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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - अष्टादशोऽध्यायः


विघ्नेशविघ्नकथनम् -
शिव को कश्यप का शाप -


नारद उवाच
नारायण महाभाग वेदवेदाङ्‌गपारग ।
पृच्छामि त्वामहं किंचिदतिसंदेहवान्यतः ॥ १ ॥
नारद बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! हे वेद-वेदांगों के पारगामी विद्वान् ! मैं आप से कुछ पूछना चाहता हूँ क्योंकि मुझे सन्देह हो गया है ॥ १ ॥

सुतस्य त्रिदशेशस्य शंकरस्य महात्मनः ।
विघ्ननिघ्नस्य यद्विघ्नमीश्वरस्य कथं प्रभो ॥ २ ॥
परिपूर्णतमः श्रीमान्परमात्मा परात्परः ।
गोलोकनाथः स्वांशेन पार्वतीतनयः स्वयम् ॥ ३ ॥
हे प्रभो ! देवाधीश्वर भगवान् शंकर के पुत्र विघ्ननाशक (गणेश) को विघ्न कैसे हुआ, वे तो ईश्वर हैं और परिपूर्णतम श्रीमान् भगवान् श्रीकृष्ण, जो परमात्मा, परात्पर और गोलोक के नाथ हैं, अपने अंश से स्वयं पार्वती के पुत्र हुए हैं ॥ २-३ ॥

अहो भगवतस्तस्य मस्तकच्छेदनं विभो ।
ग्रहदृष्ट्या ग्रहेशस्य कथं मे वक्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
हे विभो ! यह आश्चर्य है कि ग्रह की दृष्टि (देखने) से ग्रहाधीश्वर भगवान् का भी मस्तकच्छेद हो जाये, यह कैसे हुआ? मुझे बताने की कृपा करें ॥ ४ ॥

नारायण उवाच
सावधानं शृणु ब्रह्मन्नितिहासं पुरातनम् ।
विशस्य बभूवेदं विघ्नं येन च नारद ॥ ५ ॥
नारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! हे नारद ! मैं तुम्हें यह पुराना इतिहास बता रहा हूँ कि विघ्नेश्वर (गणेश) को विघ्न कैसे हुआ, सावधान होकर सुनो । ॥ ५ ॥

एकदा शंकरः सूर्यं जघान परमक्रुधा ।
सुमालिमालिहन्तारं शूलेन भक्तवत्सलः ॥ ६ ॥
एक बार शिव ने परम क्रोध के कारण त्रिशूल से सूर्य को मार डाला, जो सुमाली और माली राक्षसों को मार रहे थे ॥ ६ ॥

श्रीसूर्योऽमोघशूलेनाशनितुल्येन तेजसा ।
जहौ स चेतनां सद्यो रथाच्च निपपात ह ॥ ७ ॥
बज्र के समान तेजस्वी एवं अमोघ (अव्यर्थ) उस शूल के प्रहार से मूच्छित होकर सूर्यदेव चेतनाहीन हो गये और रथ से गिर पड़े ॥ ७ ॥

ददर्श कश्यपः पुत्रं मृतमुत्तानलोचनम् ।
कृत्वा वक्षसि तं शोकाद्विललाप भृशं मुहुः ॥ ८ ॥
अनन्तर कश्यप ने अपने पुत्र (सूर्य) को, जो ऊपर आँख किये मृतक हो गये थे, देखकर अपनी गोद में उठा लिया और शोक से बार-बार विलाप करने लगे ॥ ८ ॥

हाहाकारं सुराश्चक्रुर्विलेपुर्भयकातराः ।
अन्धीभूतं जगत्सर्वं बभूव तमसाऽऽवृतम् ॥ ९ ॥
देवों ने हाहाकार किया तथा भयभीत होकर विलाप भी किया । उस समय सारा जगत् तिमिराच्छन्न होने के नाते अन्धकारमय हो गया था ॥ ९ ॥

निष्प्रभं तनयं दृष्ट्‍वा चाशपत्कश्यपः शिवम् ।
तपस्वी ब्रह्मणः पौत्रः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ १० ॥
मत्पुत्रस्य यथा वक्षश्छिन्नं शूलेन तेऽद्य वै ।
त्वत्पुत्रस्य शिरश्छिन्नं भविष्यति न संशयः ॥ ११ ॥
तपस्वी ब्रह्मा के पौत्र और ब्रह्मतेज से प्रदीप्तकश्यप ने अपने पुत्र को प्रभाहीन देखकर शिव को शाप दिया कि आज तुमने शूल द्वारा जिस प्रकार मेरे पुत्र का वक्षःस्थल छिन्न-भिन्न किया है, ऐसे ही तुम्हारे पुत्र का भी शिर छिन्न-भिन्न हो जायगा, इसमें संशय नहीं ॥ १०-११ ॥

