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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - अष्टाविंशोऽध्यायः


भृगोर्ब्रह्मलोकगमने ब्रह्मोक्तोपायवर्णनम् -
भृगुका ब्रह्मलोकगमन तथा ब्रह्मोक्त उपाय वर्णन -


रेणुकोवाच
ब्रह्मन्ननुगमिष्यामि प्राणनाथस्य सांप्रतम् ।
ऋतोश्चतुर्थदिवसे मृतोऽयं चाद्य मानदः ॥ १ ॥
रेणुका बोली-हे ब्रह्मन् ! मैं अब अपने प्राणनाथ (स्वामी) का अनुगमन करना चाहती हूँ, किन्तु मेरे ऋतु-धर्म का आज चौथा दिन है, जिसमें मेरे मानदाता ने प्राण त्याग किया है ॥ १ ॥

कर्तव्या का व्यवस्थाऽत्र वद वेदविदां वर ।
त्वमागतो मे सहसा पुण्येन कतिजन्मनाम् ॥ २ ॥
हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! मेरे अनेक जन्मों के पुण्य प्रभाव वश तुम आ गये हो, तो यह अवश्य बताने की कृपा करो कि मुझे इस अवस्था में क्या व्यवस्था करनी चाहिए ॥ २ ॥

भृगुरुवाच
अहो पुण्यवतो भर्तुरनुगच्छ महासति ।
चतुर्थदिवसं शुद्धं स्वामिनः सर्वकर्मसु ॥ ३ ॥
भृग बोले-हे महासति ! तुम अपने पुण्यवान् पति का अनुगमन अवश्य करो, क्योंकि स्त्री चौथे दिन अपने पति के समस्त कार्यों के लिए शुद्ध है ॥ ३ ॥

शुद्धा भर्तुश्चतुर्थेऽह्नि न शुद्धा दैवपित्र्ययोः ।
दैवे कर्मणि पित्र्ये च पञ्चमेऽह्नि विशुध्यति ॥ ४ ॥
किन्तु स्त्री चौथे दिन केवल पति के लिए शुद्ध होती है, न कि देवकार्य और पितर कार्यों के लिए । देव एवं पितर कार्यों के लिए वह पाँचवें दिन शुद्ध होता है । ॥ ४ ॥

व्यालग्राही यथा व्यालं बिलादुद्धरते बलात् ।
तद्वत्स्वामिनमादाय साध्वी स्वर्गं प्रयाति च ॥ ५ ॥
सँपेरा (सौप पकड़ने वाला) जिस प्रकार बिल से सर्प को बलात् पकड़ लेता है, उसी भाँति स्त्री भी पति को लेकर स्वर्ग चली जाती है ॥ ५ ॥

मोदते स्वामिना सार्धं यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
अत ऊर्ध्वं कर्मभोगं भुङ्‌क्ष्व साध्वि शुभाशुभम् ॥ ६ ॥
हे साध्वि ! वहां स्वामी के साथ चौदहों इन्द्रों के समय तक आनन्द-मग्न रहती है । इसके उपरांत तुम भी अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग प्राप्त करो ॥ ६ ॥

स पुत्रो भक्तिदाता यः सा च स्त्री याऽनुगच्छति ।
स बन्धुर्दानदाता यः स शिष्यो गुरुमर्चयेत् ॥ ७ ॥
पुत्र वही है, जो भक्तिप्रदाता हो और स्त्री वही है, जो पति का अनुगमन करे । बन्धु वही है जो दान दे और शिष्य वही है, जो गुरु का सम्मान-प्रार्थना करे ॥ ७ ॥

सोऽभीष्टदेवो यो रक्षेत्स राजा पालयेत्प्रजाः ।
स च स्वामी प्रियां धर्ममतिं दातुमिहेश्वरः ॥ ८ ॥
इष्टदेव वही है, जो रक्षा करे । राजा वही है, जो प्रजाओं का पालन करे । स्वामी वही है, जो अपनी प्रिया (स्त्री) को धर्म में लगाने में समर्थ हो सके ॥ ८ ॥

स गुरुर्धर्मदाता यो हरिभक्तिप्रदायकः ।
एते प्रशंस्यो वेदेषु पुराणेषु च निश्चितम् ॥ ९ ॥
और गुरु वही है जो धर्म देते हुए भगवान् की भक्ति प्रदान करे । क्योंकि वेदों और पुराणों में ये निश्चित रूप से प्रशंसनीय माने गये हैं ॥ ९ ॥

