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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - त्रयोविंशोऽध्यायः विरोधादिलक्ष्मीचरित्रकथनम् -
लक्ष्मी के निवास योग्य स्थानों का वर्णन - नारायण उवाच इन्द्रश्च गुरुणा सार्धं सुरैः संहृष्टमानसः । जगाम शीघ्रं पद्मायै तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ १ ॥ कवचं च गले बद्ध्वा सद्रत्नगुटिकान्वितम् । मनसा स्तवनं दिव्यं स्मारं स्मारं पुनः पुनः ॥ २ ॥ नारायण बोले-इन्द्र अति प्रसन्न होकर गुरु बृहस्पति और देवों के साथ लक्ष्मी को लाने के लिए क्षीरसागर के तट पर गये । वहाँ उत्तम रत्न की गुटिका में कवच रखकर उसे गले में बांधे हुए वे मन से बार-बार दिव्य स्तोत्र का स्मरण करने लगे ॥ १.२ ॥ ते सर्वे भक्तियुक्ताश्च तुष्टुवुः कमलालयाम् । साश्रुनेत्राश्च दीनाश्च भक्तिनम्रात्मकंधराः ॥ ३ ॥ इस भाँति सभी लोगों ने, जो वहाँ उस समय सजलनेत्र, दीन और भक्ति से कन्धे झुकाये खड़े थे, भक्तिपूर्वक कमला की स्तुति की ॥ ३ ॥ सा तेषां स्तवनं श्रुत्वा सद्यः साक्षाद्बभूव ह । सहस्रदलपद्मस्था शतचन्द्रसमप्रभा ॥ ४ ॥ जगद्व्याप्तं सुप्रभया जगन्मात्रा यया मुने । तानुवाच जगद्धात्री हितं सारं यथोचितम् ॥ ५ ॥ अनन्तर उन लोगों की स्तुति सुनकर लक्ष्मी साक्षात् प्रकट हो गयीं जो सहस्र दल वाले कमल पर स्थित और सैकड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिपूर्ण थीं । हे मुने ! जिसकी उत्तम प्रभा से सारा जगत् व्याप्त था, उस जगत् की धात्री ने उन देवों से कहना आरम्भ किया, जो हितकर, सारभाग और यथोचित था ॥ ४-५ ॥ महालक्ष्मीरुवाच वत्सा नेच्छामि वो गेहान्गन्तु नैवं क्षमाऽधुना । भ्रष्टान्दृष्ट्वा ब्रह्मशापाद्बिभेमि ब्रह्मशापतः ॥ ६ ॥ प्राणा मे ब्राह्मणाः सर्वे शश्वत्पुत्राधिकं प्रियाः । विप्रदत्तं च यत्किंचिदुपजीव्यं सदैव च ॥ ७ ॥ महालक्ष्मी बोलीं-हे वत्स ! मैं तुम लोगों के यहाँ जाना नहीं चाहती । इस समय मैं तुम्हारे घर जाने में असमर्थ हूँ । क्योंकि ब्राह्मण-शाप से भ्रष्ट लोगों को देखकर मैं बहुत भयभीत होती हूँ । ब्राह्मण ही मेरे प्राण हैं और वे निरन्तर मुझे पुत्र से अधिक प्रिय हैं इसलिए ब्राह्मण जो कुछ दे देते हैं वही मेरे जीवन का सहारा रहता है ॥ ६-७ ॥ विप्रा ब्रुवन्तु मां तुष्टा यास्यामि भवदाज्ञया । न मे पूजां ध्रुवं कर्तुं क्षमास्ते च तपस्विनः ॥ ८ ॥ यदि सुप्रसन्न होकर ब्राह्मण आज्ञा प्रदान कर दें तो मैं चल सकती हूँ । अन्यथा मेरी पूजा करने के लिए वे बेचारे अब भी असमर्थ हैं ॥ ८ ॥ गुरुभिर्ब्राह्मणैर्देवैर्भिक्षुभिर्वैष्णवैस्तथा । यदभाव्यं भवेद्दैवात्ते शप्ताः सन्ति तैः सदा ॥ ९ ॥ दैव संयोग से जिसका दुर्भाग्य उपस्थित होता है, उसे गुरु, ब्राह्मण, देव, संन्यासी और वैष्णव द्वारा शाप प्राप्त होता है ॥ ९ ॥ नारायणश्च भगवान्बिभेति ब्रह्मशापतः । सर्वबीजं च भगवान्सर्वेशश्च सनातनः ॥ १० ॥ यद्यपि भगवान् नारायण समस्त के कारण, सर्वाधीश्वर एवं सनातन हैं, तथापि ब्राह्मण-शाप से वे भी बहुत भयभीत रहते हैं ॥ १० ॥ एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन्ब्राह्मणा हृष्टमानसाः । आजग्मुः सस्मिता सर्वे ज्यलन्तोब्रह्मतेजसा ॥ ११ ॥ हे ब्रह्मन् ! उसी बीच अति हर्षित होकर ब्राह्मणों का वृन्द आ गया, जो मन्द हास समेत ब्रह्मतेज से देदीप्यमान हो रहा था ॥ ११ ॥ अङ्गिरा प्रचेताश्च क्रतुश्च भृगुरेव च । पुलहश्च पुलस्त्यश्च मरीचिश्चात्रिरेव च ॥ १२ ॥ सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः । सनत्कुमारो भगवात्साक्षान्नारायणात्मकः ॥ १३ ॥ कपिलश्चासुरिश्चैव वोढुः पञ्चशिखस्तथा । दुर्वासाः कश्यपोऽगस्त्यो गौतमः कण्व एव च ॥ १४ ॥ और्वः कात्यायनश्चैव कणादः पाणिनिस्तथा । मार्कण्डेयो लोमशश्च वसिष्ठो भगवान्स्वयम् ॥ १५ ॥ उनमें अंगिरा, प्रचेता, ऋतु, भृगु, पुलह, पुलस्त्य, मरीचि, अत्रि, सनक, सनन्दन, सनातन, भगवान् सनत्कुमार, साक्षात् नारायणात्मक कपिल, आसुरि, वोढु, पञ्चशिख, दुर्वासा, कश्यप, अगस्त्य, गौतम, कण्व, और्व, कात्यायन, कणाद, पाणिनि, मार्कण्डेय, लोमश और स्वयं भगवान् वशिष्ठ थे ॥ १२-१५ ॥ ब्राह्मणा विविधैर्द्रव्यैः पूजयामासुरीश्वरीम् । देवाश्चारण्यनैवेद्यैरुपहारेण भक्तितः ॥ १६ ॥ स्तुत्वा मुनीन्द्रास्तां भक्त्या चक्रुराराधनं मुदा । आगच्छ देवभवनं मर्त्यं च जगदम्बिके ॥ १७ ॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा तानुवाच जगत्प्रसूः । परितुष्टा गामुको च निर्भया ब्राह्मणाज्ञया ॥ १८ ॥ उपरान्त ब्राह्मणों ने अनेक भांति के उपहार से ईश्वरी लक्ष्मी की अर्चना की और देवों ने भी वन्य नैवेद्य और उपहार उन्हें भक्तिपूर्वक समर्पित किये । मुनीन्द्रों ने भक्तिपूर्वक स्तुति-आराधना की और सुप्रसन्न होकर कहा-'हे जगदम्बिके ! देवों के घर और मनुष्यों के यहाँ आने की कृपा करो । ' उनकी ऐसी बातें सुनकर जगज्जननी महालक्ष्मी ने ब्राह्मणों की आज्ञा से निर्भय एवं अति प्रसन्न होकर भूमण्डल में आने के विचार से उन ब्राह्मणों से कहा ॥ १६-१८ ॥ महालक्ष्मीरुवाच गृहान्यास्यामि देवानां युष्माकं चाऽऽज्ञया द्विजाः । येषां गेहं न गच्छामि शृणुध्वं भारतेषु च ॥ १९ ॥ महालक्ष्मी बोलीं-हे द्विजवृन्द ! तुम लोगों की आज्ञा से मैं देवों के घर जा रही हूँ । किन्तु भारत में जिन लोगों के यहाँ मैं नहीं जाऊँगी, वह तुम्हें बता रही हूँ, सुनो ॥ १९ ॥ स्थिरा पुण्यवतां गेहे सुनीतिपथवेदिनाम् । गृहस्थानां नृपाणां वा पुत्रवत्पालयामि तान् ॥ २० ॥ पुण्यवानों के घर मैं सुस्थिर होकर निवास करूंगी और उत्तम नीति-मार्ग से चलने वाले गृहस्थ एवं राजाओं के यहाँ रहकर पुत्र की भाँति उनका पालन करूँगी ॥ २० ॥ यं यं रुष्टो गुरुर्देवो माता तातश्च बान्धवाः । अतिथिः पितृलोकश्च यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ २१ ॥ किन्तु गुरु, देवता, माता-पिता, बन्धुगण, अतिथि और पितर लोग जिस पर रुष्ट रहेंगे उसके घर कभी नहीं जाऊँगी ॥ २१ ॥ मिथ्यावादी च यः शश्वदनध्यायी च यः सदा । सत्त्वहीनश्च बुःशीलोन गेहं तस्य याम्यहम् ॥ २२ ॥ जो निरन्तर मिथ्या भाषण करता है, जो कभी अध्ययन नहीं करता, सत्त्वहीन और दुष्ट स्वभाव का है, उसके घर नहीं जातीहूँ ॥ २२ ॥ सत्यहीनः स्थाप्यहारी मिथ्यासाक्ष्यप्रदायकः । विश्वासघ्नः कृतघ्नो यो यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ २३ ॥ सत्य रहित, धरोहर के अपहर्ता, झूठी गवाही देने वाले, विश्वासघाती और कृतघ्न के घर नहीं जाती हूँ ॥ २३ ॥ चिन्ताग्रस्तो भयग्रस्तः शत्रुग्रस्तोऽतिपातकी । ऋणग्रस्तोऽतिकृपणो न गेहं यामि पापिनाम् ॥ २४ ॥ चिन्ताग्रस्त, भयभीत, शत्रु से घिरे, अतिपापी, ऋणी एवं अतिकृपण इन पापियों के यहां नहीं जाती हूँ ॥ २४ ॥ दीक्षाहीनश्च शोकार्तो मन्दधीः स्त्रीजितः सदा । न याम्यपि कदा गेहं पुंश्चल्याः पतिपुत्रयोः ॥ २५ ॥ दीक्षाहीन, शोकाकुल, मूर्ख, स्त्रीपराजित एवं पुंश्चली स्त्री के पति-पुत्र के यहां नहीं जाती हूँ ॥ २५ ॥ पुंश्चल्यन्नमवीरान्नं यो भुडःस्ते कामदः सदा । शूद्रान्नभोजी तद्याजी तद्गेहं नैव याम्यहम् ॥ २६ ॥ जो सदा पुंश्चली का अन्न खाता है, जो पति-पुत्रहीना विधवा का अन्न खाता है, जो शूद्रान्न खाता है और जो शूद्र को यज्ञ कराता है, उसके घर में नहीं जाती हूँ ॥ २६ ॥ यो दुर्वाक्कलहाविष्टः कलिः शश्वद्यदालये । स्त्री प्रधानागृहे यस्ययामि तस्य न मन्दिरम् ॥ २७ ॥ जो कठोर वचन बोलता है, झगड़ालू है, जिसके यहाँ कलि का निरन्तर निवास रहता है और जिसके घर में स्त्री प्रधान है उसके घर नहीं जाती हैं । ॥ २७ ॥ यत्र नास्ति हरेः पूजा तदीयगुणकीर्तनम् । नोत्सुकस्तत्प्रशंसायां यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ २८ ॥ जहाँ भगवान् की पूजा, उनके नाम-गुण का कीर्तन और उनकी प्रशंसा करने में लोग उत्सुक नहीं रहते हैं उसके घर नहीं जाती हूँ ॥ २८ ॥ कन्यान्नवेदविक्रेता नरघाती च हिंसकः । नरकागारसदृशं यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ २९ ॥ कन्या, अन्न, एवं वेद का विक्रेता, नरघाती तथा हिंसक के और नरककुण्ड के समान घर में मैं नहीं जाती हूँ ॥ २९ ॥ मातरं पितर भार्यां गुरुपत्नीं गुरोः सुताम् । अनाथां भगिनीं कन्यामनन्याश्रयबान्धवान् ॥ ३० ॥ कार्पण्याद्यो न पुष्णाति संचयं कुरुते सदा । तद्गेहान्नरकागारान्यामि तान्न मुनीश्वराः ॥ ३१ ॥ हे मनीश्वरवृन्द ! माता, पिता, स्त्री, गुरुपत्नी, गुरु की, पुत्री अनाथ भगिनी, कन्या एवं आश्रयहीन बान्धवों का जो कृपणतावश पालन-पोषण नहीं करता है केवल धन-सञ्चय ही करता रहता है, उसके नरकागार समान घरों में मैं नहीं जाती हूँ ॥ ३०-३१ ॥ दशनं वसनं यस्य समलं रूक्षमस्तकम् । विकृतौ ग्रासहासौ च यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३२ ॥ जिसके दाँत-वस्त्र मैले रहते हैं, मस्तक रूखा रहता है, खाते समय और हँसते समय जिसका मुख विकृत हो जाता है, उसके घर में नहीं जाती हूँ ॥ ३२ ॥ मूत्रं पुरीषमुत्सृज्य यस्तत्पश्यति मन्दधीः । यः शेते स्निग्धपादेन यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३३ ॥ जो मूर्ख मलमूत्र का त्याग कर उसे पुनः देखता है, और जो गीले पैर शयन करता है, उसके यहाँ मैं नहीं जाती हूँ ॥ ३३ ॥ अधौतपादशायी यो नग्नः शेतेऽतिनिद्रितः । संध्याशायी दिवाशायी यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३४ ॥ बिना चरण धोर शयन करने वाले और नग्न होकर अत्यन्त शयन करने वाले तथा सन्ध्या समय एवं दिन में शयन करने वाले के घर मैं नहीं जाती हूँ ॥ ३४ ॥ मूर्ध्नि तैलं पुरो दत्त्वा योऽन्यदङ्गमुपक्ष्यृशेत् । ददाति पश्चाद्गात्रे वा यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३५ ॥ जो पहले शिर में तेल लगाकर पश्चात् अन्य अंगों का तेल से मर्दन करते हैं या समस्त शरीर में तेल लगाते हैं उसके घर मैं नहीं जाती हैं ॥ ३५ ॥ दत्त्वा तैलं मूर्ध्नि गात्रे विण्मूत्रं समुत्सृजेत् । प्रणमेदाहरेत्पुष्पं यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३६ ॥ जो शिर या शरीर में तेल लगाकर मूत्र-मल का त्याग करता है तथा प्रणाम करता हैं और पुष्प तोड़ता है, मैं उसके घर नहीं जाती हूँ ॥ ३६ ॥ तृणं छिनत्ति नखरैर्नखरैर्विलिखेन्महीम् । गात्रे पादे मलो यस्य यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३७ ॥ नखों से तृण तोड़ने और भूमि में नख द्वारा रेखा करने तथा जिसका शरीर और चरण मैला-कुचैला रहता है, उसके घर नहीं जाती हूँ ॥ ३७ ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं सुरस्य च । यो हरेज्ज्ञानशीलश्च यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३८ ॥ जो ज्ञानशील होकर अपनी या (दूसरे) की दी हुई ब्राह्मण-वृत्ति (जीविका) का तथा देव-सम्पत्ति का अपहरण करता है, उसके घर में नहीं जाती हूँ ॥ ३८ ॥ यत्कर्म दक्षिणाहीनं कुरुते मूढधीः शठः । स पापी पुण्यहीनश्च यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ३९ ॥ जो मूर्खबुद्धि शठ दक्षिणाहीन कर्म करता है, उस पुण्यहीन पापी के घर मैं नहीं जाती हूँ ॥ ३९ ॥ मन्त्रविद्योपजीवी च ग्रामयाजीं चिकित्सकः । सूपकृद्देवलश्चैव यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ४० ॥ मंत्रविद्या से जीविका निर्वाह करने वाले, गांव-गाव यज्ञ कराने वाले, वैद्य, भण्डारी, , उसके घर मैं नहीं जाती हूँ ॥ ४० ॥ विवाहं धर्मकार्यं वा यो निहन्ति च कोपतः । दिवा मैथुनकारी यो यामि तस्य न मन्दिरम् ॥ ४१ ॥ जो मूर्खबुद्धि शठ दक्षिणाहीन कर्म करता है, उस पुण्यहीन पापी के मार मैं गदर पाण्डुमार पर नहजिाताहे गर्डिगाजी क्रुद्ध हाकरे विवाह के कार्य या अन्य धार्मिक कार्य को नष्ट कर देता है, उसके घर और दिन में मैथुन करने वाले के घर मैं नहीं जाती हूँ ॥ ४१ ॥ इत्युक्त्वा सा महालक्ष्मीरन्तर्धानं जगाम ह । ददौ दृष्टिं च देवानां गृहे मर्त्ये च नारद ॥ ४२ ॥ हे नारद ! इतना कहकर महालक्ष्मी अन्तहित हो गयी और देवों तथा मनुष्यों के घर पर दृष्टि डालने लगीं ॥ ४२ ॥ तां प्रणम्य सुराः सर्वे मुनयश्च मुदाऽन्विताः । प्रजग्मुः स्वालयं शीघ्रं शत्रुत्यक्तं सुहद्युतम् ॥ ४३ ॥ अनन्तर उन्हें प्रणाम करके सभी देवों और महर्षियों ने सुप्रसन्न होकर अपने अपने घरों को शीघ्र प्रस्थान किया, जो उस समय शत्रुओं से रहित एवं मित्र-वर्गों से यूक्त था ॥ ४३ ॥ नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे बभूवुः पुष्पवृष्टयः । प्रापुर्देवाः स्वराज्यं च निश्चलां कमलां मुने ॥ ४४ ॥ हे मुने ! देवों ने अपना राज्य और निश्चल लक्ष्मी की प्राप्ति करके स्वर्ग में नगाड़े बजवाये और पुष्पों की वर्षा की ॥ ४४ ॥ इत्येवं कथितं वत्स लक्ष्मीचरितमुत्तमम् । सुखदं मोक्षदं सारं किं पुनः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४५ ॥ हे वत्स ! इस प्रकार मैंने लक्ष्मी का उत्तम चरित तुम्हें सुना दिया, जो सुखद, मोक्षदायक एवं सारभाग है । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४५ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विरोधादिलक्ष्मीचरित्रकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद में गणपति के गजमुख होने का कारण और लक्ष्मी-ब्राह्मण-विरोधादिरूप लक्ष्मी-चरित-कथन नामक तेईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २३ ॥ |