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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - द्वात्रिंशोऽध्यायः


स्तवप्रदानम् -
स्तवप्रदान -


भृगुरुवाच
संप्राप्तं कवचं नाथ शश्वत्सर्वाङ्‌गरक्षणम् ।
सुखदं मोक्षदं सारं शत्रुसंहारकारणम् ॥ १ ॥
भृगु बोले-हे नाथ ! निरन्तर सर्वांग की रक्षा करने वाला यह कवच मुझे प्राप्त हो गया, जो सुखप्रद, मोक्षदायक, साररूप एवं शत्रु के संहार करने का कारण है ॥ १ ॥

अधुना भगवन्मन्त्रं स्तोत्रं पूजाविधिं प्रभो ।
देहि मह्यमनाथाय शरणागतपालक ॥ २ ॥
हे भगवन् ! हे प्रभो ! अब मुझे मंत्र, स्तोत्र और पूजा विधान बताने की कृपा कीजिये, क्योंकि मैं अनाथ हूँ और आप शरणागत के पालक हैं ॥ २ ॥

महादेव उवाच
ॐ श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय च ।
स्वाहेत्यनेन मन्त्रेण भज गोपीश्वरं प्रभुम् ॥ ३ ॥
महादेव बोले-'ओं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा' इस सत्र से गोपीनाथ प्रभु का पूजन करो ॥ ३ ॥

मन्त्रेषु मन्त्रराजोऽयं महान्सप्तदशाक्षरः ।
सिद्धोऽयं पञ्चलक्षेण जपेन मुनिपुंगव ॥ ४ ॥
यह सत्रह अक्षरों का महान् मंत्र मंत्रो का राजा है । हे मुनिश्रेष्ठ ! पांच लाख जप करने से यह मंत्र सिद्ध होता है ॥ ४ ॥

तद्‌दशांशं च हवनं तद्‌दशांशाभिषेचनम् ।
तर्पणं तद्‌दशांशं च तद्‌दशांशं च मार्जनम् ॥ ५ ॥
सुवर्णानां च शतकं पुरश्चरणदक्षिणा ।
मन्त्रसिद्धस्य पुंसश्च विश्वं करतले मुने ॥ ६ ॥
शक्तः पातुं समुद्रांश्च विश्वं संहर्तुमीश्वरः ।
पाञ्चभौतिकदेहेन वैकुण्ठं गन्तुमीश्वरः ॥ ७ ॥
तस्य संस्पर्शमात्रेण पदपङ्‍कजरेणुना ।
पूतानि सर्वतीर्थानि सद्यः पूता वसुंधरा ॥ ८ ॥
उसका दशांश हवन, उसका दशांश अभिषेचन, उसका दशांश मार्जन और सौ सुवर्ण (की मोहर) पुरश्चरण की दक्षिणा देनी चाहिए । हे मुने ! मंत्रसिद्ध हो जाने पर उस पुरुष के हाथ में समस्त विश्व हो जाता है और वह समस्त विश्व का संहार भी करने में समर्थ होता है । इसी पाञ्चभौतिक शरीर से वह वैकुण्ठ जाने में समर्थ होता है और उसके चरणकमल की धूलि का स्पर्श होते ही समस्त तीर्थ एवं निखिल पृथिवी तुरन्त पवित्र हो जाती है ॥ ५-८ ॥

ध्यानं च सामवेदोक्तं शृणु मन्मुखतो मुने ।
सर्वेश्वरस्य कृष्णस्य भक्तिमुक्तिप्रदायि च ॥ ९ ॥
हे मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण का सामवेदोक्त ध्यान मेरे मुख से सुनो, जो भक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करता है ॥ ९ ॥

