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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - त्रिंशोऽध्यायः


परशुरामस्य शिवदत्तास्त्रशस्त्रादिप्राप्तिवर्णनम् -
परशुरामको शिवद्वारा अस्त्रशस्त्रादि की प्राप्ति -


शंकर उवाच
कस्त्वं बटो कस्य पुत्रः क्व वासः स्तवनं कथम् ।
किं वा तेऽहं करिष्यामि वाञ्छितं वद सांप्रतम् ॥ १ ॥
शंकर बोले-हे बच्चे ! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, कहाँ घर है, (हमारी) स्तुति क्यों कर रहे हो । बताओ, तुम्हारी क्या अभिलाषा है ? ॥ १ ॥

पार्वत्युवाच
शोकाकुलं त्वां पश्यामि विमनस्कं सुविस्मितम् ।
वयसाऽतिशिशुं शान्तं गुणेन गुणिनां वरम् ॥ २ ॥
पार्वती बोलीं-मैं तुम्हें शोकव्याकुल, उदासीन और अति विस्मित देखती हूँ । तुम्हारी अवस्था छोटे बच्चे की है, किन्तु तुम शान्त एवं गुण से गुणवानों में श्रेष्ठ हो ॥ २ ॥

भृगुरुवाच
जमदग्निसुतोऽहं च भृगुवंशसमुद्‌भवः ।
रेणुकाऽम्बा मे परशुरामोऽहं नामतः प्रभो ॥ ३ ॥
भग बोले- हे प्रभो ! मैं जमदग्नि का पुत्र एवं भृगु वंश में उत्पन्न हूँ । रेणुका मेरी माता हैं और परशुराम मेरा नाम है ॥ ३ ॥

क्रीणीहि मां दयासिन्धो विद्यापण्येन किंकरम् ।
त्वामीश शरणापन्नं रक्ष मां दीनवत्सल ॥ ४ ॥
हे दयासिन्धो ! मुझे विद्या प्रदान करके आप अपने सेवक बना लें । हे ईश ! हे दीनवत्सल ! मैं आपकी शरण में हूँ, मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४ ॥

मृगयामागतं भूपं पिता मे चोपवासिनम् ।
चकाराऽऽतिथ्यमानीय कपिलादत्तवस्तुभिः ॥ ५ ॥
मृगया (शिकार)खेलने के लिए आये हुए राजा को भूखा देखकर मेरे पिता ने कपिला की दी हुई वस्तु से उसका आतिथ्य-सत्कार किया ॥ ५ ॥

राजा तं कपिला लोभाद्घातयामास मन्दधीः ।
कपिला तं मृतं दृष्ट्‍वा गोलोकं च जगाम सा ॥ ६ ॥
अनन्तर उस मूर्ख राजा ने कपिला के लिए लालायित होकर मेरे पिता को मार डाला । कपिला उन्हें मृतक देखकर गोलोक चली गयी ॥ ६ ॥

माताऽनुगमनं चक्रे ह्यनाथोऽहं च सांप्रतम् ।
त्वं मे पिता शिवा माता रक्ष मां पुत्रवत्प्रभो ॥ ७ ॥
माता भी पिता के साथ चली गयी, इस समय मैं अनाथ हूँ । अतः हे प्रभो ! तुम पिता हो और शिवा माता हैं, पुत्र की भौति मेरी रक्षा करो ॥ ७ ॥

मया कृता प्रतिज्ञा च शोकेनैवातिदुष्करा ।
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यामि महीमिति ॥ ८ ॥
कार्तवीर्यं हनिष्यामि समरे तातघातकम् ।
इत्येतत्परिपूर्णं मे भगवान्कर्तुमर्हति ॥ ९ ॥
मैंने शोकाकुल होकर अति दुष्कर प्रतिज्ञा की है कि-एक्कीस बार इस पृथ्वी को मैं राजाओं से शून्य कर दूंगा और युद्ध में उस कार्तवीर्य को नष्ट कर दंगा, जिसने मेरे पिता का हनन किया है । इस प्रतिज्ञा को भगवान् पूरा करा दें ॥ ८-९ ॥

ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा दृष्ट्‍त्वा दुर्गामुखं हरः ।
बभूवाऽऽनमवक्त्रश्च सा च शुष्कौष्ठतालुका ॥ १० ॥
ब्राह्मण की बात सुनकर शिव ने दुर्गा के मुख की ओर देखा और नीचे मुख कर लिया । पार्वती के भी ओंठ और तालू सूख गए ॥ १० ॥