रेणुकोवाच
गन्तुं स्वस्वामिना सार्धं का शक्ता भारते मुने ।
का वाऽप्यशक्ता नारीषु तन्मे ब्रूहितपोधन ॥ १० ॥
रेणुका बोली-हे मुने ! हे तपोधन ! भारत में स्त्रियों में कौन-सी स्त्री अपने पति का अनुगमन करने में समर्थ होती है और कौन असमर्थ रहती है यह मुझे बताने की कृपा करें ॥ १० ॥

भृगुरुवाच
बालापत्याश्च गर्भिण्यो ह्यदृष्टऋतवस्तथा ।
रजस्वला च कुलटा गलितव्याधिसंयुता ॥ ११ ॥
पतिसेवा विहीना या ह्यभक्ता कटुभाषिणी ।
एता गच्छन्ति चेद्‌दैवान्न कान्तं प्राप्नुवन्तिताः ॥ १२ ॥
भृगु बोले-छोटे-बच्चे वाली, गभिणी, अनुत्पन्न रजोधर्म वाली, रजस्वला, कुलटा, गलित कुष्ठ की रोगिणी, पति की सेवा न करने वाली, अभक्ता और कटुवादिनी स्त्री, ये दैव संयोग से यदि अनुगमन करें भी तोपति को नहीं प्राप्त करती हैं ॥ ११-१२ ॥

संस्कृताग्निं पुरो दत्त्वा चितासु शयितं पतिम् ।
कान्तास्तमनुगच्छन्ति कान्ताश्चेत्प्राप्नुवन्ति ताः ॥ १३ ॥
चिता पर पति को शयन कराकर और उसमें सामने संस्काराग्नि लगाने के उपरांत जो स्त्रियां पति का अनुगमन करती हैं, वह यदि पति की प्रेयसी हैं, तो अवश्य उसे प्राप्त करती हैं ॥ १३ ॥

अनुगच्छन्ति याः कान्तं तमेव प्राप्नुवन्ति ताः ।
सार्धं कृत्वा पुण्यभोगं दिवि जन्मनि जन्मनि ॥ १४ ॥
क्योंकि जो स्त्रियां पति का अनुगमन करती हैं वे पुनः उसी पति को प्राप्त होती हैं और स्वर्ग में तथा प्रत्येक जन्म में पति के साथ पुण्य का उपभोग करती हैं ॥ १४ ॥

इयं ते कथिता साध्वि व्यवस्था गृहिणां ध्रुवम् ।
तीर्थे ज्ञानमृतानां च वैष्णवानां गतिं शृणु ॥ १५ ॥
हे साध्वि ! इस प्रकार मैंने तुम्हें गहस्थों की निश्चित व्यवस्था बता दी; अब तीर्थ में ज्ञान पूर्वक मरने वाले वैष्णवों की गति बता रहा हूँ, सुनो ॥ १५ ॥

या साध्वी वैष्णवं कान्तं यत्र यत्रानुगच्छति ।
प्रयाति स्वामिना सार्धं वैकुण्ठे हरिसंनिधिम् ॥ १६ ॥
जो स्त्री पतिव्रता होती है तो उसका वैष्णव पति जहाँ-जहाँ जाता है, वह अवश्य जाती है और पति के साथ वैकुण्ठ में भगवान् के समीप पहुंचती है ॥ १६ ॥

विशेषे नास्ति भक्तानां तीर्थे वाऽन्यत्र नारद ।
मरणेन फलं तुल्यं मुक्तानां कृष्णभाविताम् ॥ १७ ॥
तयोः पातो नास्ति तस्मान्महति प्रलये सति ।
नारायणं तं भजेत पुमांस्त्री कमलालयाम् ॥ १८ ॥
किन्तु हे नारद ! भक्तों के तीर्थ या अन्य स्थान में प्राणत्याग करने में कोई विशेषता नहीं होती है । क्योंकि भगवान् कृष्ण के प्रेमी भक्त मुक्त रहते हैं अतः उनके (कहीं भी) मरने में समान फल है । महाप्रलय में भी उनका पतन नहीं होता है । इस लिए पुरुष और स्त्री को नारायण और कमलालया (लक्ष्मी) की सेवा करनी चाहिए ॥ १७-१८ ॥