नवीनजलदश्यामं नीलेन्दीवरलोचनम् ।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यमीषद्धास्यं मनोहरम् ॥ १० ॥
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाममनोहरम् ।
रत्‍नसिहासनस्थं तं रत्‍नभूषणभूषितम् ॥ ११ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं पीताम्बरधरं वरम् ।
वीक्ष्यमाणं च गोपीभिः सस्मिताभिश्च संततम् ॥ १२ ॥
प्रफुल्लमालतोमालावनमालाविभूषितम् ।
दधतं कुन्दपुष्पाढ्यां चूडां चन्द्रकचर्चिताम् ॥ १३ ॥
प्रभां क्षिपन्तीं नभसश्चन्द्रतारान्वितस्य च ।
रत्‍नभूषितसर्वाङ्‌गं राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥ १४ ॥
सिद्धेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च देवेन्द्रैः परिसेवितम् ।
ब्रह्मविष्णुमहेशैश्च श्रुतिभिश्च स्तुतं भजे ॥ १५ ॥
नवीन मेघ के समान श्याम, नीलकमल की भाँति युगल नयन, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख, मनोहर मन्दहास तथा करोड़ों काम की भाँति लावण्य से युक्त, मनोहर लीला धाम, रत्नसिंहासन पर स्थित, रत्नों के भूषणों से भूषित, चन्दन-चचित सर्वांग, पीताम्बर धारण किये और मन्द मुसुकान करती हुई गोपियाँ से निरन्तर देखे जाते हुए, अत्यन्त विकसित मालती पुष्पों की माला एवं बनमाला धारण किये, चन्द्रक (चन्द्रिका) समेत कुन्द पुष्प भूषित चूडा धारण किये, चन्द्रमा और तारागण से युक्त आकाश की प्रभा को तिरस्कृत करने वाली कान्ति से युक्त, रत्नों से सर्वांग भूषित राधा के वक्षःस्थल पर स्थित, सिद्धेन्द्रगण, मुनिवर्यवृन्द और देवाधीश्वरों से सुसेवित एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर द्वारा तथा वेदों द्वारा स्तुत भगवान् की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ १०-१५ ॥

ध्यानेनानेन तं ध्यात्वा चोपचारांस्तु षोडश ।
दत्त्वा भक्त्या च संपूज्य सर्वज्ञत्वं लभेत्पुमान् ॥ १६ ॥
इस भाँति ध्यानपूर्वक सोलहो उपचार से भक्तिपूर्वक पूजन करने पर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥ १६ ॥

अर्घ्यं पाद्यं चाऽऽसनं च वसनं भूषणं तथा ।
गामर्घ्यं मधुपर्कं च यज्ञसूत्रमनुत्तमम् ॥ १७ ॥
धूपदीपौ च नैवेद्यं पुनराचमनीयकम् ।
नानाप्रकारपुष्पाणि ताम्बूलं च सुवासितम् ॥ १८ ॥
मनोहर दिव्यतल्पं कस्तूर्यगुरुचन्दनैः ।
भक्त्या भगवते देयं माल्यं पुष्पाञ्जलित्रयम् ॥ १९ ॥
अर्घा, पाद्य, आसन, वसन, भूषण, गौ, अर्ध्य, मधुपर्क, परमोत्तम यज्ञसूत्र, धूप, दीप, नैवेद्य, और पुनः आचमन समेत विविध भांति के पुष्प, सुवासित ताम्बूल, कस्तूरी, अगुरु, चन्दन समेत मनोहर दिव्य शय्या, माला और तीन पुष्पाञ्जलि भक्तिपूर्वक भगवान् को अर्पित करना चाहिए ॥ १७-१९ ॥

ततः षडङ्‌गं संपूज्य पश्चात्संपूजयेद्‌गणम् ।
श्रीदामानं सुदामानं वसुदामानमेव च ॥ २० ॥
हरिभानुं चन्द्रभानुं सूर्यभानुं सुभानुकम् ।
पार्षदप्रवरान्सप्त पूजयेद्‌भक्तिभावतः ॥ २१ ॥
अनन्तर षडंग पूजन और गणपूजन करके श्रीदामा, सुदामा, वसुदामा, हरिभानु, चन्द्रभानु, सूर्यभान, एवं सुभानु इन सातों पार्षद-प्रवरों का भक्तिभाव से पूजन करे ॥ २०-२१ ॥

गोपीश्वरीं राधिकां च मूलप्रकृतिमीश्वरीम् ।
कृष्णशक्ति कृष्णपूज्यां पूजयेद्‌भक्तिपूर्वकम् ॥ २२ ॥
उपरांत गोपियों की अधीश्वरी राधिका की भक्तिपूर्वक पूजा करे,जो मूल प्रकृति, ईश्वरी, भगवान् कृष्ण की शक्ति और उनकी पूज्या हैं ॥ २२ ॥