शिवश्च गलितक्रोधः क्षणेनैवाऽशुतोषकः ।
ब्रह्मज्ञानेन तं सूर्यं जीवयामास तत्क्षणात् ॥ १२ ॥
क्षणमात्र में क्रोध निकल जाने पर आशुतोष भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और ब्रह्मज्ञान द्वारा उसी समय सूर्य को जीवित कर दिया ॥ १२ ॥

ब्रह्मविष्णुमहेशानामंशश्च त्रिगुणात्मकः ।
सूर्यश्च चेतनां प्राप्य समत्तस्थौ पितुः पुरः ॥ १३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के अंशभूत सूर्य, जो त्रिगुण स्वरूप हैं, चेतना प्राप्त होने पर पिता के सामने उठ कर बैट गये ॥ १३ ॥

ननाम पितरं भक्त्या शंकरं भक्तवत्सलम् ।
विज्ञाय शंभोः शापं च कश्यपं स चुकोप ह ॥ १४ ॥
सूर्य ने पिता और भक्तवत्सल शंकर को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और शिव का शाप जानकर अपने पिता पर क्रोध प्रकट किया ॥ १४ ॥

विषयान्नैव जग्राह कोपेनैवमुवाच ह ।
विषयांश्च परित्यज्य भजे श्रीकृष्णमीश्वरम् ॥ १५ ॥
सर्वं तुच्छमनित्यं च नश्वरं चेश्वरं विना ।
विहाय मङ्‌गलं सत्यं विद्वान्नेच्छेदमङ्‌गलम् ॥ १६ ॥
विषयों का ग्रहण नहीं किया और क्रोध से इस प्रकार कहा कि मैं विषयों को त्यागकर भगवान् श्रीकृष्ण का भजन करूँगा क्योंकि बिना ईश्वर के सब कुछ तुच्छ, अनित्य और नश्वर है । विद्वान् लोग मंगल सत्य का त्याग कर अमंगल नहीं चाहते ॥ १५-१६ ॥

देवैश्च प्रेरितो ब्रह्मा समागत्य ससंभ्रमः ।
बोधयित्वा रविं तत्र युयोज विषयेष्वजः ॥ १७ ॥
इसी बीच देवों से प्रेरित होकर ब्रह्मा सहसा वहाँ आ गये और सूर्य को भलीभांति उद्बुद्ध करके उन्हें पुनः विषयों में संलग्न किया ॥ १७ ॥

तस्मै दत्वाऽऽशिषः शंभुर्ब्रह्मा च स्वालयं मुदा ।
जगाम कश्यपश्चैव स्वराशिं रविरेव च ॥ १८ ॥
पश्चात् शम्भु और ब्रह्मा सूर्य को शुभाशीर्वाद प्रदान कर अपने-अपने लोक में चले गये, कश्यप भी चले गये और सूर्य ने भी अपनी राशि पर प्रस्थान किया ॥ १८ ॥

अथ माली सुमाली च व्याधिग्रस्तौ बभूवतुः ।
श्वित्रौ गलितसर्वाङ्‌गौ शक्तिहीनौ हतप्रभौ ॥ १९ ॥
अनन्तर माली, सुमाली दोनों व्याविपीड़ित हुए । उनको श्वेतकुष्ठ तथा सर्वांग में गलित कुष्ठ हो गया तथा वे शक्तिहीन होकर कान्तिहीन हो गये ॥ १९ ॥

तावुवाच स्वयं ब्रह्मा युवां च भजतां रविम् ।
सूर्यकोपेन गलितौ युवामेवं हतप्रभौ ॥ २० ॥
उन्हें ब्रह्मा ने स्वयं कहा-'तुम दोनों सूर्य की आराधना करो, सूर्य के कोप के कारण तुम दोनों गलित तथा हतप्रभ हुए हो ॥ २० ॥

सूर्यस्य कवचं स्तोत्रं सर्वं पूजाविधिं विधिः ।
जगाम कथयित्वा तौ ब्रह्मलोकं सनातनः ॥ २१ ॥
ततस्तौ पुष्करं गत्वा सिषेवाते रविं मुने ।
स्नात्वा त्रिकालं भक्त्या च जपन्तौ मन्त्रमुत्तमम् ॥ २२ ॥
ततः सूर्याद्वरं प्राप्य निजरूपौ बभूवतुः ।
इत्येवं कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २३ ॥
पश्चात् सनातन ब्रह्मा ने सूर्य का कवच, स्तोत्र एवं पूजा विधान उन्हें बताकर अपने लोक को प्रस्थान किया और वे दोनों पुष्कर जाकर तीनों काल स्नान और भक्तिपूर्वक उत्तम मंत्र के जप के द्वारा सूर्य की आराधना करने लगे । अनन्तर सूर्य से वरदान प्राप्त कर उन दोनों ने पुनः अपना रूप प्राप्त किया । इस भाँति, मैंने सब कुछ सुना दिया है और अब क्या सुनना चाहते हो ॥ २१-२३ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे
विघ्नेशविघ्नकथनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में विघ्नेश का विघ्न-कथन नामक अट्ठारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ १८ ॥

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