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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - चतुर्विंशोऽध्यायः एकदन्तत्वहेतुप्रश्नप्रसङ्गे जमदग्निकार्तवीर्ययुद्धारम्भवर्णनम् -
गणेश के एकदान्त होने का कारण - नारद उवाच नारायण महाभाग हरेरंशसमुद्भव । सर्वं श्रुतं त्वत्प्रसादाद्गणेशचरितं शुभम् ॥ १ ॥ नारद बोले---हे नारायण, हे महाभाग ! आप भगवान् के अंश से उत्पन्न हैं आप की कृपा से गणेश जी का समस्त शुभ चरित मैंने सुन लिया ॥ १ ॥ दन्तद्वययुतं वक्त्रं गजराजस्य बालके । विष्णुना योजितं ब्रह्मन्नेकदन्तः कथं शिशुः ॥ २ ॥ कुतो गतोऽस्य दन्तोऽन्यस्तद्भवान्वक्तुमर्हति । सर्वेश्वरस्त्वं सर्वज्ञः कृपावान्भक्तवत्सलः ॥ ३ ॥ हे ब्रह्मन् ! गजराज के दो दाँतों से युक्त मुख को, भगवान् ने बालक (गणेश) के धड़ पर जोड़ा था, किन्तु वह बालक एकदन्त कैसे हो गया, उसका दूसरा दांत कहाँ चला गया (क्या हो गया) बताने की कृपा करें, क्योंकि आप सर्वेश्वर, समस्त के ज्ञाता, कृपालु और भक्तवत्सल हैं ॥ २-३ ॥ सूत उवाच नारदस्य वचः श्रुत्वा स्मेराननसरोरुहः । एकदन्तस्य चरितं प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ४ ॥ सूत बोले--नारद की ऐसी बात सुनकर मुसकराते हुए मुखकमल वाले भगवान् ने एकदन्त का चरित कहना आरम्भ किया ॥ ४ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्येऽहमितिहास पुरातनम् । एकदन्तस्य चरितं सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ ५ ॥ नारायण बोले--हे नारद ! मैं तुम्हें एकदन्त का चरित सुना रहा हूँ, जो प्राचीन इतिहास है और समस्त मंगलों का मंगल है ॥ ५ ॥ एकदा कार्तवीर्यश्च जगाम मृगयां मुने । मृगान्निहत्य बहुलान्यरिश्रान्तो बभूव सः ॥ ६ ॥ निशामुखे दिनेऽतीते तत्र तस्थौ वने नृपः । जमदग्न्याश्रमाभ्याशे चोपोष्यानीकसंयुतः ॥ ७ ॥ हे मुने ! एक बार राजा कार्तवीर्य मृगया (शिकार) खेलने के लिए गये । वहाँ अनेक मृगों का शिकार करने से वे बहुत श्रान्त हो गये और दिन भी समाप्त हो गया । सायंकाल देखकर राजा जंगल में वहीं सेना समेत ठहर गये, जहाँ समीप ही जमदग्नि का आश्रम था, किन्तु न जानने के कारण राजा को उस रात्रि उपवास करना पड़ा ॥ ६-७ ॥ प्रातः सरोवरे राजा स्नातः शुचिरलंकृतः । दत्तात्रयेण दत्तं च ह्यजपद्भक्तितो मनुम् ॥ ८ ॥ प्रातःकाल सरोवर में राजा ने स्नान किया, तब पवित्र होकर अलंकार धारण किया और दत्तात्रेय के द्वारा प्राप्त मंत्र का भक्तिपूर्वक जप किया ॥ ८ ॥ मुनिर्ददर्श राजानं शुष्ककण्ठौष्ठतालुकम् । प्रीत्याऽऽदरेण मृदुलं पप्रच्छ कुशलं मुनिः ॥ ९ ॥ अनन्तर मुनि ने राजा को देखा कि इनके कण्ठ, ओंठ और तालू सूख गये हैं, उन्होंने सादर प्रेमपूर्वक कोमलवाणी से उनका कुशल-समाचार पूछा ॥ ९ ॥ ननाम संभ्रमाद्राजा मुनिं सूर्यसमप्रभम् । स च तस्मै ददौ प्रीत्या प्रणताय शुभाशिषः ॥ १० ॥ राजा ने भी सहसा मुनि को नमस्कार किया, जो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण थे, और मुनि ने विनयविनम्र राजा को सप्रेम शुभाशिष प्रदान किया ॥ १० ॥ वृतान्तं कययाभास राजा चानशनादिकम् । सभ्दमेणैव मुनिना त्रस्तो राजा निमन्त्रितः ॥ ११ ॥ अनन्तर राजा ने अपना रात्रि का अनशन आदि सभी वृत्तान्त उनसे कहा, जिससे मुनि ने राजा को त्रस्त देखकर तुरन्त अपने यहां निमन्त्रित किया ॥ ११ ॥ विज्ञाप्य तं मुनिश्रेष्ठः प्रययौ स्वालयं मुदा । एतद्वृत्तं कामधेनुं कथयामास भीतवत् ॥ १२ ॥ मुनिश्रेष्ठ राजा से कहकर प्रसन्नता अपने कुटीर में आये और भयभीत की भाँति उन्होंने सारा वृत्तान्त कामधेनु से कह सुनाया ॥ १२ ॥ उवाच सा मुनिं भीतं भयं किंते मयि स्थिते । जगद्योजयितुं शक्तस्त्वं मया को नृपो मुने ॥ १३ ॥ उसने भयभीत मुनि से कहा-हे मुने ! मेरे रहते तुम्हें भय क्या है ? तुम मेरे द्वारा समस्त संसार को भोजन कराने में समर्थ हो, एक राजा की क्या बात है ॥ १३ ॥ राजनोजनयोग्यार्हं यद्यद्द्रव्यं प्रयाप्य्से । सर्वं तुभ्यं प्रदास्यामि त्रिषु लोकेष दुर्लभम् ॥ १४ ॥ राजभोजन के योग्य जिस-जिस वस्तु की याचना करोगे, मैं उन सभी वस्तुओं को तुम्हें दूंगी, जो तीनों लोकों में अतिदुर्लभ हैं ॥ १४ ॥ सौवर्णानि च रौप्याणि पात्राणि विविधानि च । भोजनार्हाण्यसंख्यानि पाकपात्राणि यानि च ॥ १५ ॥ शुद्धरत्नविकाराणि पानपात्राणि यानि च । पात्राणि स्वादुपूर्णानि प्रददौ मुनये च सा ॥ १६ ॥ नानाविधानि स्वादूनि परिपक्वफलानि च । पनसाम्रश्रीफलानि नारिकेलादिकानि च ॥ १७ ॥ राशीभूतान्यसंख्यानि स्वादुलड्डुकराशयः । यवगोधूमचूर्णानां भक्ष्याणि विविधानि च ॥ १८ ॥ पक्वान्नानां पर्वतांश्च परमान्नस्य कन्दरान् । दुग्धानां च धृतानां च नदीर्दध्नां ददौ मुदा ॥ १९ ॥ शर्कराणां तथा राशिं मोदकानां च पर्वतान् । पृथुकानां सुशीलानां पर्वतान्प्रददौ मुदा ॥ २० ॥ ताम्बूलं च ददौ पूर्णं कर्पूरादिसुवासितम् । नृपयोग्यं कौतुकाच्च सुन्दरं वस्त्रभूषणम् ॥ २१ ॥ मुनिः संभृरासंभारो दत्त्वा द्रव्यं मनोहरम् । भोजयामास राजानं ससैन्यमपि लीलया ॥ २२ ॥ सोने-चांदी के विभिन्न प्रकार के भोजनगात्र, असंख्य पाक-पात्र, शुद्ध रल के बने पान-पात्र तथा अन्य स्वादु वस्तु से पूर्ण पात्रों को उसने प्रदान किया । अनेक भांति के पके और स्वादिष्ठ फल, कटहल, आम, श्रीफल, नारियल आदि सुस्वादु लड्डुओं की अनेक राशियां, जवा-गेहूँ के आटे के बने विविध भक्ष्य पदार्थ, पकवानों के पर्वत, परामानों की कन्दरायें दूध, दही और घी की नदियाँ प्रदान की । शक्करों की राशियाँ, लड्डुओं के पर्वत तथा उत्तम साठीधान के चिपिटान्न (चिउरा) के पर्वत प्रदान किये । क'रादि सुवासित ताम्बूल समर्पित किया । इस प्रकार महान् सम्भार से युक्त होकर मुनि ने राजा को कौतुक वश उसके योग्य सुन्दर वस्त्र, आभूषण एवं उत्तम द्रव्य देकर सेना समेत उन्हें भोजन कराया ॥ १५-२२ ॥ यद्यत्सुदुर्लभं वस्तु परिपूर्णं नृपेश्वर । जगाम विस्मयं राजा दृष्ट्वा पात्राण्युवाच ह ॥ २३ ॥ राजा को वहां अति दुर्लभ वस्तुएँ पूर्ण रूप से प्राप्त हुई । पात्रों को देखकर राजा को महान् आश्चर्य हुआ और बोला ॥ २३ ॥ राजोवाच द्रव्याण्येतानि सचिव दुर्लभान्यश्रुतानि च । ममासाध्यानि सहसा क्वऽऽगतान्यवलोकय ॥ २४ ॥ राजा ने कहा-हे सचिव ! ये वस्तुएँ जो दुर्लभ ही नहीं, अपितु अश्रुत भी हैं, मेरे लिए असाध्य हैं । देखो ! ये सहसा कहाँ से आ गयीं ॥ २४ ॥ नृपाज्ञया च सचिवः सर्वं दृष्ट्वा मुनेर्गृहम् । राजानं कथयामास वृत्तान्तं महदद्भूतम् ॥ २५ ॥ मंत्री ने राजा की आज्ञा से मुनि का सारा घर देखा और राजा से महान् अद्भुत समाचार कह सुनाया ॥ २५ ॥ सचिव उवाच दृष्टं सर्वं महाराज निबोध मुनिमन्दिरम् । वह्निकुण्डं यज्ञकाष्ठकुशपुष्पफलान्वितम् ॥ २६ ॥ कृष्णचर्मस्रुवस्रुग्भिः शिष्यसंघैश्च संकुलम् । तैजसाधारसस्यादिसर्वसंपद्विवर्जितम् ॥ २७ ॥ सचिव बोला--हे महाराज ! सुनिये ! मैंने मुनि का समस्त घर-अग्नि कुण्ड, यज्ञ-काष्ठ कुश, फूल, फल, काले मृग के चर्म, स्रुव तथा शिष्य वृन्द से व्याप्त, अग्न्याधार (वेदी), सस्य आदि से युक्त तथा सकल सम्पत्ति से रहित देखा ॥ २६-२७ ॥ वृक्षचर्मपरीधाना दृष्टाः सर्वे जटाधराः । गृहैकदेशे दृष्टा सा कपिलैका मनोहरा ॥ चार्वङ्गी चन्द्रवर्णाभा रक्तपङ्कजलोचना ॥ २८ ॥ ज्वलन्तो तेजसा तत्र पूर्णचन्द्रसमप्रभा । सर्वसंपद्गुणाधारा साक्षादिव हरिप्रिया ॥ २९ ॥ सभी लोग वृक्ष की छाल पहने, जटाधारी एवं तपस्वी हैं । घर में एक ओर एक मनोहर कपिला गौ बँधी देखी जो सुन्दर अंगों वाली, चन्द्रमा के समान कांति वाली, रक्त कमल की भाँति नेत्रों वाली एवं पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रभा से समन्वित है । वह तेज से जल रही है और भगवान् की प्रेयसी साक्षात् लक्ष्मी की भांति वह समस्त सम्पत्ति और गुणों का आधार है ॥ २८-२९ ॥ इत्येवं बोधितो राजा दुर्बुद्धिः सचिवाज्ञया । मुनिं ययाचे तां धेनुं निबद्धः कालपाशतः ॥ ३० ॥ किं वा पुण्यं च का बुद्धि कः कालः सर्वतो बली । पुण्यवान्बुद्धिमान्दैवाद्राजेन्द्रोऽयाचत द्विजम् ॥ ३१ ॥ पुण्यात्प्रजायते कर्म पुण्यरूपं च भारते । पापात्प्रजायते कर्म पापरूपं भयावहम् ॥ ३२ ॥ पुण्यात्कृत्वा स्वर्गभोगं जन्म पुण्यस्थले नृणाम् । पापाद्भुक्त्वा च नरकं कुत्सितं जन्म जीविनाम् ॥ ३३ ॥ इस प्रकार उस दुर्बुद्धि राजा को मंत्री ने सब कुछ बता दिया । पश्चात् उस राजा ने कालपाश से आबद्ध होकर मुनि से उसी गौ की याचना की । क्या पुण्य, क्या बुद्धि और सबसे बली काल क्या ! दैवसंयोगवश पुण्यवान् और बुद्धिमान् होते हुए भी उस महाराज ने ब्राह्मण से याचना की । भारत में पुण्य द्वारा पुण्य कर्म की उत्पत्ति होती है और पाप द्वारा भीषण पाप कर्म की । पुण्य करन से मनुष्यों को स्वर्ग का भोग प्राप्त होता है और पुण्य स्थान में जन्म होता है । उसी भाँति पाप करने से प्राणियों को नरक-भोग और निन्दित जन्म प्राप्त होते हैं ॥ ३०-३३ ॥ जीविनां निष्कृतिर्नास्ति स्थिते कर्मणि नारद । तेन कुर्वन्ति सन्तश्च संततं कर्मणः क्षयम् ॥ ३४ ॥ सा विद्या तत्तपो ज्ञानं स गुरुः स च बान्धवः । सा माता स पिता पुत्रस्तत्क्षयं कारयेत्तु यः ॥ ३५ ॥ जीविनां दारुणो रोगः कर्मभोगः शुभाशुभः । भक्तिवैद्यस्तं निहन्ति कृष्णभक्तिरसायनात् ॥ ३६ ॥ माया ददाति तां भक्तिं प्रतिजन्मनि सेविता । परितुष्टा जगद्धात्री भक्तेभ्यो बुद्धिदायिनी ॥ ३७ ॥ परा परभभक्ताय माया यस्मै ददाति च । मायां तस्मै मोहयितं न विवेकं कदाचन ॥ ३८ ॥ मायाविमोहितो राजा मुनिमानीय यत्नतः । उवाच विनयाद्भक्त्या कृताञ्जलिपुटो मुदा ॥ ३९ ॥ हे नारद ! इस प्रकार कम में फंसे रहने पर जीवों का निकलना कठिन हो जाता है । इसीलिए सन्त लोग निरन्तर कर्म का क्षय करते रहते हैं, क्योंकि वही विद्या है, वही तप है, वही ज्ञान है, वही गुरु है, वही बान्धव है, वही माता-पिता और वही पुत्र है, जो कर्म के नाश होने में सहयोग प्रदान करे । जीवों के लिए शुभाशुभ कर्मों का भोग भीषण रोग है । अतः भक्त वैद्य भगवान् कृष्ण की भक्ति रूपी रसायन द्वार । उसी कर्म का नाश करता है । प्रत्येक जन्म में सेवा करने पर माया (दुर्गा) ही भक्ति प्रदान करती है और वही जगत् की धात्री अति सन्तुष्ट होने पर भक्तों को बुद्धि देती है । एवं वही परा माया जिस परम भक्त को मोहित करने के लिए माया प्रदान करती है, उसे विवेक कभी नहीं देती । इसीलिए मायामोहित होकर राजा ने मुनि के समीप आकर भक्तिपूर्वक विनय से हाथ जोड़कर यत्न से कहा ॥ ३४-३९ ॥ राजोवाच देहि भिक्षा कल्पतरो कामधेनुं च कामदाम् । मह्यं भक्ताय भक्तेश भक्तानुग्रहकारक ॥ ४० ॥ राजा बोला हे कल्पतरो ! मेरी कामनाओं को सफल करने वाली यह कामधेनु मझे भिक्षा रूप में देने की कृपा करो । हे भक्तेश ! आप भक्तों पर अनुग्रह करते हैं और मैं आप का भक्त हूँ ॥ ४० ॥ युष्मद्विधानां दातृणामदेयं नास्ति भारते । दधीचिर्देवताभ्यश्च ददौ स्वास्थि पुरा श्रुतम् ॥ ४१ ॥ भ्रूभङ्गलीलामात्रेण तपोराशे तपोधन । समूहं कामधेनूनां स्रष्टुं शक्तोऽसि भारते ॥ ४२ ॥ भारत में आप के समान दाताओं के लिए कोई वस्तु अदेय नहीं है, क्योंकि यह सुना जाता है कि दधीचि ने पूर्वकाल में देवों को अपनी अस्थि प्रदान की थी । हे तपोधन ! आप तपोराशि हैं, भारत में आप भौंह टेढ़ी करने की लीला मात्र से कामधेनुओं का समूह सर्जन करने में समर्थ हैं ॥ ४१-४२ ॥ मुनिरुवाच अहो व्यतिक्रमं राजन्ब्रवीषि शठ वञ्चक । दानं दास्यामि विप्रोऽहं क्षत्रियाय कथं नृप ॥ ४३ ॥ मुनि बोले-हे राजन् ! यह बड़ा व्यतिक्रम (उलटा) है, तुम शठ और ठग की भांति कह रहे हो । हे नप ! भला मैं ब्राह्मण होकर क्षत्रिय को दान कैसे दे सकूगा ॥ ४३ ॥ कृष्णेन दत्ता गोलोके ब्रह्मणे परमात्मना । कामधेनुरियं यज्ञे न देया प्राणतः प्रिया ॥ ४४ ॥ गोलोक में परमात्मा कृष्ण ने यज्ञ में यह प्राणों से भी अधिक प्रिय कामधेनु ब्रह्मा को दी थी । यह देने योग्य नहीं है ॥ ४४ ॥ ब्रह्मणा भृगवे दत्ता प्रियपुत्राय भूमिप । मह्यं दत्ता च भृगुणा कपिला पैतृकी मम ॥ ४५ ॥ हे भूमिपालक ! पुनः ब्रह्मा ने अपने प्रिय पुत्र भृगु को दिया और भृगु ने इस कपिला को मुझे दिया है, इसलिए यह हमारी पैतृक सम्पत्ति है ॥ ४५ ॥ गोलोकजा कामधेनुर्दुर्लभा भुवनत्रये । लीलामात्रात्कथमहं कपिलां स्रष्टुमीश्वरः ॥ ४६ ॥ गोलोक में उत्पन्न होने वाली यह कामधेनु तीनों लोकों में अति दुर्लभ है अतः ऐसी कपिला की सृष्टि मैं लीलामात्र से कैसे कर सकता हूँ ॥ ४६ ॥ नाहं रे हालिको मूढ स्तुत्या नोत्थापितो बुधः । क्षणेन भस्मसात्वार्तु क्षभोऽहमतिथिं विना ॥ ४७ ॥ रे मूढ़ ! मैं हलवाहा नहीं हूँ और स्तुति (प्रशंसा) करने से पण्डित लोग कभी उग में नहीं आते हैं । हां, यदि तुम अतिथि न होते तो मैं क्षणमात्र में भस्म कर सकता था ॥ ४७ ॥ गृहं गच्छ गृहं गच्छ मे कोपं नैव वर्धय । पुत्रदारादिकं पश्य दैवबाधित पामर ॥ ४८ ॥ इसलिए तुम घर जाओ (फिर कहता हूँ) घर चले जाओ । मेरे कोष को न बढ़ाओ । हे पामर (नीच) ! तू देव (दुर्भाग्य) का मारा है अतः घर जाकर स्त्री-पुत्र को देख ॥ ४८ ॥ मुनेस्तद्वचनं श्रुत्वा चुकोप स नराधिपः । नत्वा मुनिं सैन्यमध्यं प्रययौ विधिवाधितः ॥ ४९ ॥ मुनि की ऐसी बातें सुनकर राजा ऋद्ध हो गया और दैवदुर्भाग्य वश मुनि को नमस्कार करके सेनाओं के पास चला गया ॥ ४९ ॥ गत्वा सैन्यसकाशं स कोपप्रस्फुरिताधरः । किंकरान्प्रेषयामास धेनुमानयितुं बलात् ॥ ५० ॥ वहां पहुंचने पर उसके होंठ क्रोध से फड़कने लगे । उसने बलात् गी लाने के लिए अपने सेवकों को भेजा ॥ ५० ॥ कपिलासंनिधिं गत्वा रुरोद मुनिपुंगवः । कथयामास वृत्तान्तं शोकेन हतचेतनः ॥ ५१ ॥ उधर मुनिश्रेष्ठ (जमदग्नि) ने गौ के पास जाकर रोदन किया और शोकाकुल होकर सभी वृत्तान्त उससे कह सुनाया ॥ ५१ ॥ रुदन्तं ब्राहपणं दृष्टा सुरभिस्तमवाच ह । साक्षाल्लक्ष्मीस्वरूपा सा भक्तानुग्रहकारिका ॥ ५२ ॥ ब्राह्मण को रोदन करते देखकर साक्षात् लक्ष्मी स्वरूप एवं भक्तों पर अनुग्रह करने वाली सुरभी ने उनसे कहा ॥ ५२ ॥ सुरभिरुवाच इन्द्रो वा हालिको वाऽपि वस्तु स्वं दातुमीश्वरः । शास्ता पालयिता दाता वस्तूनां च सततम् ॥ ५३ ॥ स्वेच्छया चेन्नृपेन्द्राय मा ददासि तपोधन । तेन सार्धं गमिष्यामि स्वेच्छया च तवाऽऽज्ञया ॥ ५४ ॥ सरभी बोली- इन्द्र हों या हलवाहा हो, वह अपनी वस्तु देने के लिए अधिकारी है अतः अपनी वस्तु का वह शासन, पालन, दान निरन्तर कर सकता है । अतः हे तपोधन ! यदि तुम अपनी इच्छा से मुझे महाराज को सौंप रहे हो, तो तुम्हारी आज्ञावश मैं स्वेच्छया उसके साथ जाने को तैयार हूँ ॥ ५३-५४ ॥ अथवा न ददासि त्वं न गमिष्यामि ते गृहात् । मत्तो दत्तेन सैन्येन दूरी कुरु नृपं द्विषम् ॥ ५५ ॥ किन्तु, यदि तुम नहीं देना चाहते हो तो मैं तुम्हारे घर से कभी नहीं जाऊँगी । मेरी दी हुई सेनाओं द्वारा उस शत्रु राजा को दूर भगा दो ॥ ५५ ॥ कथं रोदिषि सर्वज्ञ मायामोहितचेतनः । संयोगश्च वियोगश्च कालसाध्यो न चाऽऽत्मनः ॥ ५६ ॥ त्वं वा को मे तवाहं का संबन्धः कालयोजितः । यावदेव हि संबन्धो ममत्वं तावदेव हि ॥ ५७ ॥ हे सर्पज्ञ ! तुम रोदन क्यों करते हो? तुम्हारा चित्त मायामोहित हो गया है क्योंकि (किसी का) संयोग-वियोग समय आने पर होता है, अपने वश से नहीं । तुम मेरे कौन हो और मैं तुम्हारी कौन हूँ । किन्तु कालवश हमारा तुम्हारा सम्बन्ध स्थापित हो गया है क्योंकि जब तक सम्बन्ध रहता है ममत्व भी तभी तक रहता है ॥ ५६-५७ ॥ मनो जानाति यद्द्रव्यमात्मीयं चेति केवलम् । दुःखं च तस्य विच्छेदाद्यावत्स्वत्वं च तत्र वै ॥ ५८ ॥ मन जिस वस्तु को जानता है कि यह मेरी है और जब तक उस पर अपना स्वत्व रखता है तभी तक उसे उसके वियोग का दुःख होता है ॥ ५८ ॥ इत्युक्त्वा कामधेनुश्च सुषाव विविधानि च । शस्त्राण्यस्त्राणि सैन्यानि सूर्यतुल्यप्रभाणि च ॥ ५९ ॥ इतना कहकर उस कामधेनु ने विभिन्न प्रकार के शस्त्र अस्त्र और सूर्य के समान कान्तिपूर्ण सेनायें उत्पन्न की ॥ ५९ ॥ निर्गताःकपिलावक्त्रात्त्रिकोट्यःखङ्गधारिणाम् । विनिःसृता नासिकायाः शूलनः पञ्चकोटयः ॥ ६० ॥ विनिःसृता लोचनाभ्यां शतकोटिधनुर्धराः । कपालान्निःसृता वीरास्त्रिकोट्यो दण्डधारिणाम् ॥ ६१ ॥ वक्षःस्थलान्निःसृताश्च त्रिकोट्यः शक्तिधारिणाम् । शतकोट्यो गदाहस्ताः पृष्ठदेशाद्विनिर्गताः ॥ ६२ ॥ विनिःसृताः पादतलाद्वाद्यभाण्डाः सहस्रशः । जङ्घादेशान्निःसृताश्च त्रिकोट्यो राजपुत्रकाः ॥ ६३ ॥ विनिर्गता गुह्यदेशत्त्रिकोटिम्लेच्छजातयः । दत्त्वा सैन्यानि कपिला मुनये चाभयं ददौ ॥ ६४ ॥ युद्धं कुर्वन्तु सैन्यानि त्वं न याहीत्युवाच ह । मुनिः संभृतसंभारैर्हर्षयुक्तो बभूव ह ॥ ६५ ॥ नृपेन प्रेरितो भृत्यो नृपं सर्वमुवाच ह । कपिलासैन्यवृत्तान्तमात्मवर्गपराजयम् ॥ ६६ ॥ तच्छ्रुत्वा नृपशार्दूलस्त्रस्तः कातरमानसः । दूतात्संप्रेष्य सैन्यानि चाऽऽजहार स्वदेशतः ॥ ६७ ॥ अनन्तर उस कपिला गौ के मुख से तीन करोड़ खड्गधारी, नासिका से पाँच करोड़ शलधारी, आँखों से सौ करोड़ धनुर्धारी, कपाल से तीन करोड़ दण्डधारी वीर, वक्षःस्थल से तीन करोड़ शक्तिधारी, पृष्ठभाग से सौ करोड़ गदाधारी, तलवे से सहस्रों वाद्य बजाने वाले, जंघाओं से तीन करोड़ राजपुत्र और गुह्य स्थान से तीन करोड़ म्लेच्छ जाति वाले सैनिक निकले । इस भांति उस कपिला गौ ने सेनाओं को समर्पित कर मनि को अभय प्रदान किया और कहा-ये सेनायें वहाँ जाकर युद्ध करेंगी, तुम मत जाना । इस प्रकार सम्भार से युक्त होने पर मुनि को महान् हर्ष हुआ और राजा के भेजे हुए दूतों ने लौटकर राजा से यह सब कपिला-सेना का वृत्तान्त कह सुनाया । जिससे अपनी पराजय की सम्भावना सुनकर वह राजा घबराया और दूतों को भेजकर अपने देश से और अधिक सेनाओं को बुलाया ॥ ६०-६७ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे एकदन्तत्वहेतुप्रश्नप्रसङ्गे जमदग्निकार्तवीर्ययुद्धारम्भवर्णनं नाम चतुर्विंशोध्यायः ॥ २४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण के संवाद में एकदन्त के प्रश्न प्रसंग में जमदग्नि-कार्तवीर्य-युद्धारम्भ-वर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २४ ॥ |