गोपगोपीगणं शान्तं मां ब्रह्माणं च पार्वतीम् ।
लक्ष्मीं सरस्वतीं पृथ्वीं सर्वदेव सपार्षदम् ॥ २३ ॥
देवषट्कं समभ्यर्च्य पुनः पञ्चोपचारतः ।
पश्चादेवंक्रमेणैव श्रीकृष्ण पूजयेत्सुधीः ॥ २४ ॥
गोप-गोपीगण, शान्त मुझ ब्रह्मा, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी, पार्षद समेत सर्वदेव एवं पांचों उपचारों से छहों देवों की अर्चना करने के अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण की इसी क्रम से अर्चना करनी चाहिए ॥ २३-२४ ॥

गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् ।
देवषट्कं समभ्यर्च्य च इष्टदेवं च पूजयेत् ॥ २५ ॥
गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव, पार्वती इन छह देवों की पूजा करके इष्टदेव की अर्चना करनी चाहिए ॥ २५ ॥

गणेशं विघ्ननाशाय व्याधिनाशाय भास्करम् ।
आत्मनः शुद्धये वह्निं श्रीविष्णुं मुक्तिहेतवे ॥ २६ ॥
ज्ञानाय शंकरं दुर्गां परमैश्वर्यहेतवे ।
संपूजने फलमिदं विपरीतमपूजने ॥ २७ ॥
फिर विघ्नविनाशार्थ गणेश की, रोगनाश के लिए भास्कर की, आत्मशुद्धि के लिए अग्नि की, मुक्त्यर्थ श्री विष्णु की, ज्ञानार्थ शंकर की और परम ऐश्वर्या के लिए पार्वती की पूजा करनी चाहिए । इनके पूजन से उपर्युक्त फल प्राप्त होता है और न पूजने से विपरीत फल ॥ २६-२७ ॥

ततः कृत्वा परीहारमिष्टदेवं च भक्तितः ।
स्तोत्रं च सामवेदोक्तं पठेद्‌भक्त्या च तच्छृणु ॥ २८ ॥
अनन्तर परीहार पूर्वक भक्ति से इष्टदेव की पूजा करके सामवेदोक्त स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करे, उसे मैं बता रहा हूँ, सुनो ॥ २८ ॥

महादेव उवाच
परं ब्रह्म परं धाम परं ज्योतिः सनातनम् ।
निर्लिप्तं परमात्मानं नमाम्यखिलकारणम् ॥ २९ ॥
महादेव बोले-परब्रह्म, परंधाम, परम ज्योति, सनातन एवं निलिप्त परमात्मा को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ २९ ॥

स्थूलात्स्थूलतमं देवं सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमं परम् ।
सर्वदृश्यमदृश्य च स्वेच्छाचारं नमाम्यहम् ॥ ३० ॥
स्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म, सबको दिखायी देने वाले और अदृश्य स्वेच्छाचारी उस परमदेव को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३० ॥

साकारं च निराकारं सगुणं निर्गुणं प्रभुम् ।
सर्वाधारं च सर्वं च स्वेच्छारूपं नमाम्यहम् ॥ ३१ ॥
साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण, सबका आधार और स्वेच्छा रूप उस सर्वमय प्रभु को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३१ ॥

अतीव कमनीयं च रूपं निरुपमं विभुम् ।
करालरूपमत्यन्तं बिभतं प्रणमाम्यहम् ॥ ३२ ॥
अत्यन्त सुन्दर, अनुपम रूप और अत्यन्त करालरूप धारण करने वाले उस विभु (व्यापक) को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३२ ॥

कर्मणः कर्मरूपं तं साक्षिणं सर्वकर्मणाम् ।
फलं च फलदातारं सर्वरूपं नमाम्यहम् ॥ ३३ ॥
कर्मों के कर्मरूप और समस्त कर्मों के साक्षी, फलरूप एवं फल के दाता उस सर्वरूप को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३३ ॥

स्रष्टा पाता च संहर्ता कलया मूर्तिभेदतः ।
नानामूर्तिः कलांशेन यः पुमांस्तं नमाम्यहम् ॥ ३४ ॥
कला द्वारा मूर्तिभेद से (जगत् का) सर्जन, पालन, संहार करने वाले और अपनी कलाओं के अंश से अनेक भाँति की मूर्ति धारण करने वाले उस पुरुष को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३४ ॥

स्वयं प्रकृतिरूपश्च मायया च स्वयं पुमान् ।
तयोः परः स्वयं शश्वत्तं नमामि परात्परम् ॥ ३५ ॥
जो स्वयं प्रकृति रूप और माया द्वारा स्वयं पुरुष रूप है तथा उन दोनों से निरन्तर परे है, उस परात्पर (देव) को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३५ ॥

