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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - द्वाविंशोऽध्यायः लक्ष्मीस्तवकवचपूजाकथनम् -
लक्ष्मी का स्तोत्र और कवच - नारद उचाव आविर्भूय हरिस्तस्मै किं स्तोत्रं कवचं ददौ । महालक्ष्म्याश्च लक्ष्मीशस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ १ ॥ नारद बोले-हे तपोधन ! लक्ष्मी के अधीश्वर भगवान् विष्णु ने वहाँ प्रकट होकर उन्हें महालक्ष्मी का कौन स्तोत्र और कवच प्रदान किया, बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ नारायण उवाच पुष्करे च तपस्तप्त्वा विरराम सुरेश्वरः । आविर्बभूव तत्रैव क्लिष्टं दृष्ट्वा हरिः स्वयम ॥ २ ॥ नारायण बोले-इन्द्र पृष्कर क्षेत्र में भगवान् की तपस्या कर रहे थे-उन्हें अति दुःखी देखकर भगवान् स्वयं वहाँ प्रकट हो गये ॥ २ ॥ तमुवाच हृषीकेशो वरं वृणु यथेप्सितम् । स च वव्रे वरं लक्ष्मीमीशस्तस्मै ददौ मुदा ॥ ३ ॥ भगवान् हृषीकेश ने उनसे कहा-यथेच्छ वरदान मांगो । उन्होंने लक्ष्मो की याचना की । भगवान् ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रदान किया ॥ ३ ॥ वरं दत्ता हृषीकेशः प्रवक्तुश्चपचक्रमे । हितं सत्यं च सारं च परिणामसुखावहम् ॥ ४ ॥ वर प्रदान करके भगवान् हृषीकेश ने उनसे कुछ कहना भी आरम्भ किया, जो हित, सत्य, सारभाग और परिणाम में सुखदप्रद था ॥ ४ ॥ मधुसूदन उवाच गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम् । परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम् ॥ ५ ॥ मधुसदन बोले-हे शक ! इस कवच को ग्रहण करो, जो समस्त दुःखों का नाशक, परम ऐश्वर्यप्रद एवं सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला है ॥ ५ ॥ ब्रह्मणे च पुरा दत्तं विष्टपे च जलप्लुते । यद्धृत्वा जगतां श्रेष्ठः सर्वैश्वर्ययुतो विधिः ॥ ६ ॥ समस्त जगत् के जलमग्न होने पर मैंने पहले समय में इसे ब्रह्मा को दिया, जिसे धारण कर ब्रह्मा सम्पूर्ण ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर संसार में श्रेष्ठ हो गये ॥ ६ ॥ बभवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुता यतः । सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य ऋषिर्विधिः ॥ ७ ॥ पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं पद्मालया वरा । सिद्ध्यैश्वर्यसुखेष्वेव विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ८ ॥ यद्धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी भवेत् । मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु हरिप्रिया ॥ ९ ॥ नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु लोचने । केशात्केशवकान्ता च कपालं कमलालया ॥ १० ॥ जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं संपत्प्रदा सदा । ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं पद्मालयायै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु । पातु श्रीर्मम कङ्कालं बाहुयुग्मं च ते नमः ॥ १२ ॥ सभी मनुगण समस्त ऐश्वर्य से सम्पन्न हो गये । सकल ऐश्वर्य के प्रदायक इस कवच के ब्रह्मा ऋषि, पंक्ति छन्द तथा स्वयं कमला श्रेष्ठ देवता है और सिद्धि, ऐश्वर्य तथा सुख के लिए इसका विनियोग होता है । इस कवच को धारण कर लोग सर्वत्र विजयी होते हैं । पद्मा मेरे मस्तक की रक्षा करें, हरिप्रिया कण्ठ को रक्षा करें, लक्ष्मी मेरी नासिका की रक्षा करें, कमला दोनों नेत्रों की रक्षा करें, केशवकान्ता केशों की, कमलालया कपाल की जगत्प्रसू युगल गण्डस्थल की और सम्पत्प्रदा दोनों कन्धों की सदा रक्षा करें । 'ओं श्री कमलवासिन्यै स्वाहा' सदा पीठ की "ओं ह्रीं श्रीं पद्मालया स्वाहा' सदा वक्षःस्थल की और श्री मेरे कंकाल तथा दोनों बाहुओं की रक्षा करें, तुम्हें नमस्कार है ॥ ७-१२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ पातु मे संततं चिरम् । ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा पातु नितम्बकम् ॥ १३ ॥ ॐ श्रीमहालक्ष्म्यै स्वाहा सर्वाङ्गं पातु मे सदा । ॐ श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मां पातु सर्वतः ॥ १४ ॥ 'ओं ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः' निरन्तर मेरे चरण की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं श्रीं नमः पद्माय स्वाहा' नितम्ब की और 'ओं श्री महालक्ष्म्य स्वाहा' मेरे सर्वाग की रक्षा करें । 'ओं ह्रीं श्रीं क्ली महालक्ष्म्यै स्वाहा' मेरी चारों ओर से रक्षा करे ॥ १३-१४ ॥ इति ते कथितं वत्स सर्वसंपत्करं परम् । सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ १५ ॥ हे वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें अद्भुत कवच सुना दिया, जो समस्त सम्पत्ति समेत सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करता है ॥ १५ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स सर्वविजयी भवेत् ॥ १६ ॥ महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन । तस्य च्छायेव सततं सा च जन्मनि जन्मनि ॥ १७ ॥ सविधि गुरु की अर्चना करके जो इस कवच को कण्ठ या दाहिने बाह में धारण करता है, वह सर्वत्र विजयी होता है । महालक्ष्मी उसके घर का त्याग कभी नहीं करती हैं और प्रत्येक जन्म में छाया की भांति उसके साथ रहती हैं ॥ १६-१७ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीं स मन्दधीः । शतलक्षप्रजापेऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ १८ ॥ किन्तु जो मूर्ख बिना कवच जाने लक्ष्मी की आराधना करेगा, उसके लिए, लाख जप करने पर भी मंत्र सिद्धिप्रद नहीं होगा ॥ १८ ॥ नारायण उवाच दत्त्वा तस्मै च कवचं मन्त्रं वै षोडशाक्षरम् । संतुष्टश्च जगन्नाथो जगतां हितकारणम् ॥ १९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै स्वाहा । ददौ तस्मै च कृपया चेन्द्राय च महामुने ॥ २० ॥ ध्यानं च सामवेदोक्तं गोपनीयं सुदुर्लभम् । सिद्धैर्मुनीन्द्रैर्दुष्प्राप्यं ध्रुवं सिद्धिप्रदं शुभम् ॥ २१ ॥ नारायण बोले- हे महामने ! भगवान जगन्नाथ ने इन्द्र को कवच देकर कृपया पुनः प्रसन्नतावश उन्हें षोडशाक्षर (सोलह अक्षरों वाला) मन्त्र भी प्रदान किया, जो समस्त जगत् का हितरक्षक है-'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै स्वाहा' इस मंत्र के साथ उन्होंने सामवेदोक्त ध्यान भी बताया, जो गोपनीय, अतिदुर्लभ, सिद्धों और मुनिवरों से दुष्प्राप्य तथा निश्चित ही सिद्धि का दायक एवं शुभ है ॥ १९-२१ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभां शतचन्द्रसमप्रभाम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २२ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् । कस्तूरीबिन्दुमध्यस्थं सिन्दूरं भषणं मया ॥ २३ ॥ अमूल्यरत्नरचितकुण्डलोज्ज्वलभूषणम् । बिभ्रती कबरीभारं मालतीमाल्यशोभितम् ॥ २४ ॥ सहस्रदलपद्मस्थां स्वस्थां च सुमनोहराम् । शान्तां च श्रीहरेः कान्तां ता भजेज्जगतां प्रसूम् ॥ २५ ॥ श्वेत चम्पा के समान रूपरंग वाली, चन्द्रमा की भांति प्रभा (कान्ति) वाली, अग्निविशुद्ध वस्त्र से सुसज्जित, रत्नों के भूषणों से भूषित, मन्दहास समेत प्रसन्नतापूर्ण मुख व.ली, भक्तों पर कृपा करने वाली, सहस्रदल वाले कमल पर आसीन, स्वस्थ, अति मनोहर, शान्त, श्रीहरिकी प्रिया तथा जगत् की माता की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ २२-२५ ॥ ध्यानेनानेन देवेन्द्र ध्यात्वा लक्ष्मीं मनोहराम् । भक्त्या संपूज्य तस्यै च चोपचारांस्तु षोडश ॥ २६ ॥ स्तुत्वाऽनेन स्तवेनैव वक्ष्यमाणेन वासव । नत्वा वरं गृहीत्वा च लभिष्यसि च निर्वृतिम् ॥ २७ ॥ स्तवनं शृणु देवेन्द्र महालक्ष्म्याः सुखप्रदम् । कथयामि सुगोप्यं च त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २८ ॥ देवेन्द्र ! इसी ध्यान द्वारा मनोहारिणी लक्ष्मी का ध्यान करके भक्तिपूर्वक षोडशोपचार से उनकी पूजा करनी चाहिए । हे वासव ! इसी स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति और नमस्कार करने से तुम्हें वरदान प्राप्त होगा तथा सुख मिलेगा । हे देवेन्द्र ! मैं तुम्हें महालक्ष्मी का वह सुखप्रद स्तोत्र बता रहा हूँ, जो तीनों लोकों में अतिगोप्य और दुर्लभ है, सुनो ॥ २६-२८ ॥ नारायण उवाच देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि न क्षमाः स्तोतुमीश्वराः । बुद्धेरगोचरां सूक्ष्मां तेजोरूपां सनातनीम् । अत्यनिर्वचनीयां च को वा निर्वक्तुमीश्वरः ॥ २९ ॥ नारायण बोले-हे देवि ! मैं तुम्हारी स्तुति करना चाहता हूँ, यद्यपि ईश्वर भी तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि तुम बुद्धि से अगोचर, सूक्ष्म, तेजोरूप, सनातनी, और अत्यंत निर्वचनीय हो अतः तुम्हारी निरुक्ति कौन कर सकता है ? ॥ २९ ॥ स्येच्छामयीं निराकारां भक्तानुग्रहविग्रहाम् । स्तौमि वाङ्मनसोः पारां किंवाऽहं जगदम्बिके ॥ ३० ॥ परां चतुर्णां वेदानां पारबीजं भवार्णवे । सर्वसस्याधिदेवीं च सर्वासामपि संपदाम् ॥ ३१ ॥ योगिनां चैव योगानां ज्ञानानां ज्ञानिनां तथा । वेदानां वै वेदविदां जननीं वर्णयामि किम् ॥ ३२ ॥ किन्तु हे जगदम्बिके ! स्वेच्छामयी, निराकार, भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाली और वाणी-मन से परे तुम्हारीस्तुति मैं क्या कर सकता हूँ? चारों वेदों से परे, संसार सागर को पार करने की एकमात्र कारण, सभी प्रकार के सस्यों और समस्त सम्पदाओं की अधीश्वरी, योगी, योग, ज्ञान, ज्ञानी, वेद और वेदवेत्ताओं की तुम जननी हो, तुम्हारा मैं क्या वर्णन करूँ ॥ ३०-३२ ॥ यया विना जगत्सर्वमबीजं निष्फलं ध्रुवम् । यथा स्तनंधयाना च विना मात्रा सुखं भवेत् ॥ ३३ ॥ क्योंकि जिसके बिना सारा जगत् निर्बीज एवं निष्फल रहता है जैसे बिना माता के दुधमुंहे बच्चों को सुख नहीं मिलता है ॥ ३३ ॥ प्रसीद जगतां माता रक्षास्मानतिकातरान् । वयं त्वच्चरणाम्भोजे प्रपन्नाः शरणं गताः ॥ ३४ ॥ तुम जगत् की माता हो, प्रसन्न हो जाओ, हम कातरों की रक्षा करो, हम लोग तुम्हारे चरण-कमल के शरणागत है ॥ ३४ ॥ नमः शक्तिस्वरूपायै जगन्मात्रे नमो नमः । ज्ञानदायै बुद्धिदायै सर्वदायै नमो नमः ॥ ३५ ॥ शक्तिस्वरूप जगन्माता को बार-बार नमस्कार है, ज्ञान देने वाली, बुद्धि देने वाली और सब कुछ देने वाली को नमस्कार है ॥ ३५ ॥ हरिभक्तिप्रदायिन्यै मुक्तिदायै नमो नमः । सर्वज्ञायै सर्वदायै महालक्ष्यै नमो नमः ॥ ३६ ॥ भगवान् की भक्ति देने वाली, मुक्ति देने वाली को नमस्कार है । सर्वज्ञान रखने वाली एवं सब कुछ देने वाली महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है ॥ ३६ ॥ कुपुत्राः कुत्रचित्सन्ति न कुत्रापि कुमातरः । कुत्र माता पुत्रदोषं तं विहाय च गच्छति ॥ ३७ ॥ कुपुत्र कहीं हैं भी, किन्तु कुमाता कहीं नहीं होती हैं और क्या अपराधी पुत्र को छोड़कर माता कहीं चली जाती है ? ॥ ३७ ॥ स्तनंधयेभ्य इव मे हे मातर्देहि दर्शनम् । कृपां कुरु कृपासिन्धो त्वमस्मान्भक्तवत्सले ॥ ३८ ॥ अतः हे मातः ! दुधमुंहे बच्चे की भांति मुझे भी तुम दर्शन देने की कृपा करो । हे कृपासिन्धो ! हे भक्तवत्सले ! तुम हम पर कृपा करो ॥ ३८ ॥ इत्येवं कथितं वत्स पद्मायाश्च शुभावहम् । सुखदं मोक्षदं सारं शुभदं संपदः प्रदम् ॥ ३९ ॥ हे वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें पद्मा का शुभावह स्तोत्र बता दिया, जो सुखप्रद, मोक्षदायक सार, शुभप्रद और सम्पत्तिप्रदायक है ॥ ३९ ॥ इदं स्तोत्रं महापुण्यं पूजाकाले च यः पठेत् । महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन ॥ ४० ॥ इस प्रकार इस महापुण्य स्तोत्र का जो पूजाकाल में पाठ करता है, उसके घर को महालक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती हैं ॥ ४० ॥ इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तं च तत्रैवान्तरधीयत । देवो जगाम क्षीरोदं सुरैः सार्धं तदाज्ञया ॥ ४१ ॥ इतना कहकर श्री भगवान् उसी स्थान पर अन्तहित हो गये और उनकी आज्ञा से इन्द्रदेव भी देवों के साथ क्षीरसागर चले गये ॥ ४१ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्मीस्तवकवचपूजाकथनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में लक्ष्मी का स्तव, कवच तथा पूजा कथन नामक बाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २२ ॥ |