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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - विंशोऽध्यायः


गणपतेर्गजास्ययोजनाहेतुकथनम् -
गणेश को गजमुख जोड़ने का कारण -


नारद उवाच
हरेरंशसमुत्पन्नो हरितुल्यो भवान्धिया ।
तेजसा विक्रमेणैव मत्प्रश्न श्रोतुमर्हसि ॥ १ ॥
नारद बोले-आप भगवान् के अंश से उत्पन्न एवं बुद्धि, तेज और विक्रम में उन्हीं के समान हैं, अतः मेरा प्रश्न सुनने की कृपा करें ॥ १ ॥

विघ्ननिघ्नस्य यद्विघ्नं श्रुतं तत्परमाद्‌भुतम् ।
तद्विघ्नकारणं चैव विश्वकारणवक्त्रतः ॥ २ ॥
अधुना श्रोतुमिच्छामि स्वात्मसंदेहभञ्जनम् ।
त्रैलोक्यनाथतनये गजास्ययोजनार्थकम् ॥ ३ ॥
स्थितेष्वन्येषु बहुषु जन्तुष्वज्जभुवः पते ।
सुप्राणिनां सुरूपेषु नानारूपेषु रूपिणाम् ॥ ४ ॥
मैंने विघ्ननाशक (गणेश) की परमाद्भुत विघ्नकथा सुन ली और विश्व के कारण (भगवान्) के मुख से उस विघ्न का कारण भी सुन लिया है । तीनों लोकों के स्वामी शंकर के पुत्र को (गणेश के धड़ पर) जो हाथी का मुख जोड़ा गया है, मुझे सन्देह है । अतः उसके निवारणार्थ मैं इस समय वही सुनना चाहता हूँ । हे ब्रह्मपते ! अन्य अनेक जीव-जन्तुओं और अनेक भांति के उत्तम प्राणियों के विभिन्न प्रकार के सुन्दर रूपों के रहते हाथी का ही मुख उनके धड़ पर क्यों जोड़ा गया ॥ २-४ ॥

नारायण उवाच
गजास्ययोजनायाश्व कारणं शृणु नारद ।
गोप्यं सर्वपुराणेषु वेदेषु च सुदुर्लभम् ॥ ५ ॥
नारायण वोले-हे नारद ! हाथी का मुख, जो (उनके धड़ पर) जोड़ा गया है, वह रहस्यमय है, समस्त पुराणों और वेदों में अतिदुर्लभ है, मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ५ ॥

तारणं सर्वदुःखानां कारणं सर्वसंपदाम् ।
हारणं विपदां चैव रहस्यं पापमोचनम् ॥ ६ ॥
महालक्ष्म्याश्च चरितं सर्वमङ्‌गलमःङ्‌गलम् ।
सुखदं मोक्षदं चैव चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ ७ ॥
शृणु तात प्रवक्ष्येऽहमितिहासं पुरातनम् ।
रहस्यं पाद्मकल्पस्य पुरा तातमुखाच्छ्रुतम् ॥ ८ ॥
वह समस्त दुःखों से पार करने वाला, समस्त सम्पत्तियों का कारण, विपत्तिनाशक, रहस्यमय एवं पाप से मुक्त करने वाला है । महालक्ष्मी का भी चरित, समस्त मंगलों का मंगल, सुखदायक, मोक्षप्रद और चारों वर्ग (धर्म अर्थ, काम एवं मोक्ष) का फल देनेवाला है । हे तात ! मैं तुम्हें पाद्मकल्प का एक प्राचीन इतिहास सुना रहा हूँ, जो रहस्यमय है और जिसे पूर्वकाल में । मैंने पिता के मुख से सुना था ॥ ६-८ ॥

एकदैव महेन्द्रश्च पुष्पभद्रा नदीं ययौ ।
महासपन्मदोन्मत्तः कामी राजश्रियाऽन्वितः ॥ ९ ॥
एक बार महेन्द्र ने पुष्पभद्रा नदी की यात्रा की । वे उस समय महालक्ष्मी के मद से उन्मत्त, राज-लक्ष्मीसम्पन्न एवं कामी थे ॥ ९ ॥