तीर्थे ज्ञानमृतश्चापि वैकुण्ठं याति निश्चितम् ।
सभार्यो मोदते तत्र यावद्वै ब्रह्मणः शतम् ॥ १९ ॥
तीर्थ में ज्ञान पूर्वक मरने पर वह निश्चित वैकुण्ठ जाता है और सौ ब्रह्मा के समय तक वहाँ स्त्री समेत आनन्द का उपभोग करता है ॥ १९ ॥

इत्युक्त्वा रेणुकां तत्र जामदग्न्यमुवाच ह ।
वेदोक्तं वचनं सर्वं स भृगुः समयोचितम् ॥ २० ॥
भृगु ने रेणुका से इस प्रकार कहकर जामदग्न्य (परशुराम) से भी कहना आरम्भ किया, जो वेदसम्मत और सामयिक था ॥ २० ॥

एहि वत्स महाभाग त्यज शोकममङ्‌गलम् ।
उत्तानं कुरु तातं च दक्षिणाशिरसं भृगो ॥ २१ ॥
वस्त्रं यज्ञोपवीतं च नूतनं परिधापय ।
अनश्रुनयनो भूत्वा संतिष्ठन्दक्षिणामुखः ॥ २२ ॥
(उन्होंने कहा)-हे भृगो ! हे वत्स ! यहाँ आओ ! हे महाभाग ! यह अमंगल शोक छोड़ दो और अपने (मृतक) पिता को दक्षिण दिशा की ओर शिर करके उतान शयन कराओ और नवीन वस्त्र एवं यज्ञोपवीत पहनाओ किन्तु उस समय अश्रुपात न होने पाये और दक्षिणाभिमुख रहो ॥ २१-२२ ॥

अरणीसंभवाग्निं च गृहाण प्रीतिपूर्वकम् ।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि सर्वेषां स्मरणं कुरु ॥ २३ ॥
प्रेम पूर्वक अरणी से उत्पन्न अग्नि ग्रहण करो और पृथिवी के समस्त तीर्थों का स्मरण करो ॥ २३ ॥

गयादीनि च तीर्थानि ये च पुण्याः शिलोच्चयाः ।
कुरुक्षेत्रं च गङ्‌गा च यमुनां च सरिद्वराम् ॥ २४ ॥
कौशिकीं चन्द्रभागां च सर्वपापप्रणाशिनीम् ।
गण्डकीमथ काशीं च पनसां सरयूं तथा ॥ २५ ॥
पुष्पभद्रां च भद्रां च नर्मदां च सरस्वतीम् ।
गोदावरीं च कावेरीं स्वर्णरेखां च पुष्करम् ॥ २६ ॥
रैवतं च वराहं च श्रीशैलं गन्धमादनम् ।
हिमालयं च कैलासं सुमेरुं रत्‍नपर्वतम् ॥ २७ ॥
वाराणसीं प्रयागं च पुण्यं वृन्दावनं वनम् ।
हरिद्वारं च बदरीं स्मारंस्मारं पुनः पुनः ॥ २८ ॥
गया आदि तीर्थों और पुण्य पर्वतों--कुरुक्षेत्र, गंगा, नदीश्रेष्ठ यमुना, कौशिकी, समस्त पापनाशिनी चन्द्रभागा, गण्डकी, काशी, पनसा, सरयू, पुष्पभद्रा, भद्रा, नर्मदा, सरस्वती, गोदावरी, कावेरी, स्वर्णरेखा, पुष्कर, रैवत, वराह, श्रीशैल, गन्धमादन, हिमालय, कैलास, रत्नपर्वत सुमेरु, वाराणसी, प्रयाग, पुण्य वृन्दावना, हरिद्वार और बदरिकाश्रम का बार-बार स्मरण करो ॥ २४-२८ ॥

चन्दनागुरुकस्तूरीसुगन्धिकुसुमं तथा ।
प्रदाय वाससाऽऽच्छाद्य स्थापयैनं चितोपरि ॥ २९ ॥
चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और सुगन्धित पुष्प वहाँ चिता के ऊपर रखकर उन्हें वस्त्र से आच्छादित करो ॥ २९ ॥

कर्णाक्षिनासिकास्ये त्वं शलाकां च हिरण्मयीम् ।
कृत्वा निर्मन्थनं तात विप्रेभ्यो देहि सादरम् ॥ ३० ॥
हे तात ! 'कान, आँख, नाक और मुख में सुवर्ण की शलाका से निर्मन्थन करके ब्राह्मण को सादर समर्पित करो ॥ ३० ॥

