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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - षड्विंशोऽध्यायः


जमदग्निकार्तवीर्ययुद्धोपशमवर्णनम् -
ब्रह्मा द्वारा उक्त युद्ध का शमन -


नारद उवाच
हरिं स्मरन्मुनिश्रेष्ठो वाक्यं श्रुत्वा च भूभृतः ।
हित सत्यं नीतिसारं प्रवक्तुमुपचक्तमे ॥ १ ॥
नारायण बोले--मुनिश्रेष्ठ ने भगवान् का स्मरण करते हुए, राजा की कही हुई बातों को सुनकर उसे उत्तर देना आरम्भ किया, जो हित, सत्य और नीति का सार माग था ॥ १ ॥

मुनिरुवाच
गृहं गच्छ महाभाग रक्ष धर्मं सनातनम् ।
सर्वसंपत्स्थिरा शश्वत्स्थिते धर्मे सुनिश्चितम् ॥ २ ॥
मुनि बोले-हे महाभाग ! अपने घर जाओ और सनातन धर्म की रक्षा करो । क्योंकि धर्म में निरन्तर स्थित रहने पर समस्त सम्पत्ति सुस्थिर रहती है यह सुनिश्चित है ॥ २ ॥

त्वां च दृष्टा निराहारं समानीय गृहं नृप ।
तव पूजामकरवं यथाशक्ति विधानतः ॥ ३ ॥
हे नृप ! तुम्हें भूखा देखकर मैं अपने घर लाया और सविधान एवं यथाशक्ति तुम्हारा सम्मान किया ॥ ३ ॥

सांप्रतं मूर्च्छितं दृष्ट्‍वा पादरेणु शुभाशिषम् ।
अददां चेतयांचक्रे वक्तुमेवोचितं न च ॥ ४ ॥
इस समय भी तुम्हें मूच्छिा देखकर मैंने अपने चरण-रज समेत शुभाशीर्वाद प्रदान किया, जिससे तुम्हें चेतना प्राप्त हुई और यह कहना उचित भी नहीं है ॥ ४ ॥

नृपस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रणम्य मुनिपुंगवम् ।
रथमन्यं त्वारुरोह युद्धं देहीत्युयाच ह ॥ ५ ॥
मुनि की बातें सुनकर राजा ने मुनिवर्य को प्रणाम किया और अन्य रथ पर चढ़कर उनसे कहा- मुझे युद्ध दीजिये ॥ ५ ॥

मुनिः कृत्वा च संनाहं तं योद्धुमुपचक्रमे ।
राजा तं युयुधे तत्र कोषेन हृतचेतनः ॥ ६ ॥
अनन्तर मुनि ने कवच धारण कर उनसे युद्ध करना आरम्भ किया तथा राजा ने भी अति क्रुद्ध होकर उनसे घोर युद्ध किया ॥ ६ ॥

कपिलादत्तशस्त्रेण न्यस्तशस्त्रं चकार तम् ।
कपिलादत्तया शक्त्या पुनर्मूर्च्छामवाप च ॥ ७ ॥
मुनि ने कपिला (गो) के दिये हुए शस्त्र द्वारा राजा को शस्त्ररहित कर दिया और कपिला की दी हुई शक्ति द्वारा राजा पुनः मूच्छित हो गया ॥ ७ ॥

पुनश्च चेतनां प्राप्य राजा राजीवलोचनः ।
मुनिना युयुधे तत्र कोपेन पुनरेव च ॥ ८ ॥
आग्नेयं योजयामास समरे नृपपुंगवः ।
मुनिर्निर्वापयामास वारुणेन च लीलया ॥ ९ ॥
तदुपरांत चेतना प्राप्त होने पर कमल के समान नेत्र वाले राजा ने क्रुद्ध होकर मुनि के साथ भीषण युद्ध किया । इस श्रेष्ठ नृपति ने युद्धस्थल में मुनि के ऊपर आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, मुनि ने उसे वारुणास्त्र द्वारा लीलापूर्वक समाप्त कर दिया ॥ ८-९ ॥

नृपेन्द्रो वारुणास्त्रं च चिक्षेप समरे मुनौ ।
वायव्यास्त्रेण स मुनिः शमयामासलीलया ॥ १० ॥
नुपेन्द्र ने रणांगण में मुनि के ऊपर वारुणास्त्र का प्रयोग किया, मुनि ने वायव्यास्त्र द्वारा लीला से उसे शान्त कर दिया ॥ १० ॥

वायव्यास्त्रं नृपश्रेष्ठश्चिक्षेप समरे तदा ।
गान्धर्वेण मुनिश्रेष्ठः शमयामास तत्क्षणम् ॥ ११ ॥
राजा ने मुनि के ऊपर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया, मुनिवर्य ने उसी क्षण गान्धर्वास्त्र द्वारा उसे विफल कर दिया ॥ ११ ॥

नागास्त्रं च नृपश्रेष्ठश्चिक्षेप रणमूर्धनि ।
गारुडेन मुनिश्रेष्ठो निजघान क्षणान्मुने ॥ १२ ॥
राजा ने रणक्षेत्र में मुनि के ऊपर नागास्त्र का प्रयोग किया, मुनिश्रेष्ठ ने क्षणमात्र में उसे गारुड़ास्त्र द्वारा नष्ट कर दिया ॥ १२ ॥

