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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकत्रिंशोऽध्यायः


परशुरामाय श्रीकृष्णकवचप्रदानम् -
परशुरामको कृष्णका कवच प्रदान -


नारद उवाच
भगवञ्छ्रोतु मिच्छामि कं मन्त्रं भगवान्हरः ।
कृपया परशुरामाय किं स्तोत्रं कवचं ददौ ॥ १ ॥
को वाऽस्य मन्त्रस्याऽऽराध्यः किं फलं कवचस्य च ।
स्तवनस्य फलं किं वा तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥ २ ॥
नारद बोले- हे भगवन् ! भगवान् हर ने कृपया परशुराम को कौन मन्त्र, कोन स्तोत्र और कौन कवच प्रदान किया, उस मन्त्र का आराध्य देव कौन है, कवच का क्या फल है और उस स्तोत्र का क्या फल है ? मुझे सुनने की इच्छा है, आप बताएँ ॥ १-२ ॥

नहियण उवाच
मन्त्राराध्यो हि भगवान्परिपूर्णतमः स्वयम् ।
गोलोकनाथः श्रीकृष्णोगोपगोपीश्वरः प्रभुः ॥ ३ ॥
नारायण बोले--परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण, जो गोलोक के स्वामी, गोप-गोपियों के ईश्वर एवं प्रभु है, स्वयं इसके देवता हैं ॥ ३ ॥

त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्‌भुतम् ।
स्तवराजं महापुण्यं भूतियोगसमुद्‌भवम् ॥ ४ ॥
मन्त्रकल्पतरुं नाम सर्वकामफलप्रदम् ।
ददौ परशुरामाय रत्‍नपर्वतसंनिधौ ॥ ५ ॥
स्वयंप्रभानदीतीरे पारिजातवनान्तरे ।
आश्रमे देवलोकस्य माधवस्य च संनिधौ ॥ ६ ॥
परम अद्भुत त्रैलोक्य विजय नामक कवच, ऐश्वर्य योग से उत्पन्न महापुण्य स्तवराज, और कल्पतरु नामक मंत्र, जो समस्त कामनामों का फल प्रदान करता है, उन्होंने सुमेरु पर्वत के समीप स्वयंप्रभा नदी के किनारे पारिजात बन के बीच देवलोक के आश्रम में माधव के समीप परशुराम को प्रदान किया था ॥ ४-६ ॥

महादेव उवाच
वत्साऽऽगच्छ महाभाग भृगुवंशसमुद्‌भव ।
पुत्राधिकोऽसि प्रेम्णा मे कवचग्रहणं कुरु ॥ ७ ॥
शंकर बोले- हे वत्स ! हे भृगु-वंश में उत्पन्न महाभाग ! आओ, यह कवच ग्रहण करो । प्रेमतः तुम मेरे पुत्र से भी अधिक प्रिय हो ॥ ७ ॥

शृणु राम प्रवक्ष्यामि ब्रह्माण्डे परमाद्‌भुतम् ।
त्रैलोक्यविजयं नाम श्रीकृष्णस्य जयावहम् ॥ ८ ॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे ।
रासमण्डलमध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ ९ ॥
अतिगुह्यतर तत्त्वं सर्वमन्त्रोघविग्रहम् ।
पुथ्यात्पुभ्यतरं चैव परं स्नेहाद्वदामि ते ॥ १ ० ॥
हे राम ! मैं तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण का चैलोक्य विजय नामक कवच बता रहा है, जो ममस्त ब्रह्माण्ड में परम अद्भुत एवं विजयप्रद है, सुनो । पूर्व समय में भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक में राधिकाधम के रासमण्डल के मध्य वृन्दावन' नामक वन में मुझे यह प्रदान किया था । यह अति गृह्यतर, तत्त्वरूप, सम्पूर्ण मंत्र-समूह का शरीर एवं पुण्य से पुण्यतर है । परम स्नेह के नाते मैं तुम्हें बता रहा हूँ ॥ ८-१० ॥

यद्धृत्वा पठनाद्‌देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
शुम्भं निशुम्भं महिषं रक्तबीजं जघान ह ॥ ११ ॥
इसके धारण और पाठ करने से ईश्वरी मूल प्रकृति देवी ने शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर एवं रक्तबीज का वध किया था ॥ ११ ॥