सतिलं ताम्रपात्रं च धेनुं च रजतं तथा ।
सदक्षिणं सुवर्णं च दत्त्वाऽग्निं देह्यकातरः ॥ ३१ ॥
ॐ कृत्वा दुष्कृतं कर्म जानता वाऽप्यजानता ।
मृत्युकालवशं प्राप्य नरं पञ्जत्वमागतम् ॥ ३२ ॥
तिलसमेत ताम्रपात्र, धेनु, रजत (चांदी) और दक्षिणा समेत सुवर्ण प्रदान करके निर्भयता पूर्वक अग्नि लगाओ और कहो कि ओं ज्ञानपूर्वक या अज्ञान वश पाप-पुण्य कर्म करके मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हुआ (अर्थात् उसके शारीरिक पांचों भूत अपने-अपने तत्त्वों में विलीन हो गये) ॥ ३१-३२ ॥

धर्माधर्मसमायुक्तं लोभमोहसमावृतम् ।
दह सर्वाणि गात्राणि दिव्याल्लोकान्स गच्छतु ॥ ३ ३ ॥
अब धर्माधर्म युक्त और लोभ-मोह से आच्छन्न इस (व्यक्ति के) शरीर के समस्त अंगों को जला दो, जिससे यह दिव्य लोक चला जाये ॥ ३३ ॥

इमं मन्त्रं पठित्वा तु तातं कृत्वा प्रदक्षिणम् ।
मन्त्रेणानेन देह्यग्निं जनकाय हरिं स्मरन् ॥ ३४ ॥
इस मंत्र को पढ़ते हुए पिता की प्रदक्षिणा करो और भगवान् का स्मरण करते हुए इसी मन्त्र द्वारा पिता का अग्नि संस्कार करो ॥ ३४ ॥

ॐ अस्मत्कुले त्वं जातोऽसि त्वदीयो जायतां पुनः ।
असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहेति वद सांप्रतम् ॥ ३५ ॥
और यह भी कहो कि-ओं हमारे कुल में तुम उत्पन्न हुए हो, और पुना तुम्हारा होकर उत्पन्न हो । यह स्वर्गलोक चले जायँ, स्वाहा ॥ ३५ ॥

अग्निं देहि शिरःस्थाने हे भृगो भ्रातृभिः सह ।
तच्चकार भृगुः सर्वं सगोत्रैराज्ञया भृगोः ॥ ३६ ॥
हे भृगो ! भ्राताओं के साथ तुम उनके शिरोभाग में अग्नि लगाओ । इस प्रकार भृगु की आज्ञा से परशुराम ने गोत्रियों के साथ सम्पन्न किया ॥ ३६ ॥

अथ पुत्रं रेणुका सा कृत्वा तत्र स्ववक्षसि ।
उवाच किंचिद्वचनं परिणामसुखावहम् ॥ ३७ ॥
अनन्तर रेणुका ने वहाँ पुनः राम को अपने अंक से लगाती हुई उनसे कुछ परिणाम में सुखप्रद वचन कहा ॥ ३७ ॥

अविरोधो भयाब्धौ च सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ।
विरोधो नाशबीजं च सर्वोपद्रवकारणम् ॥ ३८ ॥
(किसी से) विरोध न करना संसारसागर में मस्त मंगलों का मंगल है और विरोध करना नाश का बीज एवं समस्त उपद्रवों का कारण है ॥ ३८ ॥

अकर्तव्यो दिरोधो वै दारुणैः क्षत्रियैः सह ।
प्रतिज्ञा चैषा कर्तव्या मदीयं वचनं शृणु ॥ ३९ ॥
अतः भीषण क्षत्रियों के साथ विरोध न करना ऐसी प्रतिज्ञा करो और मेरी बात सुनो ॥ ३९ ॥

आलोच्य ब्रह्मणा सार्धं भृगुणा दिव्यमन्त्रिणा ।
यथोचितं च कर्तव्यं सद्‌भिरालोचनं शुभम् ॥ ४० ॥
ब्रह्मा एवं दिव्य मंत्री भृगु के साथ मन्त्रणा (सलाह) करके यथोचित कार्य करना, क्योंकि सज्जनों से किया गया परामर्श शुभ होता है ॥ ४० ॥

