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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - षोडशोऽध्यायः कार्तिकेयागमनम् -
कार्तिकेय का आगमन - नारायण उवाच इत्येवमुक्त्वा तं शीघ्रं बोधयित्वा च कृत्तिकाः । उवाच नीतियुस्त च वचनं शंकरात्मजः ॥ १ ॥ नारायण बोले-शिव के पुत्र कुमार ने इतना उन (नन्दिकेश्वर) से कहकर शीघ्र कृत्तिकाओं को भी समझाया और पुनः उन लोगों से नीतियुक्त वचन कहना आरम्भ किया ॥ १ ॥ कार्तिकेय उवाच यास्यामि शंकरस्थानं द्रक्ष्यामि सुरसंचयम् । मातरं बन्धुवर्गांश्चाप्याऽऽज्ञा मे दत्त मातरः ॥ २ ॥ कार्तिकेय बोले-हे माताओ ! मैं देवों को देखने के लिए शंकर जी के यहाँ (कैलाश) जा रहा हूँ, वहाँ माता जी एवं बन्धु-वों का दर्शन करूँगा, अतः आज्ञा देने की कृपा करें ॥ २ ॥ दैवाधीनं जगत्सर्वं जन्म कर्म शुभाशुभम् । संयोगश्च वियोगश्च न च दैवात्परं बलम् ॥ ३ ॥ (कोई चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि) समस्त जगत् जन्म, शुभाशुभ कर्म और संयोग-वियोग सभी कुछ दैव (भाग्य) के अधीन रहता है, अत: दैवबल से बढ़कर कोई दूसरा बल नहीं है ॥ ३ ॥ कृष्णायत्तं च तद्दैवं स च दैवात्परस्ततः । भजन्ति सततं सन्तः परमात्मनमीश्वरम् ॥ ४ ॥ और वह दैव भगवान् श्रीकृष्ण के अधीन है क्योंकि वे दैव से भी परे हैं । इसीलिए उस परमात्मा ईश्वर को सन्त लोग सदैव भजते हैं ॥ ४ ॥ दैवं वर्धयितुं शक्तः क्षयं कतु स्वलीलया । न दैवबद्धस्तद्भक्तश्चाविनाशीति निर्णयः ॥ ५ ॥ वह लीला की भांति देव को बढ़ा सकता है और नष्ट कर सकता है । उसका भक्त देव के अधीन नहीं रहता है, अविनाशी होता है, ऐसा सभी का निर्णय है ॥ ५ ॥ तस्माद्भजत गोविन्दं मोहं त्यजत दुःखदम् । सुखदं मोक्षदं सारं जन्ममृत्युभयापहम् ॥ ६ ॥ परमानन्दजनकं मोहजालनिकृन्तनम् । शश्वद्भजन्ति यत्सर्वे ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७ ॥ इसलिए दुःखदायी मोह का त्याग कर गोविन्द को भजो, जो सुखदायक, मोक्षप्रद, सारभूत, जन्म, मृत्यु एवं भय के नाशक, परमानन्द के जनक तथा मोहजाल को काटने वाले हैं और ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि जिनका निरन्तर भजन करते रहते हैं ॥ ६-७ ॥ कोऽहं भवाब्धौ युष्माकं का वा यूयं ममाम्बिका । तत्कर्मस्रोतसां सर्वं पुञ्जीभूतं च फेनवत् ॥ ८ ॥ क्योंकि इस संसार-सागर में तुम लोगों का मैं कौन हूँ और तुम लोग हमारी कौन हो ! सब कर्मों की धाराओं के पूंजीभूत फेन के समान हैं ॥ ८ ॥ संश्लेषं वा वियोगं वा सर्वमीश्वरचिन्तया । ब्रह्माण्डमीश्वराधीनं न स्वतन्त्रं विदुर्बुधाः ॥ ९ ॥ (सभी का) संयोगवियोग आदि सब कुछ ईश्वर के अधीन है, यहाँ तक कि समस्त ब्रह्माण्ड भी ईश्वर के अधीन है, स्वतंत्र नहीं है, ऐसा विद्वानों का कहना है ॥ ९ ॥ जलबुद्बुदवत्सर्वमनित्यं च जगत्त्रयम् । मायामनित्ये कुर्वन्ति मायया मूढचेतसः ॥ १० ॥ जल के बुल्ले की भाँति तीनों जगत् अनित्य (नश्वर) हैं । इस नश्वर जगत् में मायामोहित चित्त वाले ही माया का कार्य करते हैं ॥ १० ॥ सन्तस्तत्र न लिप्यन्ते वायुवत्कृष्णचेतसः । तस्मान्मोहं परित्यज्य चाऽज्ञप्तिं दत्त मातरः ॥ ११ ॥ किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण में दत्तचित्त वाले सज्जन लोग इसमें वायु की भाँति रहकर लिप्त नहीं होते हैं । इसलिए हे माताओ ! मोह छोड़कर मुझे आज्ञा प्रदान करो ॥ ११ ॥ इत्येवमुक्त्वा ता नत्वा सार्धं शंकरपार्षदैः । यात्रां चकार भगवान्मनसा श्रीहरिं स्मरन् ॥ १२ ॥ इस भांति उन्हें समझा-बुझाकर एवं उन्हें नमस्कार करके भगवान् कुमार ने श्री हरि का स्मरण करते हुए शंकर-पार्षदों के साथ यात्रा आरम्भ की ॥ १२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र ददर्श रथमुत्तमम् । विश्वकर्मकृतं रम्यं हीरकेण विराजितम् ॥ १३ ॥ सद्रत्नसाररचितं माणिक्येन विराजितम् । पारिजातप्रसूनानां मालाजालैश्च शोभितम् ॥ १४ ॥ इसी बीच उन्हें वहाँ एक उत्तम रथ दिखायी पड़ा, जो विश्वकर्मा द्वारा सुरचित, रम्य, हीरा जड़ित, उत्तम रत्नों के सारभाग से निर्मित, माणिक्य से सुशोभित और पारिजात के पुष्पों की मालाओं से सुशोभित था ॥ १३-१४ ॥ मणीन्द्रदर्पणैः श्वेतचामरैरतिदीपितम् । क्रीडार्हमन्दिरैरम्यैश्चित्रितैश्चित्रितं वरम् ॥ १५ ॥ उसमें उत्तम मणियों के दर्पण सुसज्जित थे तथा वह श्वेत चामरों से अति दीपित और रम्य एवं चित्रविचित्र क्रीड़ा मन्दिरों से चित्रित होने के नाते अत्युत्तम था ॥ १५ ॥ शतचक्रं सुविस्तीर्णं मनोयायि मनोहरम् । प्रस्थापितं च पार्वत्या वेष्टितं पार्षदैर्वरैः ॥ १६ ॥ वह अतिविस्तृत था । उसमें सौ पहिये (चक्के) लगे थे । वह मन की भांति चलने वाला और मनोहर था । उसे पार्वती जी ने अनेक उत्तम पार्षदों समेत भेजा था ॥ १६ ॥ तमारुहन्तं यानं ता हृदयेन विदूयता । सहसा चेतनां प्राप्य मुक्तकेश्यः शुचाऽऽतुराः ॥ १७ ॥ उनके रथ पर बैठते समय कृत्तिकाओं को महान् हार्दिक दुःख हुआ । वे सहसा चेतना प्राप्त कर केश खोले एवं शोक से उद्विग्न हो गईं ॥ १७ ॥ दृष्ट्वा च स्वपुरः स्कन्दं स्तम्भिताश्चातिशोकतः । उन्मत्ता इव तत्रैव वक्तुमारेभिरे भिया ॥ १८ ॥ अति शोक के कारण स्तम्भित-सी होकर वे कृतिकाएँ अपने सामने स्कन्द को देखते ही पागल-सी हो गयी और भय से कहने लगीं ॥ १८ ॥ कृत्तिका ऊचुः किं कुर्मः क्व च यास्यामो वयं वत्स त्वदाश्रयाः । विहायास्मान् क्व यासित्वं नायं धर्मस्तवाधुना ॥ १९ ॥ कृतिकाएँ बोलीं-हे वत्स ! हम तुम्हारे आश्रित होकर अब क्या करें, कहाँ जायें, तुम हमें छोड़ कर कहाँ जा रहे हो? इस समय तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है ॥ १९ ॥ स्नेहेन वर्धितोऽस्माभिः पुत्रोऽस्माकं स्वधर्मतः । नायं धर्मो मातृवर्गाननुरक्तः सुतस्त्यजेत् ॥ २० ॥ हम लोगों ने तुम्हें अतिस्नेह से पाला-पोसा है । अपने धर्म के अनुसार तुम हमारे पुत्र हो । यह धर्म नहीं है कि पुत्र इस प्रकार निष्ठुर होकर मातृवर्ग का त्याग करे ॥ २० ॥ इत्युक्त्वा कृत्तिकाः सर्वाः कृत्वा वक्षसि तं सुतम् । पुनर्मुच्छामवापुस्ताः सुतविच्छेददारुणम् ॥ २१ ॥ इतना कहकर वे कृतिकाएं पुत्र को अपने वक्षःस्थल (गोद) से लगाकर पुनः मूच्छित हो गयीं, क्योंकि पुत्र-वियोग अति भीषण होता है ॥ २१ ॥ कुमारो बोधयित्वा ता अध्यात्मवचनेन वै । ताभिश्च पार्षदैः सार्धमारुरोह रथं मुने ॥ २२ ॥ हे मुने ! अनन्तर कुमार ने उन्हें अध्यात्म सम्बन्धी बातों से आश्वासन दिया और स्वयं कृत्तिकाओं समेत पार्षदों के साथ रथ पर बैठ गये ॥ २२ ॥ पूर्णकुम्भं द्विजं वेश्यां शुक्लधान्यानि दर्पणम् । दध्याज्यं मधु लाजांश्च पुष्पं दूर्वाक्षतान्सितान् ॥ २३ ॥ वृषं गजेन्द्रं तुरगं ज्वलदग्निं सुवर्णकम् । पूर्णं च परिपक्वानि फलानि विविधानि च ॥ २४ ॥ पतिपुत्रवतीं नारीं प्रदीपं मणिमुत्तमम् । मुक्तां प्रसूनमालां च सद्योमांसं च चन्दनम् ॥ २५ ॥ ददर्शेतानि वस्तूनि मङ्गलानि पुरो मुने । शृगालं नकुलं कुम्भं शवं वामे शुभावहम् ॥ २६ ॥ हे मुने ! (यात्रा के समय) (जल) पूर्ण कलश, ब्राह्मण, वेश्या, शुक्ल धान्य (चावल), दर्पण, दही, घी, मधु, लावा, पुष्प, दूर्वा, श्वेत अक्षत, बैल, गजराज, अश्व, प्रज्वलित अग्नि, सुवर्ण, पूरे पके अनेक प्रकार के फल, पतिपुत्रवती स्त्री, प्रदीप, उत्तम मणि, मोती, पुष्पमाला, तुरन्त का (ताजा) मांस और चन्दन इन मांगलिक वस्तुओं को सामने देखा । इसी प्रकार स्यार (गीदड़), नेवला, घड़ा और शव को वाम भाग में देखा, जो शुभ होता है ॥ २३-२६ ॥ राजहंसं मयूरं च खञ्जनं च शकं पिकम् । पारावतं शङ्खचिल्लं चक्रवाकं च मङ्गलम् ॥ २७ ॥ कृष्णसारं च सुरभिं चमरीं श्वेतचामरम् । धेनुं च वत्ससंयुक्तां पताकां दक्षिणे शुभाम् ॥ २८ ॥ राजहंस, मोर, खजन पक्षी. तोता, कोकिल, कबूतर, शंख, गीध, चकवा, कृष्णसार (मृग), सुरभी और चंवरी गौ, श्वेतचामर, वत्स समेत धेनु एवं पताका को दाहिनी ओर देखा ॥ २७-२८ ॥ नानाप्रकारवाद्यं चाप्यश्रौषीन्मङ्गलध्वनिम् । मनोहरं च संगीतं घण्टाशङ्खध्वनिं तथा ॥ २९ ॥ दृष्ट्वा श्रुत्वा मङ्गलं स ह्यगमत्तातमन्दिरम् । क्षणेनाऽऽनन्दयुक्तश्च मनोयायिरथेन च ॥ ३० ॥ मंगल ध्वनि करने वाले अनेक प्रकार के वाद्य, मनोर संगीत, तथा घंटा और शंख की ध्वनि सुनकर एवं मंगल का दर्शन करने के उपरान्त कुमार आनन्द युक्त होते हुए मनोवेग रथ द्वारा अपने पिता के भवन को चले ॥ २९-३० ॥ कुमारः प्राप्य कैलासं न्यग्रोधाक्षयमूलके । क्षणं तस्थौ कृत्तिकाभिः पार्षदप्रवरैः सह ॥ ३१ ॥ कैलाश पर पहुंचकर कृत्तिकाओं और उत्तम पार्षदों के साथ रथ से उतरे और क्षणभर अक्षयवट के नीचे ठहरे ॥ ३१ ॥ पार्वती मङ्गलं कृत्वा राजमार्गं मनोहरम् । पद्मरागैरिन्द्रनीलैः संस्कृतं परितः पुरम् ॥ ३२ ॥ रम्भास्तम्भसमूहैश्च पट्टसूत्रांशुकैस्तथा । श्रीखण्डपल्लवैर्युक्तं पूर्णकुम्भैः सुशोभितम् ॥ ३३ ॥ पूर्णकुम्भजलैर्व्याप्त सिक्तं चन्दनवारिभिः । असंख्यरत्नदीपैश्च मणिराजैर्विराजितम् ॥ ३४ ॥ नटनर्तकवेश्यानामुत्सवैः संकुलं सदा । वन्दिभिर्विप्रवर्गैश्च दूर्वापुष्पकरैर्युतम् ॥ ३५ ॥ पतिपुत्रवतीभिश्च साध्वीभिश्च समन्वितम् । लक्ष्मीं सरस्वतीं गङ्गां सावित्रीं तुलसीं रतिम् ॥ ३६ ॥ अरुन्धतीमहल्या च दितिं तारां मनोरमाम् । अदितिं शतरूपां च शचीं संध्यां च रोहिणीम् ॥ ३७ ॥ अनसूयां तथा स्वाहां संज्ञां वरुणकामिनीम् । आकूतिं च प्रसूतिं च देवहूतिं च मेनकाम् ॥ ३८ ॥ तामेकपाटलामेकपर्णां मैनाककामिनीम् । वसुंधरां च मनसां पुरस्कृत्य समाययौ ॥ ३९ ॥ पार्वती ने मंगल करके मनोहर राजमार्ग को पद्मराग मणि, इन्द्रनीलमणि से चारों ओर से संस्कृत, अनेक कदलीस्तम्भों, रेशमी वस्त्रों और श्रीखण्ड के पल्लवों से युक्त पूर्ण कलशों से सुशोभित और जलपूर्ण कलशों से व्याप्त, चन्दन मिश्रित जल से सिक्त तथा मणिराजों एवं असंख्य दीपकों से विराजमान किया । नगर नटों, नर्तकों तथा वेश्याओं के उत्सवों से व्याप्त हो गया । वहाँ हाथों में दूब तथा फूल लिए बन्दियों एवं ब्राह्मणों का वर्ग, पतिपुत्रवती नारियों एवं पतिव्रतायें थीं । तब पार्वती लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, तुलसी, रति, अरुन्धती, अहल्या, दिति, सुन्दरी तारा, अदिति, शतरूपा, इन्द्राणी, सन्ध्या, रोहिणी, अनसूया, स्वाहा, संज्ञा, वरुण-स्त्री, आकूति, प्रसूति, देवहूति, मेनका, मैनाक की एक पाटला एवं एकपर्णा स्त्री, वसुन्धरा और मनसा को आगे करके वहाँ आयीं ॥ ३२-३९ ॥ रम्भा तिलोत्तमा मेना घृताची मोहिनी शुभा । उर्वशी रत्नमाला च सुशीला ललिता कला ॥ ४० ॥ कदम्बमाला सुरसा वनमाला च सुन्दरी । एताश्चान्याश्च बहवो विप्रेन्द्राप्सरसां गणाः ॥ ४१ ॥ संगीतनर्तनपराः सस्मिता वेषसंयुताः । करतालकराः सर्वा जग्मुरानन्दपूर्वकम् ॥ ४२ ॥ हे विप्रेन्द्र ! रम्भा, तिलोत्तमा, मेना, घृताची, शुभमूर्ति मोहिनी, उर्वशी, रत्नमाला, सुशीला, ललिता, कला, कदम्बमाला, सुरसा और सुन्दरी वनमाला तथा अन्य अनेक अप्सराओं के समूह उत्तम वेष बनाए मन्दहास करते हुए नृत्यगान कर रहे थे । सभी लोग हाथ में करताल लिए गाते-बजाते आनन्द पूर्वक जा रहे थे ॥ ४०-४२ ॥ देवाश्च मुनयः शैला गन्धर्वाः किन्नरास्तथा । सर्वे ययुः प्रमुदिताः कुमारस्यानुमज्जने ॥ ४३ ॥ सभी देवगण, मुनिवृन्द, पर्वतगण, गन्धर्वसमूह, किन्नरगण अति हर्षित होकर कुमार की अगवानी के लिए जा रहे थे ॥ ४३ ॥ नानाप्रकारवाद्यैश्च रुद्रैर्वा पार्षदैः सह । भैरवैः क्षेत्रपालैश्च ययौ सार्धं महेश्वरः ॥ ४४ ॥ विभिन्न प्रकार के वाद्य समेत रुद्रगण, पार्षद, भैरवगण एवं क्षेत्रपालों को साथ लिए शिव जी भी चल पड़े ॥ ४४ ॥ अथ शक्तिधरो हृष्टो दृष्ट्वाऽऽरात्पार्वतीं तदा । अवरुह्य रथात्तूर्णं शिरसा प्रणनाम ह ॥ ४५ ॥ तं पद्माप्रमुखं देवीगण च मुनिकामिनीः । शिवं च परया भक्त्या सर्वात्संभाष्य यत्नतः ॥ ४६ ॥ अनन्तर शक्तिवर कुमार पार्वती को अपने समीप देखकर अति हर्षित हुए और रथ से शीघ्र उतरकर उन्हें शिर से प्रणाम किया तथा पद्मा (लक्ष्मी) आदि देवियों, मुनि की पत्नियों एवं शिव को पराभक्ति से प्रणाम करके संभाषण किया ॥ ४५-४६ ॥ कार्तिकेयं शिवा दृष्ट्वा क्रोडे कृत्वाचुचुम्ब च । शंकरश्च सुराः शैला देव्यो वै शैलयोषितः ॥ ४७ ॥ पार्वतीप्रमुखा देव्यस्तथा देवश्च शंकरः । शैलाश्च मुनयः सर्वे ददुस्तस्मै शुभाशिषः ॥ ४८ ॥ पार्वती ने कार्तिकेय को देखकर उन्हें गोद में ले लिया और स्नेहवश उनका चुम्बन करने लगी । उस समय शंकर, देवगण, पर्वतगण, देवियों, पर्वतपत्नियों पार्वती प्रमुख देवीवृन्द, देव, शैलगण एवं मुनियों ने कुमार को शुभाशीर्वाद दिया ॥ ४७-४८ ॥ कुमारः सगणैः सार्धमागत्य च शिवालयम् । ददर्श तं सभामध्ये विष्णुं क्षीरोदशायिनम् ॥ ४९ ॥ रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् । धर्मब्रह्मेन्द्रचन्द्रार्कवह्निवाय्वादिभिर्युतम् ॥ ५० ॥ ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् । स्तुतं मुनीन्द्रैर्देवेन्द्रैः सेवितं श्वेतचामरैः ॥ ५१ ॥ पश्चात् गणोंके साथ कुमार शिवालय में आये और सभा के मध्य क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु को उन्होंने देखा, जो रत्नसिंहासन पर सुखासीन, रत्नों के भूषणों से भूषित, धर्म, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु आदि से आवृत, मुसकराते हुए, प्रसन्नमुख, भक्तों पर कृपा करने वाले, मुनिश्रेष्ठों और देवेन्द्रों से स्तुत तथा श्वेत चामरों से सुशोभित थे ॥ ४९-५१ ॥ तं दृष्ट्वा जगतां नाथं भक्तिनम्रात्मकंधरः । पुलकान्वितसर्वाङ्गः शिरसा प्रणनाम ह ॥ ५२ ॥ जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु को देखकर कुमार ने भक्ति से अपना कन्धा झुका लिया और समस्त शरीर में पुलयकायमान होकर उन्हें शिर से प्रणाम किया ॥ ५२ ॥ विधिं धर्मं च देवांश्च मुनीन्द्रांश्च मुदाऽन्वितान् । प्रणनाम पृथक्तत्र प्राप तेभ्यः शुभाशिषः ॥ ५३ ॥ पश्चात् ब्रह्मा, धर्म, देवों और मुनियों को प्रणाम किया और उनसे पृथक्-पृथक् शुभाशीर्वाद प्राप्त किया ॥ ५३ ॥ पृथक्संभाष्य सर्वांश्चाप्युवास कनकासने । ददौ धनानि विप्रेभ्यः पार्वत्या सह शंकरः ॥ ५४ ॥ तथा सभी लोगों से पृथक्-पृथक् बातचीत करके सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान हुए । और शिव-पार्वती ने ब्राह्मणों को धन प्रदान किया ॥ ५४ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कार्तिकेयागमनं नामषोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में कार्तिकेय आगमन नामक सोलहवां अध्याय समाप्त ॥ १६ ॥ |