परततीरेऽतिरहःस्थाने पुष्पोद्याने मनोहरे ।
अतीव दुर्गमेऽरण्ये सर्वजन्तुविवर्जिते ॥ १० ॥
उस नदी के तीर पर एकान्त स्थान में फुलवारो थी, जो मनोहर और अति दुर्गम जंगल में थी तथा जहाँ कोई जीवजन्तु नहीं रहता था ॥ १० ॥

भ्रमरध्वनिसंयुक्ते पुंस्कोकिलरुतश्रवे ।
सुगंधिपुष्पसंश्लिष्टवायुना सुरभीकृते ॥ ११ ॥
ददर्श रम्भां तत्रैव चन्द्रलोकात्समागताम् ।
सुरतश्रमविश्रान्तिकामुकीं कामकामुकीम् ॥ २२ ॥
वहाँ भौरों की गुजार एवं कोकिलकण्ठ की मधुरध्वनि सुनायी पड़ती थी । सुगन्धित पुष्पों से मिली हुई वायु द्वारा वह उद्यान अतिसुगन्धित था । उन्होंने वहीं रम्भा को देखा, जो चन्द्रलोक से सुरत-श्रम को दूर करने के लिए आयी थी और कामुकी थी ॥ ११-१२ ॥

इच्छन्तींमीप्सिता क्रीडां गच्छन्तीं मदनाश्रमम् ।
एकाकिनीमुन्मनस्कां मन्मथोद्‌गतमानसाम् ॥ १३ ॥
अपनी यथेच्छ क्रीड़ा के लिए वह कामदेव के गृह जा रही थी । (इसलिए) वह अकेली, उन्मन तथा कारपीडित चित्त वाली थी । ॥ १३ ॥

सुश्रोणीं सुदतीं श्यामां बिम्बाधरसरोरुहाम् ।
बृहन्नितम्बभारार्तां मत्तवारणगामिनीम् ॥ १४ ॥
उसका सुन्दर श्रोणीभाग था, सुन्दर दाँतों की पंक्तियाँ थीं एवं वह स्वयं श्यामा (सोलह वर्ष की युवती) थी । उसके खिले कमल की भांति अधर-बिम्ब थे और वह बृहत् नितम्ब के भार को सम्हालने में दुःखी हो रही थी तथा मतवाले हाथी की भांति मन्दगति मे चल रही था ॥ १४ ॥

सस्मितास्यशरच्चन्द्रां सुकटाक्षं च बिभ्रतीम् ।
बिभ्यतीं कबरीं रम्यां मालतीमाल्यशोभिताम् ॥ १५ ॥
मन्दहास समेत उगका मुख वारदीय चन्द्रमा के समान था । वह तीखी आँखों की कोर से देखने वाली, सुन्दर केशपाश वाली, रमणीय और मालती माला से सुशोभित थी ॥ १५ ॥

