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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकोनविंशोऽध्यायः विघ्नकारणकथनम् -
सूर्य का पूजन और स्तोत्र - नारद उवाच किं स्तोत्रं कवचं नाथ ब्रह्मणा लोकसाक्षिणा । दानवाभ्यां पुरा दत्तं सूर्यस्य परमात्मनः ॥ १ ॥ नारद बोले हे नाथ ! पूर्वकाल में लोकसाक्षी ब्रह्मा ने दोनों दानवों को परमात्मा सूर्य का कौन स्तोत्र एवं कवच प्रदान किया था ॥ १ ॥ किं वा पूजाविधानं वा कं मन्त्रं व्याधिनाशनम् । सर्वं चास्य महाभाग तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥ हे महाभाग ! उनके पूजा का विधान क्या है, रोगनाशक मंत्र कौन है, यह सब कुछ मुझे बताने की कृपा करें ॥ २ ॥ सूत उवाच नारदस्य वचः श्रुत्वा भगवान्करुणानिधिः । स्तोत्रं च कवचं मन्त्रमूचे तत्पूजनक्रमम् ॥ ३ ॥ सूत बोले-करुणानिधान भगवान् ने नारद को बातें सुनकर सूर्य का स्तोत्र, कवच, मन्त्र और उनकी पूजा का क्रम बताना आरम्भ किया । ३ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि सूर्यपूजाविधेः क्रमम् । स्तोत्रं च कवचं सर्वं पापव्याधिविमोचकम् ॥ ४ ॥ नारायण बोले-हे नारद ! मैं तुम्हें सूर्य को पूजा का विधान, स्तोत्र और समस्त पापों से मुक्त करने वाला कवच बता रहा हूँ, सुनो ॥ ४ ॥ सुमालिमालिनौ दैत्यौ व्याधिग्रस्तौ बभूवतुः । विधिं स स्मरतुः स्तोतुं शिवमन्त्रप्रदायकम् ॥ ५ ॥ जब सुमाली और माली नामक दैत्य रोग-पीड़ित हो गये तब उन लोगों ने स्तुति करने के हेतु शिवमन्त्रप्रदाता ब्रह्मा का स्मरण किया ॥ ५ ॥ ब्रह्मा गत्वा च वैकुण्ठं पप्रच्छ कमलापतिम् । शिवं तत्रैव संपश्यन्वसन्तं हरिसंनिधौ ॥ ६ ॥ अनन्तर ब्रह्मा ने वैकुण्ठ जाकर, वहीं विष्णु के समीप उपस्थित शिव को . देखते हुए, कमलापति विष्णु से पूछा ॥ ६ ॥ ब्रह्मोवाच सुमालिमालिनौ दैत्यौ व्याधिग्रस्तौ बभूवतुः । क उपायो वद हरे तयोर्व्याधिविनाशने ॥ ७ ॥ ब्रह्मा बोले-हे हरे ! सुमाली और माली नामक दैत्य व्याधि-पीड़ित हो गये हैं, उनके रोगमुक्त होने के लिए कोई उपाय बताने की कृपा करें ॥ ७ ॥ विष्णुरुवाच कृत्वा सूर्यस्य सेवां च पुष्करे पूर्णवत्सरम् । व्याधिहन्तुर्मदंशस्य तौ चमुक्तौ भविष्यतः ॥ ८ ॥ विष्णु बोले-पुष्कर क्षेत्र में पूरे वर्ष तक सूर्य की, जो मेरे अंश से उत्पन्न एवं व्याधिनाशक हैं, सेवा करने से वे रोगमुक्त हो जायेंगे ॥ ८ ॥ शंकर उवाच सूर्यस्तोत्रं च कवचं मन्त्रं कल्पतरुं परम् । देहि ताभ्यां जगत्कान्त व्याधिहन्तुर्महात्मनः ॥ ९ ॥ शंकर बोले-हे जगत्कान्त ! व्याधिनाश करने वाले महात्मा सूर्य का स्तोत्र, कवच और कल्पतरु जैसा श्रेष्ठ मन्त्र उन्हें प्रदान करने की कृपा करें ॥ ९ ॥ आवां संपत्प्रदातारौ सर्वदातां हरिः स्वयम् । व्याधिहन्ता दिनकरो यस्य योविषयो विधे ॥ १० ॥ हे विधे ! हम दोनों केवल सम्पत्ति प्रदान करते हैं किन्तु सब कुछ प्रदान करने वाले स्वयं हरि हैं और व्याधि का नाश केवल सूर्य करते हैं क्योंकि जिसका जो विषय है, उसे वह सम्पन्न करता है ॥ १० ॥ तयोरनुमति प्राप्य ययौ दैत्यगृहं विधिः । तदा प्रणम्य तं दृष्ट्वा तस्मै ददतुरासनम् ॥ ११ ॥ अनन्तर उन दोनों की अनुमति प्राप्त कर ब्रह्मा दैत्यों के घर गये और दैत्यों ने उन्हें देखते ही प्रणाम कर आसन प्रदान किया ॥ ११ ॥ तावुवाच स्वयं ब्रह्मा रोगग्रस्तौ दयानिधिः । स्तब्धावाहाररहितौ पूयदुर्गन्धसंयुतौ ॥ १२ ॥ दयानिधि ब्रह्मा ने स्वयं उन रोग-पीड़ितों से, जो स्तब्ध, आहार-रहित और पीब की दुर्गन्ध से युक्त थे, कहा ॥ १२ ॥ ब्रह्मोवाच गृहीत्वा कवचं स्तोत्रं मन्त्रं पूजाविधिक्रमम् । गत्वा हि पुष्करं वत्सौ भजथः प्रणतौ रविम् ॥ १३ ॥ ब्रह्मा बोले-हे वत्स ! यह कवच, स्तोत्र मंत्र और पूजाविधान का क्रम ग्रहण कर तुम लोग पुष्कर क्षेत्र चले जाओ और वहाँ सूर्य का नमस्कार पूर्वक भजन करो ॥ १३ ॥ तावचतुः भजावः केन विधिना केन मन्त्रेण वा विधे । किं स्तोत्रं कवचं किंवा तदावाभ्यां वदाधुना ॥ १४ ॥ वे दोनों बोले हे विधे ! किस विधान और किस मंत्र द्वारा हम उनकी सेवा करेंगे और उनका स्तोत्र क्या है ? कवच क्या है ? सम्प्रति बताने की कृपा करें ॥ १४ ॥ ब्रह्मोवाच कृत्वा त्रिकालं स्नानं च मन्त्रेणानेन भास्करम् । संसेव्य भास्करं भक्त्या नीरुजौ च भविष्यथः ॥ १५ ॥ ब्रह्मा बोले- वहाँ जाकर तीनों काल में स्नान करके इस मंत्र द्वारा भक्तिपूर्वक भास्कर की सेवा करने से तुम रोगमुक्त हो जाओगे ॥ १५ ॥ ॐ ह्रीं नमो भगवते सूर्याय परमात्मने । स्वाहेत्यनेन मन्त्रेण सावधानं दिवाकरम् ॥ १६ ॥ संपूज्य दत्त्वा भक्त्या वै चोपहारांस्तु षोडश । एवं संवत्सरं यावद्ध्रुव मुक्तौ भविष्यथः ॥ १७ ॥ 'ओं ह्रीं भगवते सूर्याय परमात्मने स्वाहा' इस मंत्र से सावधान होकर भक्तिपूर्वक दिवाकर का षोडशोपचार पूजन करो । इस भाँति पूरे वर्ष तक उनकी सेवा करने से निश्चित ही रोगमुक्त हो जाओगे ॥ १६-१७ ॥ अपूर्वं कवचं तस्य युवाभ्यां प्रददाम्यहम् । यद्दत्तं गुरुणा पूर्वमिन्द्राय प्रीतिपूर्वकम् ॥ १८ ॥ मैं तुम्हें उनका अपूर्व कवच प्रदान कर रहा हूँ, जिसे पूर्व काल में बृहस्पति ने बड़े प्रेम से इन्द्र को प्रदान किया था ॥ १८ ॥ तत्सहस्रभगाङ्गाय शापेन गौतमस्य च । अहल्याहरणेनैव पापयुक्ताय संकटे ॥ १९ ॥ जिस समय गौतम के शाप द्वारा इन्द्र के सहस्र भग हो गये थे और जो (इन्द्र) अहल्या के अपहरण द्वारा पापयुक्त एवं संकटग्रस्त हो गये थे, उनसे बृहस्पति ने कहा ॥ १९ ॥ बृहस्पतिरुवाच इन्द्र शृणु प्रवक्ष्यामि कवचं परमाद्भुतम् । यद्धृत्वा मुनयः पूता जीवन्मुक्ताश्च भारते ॥ २० ॥ बृहस्पति बोले-हे इन्द्र ! मैं तुम्हें परम अद्भुत कवच बता रहा हूँ, जिसे धारण कर मुनिगण भारत में जीवन्मुक्त हो गये हैं ॥ २० ॥ कवचं बिभ्रतो व्याधिर्न भियाऽऽयाति संनिधिम् । यथा दृष्ट्वा वैनतेयं पलायन्ते भुजंगमाः ॥ २१ ॥ गरुड़ को देखकर जिस प्रकार सर्पगण पलायन कर जाते हैं उसी भाँति कवचधारी के समीप रोग भयभीत होकर नहीं जाता है ॥ २१ ॥ शुद्धाय गुरुभक्ताय स्वशिष्याय प्रकाशयेत् । खलाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ २२ ॥ इसलिए शुद्ध और गुरुभक्त शिष्य को इसे बताना चाहिए, क्योंकि यह खल और पर-शिष्य को देने से मृत्यु प्राप्त होती है ॥ २२ ॥ जगद्विलक्षणस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो दिनकरः स्वयम् ॥ २३ ॥ इस जगद्विलक्षण कवच का प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द, दिनकर देवता और रोगनाशपूर्वक सौन्दर्य प्राप्ति के लिए इसका विनियोग कहा गया है ॥ २३ ॥ व्याधिप्रणाशे सौन्दर्ये विनियोगः प्रकीर्तितः । सद्यो रोगहरं सारं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २४ ॥ ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं श्रीसूर्याय स्वाहा मे पातु मस्तकम् । अष्टादशाक्षरो मन्त्रः कपालं मे सदाऽवतु ॥ २५ ॥ ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं सूर्याय स्वाहा मे पातु नासिकाम् । चक्षुर्मे पातु सूर्यश्च तारकं च विकर्तनः ॥ २६ ॥ भास्करो मेऽधरं पातु दन्तान्दिनकरः सदा । प्रचण्डः पातु गण्डं मे मार्तण्डः कर्णमेव च ॥ मिहिरश्च सदा स्कन्धे जङ्घे पूषा सदाऽवतु ॥ २७ ॥ वह तुरन्त रोग का हरण करने वाला, सारभाग और समस्त पापों का नाशक है । ओं क्लीं ह्रीं श्रीं श्री सूर्याय स्वाहा' मेरे मस्तक की रक्षा करे । अष्टादश अक्षर का मंत्र मेरे कपाल की सदा रक्षा करे । ओं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं सूर्याय स्वाहा' मेरी नासिका की रक्षा करे, सूर्य मेरे नेत्र की रक्षा करें, विकर्तन तारका की रक्षा करें, भास्कर मेरे अधर की रक्षा करें, दिनकर सदा दाँतों की रक्षा करें प्रचण्ड मेरे कपोल की रक्षा करें, मार्तण्ड कान की रक्षा करें, मिहिर दोनों कंधे, और पूषा जंघे की रक्षा करें ॥ २४-२७ ॥ वक्षः पातु रविः शश्वन्नाभि सूर्यः स्वयं सदा । कङ्कालं मे सदा पातु सर्वदेवनमस्कृतः ॥ २८ ॥ कर्णौ पातु सदा ब्रध्नः पातु पादौ प्रभाकरः । विभाकरो मे सर्वाङ्गं पातु संततमीश्वरः ॥ २९ ॥ रवि वक्षःस्थल की रक्षा करें, स्वयं सूर्य निरन्तर नाभि की रक्षा करें, सर्वदेव-नमस्कृत सदा मेरी ठठरों की रक्षा करें, बध्न सदा कानों की रक्षा करें, प्रभाकर चरणों की रक्षा करें और ईश्वर विभाकर मेरे सर्वांग की निरन्तर रक्षा करें ॥ २८-२९ ॥ इति ते कथितं वत्स कवचं सुमनोहरम् । जगद्विलक्षणं नाम त्रिजगत्सु सुदुर्लभम् ॥ ३० ॥ हे वत्स ! इस प्रकार मैंने जगद्विलक्षण नामक कवच, जो अति मनोहर और तीनों लोकों में अति दुर्लभ है, तुम्हें बता दिया ॥ ३० ॥ पुरा दत्तं च मनवे पुलस्त्येन तु पुष्करे । मया दत्तं च तुभ्यं तद्यस्मै कस्मै न देहि भोः ॥ ३१ ॥ पूर्वकाल में पुष्कर क्षेत्र में पुलस्त्य ने यही मनु को दिया था और मैं तुम्हें दे रहा हूँ, अतः इसे जिस-किसी को मत देना ॥ ३१ ॥ व्याधितो मुच्यसे त्वं च कवचस्य प्रसादतः । भवानरोगी श्रीमांश्च भविष्यति न संशयः ॥ ३२ ॥ इस कवच के प्रसाद से तुम रोगमुक्त और श्रीमान् हो जाओगे, इसमें संशय नहीं ॥ ३२ ॥ लक्षवर्षहविष्येण यत्फलं लभते नरः । तत्फलं लभते नूनं कवचस्यास्य धारणात् ॥ ३३ ॥ एक लाख वर्ष तक हविष्य भक्षण करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह इस कवच के धारण मात्र से निश्चय प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो मूढो भास्करं यजेत् । दशलक्षप्रजप्तोऽपि मन्त्रसिद्धिर्न जायते ॥ ३४ ॥ जो मूर्ख इस कवच को बिना जाने भास्कर की पूजा-आराधना करता है, दश लाख जप करने पर भी उसकी मंत्रसिद्धि नहीं होती है ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच धृत्वेदं कवचं वत्सौ कृत्वा च स्तवनं रवेः । युवां व्याधिविनिर्मुक्तौ निश्चितं तु भविष्यथ ॥ ३५ ॥ स्तवनं सामवेदोक्तं सूर्यस्य व्याधिमोचनम् । सर्वपापहरं सारं धनारोग्यकरं परम् ॥ ३६ ॥ ब्रह्मा बोले-हे वत्स ! इस कवच को धारण कर सूर्य की स्तुति करने से तुम लोग निश्चित रोगमुक्त हो जाओगे । सामवेदानुसार सूर्य का व्याधिमोचन नामक स्तोत्र है, जो समस्त पापहारी, समस्त का सारभाग, एवं धन-आरोग्यकारी है ॥ ३५-३६ ॥ ब्रह्मोवाच तं ब्रह्म परमं धाम ज्योतीरूपं सनातनम् । त्वामहं स्तोतुमिच्छामि भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ३७ ॥ ब्रह्मा बोले-उस परमधाम ब्रह्म की, जो ज्योतिरूप, सनातन और भक्तों पर अनुग्रह करने वाला है, स्तुति करना चाहता हूँ ॥ ३७ ॥ त्रैलोक्यलोचनं लोकनाथं पापविमोचनम् । तपसां फलदातारं दुःखदं पापिनां सदा ॥ ३८ ॥ वे तीनों लोकों के नेत्र, लोकपति, पाप से मुक्त करने वाले, तप के फल देने वाले और पापियों को सदा दु:ख देने वाले हैं ॥ ३८ ॥ कर्मानुरूपफलदं कर्मबीजं दयानिधिम् । कर्मरूपं क्रियारूपमरूपं कर्मबीजकम् ॥ ३९ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशानामंशं च त्रिगुणात्मकम् । व्याधिदं व्याधिहन्तारं शोकमोहभयापहम् ॥ सुखदं मोक्षदं सारं भक्तिदं सर्वकामदम् ॥ ४० ॥ सर्वेश्वरं सर्वरूपं साक्षिणं सर्वकर्मणाम् । प्रत्यक्षं सर्वलोकानामप्रत्यक्षं मनोहरम् ॥ ४१ ॥ शश्वद्रसहरं पश्चाद्रसदं सर्वसिद्धिदम् । सिद्धिस्वरूपं सिद्धेशं सिद्धानां परमं गुरुम् ॥ ४२ ॥ कर्मों के अनुरूप फल प्रदायक, कर्म के बीज, दया-निधान, कर्मरूप, क्रियारूप, अरूप, कर्मों के बीज ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के अंश, त्रिगुणस्वरूप, व्याधिप्रद, व्याधिहन्ता, शोक, मोह तथा भय के नाशक, मुखदायक, मोक्षप्रद, सारभाग, भक्तिप्रद, समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाले सर्वेश्वर सर्वरूप, समस्त कर्मों के साक्षी, सभी लोगों के लिए प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, मनोहर, निरन्तर रसहरण करने वाले, पश्चात् रसप्रदायक, सम्पूर्णसिद्धिदाता, सिद्धिस्वरूप, सिद्धेश एवं सिद्धों के परम गुरु हैं ॥ ३९-४२ ॥ स्तवराजमिमं प्रोक्तं गुह्याद्गुह्यतरं परम् । त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं व्याधिभ्यः स प्रमुच्यते ॥ ४३ ॥ मैंने गुह्य से गुह्यतर यह स्तवराज तुम्हें बता दिया । तीनों संध्याओं में जो नित्य इसका पाठ करेगा वह व्याधियों से मुक्त रहेगा ॥ ४३ ॥ आन्ध्यं कुष्ठं च दारिद्र्यं रोगः शोको भयं कलिः । तस्य नश्यति विश्वेश श्रीसूर्यकृपया ध्रुवम् ॥ ४४ ॥ उसका अन्धापन, कुष्ठ, दरिद्रता, रोग, शोक, भय और कलि आदि विश्वेश्वर (श्री सूर्य) की कृपा से निश्चित नष्ट हो जाएंगे ॥ ४४ ॥ महाकुष्ठी च गलितो चक्षुर्हीनो महाव्रणी । यक्ष्मग्रस्तो महाशूली नानाव्याधियुतोऽपि वा ॥ ४५ ॥ मासं कृत्वा हविष्यान्नं श्रुत्वाऽतो मुच्यते ध्रुवम् । स्नानं च सर्वतीर्थानां लभते नात्र संशयः ॥ ४६ ॥ महाकुष्ठी, गलित रोगी, अन्धा, महाव्रणी (घाव वाले), यक्ष्मा (तपेदिक) से पीड़ित, महाशूल का रोगी तथा अनेक भाँति के रोगों से युक्त भी एक मास तक हविष्यान्न-मक्षण और इसके श्रवण करने से निश्चित रोग-मुक्त हो जाएगा और समस्त तीर्थों के स्नान का फल भी उसे प्राप्त होगा, इसमें संशय नहीं ॥ ४५-४६ ॥ पुष्करं गच्छतं शीघ्रं भास्करं भजत सुतौ । इत्येवमुक्त्वा स विधिर्जगाम स्वालयं मुदा ॥ ४७ ॥ इसलिए हे पुत्रो ! तुमलोग शीघ्र पुष्कर को जाओ और भास्कर की आराधना करो । इतना कहकर ब्रह्मा सुप्रसन्न मन से अपने लोक को चले गये ॥ ४७ ॥ तौ निषेव्य दिनेशं तं नीरुजौ संबभूवतुः । इत्येवं कथितं वत्स किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४८ ॥ हे वत्स ! इस प्रकार वे दोनों दिनेश्वर सूर्य की आराधना करके नीरोग हो गये, यह कथा मैंने तुम्हें सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४८ ॥ सर्वविघ्नहरं सारं विघ्नेशं विघ्ननाशनम् । स्तोत्रेणानेन तं स्तुत्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४९ ॥ समस्त विघ्नों के नाशक, सार भाग, विघ्नेश तथा विघ्ननाशक उन सूर्य की इस स्तोत्र द्वारा स्तुति करने पर अवश्य रोगमुक्त हो जाता है ॥ ४९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विघ्नकारणकथनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में विघ्नकारण-कथन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ १९ ॥ |