इत्युक्त्वा तं परित्यज्य कान्तं कृत्वा स्ववक्षसि ।
सा सुष्वाप चितायां च पश्यंती तं हरिस्मृतिः ॥ ४१ ॥
इतना कहकर उसे छोड़ कर पति को गोद में लेकर भगवान् का चिन्तन कर उन्ह देखती हई चिता पर लेट गई ॥ ४१ ॥

वह्निं ददौ विज्ञायां च स रामो भ्रातृभिः सह ।
भ्रातृभिः पितृशिष्यैश्च सार्धं स विललाप च ॥ ४२ ॥
अनन्तर राम ने भ्राताओं समेत चिता में अग्नि लगाया और भ्राताओं एवं पिता के शिष्य-वों मेत विलाप करने लगे ॥ ४२ ॥

राम रामेति रामेति वाक्यमुच्चार्य सा सती ।
पुरस्ताज्जामदग्न्यस्य भस्मीभूता बभूव सा ॥ ४३ ॥
सती रेणुका हे राम', हे राम ! ऐसा कहती हुई परशुराम के सामने (जार) भस्म हो गयी ॥ ४३ ॥

भर्तुर्नाम रसमाकर्ण्य तत्राऽऽजग्मुर्हरेश्चराः ।
रथस्थाः श्यामवर्णाश्च सर्वे चारुचतुर्भुजाः ॥ ४४ ॥
शंखचक्रगदापद्म धारणो वनमालिनः ।
किरीटिनः कुण्डलिनः पीतकौशेयवाससः ॥ ४५ ॥
स्वामी का नाम सुनते ही भगवान् के दूत-गण रथ पर बैठे वहाँ तुरन्त पहुँच गये, जो श्यामवर्ग, सुन्दर चार भुजाएँ, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये, वनमाला पहने, किरीट, कुण्डल एवं पीताम्बर धारी थे ॥ ४४-४५ ॥

रथे कृता रेणुकां तां गत्वा ते ब्रह्मणः पदम् ।
जमदग्निं समादाय प्रजग्मुर्हरिसंनिधिम् ॥ ४६ ॥
उन लोगों ने रेणुका और जमदग्नि को रथ पर बैठा कर ब्रह्मलोक होते हुए उन्हें भगवान् के समीप पहुँचा दिया ॥ ४६ ॥

तौ दम्पती च वैकुण्ठे तस्थतुर्हरिसंनिधौ ।
कृत्वा दास्यं हरेः शश्वत्सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ॥ ४७ ॥
इस प्रकार वे दम्पती वैकुण्ठ में भगवान् के समीप रह कर मस्त मंगलों की मंगल भगवान् की दास्यभक्ति निरन्तर करने लगे ॥ ४७ ॥

अथ रामो ब्राह्मणैश्च भृगुणा सह नारद ।
पित्रोः शेषक्रियां कृत्वा ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ ॥ ४८ ॥
गोभूहिरण्यवासांसि दिव्यशय्यां मनोरमाम् ।
सुवर्णाधारसहितां जलमन्नं च चन्दनम् ॥ ४९ ॥
रत्‍नदीपं रौप्यशैलं सुवर्णासनमुत्तमम् ।
सुवर्णाधारसहितं ताम्बूलं च सुवासितम् ॥ ५० ॥
छत्रं च पादुके चैव फलं माल्यं मनोहरम् ।
फलं मूलादिकं चैव मिष्टान्नं च मनोहरम् ॥
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा ब्रह्मलोकं जगाम सः ॥ ५१ ॥
हे नारद ! इसके पश्वात् राम ने भूगु एवं ब्राह्मणों समेत माता-पिता की शेष अन्त्येष्टि क्रिया सुसम्पन्न कर ब्राह्मणों को धन प्रदान किया--गौ, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, दिव्य एवं सुवर्णाधारसमेत उत्तम शय्या, जल, अन्न, चन्दन, रत्नदीप, चांदी-पर्वत, सुवर्णाधार समेत उत्तम सुवर्णान, सुवामित ताम्बूल, छत्र, सन्दर खड़ाऊँ, फल, सुन्दर माला, फलमूल तथा मनोहर मिष्टान्न प्रदान किया । इस प्रकार ब्राह्मगों को धनदान देकर स्वयं ब्रह्मलोक चले गये ॥ ४८-५१ ॥

ददर्श ब्रह्मलोकं स शातकुम्भविनिमितम् ।
स्वर्णप्राकारसंयुक्तं स्वर्णस्तम्भैर्विभूषितम् ॥ ५२ ॥
वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्रह्मलोक देखा, जो सुवर्ण-रचित, सुवर्ग की चहारदीवारी से युक्त और सुवर्ण के स्तम्भों से सुशोभित था ॥ ५२ ॥