वह्निशुद्धांशुकधरां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
कस्तूरीबिन्दुना सार्धं सिन्दूरं बिह्रतीं मुदा ॥ १६ ॥
नीलोत्पलदलश्यामकज्जलोज्ज्वललोचनाम् ।
मणिकुण्डलयुग्माढ्यगण्डस्थलविराजिताम् ॥ १७ ॥
अत्युन्नतं सुकठिन पत्रराजिविराजितम् ।
सुखदं रसिकानां स्तनयुग्मं न बिभ्रतीम् ॥ १८ ॥
सर्वसौभाग्यवेषाढ्यां सुभगां सुरतोसुत्काम् ।
प्राणाधिकां च देवानां स्वच्छां स्वच्छन्दगामिनीम् ॥ १९ ॥
वरामप्सरसां रम्यामतीव स्थिरयौवनाम् ।
गुणरूपवतीं शान्तां मुनिमानसमोहिनीम् ॥ २० ॥
दृष्टा तामतिवेषाढ्यां तत्कटाक्षेण पीडितः ।
इन्द्रोऽतीन्द्रियचापल्यात्प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ २१ ॥
बहमिविशुद्ध वस्त्रों से मुज्जित, रत्नों के भूषणों से भाषत, कस्तुरी बिन्दी समेत सिन्दूर की बिंदी धारा किये, नाल कमल दल की भाँति श्यामल और कजरारे उज्ज्वल नेत्र वाली, मणि के युगल कुण्डलों से सुशोभित गए डस्थल वाली तथा अति उन्नत एवं सुकटिम' स्तन युगलों से विराजमान थी । जो स्तनद्वय पत्रराजि (कामकला) से सुशोभित एवं रमिकों के लिए सुखप्रद था । ऐसा सुन्दरी को देखकर, जो समस्त शोभास्वरूप, उत्तम वेष की रचना से युक्त, सुभग, सुरक्षा के लिए उत्सुक, देवों की प्राणप्यारी, स्वच्छ, स्वच्छन्द विचरने वाली, अप्सराओं में श्रेष्ठ, अतीव रम्या, स्थापी यौवन वाली, गुणरूप भूषित, शान्त एवं मुनिजनों के चित्त को मोहित करने वाली थी, इन्द्र उसके फटाक्ष से गमाहित हो गये और इन्द्रियों की चपलतावश उन्होंने उससे कहना भी आरम्भ किया ॥ १६-२१ ॥

इन्द्र उवाच
क्व गच्छसि वरारोहे क्व गताऽसि मनोहरे ।
मया दृष्टा हि सुचिरात्कल्याणि सुभगेऽधुना ॥ २२ ॥
दन्द्र बोले- हे वरारोहे ! कहाँ जा रही हो । हे मनोहरे ! कहाँ गयी थी । हे कल्याणि, हे सुभगे ! मैंने बहुत दिनों पर आज तुम्हें देखा है ॥ २२ ॥

तवान्वेषणकर्ताऽहं श्रुत्वा वाचिकवक्त्रतः ।
त्वय्यासक्तमनाश्चास्मि नान्या वै गणयामि च ॥ २३ ॥
मैं तुम्हारी ही खोज कर रहा हूँ । मैं दूत के मुख से तुम्हारे विषय में सुन चुका हूँ, इस लिए मेरा मन तुम्हीं में आसक्त है अन्य और किसी को नहीं चाहता ॥ २३ ॥

सुवासितजलार्थी य किमिच्छेत्पङ्‌किलं जलम् ।
पङ्‍कं नेच्छेच्चन्दनार्थी पङ्‍कजार्थी न चोत्पलम् ॥ २४ ॥
क्योंकि सुवासित जल चाहने वाला क्या कभी पंकिल (गेंदले-जल) की इच्छा करता है ? (नहीं) और चन्दन चाहने वाला कीचड़ नहीं चाहता, तथा पंकज (कमल) चाहने वाला उत्पल (कुंई) नहीं चाहता ॥ २४ ॥

सुधार्थी न सुरामिच्छेद्‌दुग्धार्थी नाऽऽविलं जलम् ।
सुगन्धिपुष्पशायी यो ह्यस्त्रतल्प न चेच्छति ॥ २५ ॥
अमृत का इच्छुक, सुरा (मद्य) नहीं चाहता, दुग्ध का इच्छुक मटमैला जल नहीं चाता । सुगन्धित पुप्पों पर शयन पारने वाला अस्त्र की शय्या नहीं चाहता ॥ २५ ॥

स्वर्गी च नरकं नेच्छेत्सुभोगी दुष्टभोजनम् ।
पण्डितैः सह संवासी नेच्छेत्स्त्रीसंनिधिं नरः ।
विहाय रत्‍नाभरणं कोऽपीच्छेल्लोहभूषणम् ॥ २६ ॥
उसी भांति स्वर्ग का इच्छुक नरक नहीं चाहता, उत्तम भोगी दुष्ट भोजन की कचि नहीं करना, पण्डितों के माथ रहने वाला स्त्रियों का सम्पर्क नहीं चाहता । भला रत्नों के आभूषण त्याग कर लोहे का भूषण कौन चाहेगा ? ॥ २६ ॥