पार्वत्युवाच
तपस्विन्विप्रपुत्र क्ष्मां निर्भूपां कर्तुमिच्छसि ।
त्रिःसप्तकृत्वः कोपेन साहसस्ते महान्बटो ॥ ११ ॥
हन्तुमिच्छसि निःशस्त्रः सहस्रार्जुनमीश्वरम् ।
भ्रूभङ्‌गलीलया यस्य रावणस्य पराजयः ॥ १२ ॥
पार्वती बोलीं-हे तपस्विन् ! ब्राह्मण के पुत्र तुम कोप से इक्कीस बार पृथ्वी को राजा से शून्य करना चाहते हो । हे बटुक ! यह तुम्हारा बहुत बड़ा माहस है । अधीश्वर सहस्रार्जुन को निःशस्त्र होकर मारना चाहते हो, जिसके भौंह टेढ़ी करने पर रावण का पराजय हो गया था ॥ ११-१२ ॥

तस्मै प्रदत्तं दत्तेन श्रीहरेः कवचं बटो ।
शक्तिरव्यर्थरूपा च यया ते हिंसितः पिता ॥ १ ३ ॥
हे बटुक ! दत्तात्रेय ने उसे भगवान् का कवच प्रदान किया है और वह शक्ति कभी भी व्यर्थ नहीं होती है, जिससे उसने तुम्हारे पिता को मारा है ॥ १३ ॥

हरेर्मन्त्रं संस्तवनं ध्यायते च दिवानिशम् ।
को वा शक्नोति तं हन्तुं न पश्यामीह भूतले ॥ १४ ॥
जो रात-दिन भगवान के मंत्र का जाप और उनकी स्तुति का पाठ करता है, उसे भूतल पर कौन मार सकता है ? मैं (ऐसे व्यक्ति को) नहीं देखती हूँ ॥ १४ ॥

अये विप्र गृहं गच्छ किं करिष्यति शंकरः ।
अन्ये भूयाश्च मद्‍भृत्या का भीस्तेषां मयि स्थिते ॥ १५ ॥
हे विप्र ! अतः तुम घर चले जाओ । (इसमें) शंकर क्या कर सकेंगे? अन्य राजा लोग मेरे सेवक हैं, मेरे रहते उन्हें क्या भय है ? ॥ १५ ॥

भद्रकाल्युवाच
अये विप्रबटो जाल्म निर्भूपां कर्तुमिच्छसि ।
यथा हि वामनश्चन्द्रं करेणाऽहर्तुमिच्छति ॥ १६ ॥
भद्रकालो बोलीं-हे ब्राह्मणबटुक ! तुम मूर्ख हो, जो पृथ्वी को राजशून्य करना चाहते हो । यह तो वैसा ही है जैसे कोई बौना हाथ से चन्द्रमा को पकड़ना चाहता हो ॥ १६ ॥

कृतयज्ञान्महापुण्यान्महाबलपराक्रमान् ।
दिगम्बरसहायेन मद्‌भृत्यान्हन्तुमिच्छसि ॥ १७ ॥
क्या तुम अनेक यज्ञों को सुसम्पन्न करने वाले, महापुण्यात्मा एवं महापराक्रमी मेरे सेवकों को शिव की सहायता से मारना चाहते हो? ॥ १७ ॥

स तयोर्वचनं श्रुत्वा रुरोदोच्चैश्च शोकतः ।
सहसा पुरतस्तेषां प्राणांस्त्यक्तुं समुद्यतः ॥ १८ ॥
परशुराम ने उन दोनों की बातें सुनकर शोकव्याकुल होकर अति ऊँचे स्वर से रोदन किया और उन लोगों के सामने ही सहसा प्राण त्याग देने को तैयार हो गये ॥ १८ ॥

विप्रस्य रोदनं श्रुत्वा शंकरः करुणानिधिः ।
पश्यन्दुर्गां च कालीं च ज्ञात्वाऽऽशयमथो विभुः ॥ १९ ॥
तयोरनुमतिं प्राप्य सर्वेशो भक्तवत्सलः ।
जमदग्निसुतं सद्यः प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ २० ॥
ब्राह्मण का रोदन सुनकर विभु एवं करुणानिधान शिव ने काली और दुर्गा की ओर देखा और उनका आशय जानकर दोनों की अनुमति से सर्वेश्वर एवं भक्तवत्सल शिव ने परशुराम से तुरन्त कहना आरम्भ किया ॥ १९-२० ॥

शंकर उवाच
अद्यप्रभृति हे वत्स त्वं मे पुत्रसमो महान् ।
दास्यामि मन्त्रं गुह्यं ते त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २१ ॥
शंकर बोले-हे वत्स ! आज से तुम मेरे महान पुत्र के समान हो गये । मैं तुम्हें तीनों लोकों में दुर्लभ गुप्त मन्त्र दूंगा ॥ २१ ॥

