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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकोनत्रिंशोऽध्यायः परशुरामस्य कैलाशगमनम् -
परशुराम का कैलासगमन वर्णन - नारायण उवाच ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा प्रणम्य च जगद्गुरुम् । स्फीतस्तस्माद्वरं प्राप्य शिवलोकं जगाम सः ॥ १ ॥ नारायण बोले-ब्रह्मा की बातें सुनकर उन्होंने जगद्गुरु (ब्रह्मा) को नमस्कार किया और उनसे वरदान प्राप्त कर उत्साहपूर्वक शिवलोक को प्रस्थान किया ॥ १ ॥ लक्षयोजनमूर्ध्वं च ब्रह्मलोकाद्विलक्षणम् । अनिर्वाच्यसुशोभाढ्यं वाय्वाधारं मनोहरम् ॥ २ ॥ जो ब्रह्मलोक से एक लाख योजन ऊपर और ब्रह्मलोक से विलक्षण, अकथनीय शोभा से विभूषित, वायु का आधार एवं मनोहर है ॥ २ ॥ वैकुण्ठं दक्षिणे यस्य गौरीलोकश्च वामतः । यदधो ध्रुवलोकश्च सर्वलोकात्परः स्मृतः ॥ ३ ॥ उसके दक्षिण में वैण्ठ, बांयें गौरीलोक, नीने ध्रुवलोक और स्वयं समस्त लोकों से परे है ॥ ३ ॥ तेषामूर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनः । अत ऊर्ध्वं न लोकश्च सर्वोपरि च स स्मृतः ॥ ४ ॥ इन सभी लोकों के ऊपर पचास करोड़ योजन की दूरी पर गोलोक है । उसके ऊपर कोई लोक नहीं है, सबसे ऊपर वही है, ऐसा बताया गया है ॥ ४ ॥ मनोयायी स योगीन्द्रः शिवलोकं ददर्श ह । उपमानोपमेयाभ्यां रहितं महदद्भुतम् ॥ ५ ॥ योगीन्द्राणां वरेण्यैश्च सिद्धविद्याविशारदैः । कोटिकल्पतपःपूतैः पुण्याद्भिर्निषेवितम् ॥ ६ ॥ मन के समान वेग से चलने वाले योगिराज परशुराम ने वहाँ पहुँच कर शिवलोक देखा, जो उपमान, उपमेय से रहित, महान् अद्भुत, उत्तम योगिराज एवं सिद्धविद्यानिपुण तथा करोड़ों कल्पों तक त । करके पवित्र होने वाले पुण्यात्माओं से सुसेवित था ॥ ५-६ ॥ वेष्टितं कल्पवृक्षाणां समूहैर्वाञ्छितप्रदैः । समूहैः कामधेनूनांमसंख्यानां विराजितम् ॥ ७ ॥ पारिजाततरूणां च वनराजिविराजितम् । मधुलुब्धमधूम्राणां मधुरध्वनिमोहितम् ॥ ८ ॥ नवपल्लवसंयुक्तं पुंस्कोकिलरुतश्रुतम् । योगेन योगिनां सृष्टं स्वेच्छया शंकरेण च ॥ ९ ॥ शिल्पिनां गुरुणा स्वप्ने न दृष्टं विश्वकर्मणा । जन्तुभिर्वेष्टितं ब्रह्मन्योगदुष्टैर्निरामयैः ॥ १० ॥ मनोरथ सिद्ध करने वाले कल्पवृक्षों के समूह से घिरा, असंख्य काम-धेनुओं के समूह से सुशोभित, पारिजात वृक्षों की वन-पंक्तियों से विभूषित, मवु के लोभी भ्रमरों की मधुर ध्वनि से मोहित, नये पल्लवों से युक्त, नर कोयलों की कूक से ध्वनित और योगियों के योग से तथा शंकर की स्वेच्छा से निर्मित था । ऐसा निर्माण शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा ने स्वप्न में भी नहीं देखा था । ब्रह्मन् ! शिवलोक योगदुष्ट स्वस्थ जन्तुओं से घिरा हुआ था ॥ ७-१० ॥ सरोवरशतैदिव्यैः पद्मराजीविराजितैः । पुष्पोद्यानायुतैर्युक्तं सदा चातिसुशोभितम् ॥ ११ ॥ कमलपंक्तियों से शोभित सेकड़ों दिव्य रोवरों एवं पुप्पों की वाटिकाओं से सदा युक्त होने के नाते अति सुशोभित था ॥ ११ ॥ मणीन्द्रसाररचितैः शोभितैर्मणिवेदिभिः । राजमार्गशतैदिव्यैः सर्वतः परिभूषितम् ॥ १२ ॥ मणीन्द्रसारनिर्माणशतकोटिगृहैर्युतम् । नानाचित्रविचित्राढ्यैर्मणीन्द्रकलशोज्ज्वलैः ॥ १३ ॥ उत्तम मणियों के सारभाग की सुरचित वेदियों से अलंकृत, सैकड़ों दिव्य राजमार्ग (सड़कों) से चारों ओर सुभूषित और उत्तम मणियों के मारभाग से सुनिर्मित सैकड़ों गृहों से युक्त था, जो उत्तम मणियों के बने अनेक भांति के चित्र-विचित्र कलशों से समुज्ज्वल दिखायी देते थे ॥ १२-१३ ॥ तन्मध्यदेशे रम्ये च ददर्श शंकरालयम् । मणीन्द्रसाररचितप्राकारं सुमनोहरम् ॥ १४ ॥ उनके रम्य मध्य भाग में शंकर जी का गृह देखा, जो मणीन्द्र के सारभाग से रचित परकोटों से अतिमनोहर था ॥ १४ ॥ अत्यूर्ध्वमम्बरस्पर्शि क्षीरनीरनिभं परम् । षोडशद्वारसंयुक्तं शोभितं शतमन्दिरैः ॥ १५ ॥ अत्यन्त ऊंचा, गगनस्पर्शी, क्षीर-नीर के समान उत्तम वर्ण, सोलह दरवाजों से युक्त एवं सैकड़ों गृहों से सुशोभित था ॥ १५ ॥ अमूल्यरत्नरचितै रत्नसोपानभूषितैः । रत्नस्तम्भकपाटैश्च हीरकेण परिष्कतैः ॥ १६ ॥ जो गृह अमूल्य रत्नों की बनी (सीढ़ियों) से विभूषित, हीरा जड़े हुए रत्नों के स्तम्भों और किवाड़ों से युक्त थे । ॥ १६ ॥ माणिक्यजालमालाभिः सद्रत्नकलशोज्ज्वलैः । नानाविचित्रचित्रेण चित्रितैः सुमनोहरैः ॥ १७ ॥ माणिक्य के जालरूपी मालाओं, उत्तम रत्न के समुज्ज्वल कलशों एवं अनेक भाँति के चित्र-विचित्र तथा अति मनोहर चित्रकारियों से सुशोभित थे ॥ १७ ॥ आलयस्य पुरस्तत्र सिंहद्वारं ददर्श सः । रत्नेन्द्रसारखचितकपाटैश्च विराजितम् ॥ १८ ॥ शोभितं वेदिकाभिश्च बाह्याभ्यन्तरतः सदा । रचिताभिः पद्मरागैर्महामरकतैर्गृहम् ॥ १९ ॥ नानाप्रकारचित्रेण चित्रितं सुमनोहरम् । करालरूपावद्राक्षीद्द्वारपालौ भयंकरौ ॥ २० ॥ महाकरालदन्तास्यौ विकृतौ रक्तलोचनौ । वग्धशैलप्रतीकाशौ महाबलपराक्रमौ ॥ २१ ॥ विभूतिभूषिताङ्गौ च व्याघचर्माम्बरौ वरौ । पिङ्गलाक्षौ विशालाक्षौ जटिलौ च त्रिलोचनौ ॥ २२ ॥ त्रिशूलपट्टिशधरौ ज्वलन्तौ ब्रह्मतेजसा । तौ दृष्ट्वा मनसा भीतस्त्रस्तः किंचिदुवाच ह ॥ २३ ॥ महल के सामने उन्होंने सिंहद्वार देखा, जो उत्तम रत्नों के सारभाग से खचित कपाटों (किवाड़ों) से विराजमान था । फिर गृह देखा, जो बाहर-भीतर सदा पद्मराग और महामरकत की बनी वेदियों से अलंकृत अनेक भाँति के चित्र-विचित्र तथा अति मनोहर चित्रों से चित्रित था । वहाँ भयंकर विकरालरूप वाले दो द्वारपालों को देखा, जिनके दांत और मुख, महाभयंकर थे; लाल-लाल विकृत आँखे थीं; वे जले हुए पर्वत के समान थे; महान् बली और पराक्रमी थे; सर्वाग में विभूति (राख) लगाये, उत्तम बाघम्बर ओढ़े, पिंगल-विशाल नेत्र, जटा रखाये, त्रिनेत्र एवं त्रिशूल और पट्टिश (अस्त्र) लिए ब्रह्मतेज से प्रज्वलित थे । उन्हें देखकर भृगु मन में डर गये, किन्तु त्रस्त होते हुए भी कुछ बोले ॥ १८-२३ ॥ विनयेन विनीतश्च दुर्विनीतौ महाबलौ । आत्मनः सर्ववृत्तान्तं कथयामास तत्पुरः ॥ २४ ॥ विनयविनम्र होकर उन्होंने उन दुविनीत एवं महाबलवान् द्वारपालों के सामने अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ २४ ॥ विप्रस्य वचनं श्रुत्वा कृपायुक्तौ बभूवतुः । गृहीत्वाऽऽज्ञां चरद्वारा शंकरस्य महात्मनः ॥ २५ ॥ प्रवेष्टुमाज्ञां ददतुरीश्वरानुचरौ वरौ । भृगुस्तदाज्ञामादाय प्रविवेश हरिं स्मरन् ॥ २६ ॥ विप्र की बातें सुनकर उन दोनों को दया आ गयी, अत: महात्मा शंकर की आज्ञा लेकर उन दोनों ने उन्हें भीतर जाने की आज्ञा प्रदान की । भृगु ने आज्ञा पाने पर भगवान् का स्मरण करते हुए भीतर प्रवेश किया ॥ २५-२६ ॥ प्रत्येकं षोडश द्वारो ददर्श सुमनोहराः । द्वारपालैर्नियुक्ताश्च नानाचित्रविचित्रिताः ॥ २७ ॥ इसी भांति सोलह दरवाजों को उन्होंने देखा जो अति मनोहर थे एवं जहाँ अनेक भांति के चित्र-विचित्र द्वारपाल नियुक्त थे ॥ २७ ॥ दृष्ट्वा तां महदाश्चर्यादपश्यच्छूलिनः सभाम् । नानासिद्धगणाकीर्णां महर्षिगणसेविताम् ॥ २८ ॥ पारिजातसुगन्धाढ्यवायुना सुरभीकृताम् । ददर्श तत्र देवेशं शंकरं चन्द्रशेखरम् ॥ २९ ॥ त्रिशूलपट्टिशधरं व्याघ्ग्चर्माम्बरं परम् । विभूतिभूषिताङ्गं तं नागयज्ञोपवीतिनम् ॥ रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् ॥ ३० ॥ उन्हें देखते हुए उन्होंने शिव की सभा को देखा, जो अनेक भांति के सिद्ध-गणों से आच्छन्न, महर्षिगणों से सुसेवित एवं पारिजात की अति सुगन्धित वायु से सुगन्धपूर्ण थी । वहां देवाधीश चन्द्रशेखर शिव को देखा, जो त्रिशूल, पट्टिश लिए, सुन्दर बाघम्बर ओढ़े, सर्वांग में विभूति रमाये, नाग का यज्ञोपवीत पहने, रत्न सिंहासन पर सुखासीन एवं रत्नों के भूषणों से विभूषित थे ॥ २८-३० ॥ महाशिवं शिवकरं शिवबीजं शिवाश्रयम् । आत्मारामं पूर्णकामं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ ३१ ॥ ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् । शश्वज्ज्योतिः स्वरूपं च लोकानुग्रहविग्रहम् ॥ ३२ ॥ धृतवन्तं जटाजालं दक्षकन्या समन्वितम् । तपसां फलदातारं दातारं सर्वसंपदाम् ॥ ३३ ॥ शुद्धस्फटिकसंकाशं पञ्चवक्त्रं त्रिलोचनम् । गुह्यं ब्रह्म प्रवोचन्तं शिव्येभ्यस्तत्त्वमुद्रया ॥ ३४ ॥ स्तूयमानं च योगीन्द्रैः सिद्धेन्द्रैः परिसेवितम् । पार्षदप्रवरैः शश्वत्सेवितं श्वेतचामरैः ॥ ३५ ॥ ज्योतीरूपं च सर्वाद्यं श्रीकृष्णं प्रकृतेः परम् । ध्यायन्तं परमानन्दं पुलकाञ्चितविग्रहम् ॥ ३६ ॥ सुस्वरं साश्रुनेत्रतमुद्गायन्त गुणार्णवम् । भूतेन्द्रैर्वै रुद्रगणैः क्षेत्रपालैश्च वेष्टितम् ॥ ३७ ॥ वे कल्याणकारी, कल्याण के बीज, कल्याण के आश्रय, आत्माराम, पूर्णकाम, करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाले, मन्दहास वाले, प्रसन्नमुख, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, निरन्तर ज्योतिःस्वरूप, लोककल्याणार्थ शरीरधारी, जटा-जूट धारण किये, गौरी से युक्त, तप का फल और समस्त सम्पत्ति के प्रदाता, शुद्ध स्फटिक के समान वर्ण वाले, पांच मुख और तीन नेत्र वाले एवं शिष्यों को तत्त्व मुद्रा गुह्य ब्रह्म का उपदेश करने वाले, योगीन्द्रों से स्तुत, सिद्धेन्द्रों से चारों ओर से सेवित, श्रेष्ठ पार्षदों द्वारा निरन्तर श्वेतचामर से सुसेवित, ज्योतिरूप एवं परमानन्द भगवान् श्रीकृष्ण का, जो सर्वादि और प्रकृति से परे है, ध्यान करनेवाले महाशिव विभोर होकर सर्वांग में पुलकायमान हो रहे थे । एवं उत्तम स्वर से गुण-सागर भगवान् का भजन करते हुए प्रेम के आँसू बहा रहे थे । तथा भूतगण, रुद्रगण एवं क्षेत्रपालों से आवेष्टित थे ॥ ३१-३७ ॥ मूर्ध्ना ननाम परशुरामो दृष्ट्वा तमादरात् । तद्वामे कार्तिकेयं च दक्षिणे च गणेश्वरम् ॥ ३८ ॥ नन्दीश्वरं महाकालं वीरभद्रं च तत्पुरः । अङ्के ददर्श कान्तां तां गौरीं शैलेन्द्रकन्यकाम् ॥ ३९ ॥ ननाम सर्वान्मूर्ध्ना च भक्त्या च परया मुदा । दृष्ट्वा हरं परं तोषात्स्तोतुं समुपचक्रमे ॥ ४० ॥ सगद्गदपदं दीनः साश्रुनेत्रोऽतिकातरः । कृताञ्जलिपुटः शान्तः शोकार्तः शोकनाशनम् ॥ ४१ ॥ अनन्तर परशुराम ने सादर उन्हें प्रणाम किया उनके बायें भाग में कार्तिकेय, दाहिने गणेश्वर, - नन्दीश्वर, महाकाल एवं वीरभद्र को उनके सामने बैठे हुए देखा । उनके अंक में उनकी पत्नी शैलराज पुत्री गौरी बैठी थीं । उन्होंने उन सबको भक्तिपूर्वक बड़ी प्रसन्नता से शिर से प्रणाम किया और शिव को देखकर अति सन्तुष्ट होकर उनकी स्तुति करना आरम्भ किया । दीन, आँखों में आँसू भरे एवं अतिकातर राम हाथ जोड़कर शान्त भाव से शोकनाशन शिव का गद्गद्वाणी द्वारा गुणगान करने लगे ॥ ३८-४१ ॥ परशुराम उवाच ईश त्वां स्तोतुमिच्छामि सर्वथा स्तोतुमक्षमः । अक्षराक्षयबीजं च किंवा स्तौमि निरीहकम् ॥ ४२ ॥ परशराम बोले-हे ईश ! मैं तुम्हारी स्तुति करना चाहता हूँ, किन्तु स्तुति करने में असमर्थ हुँ । तथा अक्षर (अविनाशी), अक्षयबीज और निरीह (इच्छारहित) की स्तुति ही क्या करूँ ॥ ४२ ॥ न योजनां कर्तुमीशो देवेशं स्तौमि मूढधीः । वेदा न शक्ता यं स्तोतुं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ ४३ ॥ मैं उसकी योजना भी नहीं कर सकता ऐसा मूढ़बुद्धि मैं देवाधीश्वर की स्तुति करता हूँ । जिसकी स्तुति वेद नहीं कर सकते, तो अन्य कौन तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ हो सकता है ॥ ४३ ॥ वाग्बुद्धिमनसा दूरं सारात्सारं परात्परम् । ज्ञानमात्रेण साध्यं च सिद्धं सिद्धैर्निषेवितम् ॥ ४४ ॥ तुम वाणी, बुद्धि और मन से अति दूर, सारभाग के भी सारभाग, परे से परे, केवल ज्ञानमात्र से साध्य होने वाले, सिद्ध और सिद्धों से सुसेवित हो ॥ ४४ ॥ यमाकाशमिवाऽद्यन्तमध्यहीनं तथाऽव्ययम् । विश्वतन्त्रमतन्त्रं च स्वतन्त्रं तन्त्रबीजकम् ॥ ४५ ॥ ध्यानासाध्यं दुराराध्यमतिसाध्यं कृपानिधिम् । त्राहि मां करुणासिन्धो दीनबन्धोऽतिदीनकम् ॥ ४६ ॥ आकाश की भांति आदि, मध्य और अन्त से रहित हो, अविनाशी हो, विश्व के तन्त्र, तन्त्रसे दूर, स्वतन्त्र, तन्त्र के बीज, ध्यान से असाध्य, दुराराध्य अतिसाध्य और कृपानिधान हो, अतः हे करुणासिन्धो ! हे दीनबन्धो ! मैं अतिदीन हूँ, मेरी रक्षा करो ॥ ४५-४६ ॥ अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् । स्वप्नेऽप्यदृष्टं भक्तैश्चाधुना पश्यामि चक्षुषा ॥ ४७ ॥ आज मेरा जन्म सफल हो गया, जीवन सुजीवन हुआ, क्योंकि भक्तगण जिसे स्वप्न में भी नहीं देख पाते हैं, मैं उन्हें इस समय अपनी आँखों देख रहा हूँ ॥ ४७ ॥ शक्रादयः सुरगणाः कलया यस्य व संभवाः । चराचराः कलांशेन तं नमामि महेश्वरम् ॥ ४८ ॥ इन्द्र आदि देवगण जिसकी कला से उत्पन्न हैं और चर-अचर जगत् जिसके कलांश से, उम महेश्वर को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ४८ ॥ स्त्रीरूपं क्लीबरूपं च पौरुषं च बिभर्ति यः । सर्वाधारं सर्वरूपं तं नमामि महेश्वरम् ॥ ४९ ॥ जो स्त्रीरूप, नपुंसकरूप एवं पौरुष धारण करता है तथा सबका आधार और सर्वरूप है, उस महेश्वर को मैं नमस्कार कर हा हूँ ॥ ४९ ॥ यं भास्करस्वरूपं च शशिरूपं हुताशनम् । जलरूपं वायुरूपं तं नमामि महेश्वरम् ॥ ५० ॥ जो भास्करस्वरूप, चन्द्ररूप, अग्निरूप, जलरूप और वायुरूप है उस महेश्वर को नमस्कार करता हूँ ॥ ५० ॥ अनन्तविश्वसृष्टीनां संहर्तारं भयंकरम् । क्षणेन लीलामात्रेण तं नमामि महेश्वरम् ॥ ५१ ॥ अनन्त विश्व-सृष्टि का लीला की भांति क्षणमात्र में संहार करने वाले, भीषण महेश्वर को नमस्कार करता हूँ ॥ ५१ ॥ इत्येवमुक्त्वा स भृगुः पपात चरणाम्बुजे । आशिषं च ददौ तस्मै सुप्रसन्नो बभूव सः ॥ ५२ ॥ इतना कहकर भृगु उनके चरण-कमल पर गिर पड़े । उन्होंने सुप्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया ॥ ५२ ॥ जामदग्न्यकृतं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुतः । सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकं स गच्छति ॥ ५३ ॥ जामदग्न्य-रचित इस स्तोत्र का जो भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह समस्त पाप से मुक्त होकर शिवलोक को जाता है ॥ ५३ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामस्य कैलाशगमनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में परशुराम का कैलाशगमनवर्णन नामक उन्तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २९ ॥ |