त्वां नाऽऽश्लिष्य महाविज्ञांको मूढो गन्तुमिच्छति ।
विहाय गङ्‌गां को विज्ञो नदीमन्यां च वाञ्छति ॥ २७ ॥
इन्द्रियैश्चेन्द्रियरतिं वर्धयन्ती पदे पदे ।
वरं प्रार्थयितारश्च प्राणिनश्च सुखार्थिनः ॥ २८ ॥
तुम महानिपुण का आलिंगन न करके कौन मूर्ख जाना चाहेगः ? क्योंकि कौन बुद्धिमान् गंगा को त्याग कर अन्य नदी की इच्छा करता है? तुम सुख चाहने वाले तथा प्रार्थना करने वाले प्राणी को पग-पग पर अपनी इन्द्रियों द्वारा इन्द्रियरति बढ़ाती हो ॥ २७-२८ ॥

इत्येवमुक्त्वा मघवानवरुह्य गजेश्वरात् ।
कामयुवतश्च पुरतस्तस्थौ तस्याश्च नारद ॥ २९ ॥
हे नारद ! इतना कहकर भगवान् महेन्द्र गजराज से उतर कर काम-भावना से उसके सामने खड़े हो गये ॥ २९ ॥

धुत्वा तद्वचनं रम्भा महाशृङ्‌गारलोलुपा ।
जहासाऽऽनम्रवदना पुलकाञ्चितविग्रहा ॥ ३० ॥
महाशृंगार का लोभ करने वाली रम्भा उनकी बातें सुनकर नीचे मुख किये हँस पड़ी । उस समय उसके शरीर में रोमाञ्च हो रहा था ॥ ३० ॥

स्मेराननकटाक्षेण स्तनोर्वोर्दर्शनेन च ।
नर्मोक्तिगर्भवाक्येन चाहरत्तस्य चेतनाम् ॥ ३१ ॥
हँसमुख कटाक्ष से तथा स्तनों और जाँघों को दिखाकर एवं परिहास की बातों से उनके मन को अपने अधीन कर लिया ॥ ३१ ॥

मितं सारं सुमधुरं सुस्निग्धं कोमलं प्रियम् ।
पुरुषायत्तबीजं च प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ३२ ॥
और मित (अल्प) सार (तत्त्व), अति मधुर, सुस्निग्ध, कोमल प्रिय एवं पुरुषों को अपने अधीन करने वाली बातें भी कहना आरम्भ किया ॥ ३२ ॥

रम्भोवाच
यास्यामि वाञ्छितं यत्र प्रश्नेन तव किं फलम् ।
नाहं संतोषजननी धूर्तानां दुष्टमित्रता ॥ ३३ ॥
रम्भा बोली...--जहाँ की इच्छा है, यहाँ जाऊँगी । तुम्हें पूछने से क्या लाभ ? मैं तुम्हारे संताप का कार्य नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि धूर्तो की मित्रता अच्छी नहीं होती है ॥ ३३ ॥

यथा मधुकरो लोभात्सर्वपुष्पासवं लभेत् ।
स्वादु यत्रातिरिक्तं स तत्र तिष्ठति संततम् ॥ ३४ ॥
जि प्रकार भौंरा लोभवश सभी पुष्पों के रस को लेता है किन्तु जहाँ सबसे अधिक स्वाद मिलता है, वहीं निरन्तर रस्ता है ॥ ३४ ॥

तथैव कामुकी लोके भ्रमेद्‌भ्रमरवत्सदा ।
चाञ्चल्यात्स हि कास्वेव वायुवद्‍रसमाहरेत् ॥ ३५ ॥
उसी प्रकार कामको स्त्रियाँ भी भौंरे की भाँति सदैव लोक में विचरण करती रहती हैं । किन्तु वह (पुरुष) अपनो चञ्चलतावश वायु की भाँति किन्हीं का रस (आनन्द) लेता है ॥ ३५ ॥

