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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकविंशोऽध्यायः


शक्रलक्ष्मीप्राप्तिः -
इन्द्र को पुनः लक्ष्मी की प्राप्ति -


नारद उवाच
ते देवा ब्रह्मशापेन निःश्रीकाः केन वा प्रभो ।
बभूवुस्तद्रहस्यं च गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥ १ ॥
कथं वा प्रापुरेते तां कमलां जगतां प्रसूम् ।
किं चकार महेन्द्रश्च तद्‌भुवान्वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥
नारद बोले-हे प्रभो ! किम ब्रह्म-शाप द्वारा देवता लोग श्रीहीन हो गये, यह गोपनीय और अतिदुर्लभ रहस्य बताने को कृपा करें तथा यह भी कहने का अनुग्रह करें कि इन्द्र आदि देवों को जगज्जननी लक्ष्मी किस प्रकार प्राप्त हुई और उसके पश्चात् इन्द्र ने क्या किया ॥ १-२ ॥

नारायण उवाच
गजेन्द्रेण पराभूतो रम्भया च सुमन्दधीः ।
भ्रष्टश्रीदैन्ययुक्तश्च स जगामामरावतीम् ॥ ३ ॥
नारायण बोले - महामर्ष इन्द्र गजराज और रम्भा द्वारा अपमानित होने पर श्रीहत एवं दीन-हीन होकर अमरावतो पुरी चले गये ॥ ३ ॥

तां ददर्श निरानन्दो निरानन्दां पुरीं मुने ।
दैन्यग्रस्तां बन्धुहीनां वैरिवगैः सभाकुलाम् ॥ ४ ॥
है मुने ! वहाँ पहुँचने पर दुःखी इन्द्र ने पुरी को भी आनन्द-रहित, दौलता से घिरी, बन्धुविहीन और शत्रुओं से आच्छन्न देखा ॥ ४ ॥

इति श्रुत्वा दूतमुखाज्जगाम गुरुमन्दिरम् ।
तेन देवगणैः सार्धं जगाम ब्रह्मणः सभाम् ॥ ५ ॥
दूत के मुख से भी वही उपर्युक्त बातें सुनकर उसे साथ लिए इन्द्र गुरु (बृहस्पति) के घर गये और वहाँ से बृहस्पति एवं देवों के साथ ब्रह्मा की सभा में गये ॥ ५ ॥

गत्वा ननाम तं शक्रः सुरैः सार्धं तथा गुरुः ।
तुष्टाव वेदवाक्यैश्च स्तोत्रेणापि च संयतः ॥ ६ ॥
इन्द्र और बृहस्पति ने देवों समेत वहां उन्हें नमस्कार किया और संयत भाव से वेदवाक्य एवं स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति को ॥ ६ ॥

प्रवृत्तिं कथयामास वाक्पतिस्तं प्रजापतिम् ।
श्रुत्वा ब्रह्मा नम्रवक्त्रः प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ७ ॥
अनन्तर बृहस्पति ने ब्रह्मा से समस्त समाचार कह सुनाया, जिसे सुनकर ब्रह्मा ने नीचे मख करके कहना आरम्भ किया ॥ ७ ॥

ब्रह्मोवाच
मत्प्रपौत्रोऽसि देवेन्द्र शश्वद्‍राजश्रिया ज्वलन् ।
लक्ष्मीसभः शचीभर्ता परस्त्रीलोलुपः सदा ॥ ८ ॥
ब्रह्मा बोले-हे देवेन्द्र ! तुम मेरे प्रपौत्र (परपोता) हो, निरन्तर राजश्री से विभूषित रहते हो और लक्ष्मी के समान गची के तुम पति हो, किन्तु फिर भी दूसरे को स्त्री के लिए सदा लालायित रहते हो ॥ ८ ॥

गौतमस्याभिशापेन भगाङ्‌गः सुरसंसदि ।
पुनर्लज्जाविहीनस्त्वं परस्त्रीरतिलोलुपः ॥ ९ ॥
देवसभा में गौतम जी के शाप देने में तुम्हारे मांग में भग है । भग हो गया था, किन्तु फिर भी तुम निर्लज्ज को परायी स्त्री के उपभोग का लोभ बना हो रहा ॥ ९ ॥

यः परस्त्रीषु निरतस्तस्य श्रीर्वा कुतो यशः ।
स च निन्द्यः पापयुक्तः शश्वत्सर्वसभासु च ॥ १० ॥
जो परायी स्त्रियों में सदा आवक्त रहता है, उसे लक्ष्मी और यश की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? वह निरन्तर पापी और सभी सभाओं (नमाजों) में निन्दा का पात्र होता है ॥ १० ॥