यद्धृत्वाऽहं च जगतां संहर्ता सर्वतत्त्ववित् ।
अवध्यं त्रिपुरं पूर्वं दुरन्तमपि लीलया ॥ १२ ॥
इसके धारण करने से मैं समस्त तत्त्वों का वेत्ता एवं समस्त जगत् का संहर्ता हुआ हूँ । और मैंने दुद्धर्ष त्रिपुरासुर का इसीसे से अनायास वध किया था ॥ १२ ॥

यद्धृत्वा पठनाद्‌ब्रह्मा ससृजे सृष्टिभुत्तमाम् ।
यद्धृत्वा भगवाञ्छेषो विधत्ते विश्वमेव च ॥ १३ ॥
इसके धारण और पाठ करने से ब्रह्मा ने उत्तम सृष्टि की रचना की तथा इसके धारण करने से भगवान् शेष समस्त विश्व का धारण करते हैं ॥ १३ ॥

यद्धृत्वा कूर्मराजश्च शेषं धत्ते हि लीलया ।
यद्धृत्वा भगवान्वायुर्विश्वाधारो विभुः स्वयम् ॥ १४ ॥
इसके धारण करने से कच्छपराज छीला पूर्वक शेष को धारण करते हैं । इसे धारण कर वायु समस्त विश्व का आधार और व्यापक हुआ है ॥ १४ ॥

यद्धृत्वा वरुणः सिद्धः कुबेरश्च धनेश्वरः ।
यद्‍धृत्वा पठनादिन्द्रो देवानामधिपः स्वयम् ॥ १५ ॥
इसके धारण मात्र से वरुण सिद्ध हो गये, कुबेर धनाधीश हुए और इसके धारण तथा पाठ करने से इन्द्र देवों के स्वयं अधीश्वर हुए हैं ॥ १५ ॥

यद्धृत्वा भाति भुवने तेजोराशिः स्वयं रविः ।
यद्धृत्वा पठनाच्चन्द्रो महाबलपराक्रमः ॥ १६ ॥
इसे धारण कर सूर्य स्वयं तेजोराशि होकर लोकों में सुशोभित होते हैं । इसके धारण एवं पाठ करने से चन्द्र महाबली और पराक्रमी हो गये ॥ १६ ॥

अगस्त्यः सागरान्सप्त यद्धृत्वा पठनात्पपौ ।
चकार तेजसा जीर्णं दैत्यं वातापिसंज्ञकम् ॥ १७ ॥
इसे धारण कर अगस्त्य ने सातों सागरों को पान कर लिया था और अपने तेज से वातापी राक्षस को नष्ट किया था ॥ १७ ॥

यद्धृत्वा पठनाद्‌देवी सर्वाधारा वसुंधरा ।
यद्धृत्वा पठनात्पूता गङ्‌गा भुवनपावनी ॥ १८ ॥
इसके धारण एवं पाठ करने से देवी वसुन्धरा समस्त का आधार हुई है । इसके धारण एवं पाठ से गंगा स्वयं पवित्र होकर लोकपावनी हो गयीं ॥ १८ ॥

यद्धृत्वा जगतां साक्षी धर्मो धर्मभृतां वरः ।
सर्वविद्याधिदेवी सा यच्च धृत्वासरस्वती ॥ १९ ॥
यद्धृत्वा जगतां लक्ष्मीरत्‍नदात्री परात्परा ।
यद्धृत्वा पठनाद्वेदान्सावित्री सा सुषाव च ॥ २० ॥
वेदाश्च धर्मवक्तारो यद्धृत्वा पठनाद्‌भृगो ।
यद्धृत्वा पठनाच्छुद्धस्तेजस्वी हव्यवाहनः ॥
सनत्कुमारो भगवान्यद्धृत्वा ज्ञानिनां वरः ॥ २१ ॥
इसे धारण कर धर्म धार्मिक जनों में श्रेष्ठ एवं जगत् के साक्षी हुए हैं, इसे धारण कर सरस्वती सम्पूर्ण विद्याओं की अधीश्वरी देवी और लक्ष्मी रत्न देने वाली एवं श्रेष्ठ से श्रेष्ठ हुई हैं । इसके धारण और पाठ करने से सावित्री ने वेदों को उत्पन्न किया, तथा हे भूगो ! इसे धारण कर वेदगण धर्म के वक्ता हुए । इसे धारण कर पाठ करने से अग्नि शुद्ध एवं तेजस्वी हुए, और इसे धारण कर भगवान् सनत्कुमार श्रेष्ठ ज्ञानी हो गये ॥ १९-२१ ॥