सुपुमानङ्‍गवत्स्त्रीणां यथा शाखाश्च शाखिषु ।
कामुकी काकवल्लोलः फलं भुक्त्वा प्रयाति च ॥ ३६ ॥
वृक्षों में शाखा की भांति सुन्दर पुरुष को सुन्दरियों के अंगस्वरूप होते हैं । कामुको स्त्री कौवे के समान चपल होती है-फल (रस) का उपभोग किया और चलती बनी ॥ ३६ ॥

स्वकार्यमुऽद्धरेयावत्तावद्‍वासप्रयोनम् ।
स्थितिः कार्यानुरोधेन यथा काष्ठे हुताशनः ॥ ३७ ॥
जब तक अपना कार्य रहता है तभी तक निवास का प्रयोजन रहता है । क्योंकिः काष्ठ (लकड़ी) में स्थित अग्नि की भाँति वह भी कार्यानुरोधवश ही स्थित रहता है ॥ ३७ ॥

यावत्तडागे तोयानि तावद्यादांसि तेषु च ।
शोषारम्भे च तोयानि यान्ति स्थानान्तरं पुनः ॥ ३ ८ ॥
तालाब में जब तक जल रहता है, उसके जीव-जन्तु तभी तक वहाँ रहते हैं और जब जल सूखने लगता है तो वे दूपरे स्थान पर चले जाते हैं ॥ ३८ ॥

त्वं देवानामीश्वरोऽसि कामिनीनां च वाञ्छितः ।
पुमांसं रसिकं शश्वद्वाञ्छन्ति रसिकाः सुखात् ॥ ३९ ॥
युवानं रसिकं शान्तं सुवेषं सुन्दरं प्रियम् ।
गुणिनं धनिनं स्वच्छं कान्तमिच्छति कामिनी ॥ ४० ॥
दुःशीलं रोगिणं वृद्धं रतिशक्तिवियोजितम् ।
अदातारमविज्ञं च नैव वाञ्छन्ति योषितः ॥ ४ १ ॥
तुम देवताओं के अधीश्वर हो, कामिनियों के मनचाहे मनोरथ हो और रसौली स्त्रियाँ रसिक पुरुष को हो सुख के लिए निरन्तर चाहती हैं । कामिनी स्त्री युवा, रसिक, शान्त, उत्तम वेष-भूषा वाला, सुन्दर, प्रिय, गुणी, धनी और स्वच्छ कान्त चाहती है । दुष्ट स्वभाव वाले, वृद्ध, रति-शक्तिहीन, अपाता और मूर्ख को स्त्रियाँ कभी नहीं चाहतीं ॥ ३९-४१ ॥

का मूढा न च वाञ्छन्ति त्वामेव गुणसागरम् ।
तवाऽऽज्ञाकारिणीं दासीं गृहाणात्र यथा सुखम् ॥ ४२ ॥
इसलिए कौन ऐसी मूर्खा होगा, जो तुम्हारे ऐसे गुणनागर को न वानी हो । मैं तुम्हारी आज्ञा पालन करने वाली दासी हूँ, तुम्हें जिस प्रकार सुख मिले, दासी से सेवा ले सकते हो ॥ ४२ ॥

इत्युक्त्वा सस्मिता सा च तं पपौ वक्रचक्षुषा ।
कामाग्निदग्धा विगलल्लज्जा तस्थौ समीपतः ॥ ४३ ॥
इतना कहकर उसने मन्द मुसुकाती हुई अपनो तिर्की आंखों से उन्हें देखा । वह उस समय कामाग्नि से जल रही थी और उसी कारण निर्लज्ज भी हो रही थी । वह उनके समीप अवस्थित हुई ॥ ४३ ॥

ज्ञात्वा भावं स्मरातायाः स्मरशास्त्रविशारदः ।
गृहीत्वा तां पुष्पतल्पे विजहार तया सह ॥ ४४ ॥
कामशास्त्र के निपुण विद्वान् इन्द्र ने उस कामपोड़ित का भाव समझ कर उसे पकड़ लिया और पुष्प-शय्या पर उसके साथ विहार करने लगे ॥ ४४ ॥

