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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - सप्तविंशोऽध्यायः जमदग्निसंहारपरशुराम प्रतिज्ञादिवर्णनम् -
जमदग्नि-विनाश और परशूराम की प्रतिज्ञा - नारायण उवाच हरिं स्मृत्वा गृहं गत्वा राजा विस्मितमानसः । आजगाम महारण्ये जमदग्न्याश्रमं पुनः ॥ १ ॥ नारायण बोले-भगवान् का स्मरण करके मन में आश्चर्य करता हुआ राजा अपने घर चला गया । अनन्तर वह पुनः उस महान् जंगल में जमदग्नि के आश्रम में आया ॥ १ ॥ रथानां च चतुर्लक्षं रथिनां दशलक्षकम् । अश्वेन्द्राणां गजेन्द्राणां पदातीनामसंख्यकम् ॥ २ ॥ उसके साथ चार लाख रथ, दश लाख रथ वाले सैनिक और बड़े-बड़े अश्व (घोड़े), हाथी एवं पैदल सैनिक असंख्य थे ॥ २ ॥ राजेन्द्राणां सहस्रं च महाबलपराक्रमम् । महासमृद्धियुक्तश्च त्रैलोक्यं जेतुमीश्वरः ॥ ३ ॥ एक सहस्र अन्य राजा लोग थे, जो महाबली एवं महापराक्रमी थे । इस प्रकार महासमृद्धियुक्त होकर वह राजा वहाँ आया, जो तीनों लोकों को जीतने में समर्थ था ॥ ३ ॥ सर्वतो वेष्टयामास जमदग्न्याश्रमं मुने । रथस्थो वर्मयुक्तश्च कार्तवीर्यार्जुनः स्वयम् ॥ ४ ॥ उसने जमदग्नि का आश्रम चारों ओर से घेर लिया और स्वयं कार्तवीर्यार्जुन कवच पहनकर रथ पर अवस्थित था ॥ ४ ॥ सैन्यशब्दैर्वाद्यशब्दैर्महाकोलाहलैर्मूने । जमदन्त्याश्रमस्थाश्च मूर्च्छामापुर्भयेन च ॥ ५ ॥ हे मुने ! उसकी सेनाओं के शब्दों, वाद्यों की भीषण ध्वनियों एवं महाकोलाहल से जमदग्नि-आश्रम के सभी लोग भय से मूच्छित हो गये ॥ ५ ॥ कुटीं प्रविश्य बलवान्गृहीत्वा कपिलां शुभाम् । पुरं गन्तुं मनश्चक्रे दुर्बुद्धिरसदाशयः ॥ ६ ॥ बलवान् राजा ने कुटी में प्रविष्ट होकर उस शुभमूर्ति कपिला को पकड़ लिया और दुर्बुद्धि एवं नीच विचार वाला राजा, उसे लेकर अपने घर की ओर जाने का विचार करने लगा ॥ ६ ॥ समुत्तस्थौ मुनिश्रेष्ठो गृहीत्वा सशरं धनुः । एकाकी मुक्तगात्रश्च धेनुं नत्वा हरिं स्मरन् ॥ ७ ॥ आश्रमस्थाञ्जनात्सर्वानाश्वास्य च यत्नतः । आजगाम रणस्थानं निःशङ्को नृपतेः पुरः ॥ ८ ॥ अनन्तर धनुष-बाण लेकर एकाकी (अकेले) और खुले शरीर वाले मुनिवर्य घेनु को नमस्कार करके भगवान् का स्मरण करते हुए आश्रम-वासियों को बड़े यत्न से आश्वासन प्रदान कर रणक्षेत्र में राजा के सामने निःशंक पहुँच गये ॥ ७-८ ॥ निर्ममे शरजालं च स मुनिर्मन्त्रपूर्वकम् । आच्छादयत्स्वाश्रमं तैर्मानव वर्मणा यथा ॥ ९ ॥ मुनि ने वहां पहुंचकर यत्नपूर्वक बाणों का जाल-सा बना दिया । कवच पहने हुए मनुष्य के समान उसी जाल से अपने आश्रम को आच्छादित कर दिया ॥ ९ ॥ अपरं शरजालं च निर्ममे पुनिपुंगवः । तैरेवाऽऽवरणं चक्रे सर्वसैन्यं यथाक्रमम् ॥ १० ॥ मुनिवर्य ने उसी समय एक दूसरे शर-जाल का निर्माण किया और उसी द्वारा राजा की समस्त सेनाओं को क्रमशः आवृत कर दिया ॥ १० ॥ मुनिना शरजालेन सर्वसैन्यं समावृतम् । तानि सर्वाणि गुप्तानि यथा पत्राणि पञ्जरे ॥ ११ ॥ इस प्रकार मुनि-निर्मित बाणों के जाल में राजा की समस्त सेनाएँ आच्छादित होकर पिंजड़े में पक्षी की भांति गुप्त हो गईं ॥ ११ ॥ राजा दृष्ट्वा मुनिश्रेष्ठमवरुह्य रथात्पुरः । सार्धं नृपेन्द्रैर्भक्त्या च प्रणनाम कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥ अनन्तर राजा मुनिश्रेष्ठ को देखकर रथ से उतर पड़ा और अपने सहायक राजाओं के साथ हाथ जोड़े भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम करने लगा ॥ १२ ॥ नत्वाऽऽरुरोह यानं स मुनेः प्राप्य शुभाशिषः । आरुह्य च नृपश्रेष्ठः स्वयानं हृष्टमानसः ॥ १३ ॥ नृपैः सार्धं नृपश्रेष्ठश्चिक्षेप मुनिपुंगवे । अस्त्रं शस्त्रं गदां शक्तिं जघान क्रीडया मुनिः ॥ १४ ॥ मुनिश्चिक्षेप दिव्यास्त्रं चिच्छिदे लीलया नृपः । शूलं चिक्षेप नृपतिस्तं जघानतदा मुनिः ॥ १५ ॥ अपरं शरजालं च निर्ममे मुनिपुंगवः । शस्त्रौघैर्दुर्निवार्यैश्च खण्डं खण्डं चकार सः ॥ १६ ॥ मुनि का शुभाशीर्वाद प्राप्त होने पर राजा अत्यन्त हर्षित होकर अपने रथ पर बैठा और सहायक राजाओं के साथ अस्त्र, शस्त्र, गदा एवं शक्ति का प्रयोग किया, किन्तु मुनिवर्य ने खेल-खेल में सबको नष्ट कर दिया । मुनि ने भी अपने दिव्य शस्त्र का प्रयोग किया । राजा ने भी उसे लीला से काट दिया राजा ने शूल का प्रयोग किया, मुनि ने उसे काट दिया और अपने बाणों द्वारा एक अन्य शर-जाल-सा निर्माण किया । किन्तु राजा ने अपने दुनिवार शस्त्रों द्वारा उसके खण्ड-खण्ड कर दिये ॥ १३-१६ ॥ निबद्धाः शरजालेन न च शक्ताः पलायितुम् । जृम्भणास्त्रेण मुनिना ते च सर्वे विजृम्भिताः ॥ १७ ॥ हस्त्यश्वरथपादातसहितं सर्वसैन्यकम् । राजानं निद्रितं दृष्ट्वा न जघान मुनीश्वरः ॥ १८ ॥ शर-जाल में जो बँध गये थे, वे किसी प्रकार कहीं भाग न सके । पश्चात् अपने जंभणास्त्र द्वारा मुनि ने हाथी, घोड़े, रथ समेत पैदल आदि सभी सैनिकों को गाढ़-निद्रा में मग्न कर दिया । राजा को निद्रित देखकर मुनिवर्य ने उसको मारा नहीं ॥ १७-१८ ॥ गृहीत्वा कपिलां हृष्टो रुदन्तीं शोकमूच्छिताम् । बोधयित्वा पुरः कृत्वा स्वाश्रमं गन्तुमुद्यतः ॥ १९ ॥ प्रसन्नतावश केवल कपिला (गो) को, जो रोती हुई मूच्छित हो गई थी, प्रबुद्ध किया और (उसे) लेकर अपने आश्रम की ओर प्रस्थान किया ॥ १९ ॥ एतस्मिन्नन्तरे राजा चेतनां प्राप्य नारद । निवारयामास मुनिं गृहीत्वा सशरं धनुः ॥ २० ॥ हे नारद ! इसी बीच राजा को चेतना प्राप्त हो गयी, जिससे धनुष-बाण लेकर उसने मुनि को गौ ले जाने से रोक दिया ॥ २० ॥ जगाम कपिला त्रस्ता स्वस्थानं च रणाजिरात् । मुनिश्च तस्थौ निःशङ्को गृहीत्वासशरं धनुः ॥ २१ ॥ किन्तु त्रस्त होने पर भी वह गौ रणस्थल से अपने स्थान को चली गयी और धनुष-बाण लेकर मुनि निःशंक होकर उसी स्थान पर गये ॥ २१ ॥ ब्रह्मास्त्रं च नृपश्रेष्ठः स चिक्षेप मुनौ तदा । ब्रह्मास्त्रेण मुनीन्द्रस्य सद्यो निर्वाणतां गतम् ॥ २२ ॥ राजा ने मुनि के ऊपर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, मुनिवर्य ने भी अपने ब्रह्मास्त्र द्वारा उसे उसी क्षण विफल कर दिया ॥ २२ ॥ दिव्यास्त्रेण मुनिश्रेष्ठो नृपस्य सशरं धनुः । रथं च सारथिं चैव चिच्छिदे वर्म दुर्वहम् ॥ २३ ॥ अनन्तर मुनि ने अपने दिव्यास्त्रों द्वारा राजा के धनुषबाण, रथ और सारथि समेत भीषण कवच को भी छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ २३ ॥ अथ राजा महाक्रुद्धो ददर्श स्वसमीपतः । दत्तेन दत्तां शक्तिं तामेकपूरुषघातिनीम् ॥ २४ ॥ इससे राजा अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपने समीप रखी हुई उस शक्ति की ओर देखा, जो एक पुरुष का अवश्य संहार करती थी और दत्तात्रेय द्वारा प्राप्त हुई थी ॥ २४ ॥ जग्राह नत्वा दत्तं तं स नत्वा शक्तिमुल्बणाम् । चूर्णयामास तत्रैव शतसूर्यसमग्रभाम् ॥ २५ ॥ राजा ने प्रथम दत्तात्रेय को मानसिक नमस्कार किया और अनन्तर उस भीषण शक्ति को । उपरान्त सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावाली उस शक्ति को ग्रहण कर राजा उसी स्थान पर उसे घुमाने लगा ॥ २५ ॥ यत्तेजः सर्वदेवानां तेजो नारायणस्य च । शंभोश्च ब्रह्मणश्चैव मायायाश्चैव नारद ॥ २६ ॥ तत्रैवाऽऽवाहयामास स योगी मन्त्रपूर्वकम् । तेजसा द्योतयामास गगनं च दिशो दश ॥ २७ ॥ हे नारद ! समस्त देवों का तेज, नारायण का तेज और शिव, ब्रह्मा एवं माया का तेज उस योगी ने उसमें मंत्रपूर्वक आवाहित किया, जिससे दशों दिशाओं में आकाश उसके तेज से प्रदीप्त हो उठा ॥ २६-२७ ॥ दृष्ट्वा क्षिपन्तीं तां देवा हाहाकारेण चुक्रुशुः । आकाशस्थाश्च समरं पश्यन्तो दुःखिता हृदा ॥ २८ ॥ राजा को मुनिके ऊपर उस शक्ति का प्रयोग करते हुए देखकर देवता लोग दुःखितहृदय होकर ऊँचे स्वर से हाहाकार मचाने लगे, जो उस युद्धको देखने के लिए वहाँ आकाश में खड़े थे ॥ २८ ॥ चिक्षेप तां चूर्णयित्वा कार्तवीर्यार्जुनः स्वयम् । सद्यः पपात सा शक्तिर्ज्वलन्ती मुनिवक्षसि ॥ २९ ॥ कार्तवीर्यार्जुन ने स्वयं उसे बड़े वेग से घुमाकर छोड़ा था, वह शक्ति प्रदीप्त होती हुई उसी क्षण मुनि के वक्षःस्थल पर जा गिरी ॥ २९ ॥ विदार्योरो मुनेः शक्तिर्जगाम हरिसंनिधिम् । दत्ताय हरिणा दत्ता शस्त्रास्त्रनिधये तदा ॥ ३० ॥ मुनि के हृदय को विदीर्ण करती हुई वह शक्ति भगवान् के समीप चली गयी, जिसे भगवान् ने शस्त्रास्त्र के निधान दत्तात्रेय को दिया था ॥ ३० ॥ मूर्च्छां संप्राप्य स मुनिः प्राणांस्तत्याज तत्क्षणम् । तेजोऽम्बरे भ्रमित्वा च ब्रह्मलोकं जगाम ह ॥ ३१ ॥ मुनि को उसी समय मूर्छा आ गयी और उनके प्राण निकल गये । तेज आकाश में भ्रमण करते हुए ब्रह्मलोक चला गया ॥ ३१ ॥ युद्धे मुनिं मृतं दृष्ट्वा रुरोद कपिला मुहुः । हे तात तातेत्युच्चार्यं गोलोकं सा जगाम ह ॥ ३२ ॥ युद्ध में मुनि को मृतक देखकर वह कपिला गौ बार-बार रोदन करने लगी और हे तात ! हे तात ! कहती हुई वह गोलोक चली गयी ॥ ३२ ॥ सवं सा कथयामास गोलोके कृष्णमीश्वरम् । रत्नसिहासनस्थं तं गोपैर्गोपीभिरावृतम् ॥ ३३ ॥ गोलोक में पहुँच कर उसने भगवान् श्रीकृष्ण से समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जो वहाँ रत्नसिंहासन पर सुखासीन और गोप-गोपियों से घिरे हुए थे ॥ ३३ ॥ कृष्णेन ब्रह्मणे दत्ता ब्रह्मणा भृगवे पुरा । सा प्रीत्या पुष्करे ब्रह्मन्भृगुणा जमदग्नये ॥ ३४ ॥ हे ब्रह्मन् ! सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण ने वह गो ब्रह्मा को दी थी । ब्रह्मा ने मृग को और भृगु ने प्रेम वश पुष्कर में जमदग्नि को दी थी ॥ ३४ ॥ नत्वा च कामधेनूनां समूहं सा जगाम ह । तदश्रुबिन्दुना मर्त्ये रत्नसंघो बभूव ह ॥ ३५ ॥ उपरांत कामधेनओं के समूह को नमस्कार करके वह चली गयी । उसके अश्रुविन्दु द्वारा मर्त्यलोक में रत्न समूह उत्पन्न हुआ ॥ ३५ ॥ अथ राजा तं निहत्य बोधयित्वा स्वसैन्यकम् । प्रायश्चित्तं विनिर्वर्त्य जगाम स्वपुरंमुदा ॥ ३६ ॥ इसके पश्चात् राजा ने उन (जमदग्नि) को मारकर अपने सैनिकों को बता कर प्रायश्चित्त किया और अपने नगर चला गया ॥ ३६ ॥ प्राणनाथं मृतं श्रत्वा जगाम रेणुका सती । मुनिं वक्षसि संस्थाप्य क्षणं मूर्च्छामवाप सा ॥ ३७ ॥ अपने प्राणनाथ को मृतक सुनकर सती रेणुका वहाँ पहुँची और मुनि को अपने अंक में लेकर क्षणमात्र मूच्छित हो गयीं ॥ ३७ ॥ ततः सा चेतनां प्राप्य न रुरोद पतिव्रता । एहि वत्स भृगो राम राम रामेत्यवाच ह ॥ ३८ ॥ अनन्तर चेतना प्राप्त होने पर उस पतिव्रता ने रोदन नहीं किया, प्रत्युत हे राम, हे राम, हे वत्स ! हे भृगो ! कह कर परशुराम को बुलाने लगी ॥ ३८ ॥ आजगाम भृगुस्तूर्णं क्षणाद्वै पुष्करादहो । ननाम मातर भक्त्या मनोयायी च योगवित् ॥ ३९ ॥ मनोवेग के समान चलने वाले एवं योगवेत्ता परशुराम उसी समय पुष्कर से आ पहुंचे और उन्होंने भक्तिपूर्वक अपनी माता को नमस्कार किया ॥ ३९ ॥ दृष्ट्वा रामो मृतं तातं शोकार्तां जननीं सतीम् । आकर्ण्य रणवृत्तान्तं प्रयान्ती कपिलां शुचा ॥ ४० ॥ विललाप भृशं तत्र हे तात जननीति च । चितां चकार योगोन्द्रश्चन्दनैराज्यसंयुताम् ॥ ४१ ॥ पश्चात् राम ने अपने पिता को मृतक देखा, माता को शोकविह्वल और शोकाकुल कपिला को गोलोक जाते हुए देखा एवं युद्ध का समस्त वृत्तान्त सुना । हे तात ! हे जननी ! ऐसा कहकर उन्होंने भी बार-बार विलाप किया । अनन्तर उस योगिराज ने घृतप्लुत चन्दन काष्ठ की चिता बनायी ॥ ४०-४१ ॥ रेणुका राममादाय तूर्णं कृत्वा स्ववक्षसि । चुचुम्ब गण्डे शिरसि रुरोदोच्चैर्भृशं मुने ॥ ४२ ॥ रेणुका ने राम को शीघ्र अपने हृदय से लगाकर उनके कपोल एवं शिर का चुम्बन किया और अत्यन्त ऊँचे स्वर से वह बार-बार रोदन करने लगी । ॥ ४२ ॥ राम राम महाबाहो क्व यामि त्वां विहाय च । वत्स वत्सेति कृत्वैवं विललाप भृशं मुहुः ॥ ४३ ॥ राम ! हे राम ! हे महाबाहो ! मैं तुम्हें छोड़कर अब कहाँ जाऊँ तथा हे वत्स ! हे वत्स ! ऐसा बार-बार कहती हुई अति विलाप करने लगीं ॥ ४३ ॥ मत्प्राणाधिक हे वत्स मदीयं वचनं शृणु । पित्रोः शेषक्रियां कृत्वा याया युद्धं न पुत्रक ॥ ४४ ॥ हे वत्स ! तुम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो, अत: मेरी बातें सुनो । हे पुत्र ! माता-पिता की अन्त्येष्टिक्रिया करने के उपरांत युद्ध में न जाना ॥ ४४ ॥ गृहे तिष्ठ सुखं वत्स तपस्यां कुरु शाश्वतीम् । समरं नैव सुखदं दारुणैः क्षत्रियैः सह ॥ ४५ ॥ हे वत्स ! सुखपूर्वक घर में रहो, निरन्तर तपस्या करो, किन्तु भीषण क्षत्रियों के साथ युद्ध न करना, क्योंकि वह कभी भी सुखप्रद नहीं होता है ॥ ४५ ॥ मातुर्वचनमश्रुत्वा प्रतिज्ञां तां चकार ह । त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यामि ध्रुवं महीम् ॥ ४६ ॥ कार्तवीर्यं हनिष्यामि लीलया क्षत्रियाधमम् । पितृंश्च तर्पयिष्यामि क्षत्रियक्षतजैस्तथा ॥ ४७ ॥ इत्युदीर्य पुरो मातुर्विललाप मुहुर्मुहुः । हितं तथ्यं नीतिसारं बोधयामास मातरम् ॥ ४८ ॥ परशुराम ने माता की बात पर ध्यान न देकर ऐसी प्रतिज्ञा की कि 'मैं निश्चित ही पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियशून्य कर दूंगा, और उस अधम क्षत्रिय कार्तवीर्य का लीला पूर्वक वध करूंगा तथा उसी क्षत्रिय के रक्त से मैं अपने पितरों का तर्पण करूंगा । ' अपनी माता के सामने ऐसी प्रतिज्ञा करके परशुराम पुनः विलाप करने लगे । अनन्तर उन्होंने अपनी माता से कहना आरम्भ किया, जो हितकर, सत्य और नीति का सार भाग था ॥ ४६-४८ ॥ राम उवाच पितुः शासनहन्तारं पितुर्वधविधायकम् । यो न हन्ति महामूढो रौरवं स व्रजेद्ध्रुवम् ॥ ४९ ॥ राम बोले—पिता की आज्ञा भंग करने वाले और पिता का वध करने वाले का हनन जो नहीं करता है, वह महामूढ़ निश्चित रौरव नरक जाता है ॥ ४९ ॥ अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः । क्षेत्रदारापहारी च पितृबन्धुविहिंसकः ॥ ५० ॥ सततं मन्दकारी च निन्दकः कटुजल्पकः । एकादशैते पापिष्ठा वधार्हा वेदसंमताः ॥ ५१ ॥ अग्नि लगाने वाले, विष देने वाले, हाथ में हथियार रखने वाले, धन का अपहर्ता, क्षेत्र (खेत) और पत्नी का अपहरण करने वाला पिता एवं बन्धुओं की हिंसा करने वाला, सतत आलस्य करने वाला, निन्दक, कटुवादी-ये ग्यारहों महान् पापी होते हैं । वेद के मत से ये वध करने के योग्य होते हैं ॥ ५०-५१ ॥ द्विजानां द्रविणादानं स्थानान्निर्वासनं सति । वपनं ताडनं चैव वधमाहुर्मनीषिणः ॥ ५२ ॥ धन ले लेना, स्थान से निकाल देना, मुण्डन करा देना या ताड़ना देना (बेंत आदि मारना) यही ब्राह्मणोंका विद्वानों ने वध बतलाया है ॥ ५२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र चाऽऽजगाम भृगुः स्वयम् । अतित्रस्तो मनस्वी च हृदयेन विदूयता ॥ ५३ ॥ दृष्ट्वा तं रेणुकारामौ विनतौ संबभूवतुः । स तावुवाच वेदोक्तं परलोकहिताय च ॥ ५४ ॥ इस बीच वहाँ भृगु स्वयं आ गये । वे अत्यन्त दुःखी मनस्वी हार्दिक दुःख प्रकट करने लगे । उन्होंने रेणुका और राम को विनय-विनम्र देखकर उनसे कुछ कहना आरम्भ किया, जो वेदसम्मत और परलोक के लिए हितकर था ॥ ५३-५४ ॥ भृगुरुवाच मद्वंशजातो ज्ञानी त्वं कथं विलपसे सुत । जलबुद्बुदवत्सर्वं संसारे च चराचरम् ॥ ५५ ॥ भग बोले-हे सुत ! तुम मेरे वंश में उत्पन्न हो और ज्ञानी हो, विलाप क्यों कर रहे हो? क्योंकि संसार में समस्त चर-अचर जल के बुल्ले के समान (नश्वर) हैं ॥ ५५ ॥ सत्यसारं सत्यबीजं कृष्णं चिन्तय पुत्रक । यद्गतं तद्गतं वत्स गतं नैवाऽऽगमिष्यति ॥ ५६ ॥ हे पुत्र ! भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करो, जो सत्यसार और सत्यबीज रूप है । हे वत्स ! जो गया, सो गया, जो चला गया वह पुनः नहीं आयेगा । ॥ ५६ ॥ यद्भवेत्तद्भवत्येव भविता यद्भविष्यति । पूर्वार्जितं स्वीयकर्मफलं केन निवार्यते ॥ ५७ ॥ जो होनहार रहता है, वह होकर रहता है, क्योंकि अपने जन्मान्तरीय कर्म फल को (भोगने से) कौन रोक सकता है ॥ ५७ ॥ भूतं भव्यं भविष्यं च यत्कृष्णेन निरूपितम् । निरूपितं यत्तत्कर्म केन वत्स निवार्यते ॥ ५८ ॥ हे वत्स ! भगवान् कृष्ण ने जिस भूत, वर्तमान और भविष्य का निर्माण कर दिया है और जिस कर्म का निरूपण कर दिया है, उसे कौन रोक सकता है ॥ ५८ ॥ मायाबीजं मायिनां च शरीरं पाञ्चभौतिकम् । सकेतपूर्वकं नाम प्रातःस्वप्नसमं सुत ॥ ५९ ॥ हे सुत ! यह पाँच भूतों (पृथिवी, जल, तेज, आकाश और वायु) का बना शरीर मायावियों का मायाबीज है । प्रातःकाल के स्वप्न की भाँति केवल इसका एक संकेत मात्र नाम रहता है ॥ ५९ ॥ क्षुधा निद्रा दया शान्तिः क्षमाकान्त्यादयस्तथा । यान्ति प्राणा मनो ज्ञानं प्रयाते परमात्मनि ॥ ६० ॥ इससे परमात्मा (आत्मा) के शरीरसे निकल जाने पर क्षुधा, निद्रा, दया, शान्ति, क्षमा, कान्ति आदि और मन एवं ज्ञान समेत प्राण भी (शरीर से) चले जाते हैं ॥ ६० ॥ बुद्धिश्च शक्तयः सर्वा राजेन्द्रमिव किंकराः । सर्वे तमनुगच्छन्ति तं कृष्णं भज यत्नतः ॥ ६१ ॥ उसकी बुद्धि तथा समस्त शक्तियाँ भी, राजा के पीछे सेवक की भांति, पीछे लगी चली जाती हैं, इसलिए प्रयत्नपूर्वक कृष्ण को भजो ॥ ६१ ॥ के वा केषां च पितरः के वा केषां सुताः सुत । कर्मभिः प्रेरिताः सर्वे भवाब्धौ दुस्तरे परम् ॥ ६२ ॥ हे सुत ! कौन किनके पिता हैं और कौन किनके पुत्र । केवल कर्मवश प्रेरित होकर सभी लोग इस दुष्पार संसार-सागर में आकर पड़े हैं ॥ ६२ ॥ ज्ञानिनो मा रुदन्त्येव मा रोदीः पुत्र सांप्रतम् । रोदनाश्रुप्रपतनान्मृतानां नरकं ध्रुवम् ॥ ६३ ॥ हे पुत्र ! ज्ञानी इस प्रकार रोदन नहीं करते हैं, अतः इस समय रोदन न करो । क्योंकि रोदन करने से आँसू गिरते हैं जिससे मृतक का निश्चित नरकवास होता है ॥ ६३ ॥ संकेताख्योच्चारणेन यद्रुदन्ति च बान्धवाः । शतवर्षं रुदित्वा तं प्राप्नुवन्ति न निश्चितम् ॥ ६४ ॥ पार्थिवांशं च पृथिवी गृह्णात्यस्थित्वचादिकम् । तोयांशं च तथा तोयं शून्यांशं गगनं तथा ॥ ६५ ॥ वाय्वशं च तथा वायुस्तेजस्तेजांशकं तथा । सर्वे विलीनाः सर्वेषु को वाऽऽयास्यति रोदनात् ॥ ६६ ॥ जिस सांकेतिक नाम का उच्चारण करके बन्धुवर्ग रोदन करते हैं, उसे सौ वर्ष रोदन करने पर भी नहीं पा सकते हैं, यह निश्चित है । क्योंकि शरीर का पार्थिव अंश हड्डी, त्वचा आदि पृथिवी ग्रहण कर लेती है और उसी भाँति जलांश को जल, शून्यांश को आकाश, वायुअंश को वायु और तेज अंश को तेज ग्रहण कर लेता है ॥ ६४-६६ ॥ नामश्रुतियशःकर्मकथामात्रावशेषितः । वेदोक्तं चैव यत्कर्म कुरु तत्पारलौकिकम् ॥ ६७ ॥ इस प्रकार सब में सब विलीन हो जाते हैं तो रोदन करने से कौन आयेगा । अनन्तर उसके नाम, यश, कर्म की कथा मात्र शेष रह जाती है । अतः वेदोक्त कर्मों को परलोक के लिए अवश्य करो ॥ ६७ ॥ स च बन्धुः सुपुत्रश्च परलोकहिताय यः । भृगोस्तद्वचनं श्रुत्वा शोकं तत्याज तत्क्षणम् ॥ रेणुका च महासाध्वी तं वक्तुमुपचक्रमे ॥ ६८ ॥ क्योंकि जो परलोक का हितैषी होता है वही पुत्र और बन्धु है । भृगु की ऐसी बातें सुनकर महासती रेणुका ने उसी क्षण शोक त्याग दिया और उनसे कहने लगी ॥ ६८ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे जमदग्निसंहारपरशुराम प्रतिज्ञादिवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में जमदग्नि-संहार और परशुराम-प्रतिज्ञा आदि वर्णन नामक सत्ताईसर्वां अध्याय समाप्त ॥ २७ ॥ |