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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - पञ्चविंशोऽध्यायः


जमदग्निकार्तवीर्ययुद्धारम्भवर्णनम् -
जमदग्नि और कार्तवीर्यार्जन के युद्ध का वर्णन -


नारायण उवाच
हरिं स्मरन्कार्तवीर्यो हृदयेन विदूयता ।
दूतं प्रस्थापयामास कुपितो मुनिसंनिधिम् ॥ १ ॥
नारायण बोले-राजा कार्तवीर्य ने हार्दिक दुःख में भगवान् का स्मरण करते हुए क्रोधवश मुनि के समीप अपना दूत भेजा ॥ १ ॥

युद्धं देहि मुनिश्रेष्ठ किंवा धेनुं च वाञ्छिताम् ।
मह्यं भृत्यायातिथये सुविचार्य यथोचितम् ॥ २ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपका सेवक हूँ एवं अतिथि हूँ, अतः भली भाँति विचार द्वारा निश्चित करके मुझे युद्ध या अभिलषित धेनु जो उचित हो, देने की कृपा करें ॥ २ ॥

दूतस्य वचनं श्रुत्वा जहास मुनिपुंगवः ।
हितं सत्यं नीतिसारं सर्वं दूतमुवाच ह ॥ ३ ॥
दूत की बातें सुनकर मुनिश्रेष्ठ ने हँसकर दूत से कहा, जो हितकर, सत्य और नीति का सार भाग था ॥ ३ ॥

मुनिरुवाच
दृष्टो नृपो निराहारः समानीतो मया गृहम् ।
विविधं च यथाशक्त्या भोजितश्च यथोचितम् ॥ ४ ॥
मुनि बोले-मैं राजा को उपवास किये देख कर अपने घर लाया और यथाशक्ति विविध प्रकार का यथोचित भोजन कराया ॥ ४ ॥

कपिलां याचते राजा मम प्राणाधिकां बलात् ।
तां दातुमक्षमो दूत युद्धं दास्यामि निश्चितम् ॥ ५ ॥
हे दूत ! अब वही राजा बलात् मेरी कपिला गौ मांग रहा है, जो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है । इसलिए मैं उसे देने में असमर्थ हूँ, युद्ध ही करूँगा, यही मेरा निश्चय है ॥ ५ ॥

मुनेस्तद्वचनं श्रुत्वा दूतः सर्वमुवाच ह ।
नृपेन्द्र च सभामध्ये सनाहैः संयुतं भिया ॥ ६ ॥
मुनि की बातें सुनकर दूत ने सभा में कवचयुक्त राजा से डरते हुए सब कुछ कह दिया ॥ ६ ॥

मुनिश्च कपिलामाह सांप्रतं किं करोम्यहम् ।
कर्णधारं विना नौका तथा सैन्यं विना मया ॥ ७ ॥
अनन्तर मुनि ने उस गौ से कहा'सम्प्रति मैं क्या करूँ? क्योंकि कर्णधार (नाव चलाने वाला मल्लाह) बिना नौका की भांति मेरे विना सेना की स्थिति है ॥ ७ ॥

कपिला च ददौ तस्मै शस्त्राणि विविधानि च ।
युद्धशास्त्रोपदेशं च संधानं चौपयोगिकम् ॥ ८ ॥
कपिला ने उन्हें विविध भांति के शस्त्र तथा बाण आदि रखने-चलाने की कला और युद्धशास्त्र का उपदेश भी प्रदान किया ॥ ८ ॥

जयो भवतु ते विप्र युद्धे जेष्यसि निश्चितम् ।
तव मृत्युर्न भविता सत्यमस्त्रं विना मुने ॥ ९ ॥
(और कहा) हे विप्र ! युद्ध में तुम्हारी विजय निश्चित होगी । हे मुने ! सत्य अस्त्र बिना तुम्हारी मृत्य सम्भव नहीं है ॥ ९ ॥

नृपेण सार्धं ते युद्धमयुक्तं ब्राह्मणस्य च ।
दत्तात्रेयस्य शिष्येण व्यर्थं वै शक्तिधारिणा ।
इत्युक्त्वाकपिला बह्मन्विरराम मनस्विनी ॥ १० ॥
ब्राह्मण का युद्ध ऐसे राजा के साथ, जो दत्तात्रेय का शिष्य और शक्तिधारी है, अनुचित एवं व्यर्थ है । है ब्रह्मन् ! इतना कहकर वह मनस्विनी गौ चुप हो गयी ॥ १० ॥

मुनिर्मनस्वो सैन्यं च सज्जीकृत्य ततो मुने ।
गृहीत्वा सर्वसैन्यं च स जगाम रणाजिरम् ॥ ११ ॥
पश्चात् मनस्वी मुनि ने सेना को तैयार कर उसके साथ रणक्षेत्र के लिए प्रस्थान किया ॥ ११ ॥