चुचुम्ब रहसि प्रौढा नग्नां च सुभगां वराम् ।
पक्वबिम्बाधरौष्ठीं च सुदत्या चुम्बितस्तया ॥ ४५ ॥
एकान्त स्थान में नग्न, श्रेष्ठ सुन्दरी तथा पके विम्बाफल के समान अवर और सुन्दर दाँतों को पंक्तियों वाली उस पौड़ा का चम्बन किया और वह भी उन्हें चूमने लगी ॥ ४५ ॥

नानाप्रकारशृङ्‍गारान्विपरीतादिकान्मुने ।
चकार कामी तत्रैव शृङ्‌गारो मूर्तिमानिव ॥ ४६ ॥
हे मने ! विपरीतादि अनेक प्रकारके शृंगार रस के उपभोग से वे बहुत सुखी हुए, जो स्वयं मूर्तिमान् शृंगार को मांति दिखायी देते थे ॥ ४६ ॥

तौ कामाहितदित्तौ नो बुबुधाते दिवानिशम् ।
अन्योन्यगतचित्तौ च कामार्तौ ज्ञानवर्जितौ ॥ ४७ ॥
वे दोनों सुरत-कीड़ा में इतने निमग्न थे कि उन्हें दिनरात का ज्ञान नहीं रह गया था, वे कामपीड़ित होकर एक दूसरे को सदैव चाहते थे उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं रह गया था ॥ ४७ ॥

स च कृत्वा स्थले क्रीडां तया सह सुरेश्वरः ।
ययौ जलविहारार्थं पुष्पभद्रानदीजलम् ॥ ४८ ॥
सुरेश्वर इन्द्र उसके पाय स्थल पर कोड़ा करके पुनः जलविहार करने के लिए पुष्पभद्रानदी में प्रविष्ट हो गये ॥ ४८ ॥

स चकार जलक्रीडां तया सह मुदा क्षणम् ।
जलात्स्थले स्थलात्तोये विजहार पुन पुनः ॥ ४९ ॥
उन्होंने अतित्रपन्न हो कर उसके साथ जलविहार दिया और पुन: जल से निकलकर स्थल पर तथा स्थल से जाकर जल में उसके साथ बार-बार रतिक्रीड़ा पारने लगे ॥ ४९ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तेन वर्त्मना मुनिपुंगवः ।
सशिष्यो याति दुर्वासा वैकुण्ठाच्छंकरालयम् ॥ ५० ॥
इस वीच मुनिश्रेष्ठ दुर्वामा अपने शिष्यों समेत उसी मार्ग से, वैकुण्ठ से कैलास जा रहे थे । ॥ ५० ॥

तं च दृष्ट्‍वा मुनीन्द्रं च देवेन्द्रः स्तब्धमानसः ।
ननामाऽऽगत्य सहसा ददौ तस्मै सचाऽऽशिषः ॥ ५१ ॥
उग नमय मुनीन्द्र दुर्वामा को देखकर देवराज इन्द्र एकदमस्तब्धचित्त हो गये । पुनः सहसा आकर उन्हें प्रणाम किया और मुनि ने उन्हें शुभाशिष प्रदान किया ॥ ५१ ॥

पारिजातप्रसूनं यद्दत्तं नारायणेन वै ।
तच्च दत्तं महेन्द्राय मुनीन्द्रेण महात्मना ॥ ५२ ॥
महात्मा दुर्वासा ने पारिजात पुष्प महेन्द्र को दे दिया, जिसे नारायण ने उन्हें दिया था । ॥ ५२ ॥

दत्त्वा पुष्पं महाभागस्तमुवाच कृपानिधिः ।
माहात्म्यं तस्य यत्किंचिदपूर्वं मुनिसत्तमः ॥ ५३ ॥
महाभाग एवं कृपानिधान मुनिश्रेष्ठ ने पुष्प देकर उसका कुछ माहात्म्य भी उन्हें बतलाया, जो अपूर्व था ॥ ५३ ॥

दुर्वासा उवाच
सर्वविघ्नहरं पुष्पं नारायणनिवेदितम् ।
मूर्ध्नीदं यस्य देवेन्द्र जयस्तस्यैव सर्वतः ॥ ५४ ॥
दुर्वासा बोले-हे देवेन्द्र ! भगवान् का दिया हुआ यह मर्वविघ्ननाशक पुष्प जिसके शिरस्थान पर रहेगा, चारों ओर से उसी का जय होगा ॥ ५४ ॥