स्त्रीपुंनपुंसकं रूपं यो बिभर्ति स्वमायया ।
स्वयं' माया स्वयं मायी यो देवस्तं नमाम्यहम् ॥ ३६ ॥
जो अपनी माया द्वारा स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक रूप धारण करता है और स्वयं माया रूप तथा स्वयं मायी (माया करने वाला) है, उस देव को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३६ ॥

तारकं सर्वदुःखानां सर्वकारणकारणम् ।
धारकं सर्वविश्वानां सर्वबीजं नमाम्यहम् ॥ ३७ ॥
समस्त दुःखों से पार करने वाले, सभी कारणों के कारण, समस्त विश्वों को धारण करने वाले और समस्त के बीज रूप को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३७ ॥

तेजस्विनां रविर्यो हि सर्वजातिषु वाडवः ।
नक्षत्राणां च यश्चन्द्रस्तं नमामि जगत्प्रभुम् ॥ ३८ ॥
जो तेजस्वियों का सूर्य, समस्त जातियों में ब्राह्मण है और नक्षत्रों में चन्द्रमा रूप है, उस जगत्प्रभु को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३८ ॥

रुद्राणां वैष्णवानां च ज्ञानिनां यो हि शंकरः ।
नागानां यो हि शेषश्च तं नमामि जगत्पतिम् ॥ ३९ ॥
जो रुद्रों, वैष्णवों एवं ज्ञानियों में शंकर और नागों में शेषरूप हैं, उस जगत्पत्ति को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ३९ ॥

प्रजापतीनां यो ब्रह्मा सिद्धानां कपिलः स्वयम् ।
सनत्कुमारो मुनिषु तं नमामि जगद्‌गुरुम् ॥ ४० ॥
जो प्रजापतियों में ब्रह्मा, सिद्धों में स्वयं कपिल और मुनियों में सनत्कुमार रूप हैं, उस जगत् के गुरु को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ४० ॥

देवानां यो हि विष्णुश्च देवीनां प्रकृतिः स्वयम् ।
स्वायंभुवो मनूनां यो मानवेषु च वैष्णवः ॥
नारीणां शतरूपा च बहुरूप नमाम्यहम् ॥ ४१ ॥
जो देवों में विष्णु, देवियों में स्वयं प्रकृति रूप, मनुओं में स्वायम्भुवरूप और मनुष्यों में वैष्णव रूप है, तथा स्त्रियों में शतरूपा रूप हैं उस बहुरूपी को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ४१ ॥

ऋतूनां यो वसन्तश्च मासानां मार्गशीर्षकः ।
एकादशी तिथीनां च नमाम्यखिलरूपिणम् ॥ ४२ ॥
जो ऋतुओं में वसन्त, मासों में मार्गशीर्ष (अगहन) और तिथियों में एकादशी रूप है, उस अखिल रूप को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ४२ ॥

सागरः सरितां यश्च पर्वतानां हिमालय ।
वसुंधरा सहिष्णूनां तं सर्वं प्रणमाम्यहम् ॥ ४३ ॥
जो सरिताओं में सागर, पर्वतों में हिमालयरूप, सहिष्णुओं में वसुन्धरा रूप है, उस सर्वमय को प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ४३ ॥

पत्राणां तुलसीपत्रं दारुरूपेषु चन्दनम् ।
वृक्षाणां कल्पवृक्षो यस्तं नमामि जगत्पतिम् ॥ ४४ ॥
जो पत्रों में तुलसीपत्र, दारुरूप (लकड़ियों) में चन्दन और वृक्षों में कल्पवृक्ष है, उस जगत्पति को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ४४ ॥

पुष्पाणां पारिजातश्च सस्यानां धान्यमेव च ।
अमृत भक्ष्यवस्तूनां नानारूपं नमाम्यहम् ॥ ४५ ॥
जो पुष्पों में पारिजात, सस्यों में धान्य और भक्ष्य वस्तुओं में अमृतरूप है, उस नाना रूप वाले को नमस्कार करता हूं ॥ ४५ ॥

ऐरावतो गजेन्द्राणां वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।
कामधेनुश्च धेनूनां सर्वरूपं नमाम्यहम् ॥ ४६ ॥
जो गजेन्द्रों में ऐरावत, पक्षियों में वैनतेय (गरुड़), धेनुओं में कामधेनु है उस सब रूप को नमस्कार करता हूं ॥ ४६ ॥