दातव्यं कृष्णभक्ताय साधवे च महात्मने ।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुवात् ॥ २२ ॥
इसलिए इसे भगवान् कृष्ण के भक्त को, जो साधु महात्मा हो, देना चाहिए । क्योंकि शठ एवं परशिष्य को देने से मृत्यु प्राप्त होती है ॥ २२ ॥

त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो रासेश्वरः स्वयम् ॥ २३ ॥
त्रैलोक्यविजयप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः ।
परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २४ ॥
प्रणवो मे शिरः पातु श्रीकृष्णाय नमः सदा ।
पायात्कपालं कृष्णाय स्वाहा पञ्चाक्षरः स्मृतः ॥ २५ ॥
इस त्रैलोक्यविजय नामक कवच के प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द और स्वयं रासेश्वर (भगवान् श्रीकृष्ण) देवता हैं । त्रैलोक्य-विजय-प्राप्ति के लिए इसका विनियोग कहा गया है । यह कवच परे से परे और तीनों लोकों में दुर्लभ है । 'ओं श्रीकृष्णाय नमः' सदा मेरे शिर की रक्षा करे, पांच अक्षर वाले 'कृष्णाय स्वाहा' कपाल की रक्षा करे ॥ २३-२५ ॥

कृष्णेति पातु नेत्रे च कृष्ण स्वाहेति तारकम् ।
हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा ॥ २६ ॥
कृष्ण दोनों नेत्रों की रक्षा करें, 'कृष्णाय स्वाहा' पुतलियों की रक्षा करे । 'हरये नमः' सदा मेरी भौंह की रक्षा करे ॥ २६ ॥

ॐगोविन्दाय स्वाहेति नासिकां पातु संततम् ।
गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा ॥ २७ ॥
'ओं गोविन्दाय स्वाहा' निरन्तर नासिका की रक्षा करे, 'गोपालाय नमः' सदा दोनों कपोलों की रक्षा करे ॥ २७ ॥

ॐ नमो गोपाङ्‌गनेशाय कर्णौ पातु सदा मम ।
ॐकृष्णाय नमः शश्वत्पातु मेऽधरयुग्मकम् ॥ २८ ॥
'ओं नमो गोपांगनेशाय' मेरे कानों की सदा रक्षा करे और 'ओं कृष्णाय नमः' दोनों होठों की रक्षा करे ॥ २८ ॥

ॐ गोविन्दाय स्वाहेति दन्तौघ मे सदाऽवतु ।
पातु कृष्णाय दन्ताधो दन्तोर्ध्वं क्लीं सदाऽवतु ॥ २९ ॥
'ओं गोविन्दाय स्वाहा' मेरी दंतपंक्तियों की रक्षा करे, 'कृष्णाय स्वाहा' दांतों के निचले भाग और 'क्लीं' दाँतों के ऊपरी भाग की रक्षा करे ॥ २९ ॥

ॐ श्रीकृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु मे सदा ।
रासेश्वराय स्वाहेति तालुकं पातु मे सदा ॥ ३० ॥
'ओं श्री कृष्णाय स्वाहा' सदा मेरी जिह्वा की रक्षा करे, 'रासेश्वराय स्वाहा' सदा मेरे तालु की रक्षा करे ॥ ३० ॥

राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम ।
नमो गोपाङ्‌गनेशाय वक्षः पातु सदा मम ॥ ३१ ॥
'राधिकेशाय स्वाहा' सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे । 'नमो गोपांगनेशाय' मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे ॥ ३१ ॥

श्रगोपेशाय स्वाहेति स्कन्धं पातु सदा मम ।
नमः किशोरवेषाय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ३२ ॥
'ओं गोपेशाय स्वाहा' सदा मेरे कन्धे की रक्षा करें 'नमः किशोरवेषाय स्वाहा' मेरे पृष्ठ की रक्षा करे ॥ ३२ ॥

उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय नमः सदा ।
ॐ क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पातु सदा मम ॥ ३३ ॥
'मुकुन्दाय नमः' मेरे उदर की नित्य रक्षा करे, 'ओं ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहा' सदा मेरे हाथों की रक्षा करे ॥ ३३ ॥

ॐ विष्णवे नमो बाहुयुग्मं पातु सदा मम ।
ॐ ह्रीं भगवते स्वाहा नखरं पातु मे सदा ॥ ३४ ॥
'ओं विष्णवे नमः' मेरी बाहुओं की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं भगवते स्वाहा' सदा मेरे नखों की रक्षा करे ॥ ३४ ॥

ॐ नमो नारायणायेति नखरन्ध्रं सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं क्लीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम ॥ ३५ ॥
'ओं नमो नाराणाय' सदा नखच्छिद्रों की रक्षा करे । 'औं श्रीं क्लीं पद्मनाभाय' सदा मेरी नाभी की रक्षा करे । ॥ ३५ ॥

ॐसर्वेशाय स्वाहेति कङ्‌कालं पातु मे सदा ।
ॐ गोपीरमणाय स्वाहा नितम्बं पातु मे सदा ॥ ३६ ॥
'ओं सर्वेशाय स्वाहा' सदा मेरे कंकाल की रक्षा करे । ओं 'गोपीरमणाय स्वाहा' मेरे नितम्ब की रक्षा करे ॥ ३६ ॥

क्षें गोपीनां प्राणनाथाय पादौ पातु सदा मम ॥ ३७ ॥
'ओं गोपीनां प्राणनाथाय' सदा मेरे चरण की रक्षा करे ॥ ३७ ॥

क्षें केशवाय स्वाहेति मम केशान्सदाऽवतु ।
नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदाऽवतु ॥ ३८ ॥
'ओं केशवाय स्वाहा' सदा मेरे केशों की रक्षा करे । 'नमः कृष्णाय स्वाहा' सदा ब्रह्मरन्ध्र की रक्षा करे ॥ ३८ ॥

ॐ माधवाय स्वाहेति मे लोमानि सदाऽवतु ।
क्षें ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ॥ ३९ ॥
'ओं माधवाय स्वाहा' सदा मेरे लोमों की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सदा सब की रक्षा करे ॥ ३९ ॥

परिपूर्णतमः कृष्णाः प्राच्यां मां सर्वदाऽवतु ।
स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेय्यां दिशि रक्षतु ॥ ४० ॥
परिपूर्णतम कृष्ण सर्वदा पूर्वदिशा में मेरी रक्षा करे, स्वयं गोलोकनाथ अग्निकोण में मेरी रक्षा करे ॥ ४० ॥

पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदाऽवतु ।
नैर्ऋत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः ॥ ४१ ॥
पूर्णब्रह्मस्वरूप सदा दक्षिण में मेरी रक्षा करें । नैर्ऋत्य में कृष्ण मेरी रक्षा करें, पश्चिम में हरि मेरी रक्षा करें ॥ ४१ ॥

गोविन्दः पातु मां शश्वद्वायव्यां दिशि नित्यशः ।
उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः ॥ ४२ ॥
गोविन्द वायव्यकोण में मेरी निरन्तर रक्षा करें, रसिकों के शिरोमणि सदा उत्तर में मेरी रक्षा करें ॥ ४२ ॥

ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावनविहारकृत् ।
वृन्दावनीप्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः ॥ ४३ ॥
वृन्दावनविहारी सदा ऐशान्यकोण में मेरी रक्षा करे । वृन्दावनीप्राणनाथ सदा उर्ध्वदेश में मेरी रक्षा करें ॥ ४३ ॥

सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः ।
जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा ॥ ४४ ॥
बलिहारी एवं महाबलवान् माधव मेरी सदैव रक्षा करें । जल, स्थल एवं आकाश में सदा नृसिंह मेरी रक्षा करें ॥ ४४ ॥

स्वप्ने जागरणे शश्वत्पातु मां माधवः सदा ।
सर्वान्तरात्मा निर्लिप्तः पातु मां सर्वतो विभुः ॥ ४५ ॥
सदा सोते-जागते माधव मेरी निरन्तर रक्षा करें । सर्वान्तरात्मा विभु, जो निर्लिप्त रहते हैं, मेरी चारों ओर से रक्षा करें ॥ ४५ ॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ ४६ ॥
हे वत्स ! इस प्रकार मैंने त्रैलोक्यविजय नामक कवच, जो समस्त मन्त्रसमुदाय का शरीर और परम अद्भुत है, तुम्हें बता दिया ॥ ४६ ॥