ददर्श तत्र ब्रह्माणं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ।
रत्‍नसिंहासनस्थं च रत्‍नभूषणभूषितम् ॥ ५३ ॥
वहाँ ब्रह्मा को देखा, जो ब्रह्मतेज से देदीप्यमान और रत्नसिंहासन पर सुखासीन होकर रत्नों के भूषणों से विभूषित थे ॥ ५३ ॥

सिद्धेन्तैश्च मुनीन्द्रैश्च ऋषीन्द्रैः परिवेष्टितम् ।
विद्याधरीणां नृत्यं च पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ ५४ ॥
सिद्धों, मुनियों और ऋषियों में श्रेष्ठों से घिरे मन्द मुसुकान करते हुए, विद्याधारियों का नृत्य देख रहे थे ॥ ५४ ॥

संगीतमुपशृण्वन्तं गीयमानं च गायकैः ।
चन्दनागुरुकस्तूरीकुकुङ्‍कुमेन विराजितम् ॥ ५५ ॥
तपसां फलदातारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
धातारं सर्वजगतां कर्तारं चेश्वरं परम् ॥ ५६ ॥
परिपूर्णतमं ब्रह्म जपन्तं कृष्णमीश्वरम् ।
गुह्ययोगं प्रवोचन्तं पृच्छन्तं शिष्यमण्डलम् ॥ ५७ ॥
गायक लोगों के गाने-बजाने सुन रहे थे । तथा चन्दन, अगुरु, कस्तूरी' और कुंकुम से भूषित थे । तप फल एवं समस्त सम्पत्ति के दाता, समस्त जगत् के धाता-मा, परमेश्वर, परिपूर्णतम परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण का नाम जप रहे थे तथा शिष्यमण्डल के पूछने पर उन्हें गुह्य योग बता रहे थे ॥ ५५-५७ ॥

दृष्ट्‍वा तमव्ययं भक्त्या प्रणनाम भृगुः पुरः ।
उच्चैश्च रोदनं कृत्वा स्ववृत्तान्तमुवाच ह ॥ ५८ ॥
ऐसे ब्रह्मा को देख कर भृगु (परशुराम) उनके सामने खड़े हो गये और भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया, अनन्तर ऊँचे स्वर से रोदन करते हुए अपना समस्त वृत्तान्त उनसे बतलाया ॥ ५८ ॥

भृगुरुवाच
ब्रह्मंस्त्वद्वशंजोऽहं जमदग्निसुतो विधे ।
पितामहस्त्वमस्माकं सर्वज्ञं कथयामि किम् ॥ ५९ ॥
भृगु बोले- हे ब्रह्मन् ! है विधे ! तुम्हारे वंश में हम उत्पन्न हुए हैं और जमदग्नि के पुत्र हैं । तुम हमारे पितामह हो और सर्वज्ञाता हो, मैं तुमसे क्या कहूँ ॥ ५९ ॥

मृगयामागतं भूपं पिता मे चोपवासिनम् ।
पारणां कारयामास कपिलादत्तवस्तुभिः ॥ ६० ॥
मृगया (शिकार) खेलने के लिए आये हुए राजा को मेरे पिता ने भूखा देखकर कपिला की दी हुई वस्तुओं से उसे भोजन कराया ॥ ६० ॥

स राजा कपिलालोभात्कार्तवीर्यार्जुनः स्वयम ।
घातयामास मत्तातमित्युक्त्वोच्चै रुरोद सः ॥ ६१ ॥
अनन्तर उस राजा कार्तवीर्यार्जुन ने वही कपिला ले लेने के लोभ से स्वयं मेरे पिता को मार डाला । इतना कह कर उन्होंने अत्युच्च स्वर से रोदन किया ॥ ६१ ॥

निरुध्य बाष्पं स पुनरुवाच करुणानिधिः ।
माता मेऽनुऽगता साध्वी मां विहाय जगद्‌गुरो ॥ ६२ ॥
करुणानिधान परशुराम ने किसी प्रकार आँसुओं को रोककर पुनः कहना आरम्भ किया हे जगद्गुरो ! मेरी सती माता भी मुझे छोड़कर उन्हीं के साथ चली गयीं ॥ ६२ ॥