तैजसानां सुवर्णं च धान्यानां यव एव च ।
यः केसरी पशूनां च वररूपं नमाम्यहम् ॥ ४७ ॥
जो तैजस पदार्थों में सुवर्ण, धान्यों में यव, पशुओं में केसरी (सिंह) रूप है, उस श्रेष्ठ रूप को नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥

यक्षाणां च कुबेरो यो ग्रहाणां च बृहस्पतिः ।
दिक्पालानां महेन्द्रश्च तं नमामि परं वरम् ॥ ४८ ॥
जो यक्षों में कुबेर, ग्रहों में बृहस्पति, दिक्पालों में महेन्द्र रूप है, उस श्रेष्ठ रूप को नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥

वेदसंघश्च शास्त्राणां पण्डितानां सरस्वती ।
अक्षराणामकारो यस्तं प्रधानं नमाम्यहम् ॥ ४९ ॥
जो शास्त्रों में वेदगण, पण्डितों में सरस्वती, अक्षरों में आकार रूप है, उस प्रधान देव को नमस्कार करता हूँ ॥ ४९ ॥

मन्त्राणां विष्णुमन्त्रश्च तीर्थानां जाह्नवी स्वयम् ।
इन्द्रियाणां मनो यो हि सर्वश्रेष्ठं नमाम्यहम् ॥ ५० ॥
जो मन्त्रों में विष्णु मन्त्र, तीर्थों में स्वयं गंगा और इन्द्रियों में मनरूप है, उस सर्वश्रेष्ठ को नमस्कार करता हूं ॥ ५० ॥

सुदर्शनं च शस्त्राणां व्याधीनां वैष्णवो ज्वरः ।
तेजसां ब्रह्मतेजश्च वरेण्यं तं नमाम्यहम् ॥ ५१ ॥
जो शस्त्रों में सुदर्शन, व्याधियों में वैष्णव ज्वर, तेजों में ब्रह्मतेज रूप है, उस वरेण्य को नमस्कार करता हूं ॥ ५१ ॥

बलं यो वै बलवतां मनो वै शीघ्रगामिनाम् ।
कालः कलयतां यो हि तं नमामि विचक्षणम् ॥ ५२ ॥
जो बलवानों में बल, शीघ्रगामियों में मन, गिनने में कालरूप है, उस विलक्षण को नमस्कार करता हूँ ॥ ५२ ॥

ज्ञानदाता गुरूणां च मातृरूपश्च बन्धुषु ।
मित्रेषु जन्मदाता यस्तं सारं प्रणमाम्यहम् ॥ ५३ ॥
जो गुरुओं में ज्ञानदाता, बन्धुओं में माता, मित्रों में जन्मदाता है, उस साररूप को नमस्कार करता हूँ ॥ ५३ ॥

शिल्पिनां विश्वकर्मा यः कामदेवश्च रूपिणाम् ।
पतिव्रता च पत्‍नीनां नमस्यं तं नमाम्यहम् ॥ ५४ ॥
जो शिल्पियों में विश्वकर्मा, रूपवानों में कामदेव, पत्नियों में पतिव्रता रूप है, उस नमस्कार योग्य को नमस्कार है ॥ ५४ ॥

प्रियेषु पुत्ररूपो यो नृपरूपो नरेषु च ।
शालग्रामश्च यन्त्राणां तं विशिष्टं नमाम्यहम् ॥ ५५ ॥
जो प्रियों में पुत्र रूप, मनुष्यों में राजा रूप, यन्त्रों में शालग्राम रूप है, उस विशिष्ट को नमस्कार करता हूँ ॥ ५५ ॥

धर्मः कल्याणबीजानां वेदानां सामवेदकः ।
धर्माणां सत्यरूपो यो विशिष्टं तं नमाम्यहम् ॥ ५६ ॥
जो कल्याणबीजों का धर्मरूप, वेदों में सामवेद, और धर्मों में सत्यरूप है, उस विशिष्ट को नमस्कार करता हूँ ॥ ५६ ॥

जले शैत्यस्वरूपो यो गन्धरूपश्च भूमिषु ।
शब्दरूपश्च गगने तं प्रणम्ये नमाम्यहम् ॥ ५७ ॥
जो जल में शीतलता रूप, पृथिवी में गन्धरूप, आकाश में शब्दरूप है, उस प्रणामयोग्य को नमस्कार करता हूँ ॥ ५७ ॥