नैवेद्यं श्रीहरेरेव दत्तं दुर्वाससा च ते ।
गजमूर्ध्नि त्वया न्यस्तं रम्भयाऽऽहृतचेतसा ॥ ११ ॥
दुर्वासा जी ने तुम्हें भगवान् के प्रसाद रूप में माला दी थी, जिसे तुमने रम्भा द्वारा अपहृतचित्त होने के कारण हाथी के मस्तक पर डाल दिया ॥ ११ ॥

क्व सा रम्भा सर्वभोग्या क्वाधुना त्वं श्रिया हतः ।
सर्वसौख्यप्रदात्री त्वां गता त्यक्त्वा क्षणेन सा ॥ १२ ॥
अब गर्वभोग्या रम्भा कहाँ है और श्रीहत तुम कहाँ हो? समस्त सुख देने वाली वह रम्मा तुम्हें क्षणमात्र में छोड़ कर चली गयी ॥ १२ ॥

वेश्या सश्रीकमिच्छन्ती निःश्रीकं न च चञ्चला ।
नवं नवं प्रार्थयन्ती परिनिन्द्य पुरातनम् ॥ १३ ॥
वेश्याएँ चञ्चल स्वभाव की होती हैं-वे धीसम्पन्न की है । चाहती हैं, श्रीहीन को नहीं । वे पुराने को छोड़कर नित्य नये-नये को हूंढती हैं ॥ १३ ॥

यद्‌गतं तद्‌गतं वत्स निष्पन्नं न निवर्तते ।
भज नारायणं भक्त्या पद्मायाः प्राप्तिहेतवे ॥ १४ ॥
इत्युक्त्वा तं जगत्स्रष्टा स्तोत्रं च कवचं ददौ ।
नारायणस्य मन्त्रं च नाराणपरायणः ॥ १५ ॥
हे वत्म ! जो हुआ-सो हुआ, जो गया वह लौटेगा नहीं अतः लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए अब भक्तिपूर्वक नारायण की सेवा करो । इतना कहकर नारायण-परायण ब्रह्मा ने जगत्स्रष्टा भगवान् का स्तोत्र, कवच और मन्त्र उन्हें दिया ॥ १४-१५ ॥

स तैः सार्धं च गुरुणा ह्यजपन्मन्त्रमीप्सितम् ।
गृहीत्वा कवचं तेन पर्यष्टौत्पुष्करे हरिम् ॥ १६ ॥
देवों को साथ लिए वृहस्पति ने उस अभीष्ट मंत्र का जप किया और कवच ग्रहण कर इन्द्र ने पुष्कर क्षेत्र में भगवान् की स्तुति आरम्भ की ॥ १६ ॥

वर्षमेकं निराहारो भारते पुण्यदे शुभे ।
सिषेवे कमलाकान्तं कमलाप्राप्तिहेतवे ॥ १ ७ ॥
भारत के उस शुभ एवं पुण्यपद स्थान में उन्होंने एक वर्ष तक निराहार रहकर कमला की प्राप्ति के लिए कमलाकान्त भगवान् की सेवा की ॥ १७ ॥

आविर्भूय हरिस्तस्मै वाञ्छितं च वरं ददौ ।
लक्ष्मीस्तोत्रं च कवचं गन्त्रमैश्वर्यवर्धनम् ॥ १८ ॥
अनन्तर भगवान् ने प्रकट होकर उन्हें अभिलपिन वरदान, लक्ष्मी-स्तोत्र, कवच और ऐश्वर्यवर्द्धक मन्त्र प्रदान किया ॥ १८ ॥

दत्त्वा जगाम वैकुण्ठमिन्द्रः क्षिरोदमेव च ।
गृहीत्वा कवचं स्तुत्वा प्राप पद्मालया मुने ॥ १९ ॥
हे मने ! देकर भगवान काठ चले गये और इन्द्र ने क्षीरसागर में पहुँचकर कवच धारण किया तथा स्तुति के द्वारा लक्ष्मी को प्राप्ति की ॥ १९ ॥

सुरेश्वरोऽरि जित्वा वै ह्यलभच्चामरावतीम् ।
प्रत्येकं च सुराः सर्वे स्वालयं प्रापुरीप्सितम् ॥ २० ॥
इन्द्र ने शत्रु को जीतकर अभ रावती पुरी और प्रत्येक व ने अपने-अपने अभीष्ट स्थान की प्राप्ति की ॥ २० ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
शक्रलक्ष्मीप्राप्तिर्नामैकविशोंऽध्यायः ॥ २१ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपति खण्ड में नारद-नारायण-संवाद में इन्द्र की लक्ष्मी प्राप्ति कथन नामक इक्कीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २१ ॥

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