अधुनाऽहमनाथश्च त्वं मे माता पिता गुरुः ।
कर्ता पालयिता दाता पाहि मां शरणागतम् ॥ ६३ ॥
इस समय मैं अनाथ हूँ, अतः तुम्हीं मेरे पिता, माता एवं गुरु हो । तथा कर्ता, पालन करने वाले एवं दाता हो, मुझ शरणागत की रक्षा करो ॥ ६३ ॥

आगतोऽहं तव सभां प्रमातुर्मातुराज्ञया ।
उपायेन जगन्नाथ मद्वैरिहननं कुरु ॥ ६४ ॥
मैं पूजनीय माता की आज्ञा से तुम्हारी सभा में आया हूँ, अतः हे जगन्नाथ ! (किसी भी) उपाय से मेरे वैरी का हनन करो ॥ ६४ ॥

स राजा स च धर्मिष्ठः स दयालुर्यशस्करः ।
स पूज्यः स स्थिरश्रीश्च यो दीनं परिपालयेत् ॥ ६५ ॥
क्योंकि वही राजा, धर्मात्मा, दयालु, यशस्वी, पूज्य एवं अचललक्ष्मी से सम्पन्न है, जो दीनों का भलीभांति पालन करे ॥ ६५ ॥

धनिदीनौ समं दृष्ट्‍वा यः प्रजां न च पालयेत् ।
तद्‌गेहाद्याति रुष्टा श्रीः स भवेद्‌भ्रष्टराज्यकः ॥ ६६ ॥
जो धनी एवं दीन को समान' समझकर पालन नहीं करता है, उसके घर से रुष्ट होकर श्री चलो जाती हैं और वह राज्यच्युत हो जाता है ॥ ६६ ॥

श्रुत्वा विप्रबटोर्वाक्यं करुणासागरो विधिः ।
दत्त्वा शुभाशिषं तस्मै वासयामास वक्षसि ॥ ६७ ॥
करुणामागर ब्रह्मा ने उस ब्राह्मणबालक की बातें सुनकर उसे शुभाशीर्वाद प्रदान करते हुए अपने हृदय से लगा लिया ॥ ६७ ॥

श्रुत्वा भृगोः प्रतिज्ञां च विस्मितश्चतुराननः ।
अतीव दुष्करां घोरां बहुजीवविघातिनीम् ॥ ६८ ॥
परशुराम की उस प्रतिज्ञा को, जो अत्यन्त दुष्कर, भीषण एवं असंख्य जीवों का नाश करने वाली थी, सुनकर चतुरानन आश्चर्यचकित हो गये ॥ ६८ ॥

कर्मणा तद्‌भवेत्सर्वमिति कृत्वा तु मानसे ।
उवाच जामदग्न्यं तं परिणामसुखावहम् ॥ ६९ ॥
कर्म से सब कुछ हो सकता है ऐसा अपने मन में विचार कर उन्होंने जामदग्न्य से कहना आरम्भ किया, जो परिणाम में अतिसुखप्रद था ॥ ६९ ॥

ब्रह्मोवाच
प्रतिज्ञा दुष्करा वत्स बहुजीवविधातिनी ।
सृष्टिरेषा भगवतः संभवेदीश्वरेच्छया ॥ ७० ॥
ब्रह्मा बोले-हे वत्स' ! यह तुम्हारी प्रतिज्ञा बहुत दुष्कर है, इसमें अनेक जीवों की हिंसा होगी । यह सृष्टि भगवान् ईश्वर की इच्छा से उत्पन्न होती है ॥ ७० ॥

सृष्टिः सृष्टा मया पुत्र क्लेशेनैवेश्वराज्ञया ।
सृष्टिलुप्तौ प्रतिज्ञा ते दारुणाऽकरुणा परा ॥ ७१ ॥
हे पुत्र ! ईश्वर की आज्ञावश मैंने इस सृष्टि का बड़े दुःख से सर्जन किया है और तुम्हारी प्रतिज्ञा अति भीषण एवं निर्दयतापूर्ण है इससे सृष्टि ही लुप्त हो जायगी ॥ ७१ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कर्तुमिच्छसि मेदिनीम् ।
एकक्षत्रियदोषेण तज्जातिं हन्तुमिच्छसि ॥ ७२ ॥
इस पृथिवी को इक्कीम बार बिना राजा का करना चाहते हो, एक क्षत्रिय के अपराधवश उसकी जाति ही मिटाना चाहते हो ॥ ७२ ॥