क्रतूनां राजसूयो यो गायत्री छन्दसां च यः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथस्तं गरिष्ठं नमाम्यहम् ॥ ५८ ॥
यज्ञों में राजसूय, छन्दों में गायत्री तथा गन्धर्वो में चित्ररथ है, उस गरिष्ठ को नमस्कार करता हूँ ॥ ५८ ॥

क्षीरस्वरूपो गव्यानां पवित्राणां च पावकः ।
पुण्यदानां च यः स्तोत्रं तं नमामि शुभप्रदम् ॥ ५९ ॥
जो गव्य पदार्थों में दुग्धरूप, पवित्रों में अग्नि और पुण्यदाताओं में स्तोत्र रूप है उस शुभप्रद को नमस्कार करता हूँ ॥ ५९ ॥

तृणानां कुशरूपो यो व्याधिरूपश्च वैरिणाम् ।
गुणानां शान्तरूपो यश्चित्ररूपं नमाम्यहम् ॥ ६० ॥
जो तृणों में कुशरूप, वैरियों में व्याधिरूप और गुणों में शान्त रूप है उस चित्ररूप को नमस्कार करताहूँ ॥ ६० ॥

तेजोरूपो ज्ञानरूपः सर्वरूपश्च यो महान् ।
सर्वानिर्वचनीयं च तं नमामि स्वयं विभुम् ॥ ६१ ॥
जो तेजोरूप,ज्ञानरूप, सर्वरूप, महान और सबसे अनिर्वचनीय रूप है, उस स्वयं विभु को नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥

सर्वाधारेषु यो वायुर्यथाऽऽत्मा नित्यरूपिणाम् ।
आकाशो व्यापकानां यो व्यापकं तं नमाम्यहम् ॥ ६२ ॥
जो समस्त आधारों में वायु, नित्य रूपियों में आत्मारूप और व्यापकों में आकाश रूप है, उस व्यापक को नमस्कार करता हूँ ॥ ६२ ॥

वेदानिवर्चनीयं यं न स्तोतुं पण्डितः क्षमः ।
यदनिर्वचनोयं च को वा तत्स्तोतुमीश्वरः ॥ ६३ ॥
जिस, वेद के अनिर्वचनीय की स्तुति करने में पण्डित भी समर्थ नहीं है और जो अनिर्वचनीय है, उसकी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है ॥ ६३ ॥

वेदा न शक्ता यं स्तोतुं जडीभूता सरस्वती ।
तं च वाङ्‍त्मनसोः पारं को विद्वान्स्तोतुमीश्वरः ॥ ६४ ॥
वेद जिसकी स्तुति नहीं कर सकते हैं और सरस्वती भी (जिसकी स्तुति करने में) जड़ीभूत रहती हैं, उस वाणी-मन से परे की स्तुति करने में कौन विद्वान् समर्थ हो सकता है ॥ ६४ ॥

शुद्धतेजः स्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।
अतीव कमनीयं च श्यामरूपं नमाम्यहम् ॥ ६५ ॥
शुद्ध तेजःस्वरूप, भक्तों के अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले, अत्यन्त सुन्दर एवं श्याम रूप को नमस्कार करता हूँ ॥ ६५ ॥

द्विभुजं मुरलीवक्त्रं किशोरं सस्मितं मुदा ।
शश्वद्‌गोपाङ्‌गनाभिश्च वक्ष्यमाणं नमाम्यहम् ॥ ६६ ॥
दो भुजाएँ, मुख में मुरली, किशोररूप, मन्दहास, और निरन्तर गोपियों का वृन्द जिसे नयनकोर से देखा करता है, उसे नमस्कार करता हूँ ॥ ६६ ॥

राधया दत्तताम्बूलं भुक्तवन्तं मनोहरम् ।
रत्‍नसिंहानस्थं च तमीशं प्रणमाम्यहम् ॥ ६७ ॥
राधा के दिये हुए मनोहर ताम्बूल को खाने वाले और रत्नसिंहासन पर सुशोभित उस ईश को प्रणाम करता हूँ ॥ ६७ ॥

रत्‍नभूषणभूषाढ्यं सेवितं श्वेतचामरैः ।
पार्षदप्रवरैर्गोपकुमारैस्तं नमाम्यहम् ॥ ६८ ॥
रनों के भूषणों से भूषित, श्रेष्ठ पार्षदों और गोपकुमारों द्वारा श्वेतचामरों से सुसेवित उस देव को नमस्कार करता हूँ ॥ ६८ ॥