पुरः पूजा च सर्वेषां देवानामग्रणीर्भवेत् ।
तच्छायेव महालक्ष्मीर्न जहाति कदाऽपि तम् ॥ ५५ ॥
गब लोगों के पहले उसकी पूजा होगी और वह देवों में अग्रणी होगा । तथा उसको छाया की भाँति महालक्ष्मी उनका त्याग कभी नहीं करेगी ॥ ५५ ॥

ज्ञानेन तेजसा बुद्ध्या विक्रमेण बलेन च ।
सर्वदेवाधिकः श्रीमान्हरितुल्यपराक्रमः ॥ ५६ ॥
ज्ञान, तेज, बुद्धि, विक्रम, बल में वह सभी देवों से अधिक, श्रीमान् एवं विष्णु के समान पराक्रमी होगा ॥ ५६ ॥

भक्त्या मूर्ध्नि न गृह्णाति योऽहंकारेण पामरः ।
नैवेद्यं च हरेरेव स भ्रष्टश्रीः स्वजातिभिः ॥ ५७ ॥
जो पामर (नोच) अहंकार वश भगवान् के इस नैवेद्य-पुष्ण की भक्तिपूर्वक शिर पर धारण न करेगा, वह अपनी जाति से भ्रष्ट होकर श्राहोन हो जायगा ॥ ५७ ॥

इत्युक्त्वा शंकरांशश्च ह्यगमच्छंकरालयम् ।
तत्स रम्भान्तिके तिष्ठञ्चिक्षेप गजमस्तके ॥ ५८ ॥
तेन भष्टश्रियं दृष्ट्‍वा सा जगाम सुरालयम् ।
पुंश्चली योग्यमिच्छन्ती नापरं चञ्चलाऽधमा ॥ ५९ ॥
इतना कहकर दुर्गा शंकर के घर चले गये । अनन्तर रंभा के समीप रहते इन्द्र ने उस माला को गजराज के मस्तक पर फेंक दिया, जिनसे वे तुरन्त श्रीहत हो गये और उस अवस्था में उन्हें देखकर रम्भा भो स्वर्ग चले गयो, कोकि यह रचलो, चञ्चल और अव होने के नाते अपने समान है । पुरुप को चाहती यो, अन्य को नहीं ॥ ५८-५९ ॥

देवराजं परित्यज्य गजराजो महाबली ।
प्रविवेश महारण्यं तं निक्षिप्य स्वतेजसा ॥ ६० ॥
तत्रैव करिणीं प्राप्य मत्तः संबुभुजे बलात् ।
साऽतो बभूव वशगा योषिज्जातिः सुखार्थिनी ॥ ६१ ॥
तयोर्बभूवापत्यानां निवहस्तत्र कानने ।
हरिस्तन्मस्तकं छित्त्वा योजयामास बालके ॥ ६२ ॥
महाबलो गजराज ने भी देवराज इन्द्र का त्याग कर महारण्य में प्रवेश किया और मदमत्त होने के नाते अपने तेज द्वारा उन्हें गिगार वह किसी पिना के साथ बलात् उपयोग करने लगा । स्त्री जाति की होने से वह सुखार्थिनी हथिना उस गजराज के वशीभूत हो गयी । 'उस जंगल में उन दोनों को संतानों का समूह हो गया । भगवान् ने उसी गजराज का मस्तक काट कर उस बालक (गणेश) के धड़ पर जोड़ दिया ॥ ६०-६२ ॥

इत्येवं कथितं वत्स किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
गजास्ययोजनायाश्च कारणं पापनाशनम् ॥ ६३ ॥
हे वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें गजमुख जोड़ने की पापनाशिनी कथा सुना दी और क्या सुनना चाहते हो ॥ ६३ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
गणपतेर्गजास्ययोजनाहेतुकथनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में गणपति के गजमुख जोड़ने का हेतु कथन नामक बीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २० ॥

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