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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - सप्तदशोध्यायः कुमारगणेशविवाहकुमाराभिषेककथनम् -
कार्तिकेय का सेनापति के पद पर अभिषेक - नारायण उवाच अथ विष्णुर्जगत्कान्तो हृष्टः कृत्वा शुभेक्षणम् । रत्नसिंहासने रम्ये वासयामास षण्मुखम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-जगत्पति भगवान् विष्णु ने हर्षित होकर शुभ मुहूर्त में छह मुख वाले कार्तिकेय को उत्तम रत्नसिंहासन पर सुखासीन किया ॥ १ ॥ नानाविधानि वाद्यानि कांस्यतालादिकानि च । नानाविधानि यन्त्राणि वादयामास कौतुकात् ॥ २ ॥ कौतुक वश विभिन्न प्रकार के कांस्यताल आदि वाद्य और अनेक प्रकार के यन्त्र वाद्य बजवाना प्रारम्भ किया ॥ २ ॥ वेदमन्त्राभिषिक्तैश्च सर्वतीर्थोदपूर्णकैः । सद्रत्नकुम्भशतकैः स्नापयामास तं मुदा ॥ ३ ॥ वेदमंत्रों के उच्चारण पूर्वक समस्त तीर्थों के जल भरे उत्तम रत्नों के सैकड़ों कलशों से हर्षपूर्वक उनका अभिषेक (स्नान) कराया ॥ ३ ॥ सद्रत्नसारखचितं किरीटं मङ्गलाङ्गदे । अमूल्यरत्नखचितभूषणानि बहूनि च ॥ ४ ॥ वह्निशुद्धांशुके दिव्ये क्षीरोदार्णवसंभवम् । कौस्तुभं वनमालां च तस्मै चक्रं ददौ मुदा ॥ ५ ॥ उत्तम रत्नों के सारभाग से खचित किरीट, मंगलमय केयूर और अमूल्य रत्नों के अनेक भूषण, अग्निविशुद्ध दो दिव्य वस्त्र, क्षीरसागर से उत्पन्न कौस्तुभमणि, वनमाला और चक्र प्रदान किये ॥ ४-५ ॥ ब्रह्मा ददौ यज्ञसूत्रं वेदा वै वेदमातरम् । संध्यामन्त्रं कृष्णमन्त्रं स्तोत्रं च कवचं हरेः ॥ ६ ॥ कमण्डलुं च ब्रह्मास्त्रं विद्यां वै वैरिमर्दिनीम् । धर्मो धर्ममतिं दिव्यां सर्वजीवे दयां ददौ ॥ ७ ॥ ब्रह्मा ने यज्ञोपवीत, वेदों ने वेदमाता गायत्री, सन्ध्यामन्त्र, कृष्णमन्त्र, भगवान् का स्तोत्र, कवच, कमण्डलु, ब्रह्मास्त्र तथा वैरिनाशिनी विद्या, एवं धर्म ने दिव्य धर्मबुद्धि और समस्त जीवों के हितार्थ दया प्रदान की ॥ ६-७ ॥ परं मृत्युंजयं ज्ञानं सर्वशास्त्रावबोधनम् । शश्वत्सुखप्रदं तत्त्वज्ञानं च सुमनोहरम् ॥ ८ ॥ योगतत्त्वं सिद्धितत्त्वं ब्रह्मज्ञानं सुदुर्लभम् । शूलं पिनाकं परशुं शक्तिं पाशुपतं धनुः ॥ ९ ॥ संहारास्त्रविनिक्षेपं तत्संहारं ददौ शिवः । श्वेतच्छत्रं रत्नमालां ददौ तस्मै जलेश्वरः ॥ १० ॥ गजेन्द्रं च हयेन्द्र च सुधाकुम्भं सुधानिधिः । मनोयायिरथं सूर्यः संनाहं च मनोरमम् ॥ ११ ॥ यमदण्डं यमश्चैव महाशक्तिं हुताशनः । नानाशस्त्राण्युपायानि सर्वे देवा ददुर्मुदा ॥ १२ ॥ शिव ने उत्तम मृत्युञ्जय ज्ञान, सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान, निरन्तर सुखप्रद एवं मनोहर तत्त्वज्ञान, योगतत्त्व, सिद्धितत्त्व, अति दुर्लभ ब्रह्मज्ञान, शूल, पिनाक (धनुष), परशु (फरसा) शक्ति, पाशुपत धनुष, संहार अस्त्र का चलाना और उसका संहार करना, जलाधीश वरुण ने श्वेतच्छत्र और रत्न की माला, गजराज और उत्तम अश्व दिये । सुधानिधि चन्द्रमा ने अमृत-कलश, सूर्य ने मन की भाँति चलने वाला रथ और मनोरम सन्नाह (कवच). यम ने यमदण्ड, अग्नि ने महाशक्ति तथा देवों ने अनेक मांति के शस्त्र उपहार प्रदान किये ॥ ८-१२ ॥ कामशास्त्रं कामदेवो ददौ तस्मै मुदाऽन्वितः । क्षीरोदोऽमूल्यरत्नानि विशिष्टे रत्ननूपुरे ॥ १३ ॥ कामदेव ने प्रसन्न होकर कामशास्त्र, तथा क्षीरसागर ने अमूल्य रत्न समेत विशिष्ट रत्नों के नूपुर अर्पित किये ॥ १३ ॥ सावित्री सिद्धिविद्यां च सर्वास्ताः कौतुकाद्ददुः । हिमालयो मयूरं च वाहनार्थं च मूकुटम् ॥ १४ ॥ लक्ष्मीश्च परमैश्वर्यं भारती हारमुत्तमम् । पार्वती सस्मिता हृष्टा परमानन्दमानसा ॥ १५ ॥ महाविद्या सुशीलां च विद्यां मेधां दयां स्मृतिम् । बुद्धिं सुनिर्मला शान्तिं तुष्टिं पुष्टिं क्षमां धृतिम् ॥ १६ ॥ सुदृढां च हरौ भक्तिं हरिदास्यं ददौ मुदा । प्रजापतिर्देवसेनां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ १७ ॥ सुविनीतां सुशीलां च सुन्दरीं सुमनोहराम् । ददौ तस्मै वेदमन्त्रैर्विवाहविधिना स्वयम् ॥ १८ ॥ यां वदन्ति महाषष्ठीं पण्डिताः शिशुपालिकाम् । अभिषिच्य कुमारं च सर्वे देवा ययुर्गृहम् ॥ १९ ॥ सवित्री ने सिद्धिविद्या और अन्य देवियों ने कोतुकवश सभी विद्यायें दीं । हिमालय ने सवारी के लिये मयूर तथा मुकुट दिये । लक्ष्मी ने परम ऐश्ययं और सरस्वती ने उत्तम हार दिया । पार्वती ने हर्षित होकर मन्द मुसुकान करती हुई परमानन्दभाव से महाविद्या, सुशोला, विद्या, मेघा, दया, स्मृति, अतिनिर्मल बुद्धि, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्षमा, धृति तथा हरिदास्य समेत भगवान् की सुदृढ़ भक्ति दी । प्रजापति ने रत्नों के भूषणों से भूषित, अति विनीत, सुशील एवं अति मनोहारिणी सुन्दरी देवसेना को वेदमन्त्रों के उच्चारण और विवाह विधि से उन्हें स्वयं प्रदान किया, जिसे पण्डितगण बच्चों को पालने वाली महाषष्ठी कहते हैं । इस प्रकार कुमार का अभिषेक करके सभी देवों ने अपने-अपने गृहों को प्रस्थान किया ॥ १४-१९ ॥ मुनयश्चैव गन्धर्वाः प्रणम्य जगदीश्वरान् । नारायणं च ब्रह्माणं धर्मं तुष्टाव शंकरः ॥ २० ॥ प्रणनाम हरिं तात धर्ममालिङ्ग्य नारद । प्रीत्या ययौ च शैलेन्द्रः सगणः शकरार्चितः ॥ २१ ॥ ये ये तत्राऽऽगताः सर्वे ययुरानन्दपूर्वकम् । परमानन्दसंयुक्तो देव्या सह महेश्वरः ॥ २२ ॥ कालान्तरे च तान्सर्वान्पुनरानीय शंकरः । पुष्टिं ददौ विवाहेन गणेशाय महात्मने ॥ २३ ॥ हे ताँत नारद, शंकर ने नारायण, ब्रह्मा और धर्म की स्तुति तथा धर्म का आलिंगन करके भगवान् को प्रणाम किया । अनन्तर शंकर से सम्मानित होकर शैलराज हिमालय अपने गणों समेत सप्रेम चले गये । इस प्रकार जो लोग जहाँ से आये थे, आनन्द पूर्वक वहाँ चले गये । पार्वती समेत शिव भी परमानन्दमग्न हुए । कुछ काल के उपरान्त शिव ने पुनः उन लोगों को निमन्त्रित कर सबके समक्ष महात्मा गणेश का पुष्टि के साथ विवाह संस्कार सम्पन्न कराकर वह उन्हें सौंप दी ॥ २०-२३ ॥ सुताभ्यां सगणैः सार्धं पार्वती हृष्टमानसा । सिषेवे स्वामिनः पादपद्मं सा सर्वकामदम् ॥ २४ ॥ तदनन्तर पार्वती अपने दोनों पुत्रों और गणों समेत अति प्रसन्न मन से स्वामी शंकर के चरणकमल की सेवा करने लगीं, जो समस्त कामनाओं का दायक है ॥ २४ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं कुमारस्याभिषेचनम् । विवाहः पूजनं तस्य गणेशस्य विवाहकम् ॥ २५ ॥ पार्वतीपुत्रलाभश्च देवानां च समागमः । का ते मनसि वाच्छाऽस्ति किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २६ ॥ इस भांति मैंने कुमार का अभिषेक, विवाह एवं पूजन और गणेश का विवाह पार्वती का पुत्र-लाभ और देवों का समागम तुम्हें बता दिया । अब तुम्हारे मन में क्या इच्छा है और पुनः क्या सुनना चाहते हो ॥ २५-२६ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कुमारगणेशविवाहकुमाराभिषेककथनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में कुमार-गणेश-विवाह और कुमार का अभिषेक कथन नामक सत्रहवाँ अध्याय समाप्त ॥ १७ ॥ |