वृन्दावनान्तरे रम्ये रासोल्लाससमुत्सुकम् ।
रासमण्डलमध्यस्थं नमामि रसिकेश्वरम् ॥ ६९ ॥
वृन्दावन के मध्य रम्य स्थान में (सदैव) रासोल्लास के हेतु समुत्सुक रहने वाले रासमण्डल के मध्यवर्ती रसिकेश्वर को नमस्कार करता हूँ ॥ ६९ ॥

शतशृङ्‌गे महाशैले गोलोके रत्‍नपर्वते ।
विरजापुलिने रम्ये प्रणमामि विहारिणम् ॥ ७० ॥
गोलोक के सौ शिखर वाले महाशैल रत्नपर्वत पर और विरजा (नदी) के रम्य तट पर विहार करने वाले को प्रणाम करता हूँ ॥ ७०॥

परिपूर्णतमं शान्तं राधाकान्तं मनोहरम् ।
सत्यं ब्रह्मस्वरूपं च नित्यं कृष्णं नमाम्यहम् ॥ ७१ ॥
परिपूर्णतम, शान्त, राधाकान्त, मनोहर, सत्य, ब्रह्मस्वरूप कृष्ण को नित्य नमस्कार करता हूँ ॥ ७१ ॥

श्रीकृष्णस्य स्तोत्रमिदं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां स दाता भारते भवेत् ॥ ७२ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र को तीनों समय जो पाठ करता है, वह भारत में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का दाता होता है ॥ ७२ ॥

हरिदास्य हरौ भक्तिं लभेत्स्तोत्रप्रसादतः ।
इह लोके जगत्पूज्यो विष्णुतुल्यो भवेद्धृवम् ॥ ७३ ॥
इस स्तोत्र के प्रसाद से उसे भगवान् की भक्ति समेत हरिदास्य प्राप्त होता है और इस लोक में वह विष्णु के समान निश्चित रूप से जगत्पूज्य होता है ॥ ७३ ॥

सर्वसिद्धेश्वरः शान्तोऽप्यन्ते याति हरेः पदम् ।
तेजसा यशसा भाति यथा सूर्यो महीतले ॥ ७४ ॥
वह समस्त सिद्धों का अधीश्वर, शान्त और अन्त में भगवान् के लोक को जाता है । तेज और यश से वह सूर्य के समान पृथ्वी पर सुशोभित होता है ॥ ७४ ॥

जीवन्मुक्तः कृष्णभक्तः स भवेन्नात्र संशयः ।
अरोगी गुणवान्विद्वान्पुत्रवान्धनवात्सदा ॥ ७५ ॥
षडभिज्ञो दशबलो मनोयायी भवेद्ध्रुवम् ।
सर्वज्ञः सर्वदश्चैव स दाता सर्वसंपदाम् ॥ ७६ ॥
कल्पवृक्षसमः शश्वद्‌भवेत्कृष्णप्रसादतः ।
इत्येवं कथितं स्तोत्रं वत्स त्वं गच्छ पुष्करम् ॥ ७७ ॥
वह कृष्णभक्त जीवन्मुक्त होता है, इसमें संशय नहीं । नीरोग, गुणवान्, विद्वान्, पुत्रवान्, सदा धनवान्, षडभिज्ञ, दशबल और मन की भांति शीघ्रगामी होता है । सर्वज्ञाता, सर्वदानी, समस्त सम्पत्ति का दाता और भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसाद से वह निरन्तर कल्पवृक्ष के समान होता है । हे वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें स्तोत्र सुना दिया, अब तुम पुष्कर चले जाओ ॥ ७५-७७ ॥

तत्र कृत्वा मन्त्रसिद्धिं पश्चात्प्राप्स्यसि वाञ्छितम् ।
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कुरु पृथ्वीं यथासुखम् ।
ममाऽऽशिषा मुनिश्रेष्ठ श्रीकृष्णस्य प्रसादतः ॥ ७८ ॥
वहाँ मन्त्रसिद्धि करने के पश्चात् अपना अभीष्ट प्राप्त करोगे । हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे आशीर्वाद और भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसाद से सुख पूर्वन तुम पृथ्वी को इक्कीस बार निःक्षत्रिय करो ॥ ७८ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे स्तवप्रदानं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में स्तव-प्रदाननामक बत्तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३२ ॥

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