनीय को कृतिकाएँ किस प्रकार जानती हैं, जैसे भक्ति न करने वाले अज्ञानी मनुष्य भगवान् की पराभक्ति को (नहीं जानते हैं) ॥ २८ ॥ भ्रातर्ये यं न जानन्ति ते तं कुर्वन्त्यनादरम् । नाऽऽद्रियन्ते यथा भेकास्त्वेकावासं च पङ्कजम् ॥ २९ ॥ अतः हे भ्रातः ! जो जिसे नहीं जानते हैं वे उसका अनादर करते हैं जैसे एक जगह रह कर भी मेढक कमल का आदर नहीं करते ॥ २९ ॥ कार्तिकेय उवाच मातः सर्वं विजानामि ज्ञानं त्रैकालिकं च यत् । ज्ञानी त्वं का प्रशंसा ते यतो मृत्युंजयाश्रितः ॥ ३० ॥ कातिकेय बोले-हे भ्रातः ! मैं तीनों काल का सम्पूर्ण ज्ञान रखता हूँ । और तुम भी मृत्युञ्जय (शिव) के आश्रित रहने के नाते ज्ञानी हो, इसलिए तुम्हारी क्या प्रशंसा की जाये ॥ ३० ॥ कर्मणा जन्म येषां वा यासु यासु च योनिषु । तासु ते निर्वृ ति भ्रातर्नाऽऽप्नुवन्ति च संततम् ॥ ३१ ॥ हे भ्रातः ! कर्मवश जिनका जिनजिन योनियों में जन्म हुआ है, वे निरन्तर उनसे छुटकारा नहीं पाते हैं ॥ ३१ ॥ ये यत्र सन्ति सन्तो वा मूढा वा कर्मभोगतः । तेऽपि तं बहु मन्यन्ते मोहिता विष्णुमायया ॥ ३२ ॥ क्योंकि कर्मभोगानुसार महात्मा या मूर्ख कोई भी जिस योनि का शरीर धारण करता है वह विष्णु की माया से मोहित होने के नाते उसी को बहुत सम्मानित समझता है ॥ ३२ ॥ सांप्रतं जगतां माता विष्णुमाया सनातनी । सर्वाद्या सर्वरूपा च सर्वदा सर्वमङ्गला ॥ ३३ ॥ शैलेन्द्रपत्नी गर्भे सा चालभज्जन्म भारते । दारुणं च तपस्तप्त्वा संप्राप च्छंकरं पतिम् ॥ ३४ ॥ सम्प्रति जगत् की माता पार्वती, जो भगवान् विष्णु की माया, सनातनी, सर्वाद्या, सर्वरूपा, सर्वदा सर्वमंगला हैं, भारत में शैलराज (हिमालय) की पत्नी (मैना) के गर्भ से प्रकट हुई हैं, और भीषण तप करके शिव को पतिरूप में प्राप्त किया है ॥ ३३-३४ ॥ ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव कृत्रिमम् । सर्वे कृष्णोद्भवाः काले विलीनास्तत्र केवलम् ॥ ३५ ॥ ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सभी मिथ्या और कृत्रिम हैं । सभी भगवान् श्रीकृष्ण से उत्पन्न होकर अन्त में उन्हीं में विलीन हो जाते हैं ॥ ३५ ॥ कल्पे कल्पे जगन्माता माता मे प्रतिजन्मनि । यज्जन्ममायया बद्धो नित्यः सृष्टिविधावहम् ॥ ३६ ॥ प्रत्येक कल्प में जगज्जननी पार्वती प्रति जन्म में मेरी माता होती हैं और मैं सृष्टि के समय माया द्वारा नित्य आबद्ध होकर उन्हीं से जन्म ग्रहण करता हूँ । ॥ ३६ ॥ प्रकृतेरुद्भवाः सर्वा जगत्यां सर्वयोषितः । काश्चिदंशाः कलाः काश्चित्कलाशांशेन काश्चन ॥ ३७ ॥ सारे जगत की समस्त स्त्रियाँ प्रकृति से ही उत्पन्न हुई हैं, यह सत्य है-कोई प्रकृति का अंश, कोई कला और कोई कला का अंशांश भाग हैं ॥ ३७ ॥ कृत्तिका ज्ञानवत्यश्च योगिन्यः प्रकृतेः कलाः । स्तन्येनाऽऽभिर्वर्धितोऽहमुपहारेण संततम् ॥ ३८ ॥ ज्ञानवती एवं योगिनी कृत्तिकाएं भी प्रकृति की कलाएँ हैं, जिन्होंने अपने स्तन-दुग्ध का उपहार देकर मेरा सम्बर्द्धन किया है ॥ ३८ ॥ तासामहं पोष्यपुत्रो मदम्बाः पोषणादिमाः । तस्याश्च प्रकृतेः पुत्रो गतस्त्वक्त्यामिवीर्यतः ॥ ३९ ॥ न गर्भजोऽहं शैलेन्द्रकन्याया नन्दिकेश्वर । सा च मे धर्मतो माता तथेमा सर्वसंमताः ॥ ४० ॥ मैं उनका योग्य पुत्र हूँ और वे मेरी माताएं हैं । तुम्हारे स्वामी के वीर्य द्वारा मैं उत्पन्न हुआ हूँ, अतः प्रकृति (पार्वती) का भी पुत्र हूँ, किन्तु हे नन्दिकेश्वर ! शैलेन्द्र-कन्या (पार्वती) का मैं गर्भजन्य पुत्र नहीं हूँ । वह हमारी धर्म की माता हैं । उसी प्रकार ये भी मेरी सर्वसम्मत माताएँ हैं ॥ ३९-४० ॥ स्तनदात्री गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया । अभीष्टदेवपत्नी च पितुः पत्नी च कन्यकाः ॥ ४१ ॥ सगर्भकन्या भगिनी पुत्रपत्नी प्रियाप्रसूः । मातुर्माता पितुर्माता सोदरस्य प्रिया तथा ॥ ४२ ॥ मातुः पितुश्च भगिनी मातुलानी तथैव च । जनानां वेदविहिता मातरः षोडश स्मृताः ॥ ४३ ॥ क्योंकि स्तन का दूध पिलाने वाली, गर्भ धारण कर उत्पन्न करने वाली, भोजन देने वाली, गुरु की पत्नी, अभीष्ट देव की पत्नी, पिता की पत्नी (माता), कन्या, गर्भिणी कन्या, भगिनी, पुत्र की पत्नी (बहू), स्त्री की माता (सास), माता की माता (नानी), पिता की माता (दादी), सहोदर की पत्नी, माता और पिता की भगिनी और मातुलानी (मामी), ये सोलह प्रकार की स्त्रियाँ मनुष्यों की वेदविहित माता होती हैं ॥ ४१-४३ ॥ इमाश्च सर्वसिद्धिज्ञाः परमैश्वर्यसंयुताः । न क्षुद्रा ब्रह्मणः कन्यास्त्रिषु लोकेषु पूजिताः ॥ ४४ ॥ इसलिए सम्पूर्ण सिद्धियों को जाननेवाली एवं परमैश्वर्य सम्पन्न ये ब्रह्मा की कन्यायें क्षुद्र नहीं हैं । इनकी तीनों लोकों में पूजा होती है ॥ ४४ ॥ विष्णुना प्रेरितस्त्वं च शंभोः पुत्रसमो महान् । गच्छ यामि त्वया सार्धं द्रक्ष्यामि सुरसंचयम् ॥ ४५ ॥ तुम भी शिव के महान् पुत्र के समान हो और भगवान् विष्णु के भेजे हुए हो, अतः चलो, तुम्हारे साथ मैं भी चलकर देव-समूह का दर्शन करूँगा ॥ ४५ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे नन्दिकार्तिकेयसंवादो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में नन्दि-कार्तिकेय संवाद-कथन नामक पन्द्रहवां अध्याय समाप्त ॥ १५ ॥ |