एवंभूतं च कवचं दास्यामि परमाद्‌भुतम् ।
लीलया मत्प्रसादेन कार्तवीर्यं हनिष्यसि ॥ २२ ॥
और उसी भाँति परम अद्भुत कवच भी दूंगा मेरे प्रसाद से तुम लीला की भाँति कार्तवीर्य का हनन कर सकोगे ॥ २२ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यसि महीं द्विज ।
जगत्ते यशसा पूर्णं भविष्यति न संशयः ॥ २३ ॥
इत्युक्त्वा शंकरस्तस्मै ददौ मन्त्रं सुदुर्लभम् ।
त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ २४ ॥
स्तवं पूजाविधानं च पुरश्चरणपूर्वकम् ।
मन्त्रसिद्धेरनुष्ठानं यथावन्नियमक्रमम् ॥ २५ ॥
हे द्विज ! पृथ्वी को इक्कीस बार निर्भप करोगे, जिससे संसार में तुम्हारा यश पूर्णरूप से फैलेगा, इसमें संशय नहीं । इतना कहकर शिव ने उन्हें अति दुर्लभ मंत्र, त्रैलोक्यविजय नामक परम अद्भुत कवच, स्तोत्र, पूजाविधान, पुरश्चरणपूर्वक मंत्रसिद्धि का अनुष्ठान और यथोचित नियम-क्रम भी बताया ॥ २३-२५ ॥

सिद्धिस्थानं कालसंख्यां कथयामास नारद ।
वेदवेदाङ्‌गादिकं च पालयामास तत्क्षणम् ॥ २६ ॥
हे नारद ! सिद्धि-स्थान और समय बताते हुए उन्होंने उसी क्षण समस्त वेद, वेदांग आदि पढ़ा दिये ॥ २६ ॥

नागपाशं पाशुपतं ब्रह्मास्त्रं च सुदुर्लभम् ।
नारायणास्त्रमाग्नेयं वायव्यं वारुणं तथा ॥ २७ ॥
गान्धर्वं गारुडं चैव जृम्भणास्त्रं तथैव च ।
गदां शक्तिं च परशुं शूलमव्यर्थमुत्तमम् ॥ २८ ॥
नागपाश, पाशुपत, अतिदुर्लभ ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, आग्नेय, वायव्य,वारुण, गान्धर्व, गारुड़, जम्भणास्त्र, गदा, शक्ति, परशु, और व्यर्थ न होने वाला शूल प्रदान किया ॥ २७-२८ ॥

नानाप्रकारशस्त्रास्त्रं मन्त्रं च विधिपूर्वकम् ।
शस्त्रास्त्राणां च संहारं तूणी चाक्षयसायकौ ॥ २९ ॥
आत्मरक्षणसंधानं संग्रामविजयक्रमम् ।
मायायुद्धं च विविधं हुंकारं मन्त्रपूर्वकम् ॥ ३० ॥
रक्षणं च स्वसैन्यानां परसैन्यविमर्दनम् ।
नानाप्रकारमतुलमुपायं रणसंकटे ॥
संहारे मोहिनीं विद्यां ददौ मृत्युहरां हरः ॥ ३१ ॥
विधान समेत अनेक भाँति के शस्त्रास्त्र, मंत्र, शस्त्रास्त्रों की संहार-क्रिया, तरकस, अविनाशी बाण, अपनी रक्षा का उपाय, संग्राम में विजय करने का क्रम, विविध भाँति का माया-युद्ध, मंत्रपूर्वक हुंकार, अपने सैनिकों की रक्षा और शत्रु-सेना का नाश, रण में संकट उपस्थित होने पर अनेक भांति के अनुपम उपाय, संहार में मृत्युनाशिनी मोहिनी विद्या भी प्रदान की । ॥ २९-३१ ॥

स्थित्वा चिरं गुऽरोर्वासे सर्वविद्यां विबोध्य सः ।
तीर्थे कृत्वा मन्त्रसिद्धिं तांश्च नत्वा जगाम सः ॥ ३२ ॥
गुरु के यहाँ चिरकाल तक रहकर, समस्त विद्याओं को सीख कर और तीर्थ में मन्त्रसिद्धि करने के उपरांत उन सबको नमस्कार करके परशुराम' चले गये ॥ ३२ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे परशुरामस्य
शिवदत्तास्त्रशस्त्रादिप्राप्तिवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में मारद-नारायण-संवाद में परशुराम को शिव द्वारा अस्त्र-शस्त्रादि की प्राप्ति का वर्णन नामक तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३० ॥

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