राजा जगाम युद्धाय ननाम मनिपुंगवम् ।
उभयोः सैन्ययोर्युद्धं बभूव बहुदुष्करम् ॥ १२ ॥
राजा ने भी युद्धस्थल में पहुंचकर मुनिश्रेष्ठ जमदग्नि को नमस्कार किया । अनन्तर दोनों की सेनाओं में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया ॥ १२ ॥

राजसैन्यं जितं सर्वं कपिलासेनया बलात् ।
विचित्रं च रथं राज्ञो बभञ्जे लीलया रणे ॥ १३ ॥
कपिला की सेनाओं ने राज-सेनाओं को बलात् पराजित कर दिया और रणस्थल में राजा के विचित्र रथ को लीला पूर्वक तोड़-फोड़ डाला ॥ १३ ॥

धनुश्चिच्छेद संनाहं सा सेना कापिली मुदा ।
नृपेन्द्र कापिलेयानि जेतुं सैन्यानि चाक्षमः ॥ १४ ॥
उसका कवच काट दिया; राजेन्द्र उस कापिली (कपिला की) सेना को जीतने में समर्थ न हो सका ॥ १४ ॥

सैन्यान्वितं शस्त्रवृष्ट्या न्यस्तशस्त्रं चकार सा ।
शरवृष्ट्या शस्त्रवृष्ट्या राजा मूर्च्छामवापह ॥ १५ ॥
उस (सेना) ने शस्त्र वर्षा द्वारा सैन्य युक्त राजा को शस्त्ररहित कर दिया । बाणवर्षा और शस्त्र वर्षा द्वारा राजा मूच्छित हो गया ॥ १५ ॥

किंचिच्छिष्टं बलं राज्ञः किंचिदेव पलायितम् ।
मुनीन्द्रो मूर्च्छितं दृष्ट्‍वा नृपेन्द्रमतिथिं मुने ॥ १६ ॥
कृपानिधिश्च कृपया तत्सैन्यं संजहार च ।
गत्वा सैन्यं विलीनं च कपिलायां च कृत्रिमम् ॥ १७ ॥
हे मुने ! राजा की कुछ सेना शेष रह गई और कुछ भाग निकली । कृपानिधान मुनि ने उस अतिथि राजा को मूच्छित देखकर कृपया उसकी पलायन करने वाली सेना को बुला दिया और मुनि की कृत्रिम सेना कपिला में अन्तहित हो गयी ॥ १६-१७ ॥

नृपाय मुनिना शीघ्रं दत्ताश्चरणरेणवः ।
आशीर्वादं प्रदत्तं च जयोऽस्त्विति कृपालुना ॥ १८ ॥
उपरांत मुनि ने राजा को शीघ्र अपना चरण-रज प्रदान किया । उस कृपालु ने शुभाशिष भी दिया कि-'तुम्हारी जय हो' । इतना कहकर कमण्डलु के जल से सिंचन कर उन्हें जीवित कर दिया ॥ १८ ॥

कमण्डलुजलं प्रोक्ष्य जीवयामास तं नृपम् ।
स राजा चेतनां प्राप्य समुत्थाय रणाजिरात् ॥ १९ ॥
मूर्छा ननाम भक्त्या च मुनिश्रेष्ठं कृताञ्जलिः ।
मुनिः शुभाशिषं दत्त्वा राजानं त्वालिलिङ्‌ग सः ॥ २० ॥
पुनस्तं स्नापयित्वा च भोजयामास यत्‍नतः ।
नवनीतं हि हृदयं ब्राह्मणानां तु सततम् ॥ २१ ॥
चेतना प्राप्त होने पर राजा ने रणस्थल से बाहर निकल कर भक्तिपूर्वक हाथ जोड़ा, शिर से मुनिवर्य को नमस्कार किया और मुनि ने भी शुभाशीर्वाद प्रदान करते हुए राजा का आलिंगन किया तथा स्नान कराकर यत्न से उसे भोजन कराया क्योंकि ब्राह्मणों का हृदय सदा नवनीत (मक्खन) के समान (कोमल) होता है ॥ १९-२१ ॥

अन्येषां क्षुरधाराभमसाध्यं दारुणं सदा ।
उवाच तं मुनिश्रेष्ठो गृहं गच्छ धराधिप ॥ ॥ २२ ॥
अन्य लोगों का हृदय क्षुर (स्तुरे) की धार के समान सदा असाध्य एवं भीषण होता है । (अनन्तर) मुनिवर्य ने कहा-हे राजन् ! अब तुम अपने घर चले जाओ ॥ २२ ॥

राजोवाच
रणं देहि महाबाहो धेनुं किंवा मयेप्सिताम् ॥ २३ ॥
राजा बोला-हे महाबाहो ! (मैं घर नहीं जाऊँगा) मझे युद्ध दीजिये या मेरी मनचाही धेनु (गौ) देने की कृपा करें ॥ २३ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे जमदग्निकार्तवीर्यार्जुनयुद्धवर्णनं
नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण के संवाद में जमदग्नि कार्तवीर्यार्जनयुद्धवर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २५ ॥

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