ब्रह्मक्षत्रियविट्छूद्रैर्नित्या सृष्टिश्चतुर्विधैः ।
आविर्भूता तिरोभूता हरेरेव पुनः पुनः ॥ ७३ ॥
भगवान की की हई यह ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र के भेद से चार प्रकार की सृष्टि नित्य उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है ॥ ७३ ॥

अन्यथा त्वत्प्रतिज्ञा च भविता प्राक्तनेन ते ।
बह्वायासेन ते कार्यसिद्धिर्भवितुमर्हति ॥ ७४ ॥
तुम्हारे जन्मान्तरीय संस्कार वश यह प्रतिज्ञा सफल नहीं हो सकती; हाँ, बहुत प्रयत्न करने पर तो कार्य-सिद्धि हो सकती है ॥ ७४ ॥

शिवलोकं गच्छ वत्स शंकरं शरणं व्रज ।
पृथिव्यां बहवो भूपाः सन्ति शंकरकिंकराः ॥ ७५ ॥
विनाऽऽज्ञया महेशस्य को वा तान्हन्तुमीश्वरः ।
बिभ्रत कवचं दिव्यं शक्तेर्वै शंकरस्य च ॥ ७६ ॥
उपायं कुरु यत्‍नेन जयबीजं शुभावहम् ।
उपायतः समारब्धाः सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः ॥ ७७ ॥
अतः हे वत्स ! शिवलोक में शंकर की शरण में जाओ । क्योंकि पृथ्वी पर शंकर के भक्त अनेक राजा हैं, शंकर और दुर्गा का दिव्य कवच धारण करते हुए उन्हें बिना महेश्वर की आज्ञा के कौन मार सकता है ? प्रयत्नपूर्वक उपाय करोजो जय का कारण एवं शुभावह हो । क्योंकि सभी उपक्रम उपाय द्वारा ही आरम्भ करने पर सफल होते हैं ॥ ७५-७७ ॥

श्रीकृष्णमन्त्रकवचग्रहणं कुरु शंकरात् ।
दुर्लभं वैष्णवं तेजः शैवं शाक्तं विजेष्यति ॥ ७८ ॥
शंकर से भगवान् श्रीकृष्ण का मन्त्र, कवच एवं दुर्लभ वैष्णव तेज प्राप्त करो, जिससे शैव एवं शाक्त तेज पर विजय प्राप्त कर सको ॥ ७८ ॥

गुरुस्ते जगतां नाथः शिवो जन्मनि जन्मनि ।
मन्त्रो मत्तो न युक्तस्ते योयुक्तःस भवेद्विधिः ॥ ७९ ॥
जगत् के स्वामी शंकर तुम्हारे जन्म-जन्म के गुरु हैं अतः मेरा मंत्र तुम्हारे लिए युक्त नहीं है और जो युक्त है वह उपाय मैंने तुम्हें बता दिया ॥ ७९ ॥

कर्मणा लभ्यते मन्त्रा कर्मणा लभ्यते गुरुः ।
स्वयमेवोपतिष्ठन्ते ये येषां तेषु ते ध्रुवम् ॥ ८० ॥
क्योंकि कर्म से मन्त्र प्राप्त होता है और कर्म से ही गुरु प्राप्त होते हैं । अतः जो जिनके हैं वे निश्चित ही उनको मिल जाते हैं । ८० ॥

त्रैलोक्यविजयं नाम गृहीत्वा कवचं वरम् ।
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यसि महीं भृगो ॥ ८१ ॥
हे भृगो ! तुम उनसे त्रैलोक्यविजय नामक श्रेष्ठ कवच प्राप्त करके इक्कीस बार इस पृथिवी को अवश्य भूपरहित कर सकोगे ॥ ८१ ॥

दिव्यं पाशुपतं तुभ्यं दाता दास्यति शंकरः ।
तेन दत्तेन शस्त्रेण क्ष‌त्रसंघं विजेष्यसि ॥ ८२ ॥
दाता शिव तुम्हें अपना पाशुपत दिव्य अस्त्र प्रदन करेंगे और उन्हीं के दिये मंत्र द्वारा तुम क्षत्रिय-समूहों को जीतोगे ॥ ८२ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे भृगोर्ब्रह्मलोकगमने
ब्रह्मोक्तोपायवर्णनं नामाष्टाविशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में भृगु का ब्रह्मलोक गमन तथा ब्रह्मोक्त उपाय वर्णन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २८ ॥

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