मया श्रुतं कृष्णवक्त्रात्प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः ॥ ४७ ॥
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ।
स च भवतो वसेद्यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः ॥ ४८ ॥
मैंने भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से यह सुना है, इसलिए किसी को न बताना । विधिपूर्वक गुरु की अर्चना करके जो इस कवच को कण्ठ में या दाहिनी बाहु में धारण करता है, वह भी विष्णु ही है, इसमें संशय नहीं । वह भक्त जहाँ निवास करता है वहाँ लक्ष्मी सरस्वती सदा निवास करती हैं ॥ ४७-४८ ॥

यदि स्यात्सिद्धकवचो जीवन्मुक्तो भवेत्तु सः ।
निश्चितं कोटिवर्षाणां पूजायाःफलमाप्नुयात् ॥ ४९ ॥
यदि कवच सिद्ध हो जाता है, तो वह जीवन्मुक्त होता है और करोड़ों वर्षों की पूजा का फल उसे निश्चित प्राप्त होता है ॥ ४९ ॥

राजसूयसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च ॥ ५० ॥
महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा ।
त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ५१ ॥
सहस्र राजसूय, सौ वाजपेय, दश सहस्र अश्वमेध, दस सहस्र नरमेध, सभी महादान और निखिल पृथ्वी की प्रदक्षिणा के फल इस' त्रैलोक्यविजय नामक कवच की सोलहवीं कला के भी समान नहीं हैं ॥ ५०-५१ ॥

व्रतोपवासनियमं स्वाध्यायाध्यनं तपः ।
स्नानं च सर्वतीर्थेषु नास्यार्हति कलामपि ॥ ५२ ॥
व्रत, उपवास, नियम, स्वाध्याय, अध्ययन, तप और समस्त तीर्थों के स्नान इसकी कला के भी समान नहीं है ॥ ५२ ॥

सिद्धत्वममरत्वं च दासत्वं श्रीहरेरपि ।
यदि स्यात्सिद्धकवचः सर्वे प्राप्नोति निश्चितम् ॥ ५३ ॥
जो सिद्धकवच हो जाता है, तो उसे सिद्धत्व, अमरत्व और श्रीहरि का दासत्व आदि सब कुछ निश्चित प्राप्त होता है ॥ ५३ ॥

स भवेत्सिद्धकवचो दशलक्षं जपेत्तु यः ।
यो भवेत्सिद्धकवचः सर्वज्ञः स भवेद्ध्रुवम् ॥ ५४ ॥
जो दश लाख इसका जप करता है, वह सिद्धकवच एवं सर्वज्ञ होता है ॥ ५४ ॥

इदं कवचमज्ञात्वा भजेत्कृष्णं सुमन्दधीः ।
कोटिकल्पं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ५५ ॥
इस कवच को बिना जाने जो भगवान् की आराधना करता है, वह अतिमन्दबुद्धि (मूर्ख) है और करोड़ों कल्प तक जपा जाने पर भी उसका मंत्र सिद्धिप्रद नहीं होता है । ॥ ५५ ॥

गृहीत्वा कवचं वत्स महीं निःक्षत्रियां कुरु ।
त्रिःसप्तकृत्वो निःशङकः सदानन्दो हि लीलया ॥ ५६ ॥
हे वत्स ! इस कवच को ग्रहण कर पृथ्वी को निःशंक लीला की भांति इक्कीस बार क्षत्रियरहित करो और सदा आनन्द से रहो ॥ ५६ ॥

राज्यं देयं शिरो देयं प्राणा देयाश्च पुत्रक ।
एवं भूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे ॥ ५७ ॥
हे पुत्रक ! राज्य दे देना, शिर दे देना तथा प्राण भी दे देना पर, प्राण संकट उपस्थित होने पर भी यह कवच कभी न देना ॥ ५७ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
परशुरामाय श्रीकृष्णकवचप्रदानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में परशुराम को श्रीकृष्ण का कवच प्रदान नामक इकतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३१ ॥

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