माहेश्वरं महास्त्रं च शतसूर्यसमप्रभम् ।
चिक्षेप नृपतिश्रेष्ठो द्योतयन्तं दिशो दश ॥ १३ ॥
वैष्णवास्त्रेण दिव्येन त्रिलोकव्यापकेन च ।
मुनिर्निर्वापयामास बहुयत्‍नेन नारद ॥ १४ ॥
हे नारद ! राजा ने मुनि के ऊपर माहेश्वर-अस्त्र का प्रयोग किया, जो सबसे महान्, सैकड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण और दशो दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था । मुनि ने दिव्य वैष्णवास्त्र द्वारा, जो तीनों लोकों में व्यापक था, अतिप्रयल से उसे शान्त कर दिया ॥ १३-१४ ॥

मुनिर्नारायणास्त्रं च चिक्षिपे मन्त्रपूर्वकम् ।
शस्त्रं त्यक्त्वा महाराजो नमामशरणं ययौ ॥ १५ ॥
ऊर्ध्वं च भ्रमणं कृत्वा क्षणं दीप्त्वा दिशो दश ।
प्रलयाग्निसमं तत्र स्वयमन्तरधीयत ॥ १६ ॥
अनन्तर मुनि ने राजा के ऊपर नारायणास्त्र का मंत्रपूर्वक प्रयोग किया, महाराज ने शस्त्र त्यागकर उसे नमस्कार किया और उसकी शरण में गये, जिससे वह उसी क्षण दशों दिशाओं में प्रलय-अग्नि के समान ऊपर भ्रमण कर उसी स्थान में स्वयं अन्तहित हो गया ॥ १५-१६ ॥

जृम्भणास्त्रं च स मुनिश्चिक्षेप रणमूर्धनि ।
निद्रां प्रापत्तेन राजा सुष्वाप च मृतो यथा ॥ १७ ॥
मुनि ने उसी समय रणस्थल में जूंभणास्त्र का प्रयोग किया, जिससे राजा को निद्रा आ गयी और वे मृतक की भाँति सो गये ॥ १७ ॥

दृष्ट्‍वा नृपं निद्रितं तं चार्धचन्द्रेण तत्क्षणम् ।
चिच्छेद सारथिं यानं धनुर्बाणं मुनिस्तदा ॥ १८ ॥
मुनि ने राजा को निद्रा-मग्न देखकर उसी क्षण अर्द्धचन्द्राकार अस्त्र का प्रयोग किया, जिससे राजा का सारथी, रथ और धनुष-बाण कट गये ॥ १८ ॥

मुकुटं च क्षुरप्रेण च्छत्रं संनाहमेव च ।
अस्त्रं तूणं वाजिगणं विविधेन च भूभृतः ॥ १९ ॥
अनेक प्रकार के बाण से राजा के मकुट, छत्र, कवच, अस्त्र, तरकस और घोड़ों को भी बेध डाला ॥ १९ ॥

मुनिस्तत्सचिवात्सर्वान्नागास्त्रेणैव लीलया ।
निबध्य स्थापयामास प्रहस्य समरस्थले ॥ २० ॥
मुनिस्तं बोधयामास सुमन्त्रेणैव लीलया ।
निबद्धसर्वामात्यानां दर्शयामास भूमिपम् ॥ २१ ॥
मुनि ने उस समर-भूमि में हँसते-हँसते नागास्त्र द्वारा लीला से उनके मंत्रियों को बांध लिया और सुमन्त्र द्वारा शीघ्र राजा को चैतन्य कर उनके बंधे हुए सभी मंत्रियों को उन्हें दिखाया । ॥ २०-२१ ॥

दर्शयित्वा नृपं तांश्च मोचयामास तत्क्षणम् ।
नृपेन्द्रमाशिषं कृत्वा गृहं गच्छेत्युवाच ह ॥ २२ ॥
उपरांत राजा को दिखाकर उन्हें उसी समय मुक्त कर दिया और आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम घर चले जाओ । ॥ २२ ॥

राजा कोपात्समुत्थाय शूलमुद्यम्य यत्‍नतः ।
चिक्षेप तं मुनिश्रेष्ठं मुनिः शक्त्या जघान तम् ॥ २३ ॥
क्रुद्ध होकर राजा ने उठकर प्रयत्न से शूल का प्रयोग किया, जिसे मुनि ने शक्ति द्वारा नष्ट कर दिया ॥ २३ ॥

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा समागत्य रजस्वलम् ।
सुप्रीति जनयामास सुनीत्या च परस्परम् ॥ २४ ॥
इसी बीच ब्रह्मा ने वहाँ रणक्षेत्र में आकर उत्तम नीति द्वारा समझा-बुझाकर दोनों में प्रीतिभाव उत्पन्न किया ॥ २४ ॥

मुनिर्ननाम ब्रह्माणं तुष्टाव च रणस्थले ।
राजा नत्वा विधिं चर्षिं स्वपुरं प्रययौ तदा ॥ २५ ॥
मुनिर्ययौ स्वाश्रमं च स्वलोकं कमलोद्‌भवः ।
इत्येवं कथितं किंचिदपरं कथयामिते ॥ २६ ॥
मुनि ने उस युद्धस्थल में सन्तुष्ट होकर ब्रह्मा को नमस्कार किया, और राजा उस समय ब्रह्मा एवं उन ऋषि को नमस्कार करके अपने नगर चला गया, मुनि अपने आश्रम पर गये और ब्रह्मा भी अपने लोक को चले गये । इतना तो मैंने तुम्हें बता दिया और अब आगे भी कह रहा हूँ, सुनो ॥ २५-२६ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे जमदग्निकार्तवीर्य-
युद्धोपशमवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में जमदग्नि और कार्तवीर्य का युद्धोपशमन-वर्णन नामक छब्बीसवां अध्याय समाप्त ॥ २६ ॥

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